Book Title: Padmavati Purval Digambar Jain Jati ka Udbhav aur Vikas
Author(s): Ramjit Jain
Publisher: Pragatishil Padmavati Purval Digambar Jain Sangathan Panjikrut

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Page 446
________________ "नवीन पीढ़ी अवश्य ही मूलधारा से कटती जा रही है। दहेज और प्रदर्शन भगवान ने इस सुदृढ़ किले में भी दरार डालती है। लोग पैसों के लालच में दूसरी जातियों में विवाह करने लगे हैं। इस प्रकार सामाजिक विघटन की प्रवृत्ति इसमें भी आरम्भ हो गयी है। यह जाति स्वभाव से शान्तिप्रिय है। अधिक धनी पुरुषों में जो अनेक कुसंस्कार कदाचार, और अनेक अवगुण आ जाते हैं, उतने अभी इस जाति में नहीं आए। पद्मावती पुरवाल जैन जाति का भविष्य, यदि इसने स्वयं को नहीं सम्भाला, अपने मूल सांस्कृतिक परिवेश में ही युग के साथ-साथ चलने का कोई मार्ग नहीं खोजा और दिशाहीन नयी पीढ़ी को कोई दिशाबोध नहीं कराया, तो भविष्य में इसके विघटन को रोकने वाले कोई अवरोधकतत्त्व दृष्टिगत नहीं हो रहे। - - सच्चे साधु सच्चे साधु निरन्तर ज्ञान-ध्यान और तप में अनुरक्त रहते हैं, वही सच्चे संत हैं। आज कुछ साधु ज्ञान-साधन से विमुख या विरक्त होकर भवन निर्माण, क्रिया-कांड आदि में अधिक रुचि लेते हुए देखे जाते हैं। अपनी-अपनी लोकहित प्रधान योजनाओं की पूर्ति के लिए अहर्निशि सजग और सचेष्ट रहते हैं। आत्मचिन्तन, स्वाध्याय और ज्ञान प्रसार में रुचि या लगन का यह हास चिन्तनीय है। हमारे सभी प्राचीन आचार्य एवं साधुवृन्द अपनी विकसित ज्ञान साधना तथा कालजयी रचनाओं के कारण ही आज हजारों वर्षों के बाद भी स्मरण किए जाते हैं। किसी मन्दिर, मानस्तम्भ या भवनादि के कारण नहीं। सतत ज्ञानाभ्यास की अमिट भूख का होना ही किसी भी साधु के स्वास्थ (स्व में स्थित) होने का परिचायक है। -अन्तस् की आंखे : मुनिश्री प्रमाणसागरजी महाराज पद्यावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास 410

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