Book Title: Padmavati Purval Digambar Jain Jati ka Udbhav aur Vikas
Author(s): Ramjit Jain
Publisher: Pragatishil Padmavati Purval Digambar Jain Sangathan Panjikrut

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Page 421
________________ प्रतिमा, पवाया टीलों के उत्खनन से प्राप्त हुई हैं। पहले मणि भद्र यक्ष अपने शीश पर भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा धारण किए हुए थे। बाद में पार्श्वनाथ प्रतिमा कहीं लोप हो गई। शिलालेख के अनुसार यह मूर्ति पहली शताब्दी की सिद्ध होती है। मध्य भारत पुरातत्व विभाग के यशस्वी मूर्धन्य पुरातत्वविद् स्व. श्री एस. एम. वी. गर्दे का तप था जिन्होंने पवाया टीले का उत्खनन कार्य प्रारंभ किया। सर्वप्रथम 1905 फिर 1925 में इस टीले की खुदाई की गई जिसमें मृण्मयी मूर्तियां, शीश तथा जैन प्रतिमाएं प्राप्त हुयीं । ब्राह्मी लिपि में लिखित ईंट भी प्राप्त हुईं। जिन पर अष्ट मंगलों के चिन्ह भी उकेरे हुए थे। कुछ ईंटों पर 'नमो जिनस्' भी पढ़ा गया, ये ईंटें गूजरी महल संग्रहालय में सुरक्षित हैं। कुलदेवता मणिभद्रयक्ष की पाषाण प्रतिमा प्रथम शती ई. की है। ऐसी मान्यता है कि पवाया में जब भी कोई लोकोत्सव मनाया जाता था इस प्रतिमा की पूजा नागवंशी सम्राट अवश्य करते थे । यहां से प्राप्त टेराकोटा जो नाग सम्राटों द्वारा ईंट निर्मित मंदिरों में सजावट के लिए प्रयोग किए गये थे-इन टेराकोटा में एक सुंदर नाग की प्रतिमा भी मिली है, जिसमें श्री पार्श्वदेवस्य लिखा है। श्री एम.वी. गर्दे की रिपोर्ट 1941 के पृष्ठ 19-20 में छपी है। निःसंदेह यह बहुत बड़ी उपलब्धि है । जो संभवतः कहीं भी प्राप्त नहीं हुई है। पवाया से प्राप्त टेराकोटा की प्रदर्शनी गूजरी महल संग्रहालय में 17-5-93 से 30-6-93 तक लगाई गई। ये टेराकोटा चौथी शती ई. के हैं । पद्मावती शिक्षा का एक महान केन्द्र था। समूचे भारत तथा विदेशों से जैनधर्म, ज्योतिष, संगीत, दर्शन न्याय - धर्मशास्त्र एवं भाषा साहित्य छात्र अध्ययनार्थ आते थे। इसका बोध हमें 'मालती माधव' के उल्लेख से हो जाता है। सांस्कृतिक संस्थान और धार्मिक स्थल होने के साथ-साथ पद्मावती व्यापार का एक प्रमुख केन्द्र था। प्रमुख राजमार्ग पर स्थित महा जनपद की राजधानी होने से तत्कालीन सांस्कृतिक जीवन को नई दिशा देने में पद्मावती का अभूतपूर्व योगदान है। पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास 385

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