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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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श्री महावीराय नमः
पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति के संगठन को दृढ़ता, व्यापकता और विकासोन्मुख बनाने वाले प्रत्येक कार्य
के लिए बधाई और मंगलकामनायें।
संजीव जैन 4761/9, डिप्टीगंज, सदर बाजार, दिल्ली-6 टेली (91-11) 23672897, 23633237
टेलीफेक्स (91-11) 23512897 Email : ashokacompany@rediffmail.com
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धर्मानुरागी बन्धु, जय जिनेन्द्र
अतीत के दीपक को हाथ में लेकर उसके प्रकाश में की जाने वाली भविष्य की यात्रा ही सही, सुरक्षित और सार्थक होती है। आज जो वर्तमान है, वही कल अतीत (इतिहास) बनेगा । अतः वर्तमान सच लिखा जाना चाहिए।
ऐसी अवस्था में आपसे विनम्र निवेदन है कि भविष्य - दृष्टा बनकर जातीय उत्थान के लिए इस ग्रंथ को पढ़कर अपने विचारों और भविष्य के लिए अपने सुझावों से हमें अवगत करा सकें तो हमें प्रसन्नता होगी।
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पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति
का
उद्भव और विकास
लेखक रामजीत जैन एडवोकेट
सम्पादक
नरेन्द्रप्रकाश जैन
ब्रजकिशोर जैन
प्रबन्ध सम्पादक प्रताप जैन
प्रकाशक
प्रगतिशील पद्मावतीपुरवाल दि. जैन संगठन (पंजीकृत) 46, राजधानी निकुंज, 94 इन्द्रप्रस्थ एक्सटेंशन, दिल्ली-92 फोन : 22440202, 22022222
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पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
लेखक : रामजीत जैन एडवोकेट
प्रकाशक :
प्रगतिशील पद्मावतीपुरवाल दि. जैन संगठन (पंजीकृत) 46, राजधानी निकुंज, 94 इन्द्रप्रस्थ एक्सटेंशन, दिल्ली - 92 • फोन : 22440202, 22022222
प्राप्ति स्थान : रमेशचन्द जैन कागजी, अध्यक्ष
G- 172, प्रीत विहार, दिल्ली-92
फोन : 22412312, 22427614
मुद्रक :
राजीव जैन, बुकमैन प्रिन्टर्स
दिल्ली-110092. फोन : 9810367902, 30945590
प्रथम संस्करण : 2005
लोकार्पण
19 जून, 2005
हिन्दी भवन, राउज एवेन्यू, नई दिल्ली
सदुपयोग मूल्य : पचास रुपए ( 50 /- )
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प्रकाशकीय आज की हमारी नई पीढ़ी महाकवि रइधू या सन्तकवि ब्रह्मगुलाल के नाम से परिचित नहीं है, इसमें उनका क्या दोष है! अपने गौरवपूर्ण इतिहास का परिचय उन्हें सुलभ कराने का दायित्व हमारे पूर्वजों का था, जिसे वह निभा नहीं सके। जिस जाति का इतिहास संरक्षित नहीं हो पाता, वह जाति भविष्य में प्रगति की दौड़ में पिछड़ने लगती है। अपने पूर्वजों की यश गाथाओं को पढ़-सुनकर युवाओं में नया उत्साह उत्पन्न होता है तथा वे भी ऐसे कार्य करने के लिए उत्साहित होते हैं, जिनसे पूर्वजों के द्वारा छोड़ी हुई विरासत की आभा मंद न होने पाए तथा उनकी कीर्ति अक्षुण्ण बनी रहे।
इतिहास के मनीषी विद्वान श्री रामजीत जैन एडवोकेट ने प्रस्तुत कृति तैयार कर एक बड़े अभाव की पूर्ति की है। इसके लिए उनके प्रति जितनी कृतज्ञता व्यक्त की जाए, वह कम ही है। अपने समाज के ख्यातिलब्ध विद्वान प्रा. नरेन्द्रप्रकाशजी को भी हम अपने शतशः अभिवादन प्रेषित करते हैं, जिनके स्नेहपूर्ण सौजन्य से इस कृति को प्रकाशित करने का सौभाग्य हमें प्राप्त हुआ है। धन्यवाद है भाई ब्रजकिशोर जैन का, जिन्होंने इस कृति के अपेक्षित परिवर्धन में हमारी यथेष्ट सहायता की है।
इतिहास की इमारत खड़ी करना एक जटिल कार्य है। किसी एक व्यक्ति के बूते से तो बाहर की ही बात है। हमें सामग्री-संकलन में
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सर्वश्री पदमचन्द जैन, शुकलचन्द जैन (दिल्ली धर्मपुरा) का जो आत्मीय सहयोग मिला है, उसकी प्रशंसा के लिए हमें शब्द नहीं सूझ रहे हैं। इस कार्य में सर्वश्री पवन कुमार जैन एटा, राजीव जैन वसुंधरा (गाजियाबाद), श्री अजित कुमार जैन इन्द्रापुरम, हेमचन्द जैन इन्दौर, सर्वश्री रमेशचन्द जैन कागजी, सतीश जैन (गुड्डू भाई), नरेशचन्द जैन कागजी, राजेश बहादुर, सुवीर्ण कुमार, संजीव जैन स्टील वाले, अनिल जैन चित्रकार, श्री दीपक गुप्ता (सभी दिल्ली) का भी सराहनीय सहयोग मिला है।
प्रकाशन में बुकमैन प्रिन्टर्स के श्री राजीव जैन की प्रशस्त रुचि एवं तत्परता के प्रति आभार व्यक्त करता हूं। प्रूफ-संशोधन में भाई जगदीशचन्द जैन (पत्रकार, नवभारत टाइम्स) ने जो श्रम किया है, वह निःसन्देह अभिनन्दनीय है।
आभारी हूं ग्वालियर के विद्वतवर डॉ. अभय प्रकाश जैन एवं इंजी. सुरेशचन्द्र जैन का, जिन्होंने हमें पद्मावतीपुरवाल जाति के उद्गम-स्थल पवाया की यात्रा कराते हुए अनेक नए सन्दर्भो से परिचित कराया। साहित्य मनीषी सर्वश्री डॉ. राजाराम जैन, पं. शिवचरन लाल, लालबहादुर सिंह (पुरातत्व अधिकारी), महेन्द्रकुमार जैन, नीरज जी, डॉ. कपूरचन्द जैन, सुरेश जैन 'सरल' आदि का भी कृतज्ञ हूं, जिन्होंने हमारे विनम्र अनुरोध को स्वीकार कर हमें अपने विचार प्रेषित किए, उससे इस ग्रन्थ की गरिमा बढ़ी है।
और भी ऐसे अनेक नाम हैं, जिनका बहुमूल्य योगदान इस कृति को आकार देने में हमें मिला है। वे सब अपने ही हैं, स्वयं समझ लेंगे कि उनके प्रति हमारे मन में कितना आदर का भाव है।
विनीत प्रताप जैन (प्रबन्ध सम्पादक)
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लेखकीय कथन प्राचार्य श्री नरेन्द्रप्रकाशजी, फिरोजाबाद वालों से मेरा पत्राचार-परिचय तो था, साक्षात्कार नहीं हुआ था। श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन (तीर्थ संरक्षिणी) महासभा का अधिवेशन ग्वालियर में कुछ वर्ष पूर्व हुआ था। उस समय उक्त महासभा की ओर से ग्वालियर में शिक्षण शिविर का आयोजन किया गया था। पांच जगह शिक्षण शिविर लगे थे। उनमें से एक शिविर श्री दि. जैन मन्दिर, चम्पाबाग में लगा था, जहां प्राचार्य श्री नरेन्द्रप्रकाश जी आध्यात्मिक अध्यापन छहढाला का करा रहे थे। मैं उनसे मिलने गया, क्योंकि उनके प्रति मेरे मन में श्रद्धाभाव थे। शिक्षण चल रहा था। मैं उनकी क्लास में जाकर बैठ गया। जब शिक्षण समय समाप्त हुआ और प्राचार्य जी उठ कर जाने लगे तो मैंने उनके पास जाकर अपना परिचय दिया, तो प्राचार्य जी ने बड़ी प्रसन्नता के साथ गले लगा लिया और वे भाव-विभोर हो गये। इस आत्मीयता से मेरा हृदय गद्गद् हो गया। प्राचार्यजी मेरे रिश्तेदार श्री लालमणिप्रसाद 'मणि' के यहां ठहरे थे। श्री लालमणिप्रसाद जी श्री भारतवर्षीय दि. जैन (तीर्थ संरक्षिणी) महासभा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं। श्री नीरज जी सतना वाले भी आये थे और वहीं ठहरे थे। __ मैंने प्राचार्य जी एवं श्री नीरज जी को भोजन हेतु निमंत्रण दिया, जिसे सहर्ष स्वीकार किया। अस्वस्थ हो जाने के कारण नीरज जी नहीं आए। प्राचार्य जी से भोजन के उपरान्त चर्चा हो रही थी कि यकायक उन्होंने प्रश्न किया कि आपने अनेक जातियों के इतिहास लिखे हैं, कहीं पद्मावतीपुरवाल जाति की भी कोई जानकारी मिली है? चूंकि मेरे पास कई जैन जातियों के बारे में जानकारी नोट थी, फलतः एक रजिस्टर पतला-सा, जिसमें पद्मावतीपुरवाल जाति की जानकारी लिखी थी-वह मैंने उन्हें दिखाया।
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पढ़कर बोले कि आपने तो सारा इतिहास तैयार कर रखा है, अब मुझे क्या करना है, केवल इसके पॉइन्टस बढ़ाने हैं। उन्होंने तुरन्त उसकी फोटोस्टेट कराई और फिरोजाबाद ले गये। बात गई-आई हो गई। एकाध बार मैंने पत्र भी भेजा परन्तु कोई उत्तर नहीं आया, मैं भी शान्त बैठ गया। ___ कुछ समय बाद मैंने स्वयं ही लिखने का विचार किया। किताबें देखीं, अभिनन्दन ग्रन्थ देखे, जहां जो मिला, नोट किया, कुछ लोगों के पते मिले, पत्र-व्यवहार किया। इतना करने के बाद इतिहास तैयार कर लिया। विषय को अधिक न बढ़ाते हुए, इतना ही कहूंगा कि काफी समय बाद इतिहास तैयार कर लिया। एक दिन मैं फिरोजाबाद गया और श्री अनूपचन्द जैन एडवोकेट के यहां से बहुत समय पहिले कलकत्ते से प्रकाशित पद्मावतीपुरवाल जैन डायरेक्ट्री प्राप्त हुई। इतिहास तैयार हो गया। मोटे-मोटे दो रजिस्टरों में तैयार करके प्राचार्य जी को दे दिए। फिर क्या हुआ, पता नहीं चला।
न जाने किस प्रकार सूचना दिल्ली पहुंची। वहां के एक प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता श्री प्रतापचन्द जी का पत्र आया कि प्रा. नरेन्द्रप्रकाश जी के माध्यम से पद्मावती पुरवाल जाति का आपके द्वारा तैयार किया इतिहास हमें प्राप्त हुआ। अपेक्षित परिवर्द्धन एवं संशोधन के साथ हम उसे प्रकाशित करना चाहते हैं, कृपा अनुमति प्रदान करें। यह इतिहास तैयार करके आपने एक बड़े अभाव की पूर्ति की है, आपकी इस कृपा के लिए हम अनुगृहीत हैं। उनका पत्र पढ़कर हमें बहुत सन्तोष हुआ। अपनी कृति को कौन प्रकाशित हुआ नहीं देखना चाहता!
ग्वालियर में मुनिश्री 108 पुलकसागर जी महाराज के सानिध्य में विद्वत गोष्ठी 7 व 8 सितम्बर 2002 को थी। प्राचार्य श्री नरेन्द्रप्रकाश जी ग्वालियर आये। चर्चा हुई। उन्होंने भी बताया कि इतिहास दिल्ली के श्री प्रतापचन्द जी को सौंपा है, वह प्रकाशित हो रहा है। बस यही कहानी है पद्मावतीपुरवाल जाति के इतिहास के प्रकाशन की।
मेरा परिचय पद्मावतीपुरवाल समाज अथवा किसी महानुभाव से नहीं है। व्यक्तिगत परिचय केवल प्राचार्य जी से ही है। अतः इतिहास में जो
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जानकारी है, वह पुस्तकों एवं अभिनन्दन ग्रन्थों के आधार पर तथा जो कुछ मैंने व्यक्तिगत तौर पर देखा, उस आधार पर है, अतः पूर्णतः प्रामाणिक है। हां, इतना मैं मानता हूं कि इसमें अभी पूर्णता नहीं है, क्योंकि समाज के लोगों से परिचित न होने के कारण अधिक जानकारी प्राप्त नहीं कर सका। अब समाज का दायित्व है कि आगामी प्रकाशन में उसे पूरा करें। इस हेतु जानकारियां प्रकाशक को भेजें।
इसमें जिन पुस्तकों एवं अभिनन्दन ग्रन्थों का सहारा लिया गया है, उनके लेखकों, सम्पादकों एवं प्रकाशकों का आभारी हूं। जिन-जिन महानुभावों ने सहयोग दिया, उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करता हूं। चम्पाबाग दि. जैन मन्दिर लश्कर के प्रबन्धक श्री देवेन्द्रकुमार छाबड़ा का अत्यन्त आभार मानता हूं कि उन्होंने मन्दिर से कई पुस्तकें, अभिनन्दन ग्रन्थ उपलब्ध कराये। भतीजे चन्द्रप्रकाश जैन 'चन्दर', ग्वालियर का काफी सहयोग रहा। उसने मेरे साथ सोनागिर जी के पर्वतराज पर चलकर पद्मावती पुरवाल समाज के महानुभावों द्वारा कराये कार्य को बताया, नोट किया। भगवान चन्द्रप्रभु के मुख्य मन्दिर में काव्य रचना नोट कराई। मेरा नाती अभिषेक जैन मुझे श्री सम्मेदशिखर जी एवं उदयगिरि खण्डगिरि की यात्रा पर ले गया, वहां पर पद्मावतीपुरवाल जाति के जो पाटिये लगे हैं, उन्हें नोट किया।
इस इतिहास के प्रकाशन के पीछे टीस का भी मैंने अनुभव किया, जिन्होंने इसके प्रकाशन के प्रति उत्सुकता दिखाई, वे हैं श्री प्रतापचन्द जैन। मैं किन शब्दों में उनके और उनके संगठन के प्रति अपना आभार व्यक्त करूं, यह सोच नहीं पा रहा हूं। प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाशजी की प्रेरणा एवं प्रोत्साहन तो इसके पीछे है ही। उनके स्नेह और अनुग्रह के प्रति नमन।
अन्त में विद्वत्ता एवं चारित्र से सम्पन्न समस्त पद्मावतीपुरवाल जाति को मेरा वन्दन-अभिनन्दन।
__-रामजीत जैन एडवोकेट टकसाल गली, दानाओली, लश्कर, ग्वालियर-474001, फोन 320245
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प्राक्कथन
अतीत के अवलोकन का नाम इतिहास है। अतीत की छाया से वर्तमान प्रभावित होता है। यदि वर्तमान में कुछ कमियां दिखाई देती हैं तो अतीत के अनुभवों से उन्हें सुधारा जा सकता है। अतीत और वर्तमान के विहंगावलोकन से जन्म होता है अनागत की सुनहरी कल्पनाओं का। कल्पनाशीलता एक चेतन एवं जाग्रत समाज का लक्षण है। इतिहास का एक धनात्मक पक्ष (Plus Point) यह है कि उसे पढ़कर
सकारात्मक दिशा में कदम उठाए जा सकते हैं। पदमावतीपुरवाल जाति एक छोटा एवं प्रभावशाली समाज रहा है। अधिक धनाढ्य न होते हुए भी सदाचरण एवं विद्वत्ता के कारण उसकी जैन जगत में एक श्लाघ्य साख रही है। निरतिचार महाव्रतों के पालक संतों ने जहां इस समाज को एक राष्ट्रीय पहचान दी है, वहां इस समाज के उद्भट विद्वानों का विगत शताब्दी तक एकछत्र वर्चस्व रहा है। श्रावकोचित नियमों व्रतों आदि के निर्वाह में आज भी यह जाति अपने गौरव को सुरक्षित बनाए हुए है। आज पूरे विश्व में जब भौतिक सुख-सुविधाओं को जुटाने की अंधी दौड़ चल रही है, उस विषम स्थिति में भी धर्म एवं अध्यात्म के प्रति रुचि का जीवन्त बने रहना किसी भी समाज के लिए कोई कम सन्तोष की बात नहीं है।
देश के शीर्षस्थ विद्वानों के रहते हुए भी इस जाति का शृंखलाबद्ध एवं प्रामाणिक इतिहास प्रकाश में नहीं आ सका, यह अभाव मन में खटकता था। ग्वालियर के एक वयोवृद्ध अधिवक्ता श्री रामजीत जैन एक इतिहास-पारखी
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विद्वान हैं। उनके द्वारा लिखित, संग्रहीत एवं सम्पादित वरैया, गोलालारे, खरौआ, जैसवाल, बुढेलवाल, विजयवर्गीय आदि समाजों के इतिहास प्रकाशित हो चुके हैं। गोपाचल, मथुरा, सोनागिर, सिंहोनिया आदि जैन तीर्थों के विपुल वैभव पर भी उन्होंने बहुत कुछ लिखा है। जैनगजट परिवार के नियमित सदस्य के नाते हमारा उनसे परोक्ष परिचय एवं पत्राचार तो था, किन्तु साक्षात्कार प्रसंगवश आज से कुछ वर्षों पूर्व ग्वालियर में हुआ । यों ही सहज भाव से हम उनसे यह पूछ बैठे कि आपने इतिहास पर इतना शोध किया है, क्या पद्मावतीपुरवाल जाति के संदर्भ में भी कुछ उल्लेख आपके दृष्टि-पथ में आए हैं? हमें सुखद आश्चर्य हुआ उस समय, जब एक कापी अपनी अलमारी से निकालकर उन्होंने हमारे हाथ में रख दी । इतिहास पर कार्य करते समय पद्मावतीपुरवाल जाति के बारे में जिस-जिस ग्रन्थ, गजेटियर, जैन मूर्तियों आदि पर अंकित प्रशस्तियों आदि में जो भी उल्लेख मिले हैं, वे सब उस कापी में संग्रहीत थे। हमारे अनुरोध पर उन्होंने उसे व्यवस्थित किया । एक कापी के स्थान पर वह सामग्री दो मोटी कापियों तक विस्तृत हो गई। उनके श्रम को हमने प्रणाम किया ।
हमारी प्रसन्नता को पंख तो उस समय लगे, जब वर्षों की मेहनत से तैयार की गई उस सामग्री को हमारे हाथों में सौंपने में न तो उन्होंने आनाकानी की और न संकोच ही । इस मामले में सभी लेखक इतने उदार नहीं होते । सूम के धन की तरह वे प्रायः अपने श्रम को दूसरों को इतनी आसानी से नहीं सौंपते । इस संदर्भ में कुछ लेखकों के कटु अनुभवों से भी हम परिचित हैं। कुछ लोगों ने दूसरों से मांगकर उनकी रचनाएं प्राप्त तो कर लीं, किन्तु कुछ वर्षों के अन्तराल के बाद उनको अपने नाम से छपवा लिया । ऐसी घटनाओं से किसी भी श्रमजीवी लेखक का चित्त आहत तो होता ही है । उन्होंने हम पर विश्वास किया, इस अनुभूति से हमें बड़ा सुख मिला है।
अपने जाति के इतिहास-लेखन का जो आवश्यक एवं गुरुतर कार्य हमें या हमारी पीढ़ी के पुराने या नए विद्वानों में किसी विद्वान को करना चाहिए था, उसे पद्मावतीपुरवाल कुलोत्पन्न न होते हुए भी रामजीत जैन एडवोकेट ने पूरा किया, उससे इस इतिहास का महत्व बढ़ा ही है। हम या हमारे समाज
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का कोई विद्वान यह इतिहास लिखता तो कहीं-न-कहीं या किसी-न-किसी रूप में आत्म प्रशंसा की गंध पाठकों को आ सकती थी। अतिरंजना या अतिशयोक्ति का दोष भी आ सकता था। इन सब दोषों से हम बच गए, इस सौजन्य के प्रति हम वकील साहब के आभारी हैं। वैसे भी उदारचेता लोग 'अयं निजः अयं परः' की संकीर्ण भावना से ऊपर उठकर ही कार्य करते हैं ।
भाई प्रताप जैन दिल्ली समाज के सक्रिय, जागरूक एवं कर्मठ कार्यकर्त्ता के रूप में जाने जाते हैं। उनकी छवि यहां के विविध सभा-सम्मेलनों के एक सफल संचालक और सूत्रधार के रूप में बनी हुई है। सभी समाजों में उनका समादर भी है। अपनी जाति का कोई इतिहास अब तक प्रकाशित नहीं हुआ, यह टीस उनके मन में भी थी। जब हमने उनसे इस इतिहास की चर्चा की तो उनका दिल फड़क उठा और उन्होंने उसे दिल्ली के एक संगठन की ओर प्रकाशित करने का भाव व्यक्त किया। हमें या किसी को भी इस प्रस्ताव पर क्या आपत्ति हो सकती थी ! हमने पाण्डुलिपि उन्हें सौंप दी ।
भाई प्रताप जी की भावना थी कि इतिहास में कुछ भी छूट न पाए । उन्होंने हमसे, भाई ब्रजकिशोर से तथा अपने अन्य प्रबुद्ध साथियों से निरन्तर सम्पर्क बनाए रखा। जैनगजट, करुणादीप आदि पत्रों में यथेष्ट जानकारी भेजने के लिए विज्ञप्तियां प्रकाशित कीं, किन्तु इतिहास के महत्व से अनजान समाज इन पर ध्यान ही कहां देता है ! फलतः कहीं से कोई जानकारी सुलभ नहीं हो सकी। उन्हें अपने स्तर से ही सारी सामग्री जुटानी पड़ी। चूंकि इतिहास पहली बार छप रहा है, इसलिए यह दावा तो नहीं ही किया जा सकता है कि यह सम्पूर्ण है। कोशिश अवश्य ही यही रही है कि कुछ भी छूट न पाए, पर बहुत कुछ छूट गया है, यह स्वीकार करने में हमें कोई संकोच नहीं है। हम तो प्रताप जी से बराबर यही कहते रहे कि सर्वश्रेष्ठ या सर्वांगपूर्ण के चक्कर में कहीं श्रेष्ठ भी छूट न जाए। अंग्रेजी में एक कहावत भी है- 'Best is the enemy of good' । सर्वागपूर्ण बनाने की धुन में दो-तीन वर्षों का विलम्ब तो हुआ, पर अब यह छप रहा है, यह खुशी है । श्री रामजीत जी से प्राप्त पाण्डुलिपि के बाद जो नई जानकारियां जुटाई जा सकी हैं, उन्हें परिशिष्ट 2 एवं 3 में संग्रहीत कर दिया गया है। परिशिष्ट
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3 तो अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है। भाई प्रताप जी ने हमारे सुझाव पर देश के शीर्षस्थ जैन विद्वानों से पद्मावतीपुरवाल जाति के बारे में उनके पास जो भी जानकारी उपलब्ध हो, उसके आधार पर अपने विचार लिखकर भेजने का विनम्र अनुरोध किया था । उन्होंने भी उनकी पुकार को अनसुना नहीं किया । उनसे प्राप्त इन आलेखों से इस कृति का गौरव बढ़ा है। हम इन सभी विद्वज्जनों की इस आत्मीयता से कृतार्थता का अनुभव कर रहे हैं।
प्रगतिशील पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन संगठन (पंजीकृत) के महामंत्री श्री प्रताप जैन तथा अन्य सभी पदाधिकारी एवं सदस्यगण साधुवाद के पात्र हैं, जिन्होंने इस कृति का प्रकाशन कर एक बड़े दायित्व की पूर्ति की है । विशेष रूप से भाई प्रताप जैन की उत्कट लगन प्रशंसनीय एवं सराहनीय रही है । यदि वह इस दिशा में सकारात्मक पहल न करते तो अभी न जाने कितनी दशाब्दियों तक लोगों को और प्रतीक्षा करनी पड़ती।
पद्मावतीपुरवाल जाति की इस ऐतिहासिक यात्रा में जिनका अमूल्य अवदान रहा है, किन्तु जिनका उल्लेख इस कृति में नहीं हो सका है, उनसे हमारी अपील है कि वे इस कमी के लिए प्रकाशकों को दोष न दें। प्रकाशक या लेखक कोई सर्वज्ञ तो हैं नहीं, जिन्हें घर पर बैठे हुए ही सारी जानकारियां सुलभ रहती हों। इसके लिए यदि कोई दोषी है तो स्वयं उनका अपना प्रमाद ही दोषी है। अब तक अपनी जाति का कोई इतिहास प्रकाशित न हो पाने के पीछे इतिहास को सुरक्षित एवं संरक्षित रखे जाने के प्रति जाति की उदासीनता ही एक कारण है। जो भी हो, हमें उन सबका आभार मानना चाहिए, जिनके श्रेय, सौजन्य और सहयोग से पहली बार यह कृति प्रकाशित हो सकी। यदि भविष्य में कुछ अछूती और अनुपलब्ध जानकारियां हमें मिल सकीं तो इस इतिहास के दूसरे संस्करण में उन्हें अवश्य शामिल किया जाएगा, यह हम आश्वासन देते हैं । इत्यलम् ।
104, नई बस्ती
फिरोजाबाद (उ.प्र.)
दूरभाष : (05612) 246146
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-नरेन्द्रप्रकाश जैन पूर्व अध्यक्ष श्री भा. दि. जैन शास्त्रि परिषद
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प्रकाशकीय
( प्रताप जैन )
लेखक की लेखनी से ( रामजीत जैन एडवोकेट)
(नरेन्द्रप्रकाश जैन )
नीरज जैन, सतना डॉ. कपूरचन्द जैन, खतौली सुरेश जैन 'सरल', जबलपुर
प्राक्कथन
शुभकामनाएं
विषय-क्रम
चित्र ( रंगीन )
पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
परिशिष्ट 1 एक झरोखा
परिशिष्ट 2
परिशिष्ट 3
श्री प.पु. दि. जैन पंचायत दिल्ली का
विविधा
(सम्पादक मण्डल द्वारा संग्रहीत )
पद्मावतीपुरवाल समाज विद्वानों की दृष्टि में
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1-212
213-269
271-325
327-412
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पद्मावतीपुरवाल-बहुआयामी समाज .यह जानकर मुझे प्रसन्नता हुई है कि आप लोग 'पद्मावती पुरवाल जाति का इतिहास' प्रकाशित करने जा रहे हैं। मुझे विश्वास है कि आपका यह प्रकाशन जाति के गौरव की वृद्धि करने के साथ नई पीढ़ी के मन में सामाजिक चेतना के प्रति उत्साह और स्फूर्ति का संचरण करने वाला भी सिद्ध होगा।
जैन समाज सदा से एक शान्ति-प्रिय, अहिंसक, अनाग्रही, सौजन्यशाली और दानी-परोपकारी समाज के रूप में प्रसिद्ध रहा है। उसकी धार्मिक सहिष्णुता भी जग-जाहिर है। इस समुदाय की हर छोटी-बड़ी जातियों की तरह पद्मावती पुरवाल जाति का अतीत भी ऐसा गौरवशाली है, जिस पर उसे गर्व करने का अधिकार है। देश-भक्ति, समाज-सेवा, शिक्षा-प्रसार, राष्ट्रीय-चिन्तन और उदारता के क्षेत्र में पद्मावती पुरवाल समाज का योगदान, उसकी जन-संख्या के अनुपात में कभी कम नहीं रहा। अपनी समाज की इन विशेषताओं को रेखांकित करने वाला प्रामाणिक इतिहास केवल इस जाति को ही गौरवान्वित नहीं करेगा, वरन् वह पूरी जैन समाज को सत्कार्यों के प्रति प्रेरणा का स्रोत भी बनेगा।
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__ कुछ तथाकथित उदारचेता जनों की दृष्टि में इस प्रकार जातियों-उपजातियों की पहिचान को रेखांकित करना सामाजिक एकता के विपरीत और अनावश्यक कहा जाता है, परन्तु वास्तविकता ऐसी नहीं है। बाग-बगीचे की शोभा तभी है जब उसका हर पौधा अपनी विशिष्ट प्रजाति का प्रतिनिधित्व करता हो। उसकी हर बेल, हर पत्ती, हर कली और हर पुष्प अपने-अपने विशेष रूप-रस-गंध और स्पर्श से सम्पन्न हों। अपनी अलग पहिचान रखते हों यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि इस विविधता में से ही एकता का सूत्र निकलता है। विविधता के बिना एकता का कोई आधार ही नहीं हो सकता और अतीत का दीपक हाथ में लेकर, उसके प्रकाश में की गई भविष्य की यात्रा ही सही, सुरक्षित और सार्थक यात्रा होती है।
प्राचार्य श्री नरेन्द्रप्रकाश तो स्थापित ‘सम्पादकाचार्य' हैं। उनके सम्पादन में यह कृति संयोजित है तो आपका यह प्रकाशन निश्चित ही सफलता का स्पर्श करेगा। इस उपयोगी और सामयिक प्रकाशन के लिए मेरी शुभकामनाएं आपके साथ हैं। आपके इस सार्थक योजना के कार्यान्वयन के लिये हार्दिक बधाई।
-नीरज जैन
शांति सदन सतना (म.प्र.)
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मंगल कामना हमारे जैन समाज विशेषतः दि. जैन समाज में इतिहास लेखन के प्रति उदासीनता ही रही है। और तो और अभी गत 100 वर्ष में जो घटा है, उसकी प्रामाणिक जानकारी हमारे पास नहीं है। यही कारण है कि रोज नये-नये विवाद उभर कर हमारे सामने आते हैं। ध्यातव्य है कि जो आज वर्तमान है कल वही इतिहास बनेगा, अतः वर्तमान भी सत्य और प्रामाणिक लिखा जाना चाहिए।
पद्मावतीपुरवाल जैन समाज ने समाज और राष्ट्र के विकास में महती भूमिका निभाई है, यहां तक कि आजादी के आन्दोलन में भी इस समाज ने अनेक लोगों ने जेल की दारुण यातनाएं सहन की थीं। इसका क्रमबद्ध इतिहास उपलब्ध है। जिनबिम्बों की स्थापना, मन्दिरों-धर्मशालाओं का निर्माण तथा जैन साहित्य के प्रकाशन में यह समाज अग्रणी रहा है। आज भी अनेक श्रेष्ठी, समाज सेवी और विद्वान इस परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं, यहां किसी का व्यक्तिगत नाम लेना उचित नहीं होगा।
जैन समाज के लगभग सभी उपसंप्रदायों का इतिहास लिखा जा चुका है अतः इस समाज के इतिहास लेखन की भी महती आवश्यकता थी। इतिहास-विद् श्री रामजीत जैन एडवोकेट ने यह इतिहास लिखकर इस कमी को पूरा किया है। श्री प्रताप जैन (जाग्रत वीर समाज) ने प्रकाशन में निष्ठापूर्वक अपना अवदान दिया है। इस प्रकाशन के लिए हमारी कोटिशः हार्दिक मंगलकामनाएं स्वीकारें।
-डॉ. कपूरचन्द जैन
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ऐसा समुदाय : कैसा समुदाय
'पदमावतीपुरवाल' एक संयुक्त शब्द है जो परिचय देता है कि यह भारतीय दिगम्बर समाज से पृथक जाति या संप्रदाय नहीं है, बल्कि एक विशाल-समुदाय है, जो समाज का एक सुन्दर अवयव है, अंग है। सुन्दर सुसंस्कृत-अंग। एक समुदाय जो दानप्रिय है, त्यागप्रिय है, श्री जी का अभिषेक-प्रिय है, पूजन-प्रिय है। इस समुदाय ने मनगत उदात्त विचारों का अवदान तो दिया ही है, वह आचरण-प्रधान स्वस्थ-क्रियाओं का पोषक भी रहा है। मैं क्रिया-काण्ड का पोषण नहीं कह रहा हूं, ध्यान रखें।
मन-वचन की युति रूपी रथ पर आचरण की मूर्ति, सदा बैठी मिलती है, इस समुदाय में। __ मैं कभी किसी समुदाय की तुलना अन्य समुदाय से नहीं करता क्योंकि हर समुदाय की समय और स्थान पर आश्रित मान्यताएं और अपनी परम्पराएं हैं। एक समुदाय की परम्परा/प्रथा दूसरे को अच्छी लगे यह आवश्यक नहीं है। अतः कभी भी कोई व्यक्ति किसी की आलोचना, परंपरा स्तर पर न करे तो यह सकल जैन समाज के संगठन और एकता के लिए शभ गण माना जावेगा।
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पद्मावतीपुरवाल समाज से अनेक आचार्य और मुनिगण देश को उपलब्ध हुए हैं। उनमें से एक नाम सभी के अधरों पर रखा मिल जाता है, वे हैं शिखरजी में समाधिस्थ आचार्यप्रवर परम पूज्य 108 श्रीं विमलसागरजी महाराज। इसी तरह इस विशिष्ट समुदाय ने भारत देश को अनेक विद्वान दिए हैं, जिनमें से एक नाम की चर्चा अभीष्ट है, वे हैं, वर्तमान में सर्वाधिक ख्यातिलब्ध, महानतम विद्वान श्री प्राचार्य नरेन्द्र प्रकाश जैन फिरोजाबाद। इसी क्रम में अनेक साहित्यकार, संपादक, कलाकार श्रेष्ठ एवं राष्ट्रीय स्तर के नेता भी इसी समुदाय से उपलब्ध हुए हैं। नाम बहुत अधिक हैं अतः सूची देना संभव नहीं है, क्योंकि उस सूची में अनेक वकील, डॉक्टर, और अन्य अन्य उच्च अधिकारी भी समाहित हैं ।
अपने समुदाय के साथ-साथ 'दिगम्बर जैन आम्नाय' के अन्य समुदाय के मुनियों और विद्वानों को भी आदर देने वाला यह पद्मावतीपुरवाल समुदाय देश में धर्म, संस्कृति, साहित्य एवं एकता के संरक्षण में अग्रणी पाया गया है। अतः इसके समस्त वर्तमान समाजसेवी और श्रेष्ठीगण मेरी लेखनी से अभिनन्दन प्राप्त करते हैं, सराहना पाते हैं।
इस समुदाय में खराबियां (?) हैं तो मात्र इतनी कि यह दूसरों की उन्नति देख कर जलता - भुनता नहीं है। दूसरों का वैभव देखकर ईर्ष्या नहीं करता । किसी को संकट में देखकर उसकी मदद के लिए तैयार हो जाता है । राष्ट्रीय विपदाओं के समय सदा सहयोग की भावना रखता है । समृद्ध ट्रस्टों की स्थापना कर उनसे व्यक्तिगत लाभ नहीं लेता। ट्रस्टों को अपनी मर्जी से संचालित नहीं करता । अब ये खराबियां किसी को भली न लगें तो समुदाय क्या करे?
- सुरेश जैन 'सरल', 293, गढ़ाफाटक, जबलपुर
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आभार
अतीत की अमूल्य धरोहर का नाम इतिहास है। यह धरोहर वर्तमान का गौरव और भविष्य की आधार शिला होता है। अतीत का सम्मान और भविष्य को आधार देना वर्तमान की नैतिक जिम्मेदारी होती है। जो वर्तमान अपने अतीत के गौरव से अपरचित और अनिभज्ञ रहता है, वह अपना भविष्य उज्जवल और गरिमापूर्ण नहीं बना पाता । अतीत के गौरव प्रकाश में वर्तमान का चिंतन / स्वाभिमानी जीवन और उज्जवल भविष्य के लिए प्रेरित करता है। स्वाभिमानी चिंतन और आचरण से मनुष्य आत्म गौरव, धर्म गौरव, जाति गौरव और राष्ट्र गौरव की रक्षा कर सकता है। आओ अतीत के मूल्यांकन से भविष्य की ओर कदम बढ़ाएं। अस्तुः
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हमारे निस्पृही पूर्वज ( साधु-संत, विद्वान और श्रेष्ठी वर्ग) इतिहास लेखन की ओर हमेशा उदासीन रहे । इसलिए बहुत प्रामाणिक जानकारियां नहीं मिलती, पर बदले हुए संदर्भों में वह जानकारियां प्राप्त कर उन्हें एकत्रित करना हमारे जातीय गौरव के लिए महत्वपूर्ण बनती जा रही है। खुशी की बात यह है कि जैन जातियों के इतिहासवेतत्ता श्री रामजीत एडवोकेट, ग्वालियर ने प्राचार्य श्री नरेन्द्रप्रकाशजी की प्रेरणा से इस ओर पहल की है। उसी का यह परिणाम है कि पद्मावती पुरवाल जाति का इतिहास 'पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास के रूप में प्रथम बार छप रहा है। इसमें सूचनाएं आधी अधूरी लग सकती हैं, पर इस दिशा में कदम उठ जाने के बाद लक्ष्य तक पहुंचने के संकल्प के साथ यह आपके सामने प्रस्तुत है । आपके सुझाव, सम्मति और सहयोग अपेक्षित है 1
'प्रगतिशील पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन संगठन' की ओर से ग्रंथ लेखक श्री रामजीत जैन एडवोकेट ग्वालियर, सम्पादक प्राचार्य श्री नरेन्द्रप्रकाश जैन और श्री बृजकिशोर जैन के साथ-साथ प्रबंध सम्पादक भाई प्रतापजी को भी बधाई प्रेषित करता हूं । ग्रंथ लेखन से लेकर प्रकाशन और उसके लोकार्पण तक प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से सहायक सभी महानुभावों का आभार व्यक्त करता हूं।
रमेशचन्द जैन कागजी, अध्यक्ष प्रगतिशील पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन संगठन
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॥ श्री आदिनाथाय नमः ॥
तीर्थंकरों द्वारा प्रशस्त मार्ग के अनुगामी बने समस्त परम पूज्य आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठियों का सामाजिक संगठनों को धर्म-प्रभावना के लिये हमेशा आशीर्वाद प्राप्त रहा है। हम इनकी वंदना करते हैं :
आचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज
आचार्य श्री वर्धमानसागरजी महाराज
आचार्य श्री महावीरकीर्तिजी महाराज
चार्य श्री महारान
आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज
कूल में Band
आचार्य श्री विद्यानन्दजी महाराज
आचार्य श्री निर्मलसागरजी महाराज
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आचार्य श्री विकासागरजी महाराज
आचार्य श्री धर्मसामग्री महाराज
आचार्य
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उपाध्याय श्री गुप्तिसागरजी महाराज
उपाध्याय श्री ज्ञानसागरजी महाराज
उपाध्याय श्री श्रुतसागरजी महाराज
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मुनिजी उर्जयन्त सायस्की महाराज
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निजात पावतीपुस्खाल दिगम्बर जैन संगठन
संगापानी निकुंज, पटपड़गंज, दिल्ली-110092.
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लेखक एवं सम्पादक स
श्री रामजीत जैन, एडवोकेट ग्वालियर
श्री ब्रजकिशोर जैन
फीरोज़ाबाद
श्री प्रताप जैन दिल्ली
संगठन की वर्तमान कार्यकारिणी
श्री रमेशचन्द जैन कागजी
अध्यक्ष
श्री पद्मचन्द जैन चेयरमैन, संस्थापक समिति
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श्री प्रताप जैन
महामंत्री
श्री स्वराज जैन कोषाध्यक्ष
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श्री अनिल कुमार जैन
लेखा निरीक्षक
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श्री ए.पी. जैन
सदस्य
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या से शामद कुमार जैन
श्री एस. कांत जैन
सदस्य
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जैन
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पद्मावतीपुरवाल दि. जैन जाति
का
उद्भव और विकास
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पारा (पार्वती) नदी
उसर
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प्राचीन पद्मावती
सौजन्य :
(सून) नदी
पद्मावती !
धूमेश्वराचे देवालय
लिथ (सि) नदी
धबधबा
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सुबर्ण बिदु शिवालय
मधुमती (महुआर, नदी
भवभूतिकालीन पद्मावती
सौजन्य : श्री रामजीत जैन एडवोकेट
श्री यशवंत जैन U.S.A. डॉ. अभयप्रकाश जैन, ग्वालियर
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परिचयात्मक
जैन समाज में चौरासी उपजातियों के अस्तित्व का उल्लेख मिलता है । इन चौरासी जातियों में पद्मावतीपुरवाल भी एक उपजाति है, जो आगरा, मैनपुरी, इटावा, फिरोजाबाद, एटा, ग्वालियर आदि स्थानों एवं इन जिलों से संबंधित कुछ ग्रामों में रहती है। पद्मावतीपुरवाल जाति जनसंख्या की दृष्टि से कम न होने पर भी आर्थिक दृष्टि से अधिक विकसित नहीं हो पाई, पर इसमें भारतवर्षीय स्तर के अनेक ख्याति प्राप्त प्रतिष्ठित विद्वान और कुछ आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न महानुभाव भी पाये जाते हैं । वे आज भी समाज सेवा कार्य में लगे हुए हैं। इस जाति के कुछ विद्वान अपना उदय ब्राह्मणों से बतलाते हैं और अपने को देवनन्दी (पूज्यपाद) का सन्तानीय भी प्रकट करते हैं। पर यह अभी शोध का विषय है। प्रसिद्ध इतिहासकार डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल द्वारा रचित ' खंडेलवाल जैन समाज के वृहद इतिहास में पूज्यवाद (देवनन्दी) को पद्मावती पोरवाल जाति का बताया है।
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जाति और गोत्रों का अधिकांश विकास अथवा निर्माण गांव, नगर और देश आदि के नाम से हुआ है। उदाहरण के लिए सांभर के आस-पास बघेरा स्थान से बघेरवाल, पाली से पल्लीवाल, खण्डेला से खण्डेलवाल, अग्रोहा से अग्रवाल, जायस अथवा जैसा से जैसवाल और ओसा से ओसवाल जाति का विकास हुआ है तथा चन्देरी के निवासी होने से चन्देरिया, चन्द्रवाड से चांदवाड और पद्मावती नगरी से पद्मावतिया आदि
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गोत्रों एवं मूर का उदय हुआ है। इसी तरह अन्य कितनी ही जातियों के संबंध में प्राचीन लेखों, ताम्रपत्रों, सिक्कों, ग्रन्थ प्रशस्तियों और ग्रन्थों आदि पर से उनके इतिवृत्त का पता लगाया जा सकता है।
पता लगाया और जो लगा, इस आधार पर पद्मावतीपुरवाल जाति का इतिवृत्त लिखा जा रहा है, परन्तु पहले जाति निर्माण की कथा :
भगवान महावीर जाति को 'जन्मना' नहीं 'कर्मणा' की मान्यता देते थे । क्योंकि मुक्ति किसी वर्ग विशेष अथवा जाति विशेष की धरोहर नहीं । दूसरे शब्दों में महावीर ने युग-युगान्तरों से चली आ रही जाति व्यवस्था पर परोक्ष रूप से प्रहार कर अपरोक्ष रूप से मान्यता दी और भगवान आदिनाथ जाति व्यवस्था के निर्माता थे, उनके ही विचारों की पुष्टि की। फलस्वरूप ब्राह्मण दार्शनिकों से उनकी भिड़न्त नहीं हुई जो बौद्ध दार्शनिकों से हुई । यही कारण है कि जैन धर्म आज भी अपने पूर्व रूप में जीवित है जबकि हिन्दू दर्शन ने 12वीं शताब्दी तक आते-आते बौद्धमत को पूर्णतया आत्मसात कर लिया। यह ठीक है कि बौद्धमत की भांति जैन धर्म देश के बाहर अधिक लोकप्रिय तो नहीं हो सका, किन्तु इसके साहित्य, दर्शन, स्थापत्य कला, चित्रकला तथा मूर्तिकला भारत की ऐसी धरोहर है जो सदा-सर्वदा विश्व मानव का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती रहेगी।
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किसी भी प्रकार का परिवर्तन स्वीकार न करना जैनियों की खास विशेषता रही है । ईसा से तीन सौ वर्ष पूर्व भद्रबाहु के समय जैन धर्म में ( श्वेताम्बर और दिगम्बर) जो विभाजन हुआ, उसके बाद से लेकर अब तक प्रायः सभी मूल सिद्धांत अपरिवर्तित रहे और आज भी जैन धर्म के अनुयायियों का धार्मिक जीवन दो हजार वर्ष पूर्व जैसा ही है। बहुत से तूफान आये और गुजर गये लेकिन यह विशाल वट-वृक्ष अपने स्थान पर अडिग रहा ।
भगवान महावीर के निर्माण के बाद करीब 600 वर्ष तक जैन समाज
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विकासशील रहा। अपने मौलिक सिद्धान्तों का विकास और प्रसार करने के लिए उस समय जैन साधु अपना पूरा समय व्यतीत करते थे। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के रूप में साधुओं में वस्त्र धारण की प्रथा थी तथापि भगवान के आदर्श जीवन को वे नहीं भूल सके।
ईस्वी सन् की दूसरी शताब्दी में जैन समाज व्यवस्था प्रिय होने लगी। इस युग के आरम्भ में श्री कुन्दकुन्द और धरसेन आचार्य ने विशाल शास्त्रों को सूत्र बद्ध करने का कार्य आरम्भ किया। पांचवीं शताब्दी में श्वेताम्बर सम्प्रदाय ने भी अपने आगम शास्त्रबद्ध किये। इसी युग में मठ और मंदिरों का निर्माण वेग से हुआ। आचार्य परम्परायें सार्वदेशीय रूप छोड़कर स्थानिक रूप ग्रहण करने लगीं। यह काल 600 वर्ष तक चला। __नौवीं शताब्दी से जैन समाज का सम्पर्क जनसाधारण से कम होता गया। भारत के कई प्रदेशों में अब यह सिर्फ वैश्य समाज के रूप में परिणित होने लगी। मुस्लिम शासकों का प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ने लगा। इन परिस्थितियों में विकास और व्यवस्था की प्रवृत्तियां पीछे रह गयीं और आत्मसंरक्षण की प्रवृत्ति को प्रधानता मिलने लगी। युग प्रवर्तक नेता के अभाव में यह प्रवृत्ति बढ़ने लगी। फलस्वरूप साधु-संघ में भट्टारक सम्प्रदाय का उदय हुआ।
दसवीं शताब्दी जैन समाज में जातियों की स्थापना का काल माना जाता है। जातियों का निर्माण कब और कैसे हुआ इसका इतिहास गर्भ में है। यद्यपि ऐसा माना जाता है कि भगवान महावीर के काल में ही यह जाति परम्परा प्रचलित थी और धीरे-धीरे यह संख्या बढ़ने लगी। आचार्यों ने इस पर नियंत्रण करने का भरसक प्रयत्न किया। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कुल मद के समान जाति मद का निषेध किया है। मूलाचार से भी उक्त अर्थ की पुष्टि होती है। उसमें लिखा है कि जाति, कुल, शिल्प कर्म, तपकर्म और ईश्वर पूजा इनकी आजीव संज्ञा है। इसके आधार से आहार
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प्राप्त करना आजीव नाम का दोष है। इससे लगता है कि इस काल में जाति व्यवस्था प्रचलित होकर तिर्यंच योनि में हाथी, घोड़ा और गाय आदि भेदों के समान मनुष्य समाज को भी अनेक भागों में विभक्त कर दिया गया। एक-एक वर्ग के भीतर जो अनेक जातियों और उपजातियां हो गईं, वह इसी व्यवस्था का परिणाम है।
जो जैन धर्म जाति प्रथा का विरोधी था, वह भी अपने को इस दोष से नहीं बचा सका । कहने के लिए समाज में 84 जातियां प्रसिद्ध हैं, परन्तु कुछ ऐसी भी हैं जो दो हजार वर्ष पहले ही अस्तित्व में आ गई थीं। इससे यह स्पष्ट है कि जाति स्थापना की नींव दो हजार वर्ष पूर्व पड़ चुकी थी, परन्तु वर्तमान स्वरूप दसवीं शताब्दी में अस्तित्व में आया । इस युग के हिन्दू प्रभाव से जैन समाज में भी यह जाति संख्या अति नियमित और कठोर हुई। खान-पान, विवाह संबंध, व्यवसाय और ऊंच-नीच की कल्पना शास्त्र से यह बराबर कायम रखा गया, परन्तु अब इसमें बहुत कुछ ढील आ चुकी है।
साधु-पद पर प्रतिष्ठित होने के नाते भट्टारक जाति-भेद से ऊपर होते थे । फिर भी विरुदावलियों में उनकी जाति का कई बार उल्लेख हो चुका है । जाति संस्था के व्यापक प्रभाव का ही यह परिणाम है। इसी प्रकार यद्यपि भट्टारकों के शिष्य वर्ग में सम्मिलित होने के लिए किसी विशेष जाति का होना आवश्यक नहीं था तथापि बहुतायत से एक भट्टारक पीठ के साथ किसी एक ही विशिष्ट जाति का संबंध रहता था । बलात्कारगण की सूरत- शाखा से हूमड़ जाति, अटेर शाखा से लमेंचू जाति, जेरहट शाखा से परवार जाति तथा दिल्ली-जयपुर शाखा से खण्डेलवाल जाति का विशेष संबंध पाया जाता है। इसी प्रकार काष्ठा संघ के माथुरगच्छ के अधिकांश अनुयायी हूमड़ जाति के और लाड़बागड़ गच्छ के अनुयायी बघेरवाल जाति के थे ।
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अनेक जातियों में भाटों द्वारा जाति के सब घरानों का वृतान्त संग्रहीत करने की प्रथा थी। ऐसे वृतान्तों में अक्सर किसी प्राचीन आचार्य के द्वारा उस जाति की स्थापना होने की कहानी मिलती है। नन्दीतट गच्छ के प्रकरण से ज्ञात होगा कि नरसिंहपुरा जाति का स्थापना का श्रेय रामसेन को दिया जाता है तथा भट्टपुरा जाति उनके शिष्य नैमिसेन द्वारा स्थापित मानी जाती है। ऐतिहासिक काल में भी सूरत के भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति (प्रथम) को रत्नाकर जाति का संस्थापक कहा गया है। कई स्थानों पर जैनेत्तर समाजों में धर्मोपदेश देकर कई जातियों की स्थापना हुई।
प्रत्येक जाति में नियत संख्या में कुछ गोत्र थे। मूर्तिलेख में इसका उल्लेख हुआ है। बघेरवाल जाति के पच्चीस गोत्र काष्ठा संघ के और सत्ताइस गोत्र मूलसंघ के अनुयायी थे। खंडेलवाल, अग्रवाल, लमेंचू, परवार, वरैया, जैसवाल, गोलालारे, खरौआ, हुमड़ आदि जातियों में भी गोत्रों के उल्लेख मिलते हैं। श्रीमाल, ओसवाल आदि कुछ जातियां श्वेताम्बर समाज में ही हैं। किन्तु इनके भी कुछ उल्लेख दिगम्बर भट्टारकों द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियों के लेखों में मिलते हैं। गोत्रों के भेद विवाह के समय कितने गोत्रों का विचार किया जाय इस पर आधारित थे।
भगवान महावीर के निर्वाण के 470 वर्ष 5 माह व्यतीत होने पर विक्रमादित्य भारतवर्ष में उज्जैनी का राजा हुआ। अपने राज्यारोहण पर इसने जो संवत् चलाया वह विक्रम संवत व्यवहार में बराबर प्रचलित है। उस समय मानव समाज अनेक उपवंशों में बंटने लगा था। और कई उपवंशों को लेकर जातियां प्रगट होने लगी थीं। यहां तक कि भगवान महावीर के झंडे में रहने वाले जैन धर्मावलम्बी भी 84 जातियों में कोई क्षेत्रों को लेकर, तो कोई चमत्कारों से प्रभावित होकर, तो कोई यक्षादिक हिंसा से त्रस्त होकर, कहीं प्रथाओं और रीति-रिवाजों को लेकर बंट चुके थे। जैनियों की 84 जातियों के संबंध में ऐसा माना जाता है कि पद्मावती
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के एक धनी व्यापारी ने वैश्य महासभा (केन्द्रीय व्यापारिक संस्था) स्थापित करने पर विचार करने हेतु समस्त स्थानों के जैनियों को आमंत्रित किया। इस आमंत्रण पर 84 स्थानों के प्रतिनिधि उपस्थित हुए। उस समय से 84 स्थानों से आए हुए प्रतिनिधियों को प्रतिनिधि मानकर 84 जाति संख्या निर्धारित हो गई । 84 जातियों की अनेक सूचियां हैं जिनको देखने से पता चलता है कि बहुत से नाम एक दूसरे की सूची से नहीं मिलते। ऐसा भी माना जाता है कि भिन्न प्रान्तों में परिस्थितियोंक्श कुछ को जैनियों में मिलाया गया और उनकी जाति कायम कर दी गई। इस प्रकार हर प्रान्त की सूची 84 जातियों की अलग-अलग है, केवल कुछ जातियों की समानता है । इस प्रकार देश में जैन समाज में कितनी ही जातियां स्थापित हो गई ।
कुछ जातियों में ऐसी प्रथा थी कि जाति विरुद्ध कार्य करने पर या धर्म के विपरीत आचरण करने पर उस व्यक्ति को जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता था तथा कुछ दण्ड देने पर उसको शामिल भी कर लिया जाता था । परन्तु इससे एक हानि यह हुई कि बहिष्कृत लोगों को अलग समूह बनाने के अलावा कोई चारा नहीं था। इस प्रकार पांचा श्रीमाली या लाइव, चौसखे परवार, अलग समूह बनकर अलग जातियां बन गईं। कुछ जातियों में आपसी मतभेद या अन्य कारणवश उनके गोत्र अलग होकर अलग जात बन गये । गोलालारे समाज में खरौआ एक गोत्र था जो कारणवशात अलग होकर एक स्वतंत्र जैन जाति में परिणित हो गया। इसी प्रकार
चू जाति का गोत्र बुढ़ेले अलग बुढ़ेलवाल जाति बन गई ।
जातियों के निर्माण में सहायक एक कारण यह भी रहा है कि गिरती हुई संख्या में एक जाति दूसरे में शामिल हो गई। इसका उदाहरण यह है कि पहले 'अठसखा' और 'परवार' दो अलग-अलग जातियां थीं। कालान्तर में दोनों मिलकर 'अठसखा परवार' हो गई। यह बात इससे स्पष्ट है कि
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प्राचीन लेखों में 'अठसखा' नाम आता है परन्तु अब अठसखा का अगल अस्तित्व नहीं है। विक्रम सम्वत् 1906 में 'सिंहपुरा' जाति 'नरसिंहपुरा' जाति में विलीन हो गई। विजयवर्गीय जैन की जनसंख्या कम होने पर खंडेलवाल जाति ने अपने में मिला लिया। कुछ लोग जैन धर्म पालन करने लगे उनकी भी अलग जाति बनी। उदाहरणतः जब वैष्णव ब्राह्मणों ने पद्मावती पुरवालों के यहां शादी विवाह की रस्म करने से इंकार कर दिया तो, पद्मावती पुरवालों ने गौड़ ब्राह्मणों को जैन धर्म में परिणित किया और इस प्रकार गौड़ जाति बनी। इससे पता चलता है कि एक जाति दूसरी जाति में सम्मिलित हुई है।
जाति निर्माण का यह संक्षिप्त इतिहास है और इसी में निहित है पद्यावती पुरवाल समाज का इतिहास जो आगे अध्यायों में वर्णित है। अस्तु!
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चाहत है धन होय किसी विध, तो सब काज सरे जियरा जी। गेह चिनाय करूं गहना कछु, व्याहि सुता सुत बांटिय भांजी ॥ चिन्तत यों दिन जाहिं चले, जम आनि अचानक देत दगा जी । खेलत खेल खिलारि गये, रहि जाइ रूपी शतरंज की बाजी ॥
-भूघरदास
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इतिहास क्यों ?
इतिहास विषय ही ऐसा है जिस पर खोज चलती रहती है। इसके विद्वान अपनी खोजों द्वारा उसे सम्बर्धित एवं परिवर्तित करते रहते हैं तथा उन पर विचार-विमर्श करके उन्हें ग्राह्य और अग्राह्य करते हैं ।
किसी देश एवं समाज को जानने के लिए उसके इतिहास को जानना आवश्यक है। क्योंकि इतिहास उस शीशे के समान है जिसमें किसी के अतीत को झांककर देखा जा सकता है। वर्तमान को सावधान किया जा सकता है। भविष्य में सुखद जीवन-यापन के लिए परिवर्तन, परिवर्द्धन किया जा सकता है । जिस समाज या जाति का कोई इतिहास नहीं वह निष्प्राण समझा/समझी जाति है। इतिहास एक ओर बलिदान, त्याग एवं उत्सर्ग की कहानी कहता है तो दूसरी ओर वह संस्कृति, साहित्य एवं पुरातत्व का बोध भी कराता है। महापुरुषों के जीवन से प्रेरणा देने वाला इतिहास ही तो है । इसलिए इतिहास का लिपिबद्ध होना प्रत्येक देश, समाज एवं जाति के लिए उतना ही आवश्यक है जितना अस्तित्व को बनाये रखने के लिए अन्य साधनों की आवश्यकता होती है
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सामाजिक इतिहास के प्रति हम सदैव उदासीन बने रहते हैं और उसे लिपिबद्ध करने का प्रयास नहीं करते। हमारी विशाल सांस्कृतिक धरोहर है। मूर्तिलेख, शिलालेख, प्रतिष्ठित प्रतिमाएं, पट्टावलियां एवं प्रशस्तियां, विशाल जीते-जागते मंदिर, सामाजिक परम्पराएं और इनमें सबसे अधिक पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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महत्वपूर्ण है, हमारा साहित्य जिसमें हमारे सांस्कृतिक एवं सामाजिक इतिहास के पृष्ठ अंकित हैं।
प्रत्येक समाज और संस्कृति का एक पुरातन इतिहास होता है, उसकी, परम्परा होती है जिसका आंकलन करना आवश्यक होता है। विशेष रूप से उस समय जब नैतिक मानदण्ड तहस-नहस होने लगे हों, सांस्कृतिक संकट उपस्थित होने को मचल रहे हों, भीतर उथल-पुथल मची हो, मानदण्ड की परिभाषा बदलने लगी हो । पुनर्जागरण का सूत्रपात करने और सामुदायिक चेतना को जागृत करने के उद्देश्य से सांस्कृतिक परम्पराओं की समुचित जानकारी होना एक कर्तव्य भी है। यह जानकारी इतिहास के माध्यम से होती है।
"जिस प्रकार किसी व्यक्ति विशेष की मान-मर्यादा के लिए उसका पूर्व वृतान्त जानना आवश्यक है, उसी प्रकार किसी देश व समाज को वर्तमान संसार में सम्मान प्राप्त करने के लिए अपना इतिहास उपस्थित करने की आवश्यकता होती है । इतिहास साहित्य का महत्वपूर्ण अंग है, देश व जाति का जीवन रस है । जिस साहित्य में इतिहास नहीं, वह साहित्य
पूर्ण है। जो जाति अपना इतिहास नहीं जानती, उसके जीवन में चैतन्य, स्फूर्ति, स्वाभिमान और आशा का अभाव सा रहेगा। जब तक हम अपनी सभ्यता और शिष्टता के विकास-क्रम से अनभिज्ञ हैं, तब तक हम उसके वास्तविक उन्नति नहीं कर सकते। इसलिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि अपने साहित्य में इतिहास के अंग को खूब पुष्ट करें और तत्संबंधी त्रुटियों और प्रचलित भ्रमात्मक धारणाओं को दूर करने की ओर सदैव ध्यान देते रहें। (डा. हीरालाल जैन)
व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज, समाज से देश अथवा राष्ट्र का निर्माण होता है। देश या राष्ट्र के निर्माण में समाज के लोग ही उसका मुख्य आधार स्तम्भ होते हैं । इस दृष्टि से किसी राष्ट्र के इतिहास के पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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निर्माण में उस देश की सामाजिक परिस्थितियां महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं।
इस देश का यह दुर्भाग्य रहा कि इतिहासकारों ने देश के केन्द्रीय इतिहास लिखने में पूर्ण ध्यान लगाया, फलस्वरूप समाज व क्षेत्रीय इतिहास की उपेक्षा होती चली गई। आज यह स्थिति है कि हमारे पास हमारा केन्द्रीय इतिहास तो है पर उसका आधार क्षेत्रीय इतिहास न के बराबर है। दूसरे शब्दों में यदि यह कहें कि हमारे इतिहास का आधार या रीढ़ की हड्डी ही नहीं है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।
इतिहास भूतकाल को वर्तमान में प्रतिष्ठित करता है, उसके पास वर्तमान को देने के लिए वह अटूट भण्डार होता है जिसकी वर्तमान को आवश्यकता होती है। जो भी इतिहास के दर्पण को सामने रखकर जिया, उसका निश्चित ही इतिहास बना है। 'बिन जाने ते दोष गुणनि को कैसे तजिए गहिए।' मानव जीवन के उत्तरोत्तर निर्माण की दिशा एकमात्र इतिहास ही है।
पृथक-पृथक अस्तित्व में रहने वाली विभिन्न जातियों ने भारतवर्ष की सभ्यता और संस्कृति के किसी न किसी ऐसे महत्व को स्थापित किया है अथवा इनकी ऐसी महत्वपूर्ण भूमिका रही है, जिसको नजरअंदाज नहीं कर देने से भारतवर्ष की विशाल सांस्कृतिक परम्परा का सम्पूर्ण परिसरन और आकलन नहीं हो सकता। इसलिए जातीय इतिहास की परम आवश्यकता है।
जैन समाज की विभिन्न जाति उपजातियों के इतिहास पर प्रकाश डालना आज इसलिए भी आवश्यक हो गया है कि उससे न केवल जैनों के अपितु देश के प्राचीन इतिहास पर भी प्रकाश पड़ेगा। जातियों के इतिहास सामने आ जाने पर उनमें रोटी-बेटी के पारस्परिक व्यवहार को प्रोत्साहन मिलेगा। आज जो विवाह के लिए एक ही जाति में सीमित रह गया है वह विभिन्न जैन जातियों में विवाह आदि होने पर विस्तृत क्षेत्र बन पद्यावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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जायेगा। (स्व. अक्षयकुमार जैन, सम्पादक 'नवभारत टाइम्स').
अन्त में स्व. डा. श्री हरिहर निवास द्विवेदी के शब्दों को दुहराकर विषय को विराम दूंगा :
"भारतीय इतिहास को लिखते समय जैन इतिहास को अगर ध्यान में रखा गया होता तो हम एक गलत इतिहास को नहीं पढ़ते। परन्तु अब समय काफी गुजर गया और वह इतिहास अब हमारे हृदय पटल पर इतना पैठ गया है कि उसे हटाने में अब काफी समय लगेगा।
इससे इतिहास की महत्ता पर प्रकाश तो पड़ता ही है, साथ ही इतिहास न लिखना कितना खतरनाक हो सकता है यह स्पष्ट है। पद्मावती पुरवाल समाज का इतिहास इसी भावना के साथ लिखा जा रहा है।
एक चरन हूं नित पढ़े, तो काटै अज्ञान। पनिहारी की लेज सों, सुखदा शीतल छाय ॥ सेवत फल भासे न तौ, छाया तो रह जाय। पर उपदेश करन निपुन, ते तौर लखै अनेक ॥ पर उपदेश करन निपुन, ते तो लखै अनेक। करै समिक बोले समिक, ते हजार में एक ॥ विपताको धन राखिये, धन दीजे राखि दार। आतम हितको छोड़िए, धन, दारा परिवार ।
-भूधरदास
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पद्मावती
पद्मावती पुरवाल समाज की उद्गम स्थान पद्मावती नगरी है, वहीं यह नगरी जैन समाज की 84 जातियों का उद्गम स्थल भी है। इसका उल्लेख परिचयात्मक अध्याय में किया जा चुका है। ईसा पूर्व 478 के लगभग श्रेणिक मगध के सिंहासन पर बैठा। यह बड़ा प्रतापी नरेश था । जैन साहित्य से पता चलता है कि उसके राज्य में किसी प्रकार की अनीति नहीं
और न किसी प्रकार का भय था । उसका ध्यान समृद्धि की ओर रहता था । विभिन्न व्यवसायों, व्यापारों एवं उद्योगों का उसके आश्रय संरक्षण होने से श्रेणियों एवं नियमों में संगठन हुआ। इसी कारण उसका नाम श्रेणिक पड़ा । सर्व प्रकार की आंतरिक स्वतंत्रता से युक्त इन जनतंत्रात्मक संस्थाओं द्वारा उसने साम्राज्य के उद्योग-धन्धों, व्यवसाय और व्यापारिक श्रेणियों को भारी प्रोत्साहन दिया। ये व्यापारिक श्रेणियां ही आगे चलकर वर्तमान जातियों के रूप में धीरे-धीरे परिणित हो गईं।
कहा जाता है कि इन्हें व्यापारिक श्रेणियों को केन्द्रीय सभा बनाने के लिए पद्मावती नगरी में सभा बुलाई गई जहां चौरासी नगर के जैन प्रतिनिधि आने से 84 जातियों का निर्माण हुआ। इसका श्रेय पद्मावती नगरी को ही जाता है 1
पद्मावती नगरी, पद्मावती समाज और पद्मावती देवी के त्रिभुज में सन्निहित है हमारा पद्मावती जाति का इतिहास । तो आइये ! प्रथमतः प्राप्त करें जानकारी पद्मावती नगरी की ।
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'अपभ्रंश भाषा के महाकवि रइधू ने अपने ‘सम्मइ जिन चरिउ' ग्रंथ में इस नगरी पद्मावती को 'पोमावइ शब्द से संबोधित किया है। यह नगरी पूर्व समय में खूब समृद्ध थी। इसकी समृद्धि का उल्लेख खजुराहो के वि. स. 1052 के शिलालेख में पाया जाता है। उसमें बतलाया गया है कि यह नगरी ऊंचे-ऊंचे गगनचुम्बी भवनों एवं मकानों से सुशोभित थी। उसके राजमार्गों में बड़े-बड़े तेज तुरंग दौड़ते थे और उसकी चमकती हुई स्वच्छ एवं शुभ्र दीवारें आकाश से बातें करती थींसोधुत्तुंगपतङ्गलङ्कन पथप्रोत्तुंगमालाकुला। शुभ्राम्रकषपाण्डुरोच्चशिखर प्राकारचित्रा (म्ब) रा प्रालेयाचल शृङ्गसन्नि (नि) भशुभ प्रासादसयावती भव्यापूर्वमभूदपूर्वरचना या नाम पद्मावती॥ त्वंगुत्तुंग मोदगमक्षु (खु) रक्षोदाद्रजः प्रो (द) त, यस्यांजीन (ण) कठोर बभु (स्त्र) मकरो कूर्मोदरामं नमः। मत्तानेक करालकुम्मि करह प्रोत्कृष्ट वृष्ट्या (द्भु) वं। तं कर्दम मुद्रिया क्षितितलं ता ब्रू (ब्र) त किं संस्तुमः॥
-Enigraphica V.I.P 149 इस सम्मुलेख से सहज ही पद्मावती नगरी की विशालता का अनुमान कर सकते हैं और यह सहज एवं स्वाभाविक है। पूर्व समय में रेलपथ एवं सड़क पथ के विस्तृत साधन नहीं थे। अतः सारा यातायात, व्यापार एवं व्यापारिक सामान भेजने का एकमात्र साधन केवल नदियां ही थीं। पद्मावती नगरी के मानचित्र से यह विदित होगा कि इस नगरी के चारों
ओर नदियां ही हैं। इसलिए पूर्व में यह समृद्धिशाली नगरी रही होगी इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
जम्बू द्वीप सुप्रसिद्ध तथा सुन्दर द्वीप है। उसमें हमारा भारत देश-पवित्र देश है। उसके छह खण्ड । उसमें एक आर्य खण्ड । इस आर्य खण्ड में
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विदेह नामक एक देश है। इसके पूर्व विदेह की रम्यक क्षेत्र की मुख्य नगरी पद्मावती है। वर्तमान में सिंध और पार्वती के संगम पर स्थित पवाया नामक एक छोटा सा ग्राम जो साहित्यिक और पुरातत्वीय सामग्री के आधार पर प्राचीन पद्मावती नगरी मानी जाती है। उपरोक्त शिलालेख में उल्लेख है कि इसकी स्थापना त्रेता युगों के बीच कभी पद्म राजवंश के राजा ने की थी।
भगवान पार्श्वनाथ का विहार पद्मावती नगरी में हुआ था। भगवान पार्श्वनाथ ने अनेक भागों में विहार करके अहिंसा का जो समर्थ प्रचार किया, उससे अनेक आर्य, अनार्य जातियां उनके धर्म में दीक्षित हुईं। नाग, द्रविड़ आदि जातियों में उनकी मान्यता असंदिग्ध थी। वेदों और स्मृतियों में इन जातियों का वेद विरोध व्रात्य के रूप में उल्लेख मिलता है।
वस्तुतः व्रात्य श्रमण संस्कृति की जैन धारा के अनुयायी थे। इन व्रात्यों में नाग जाति अधिक शक्तिशाली थी। तक्षशिला, उद्यानपुरी, अहिछत्र, मथुरा, पद्मावती, कान्तिपुरी, नागपुर आदि इस जाति के प्रसिद्ध केन्द्र थे। पार्श्वनाथ इन नाग जाति के केन्द्रों में कई बार पधारे थे।
सर्व साधारण के समान राज्य वर्ग पर भी भगवान पार्श्वनाथ का व्यापक प्रभाव था। उस समय जितने व्रात्य क्षत्रिय राजा थे वे पार्श्वनाथ के उपासक थे।
पद्मावती नगरी का उल्लेख विष्णु पुराण में भी मिलता है। जिसमें नागों की तीन राजधानियों में से एक बतलाया है। अन्य राजधानियों में कांतिपुरी और मथुरा थी। इसकी पुष्टि वायु पराण से भी होती है। जिसमें दो राजवंशों का उल्लेख है, एक पद्मावती के और दूसरे मथुरा के। इन दोनों राजवंशों में क्रमशः 9 और 7 राजा हुए।
पनाया में प्राप्त पुरालेख से इस बात की पुष्टि होती है कि ईसा की - प्रथम शताब्दी के प्रारम्भ में यहां नागों का राज्य था। पद्मावती नगरी के पावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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नाग राजाओं के सिक्के भी मालवा में कई जगह मिले हैं।" नागवंश का अंत ईसा की चौथी शताब्दी के लगभग मध्य में हुआ। जबकि इनका राज्य गुप्त साम्राज्य में मिला लिया गया।
पद्मावती का उल्लेख वाण के 'हर्षचरित' में है । सुविख्यात नाटककार भवभूति के 'मालती माधव' में भी इसका विस्तृत उल्लेख है। जिसमें नगर की भौगोलिक स्थिति का बड़ा विशद वर्णन किया गया है। यहां एक विश्वविद्यालय भी था जहां विदर्भ और सुदूरवर्ती प्रान्तों के विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे । ग्यारहवीं शताब्दी में रचित 'सरस्वती कंठाभरण' में भी पद्मावती का वर्णन है। पौराणिक काल में पद्मावती नाम का एक जनपद था, जिसका प्रधान केन्द्र 'पद्मनगर' था ।
मध्यकाल में यह 40 कि.मी. पश्चिम की ओर स्थित नरवर के शासक विभिन्न राजपूत तथा मुसलमान राजाओं के अधिकार में रही। सन् 1506 में सिकन्दर लोदी ने नरवर पर फतह हासिल की और उसने पवाया को जिले का मुख्यालय बनाया। कहा जाता है कि सफदर खां ने, जो कदाचित पहला प्रशासक था, परमारों द्वारा बनवाये किले में सुधार किया और उसका नाम अस्कन्दराबाद रखा जैसा कि फारसी के अभिलेख में उल्लेख है। मुगल सम्राट जहांगीर ने इसे ओरछा के वीरसिंहदेव को उसकी स्वामिभक्ति के एवज में दिया। बुन्देला सरदार ने शिव का दुमंजिला मंदिर
बनवाया ।
पुराने स्थल पर सन् 1925, 1934, 1940 और 1941 में चार बार उत्खनन कार्य किये गये। खुदाई में ईस्वी सन् की पहली शताब्दी से लेकर आठवीं शताब्दी तक की अनेक पुरातत्व सामग्री मिली है। इनमें से मणिभद्र यक्ष की पूर्ण मानवाकार मूर्ति जिस पर लगभग ईस्वी सन् की पहली शताब्दी के ब्राह्मी लेख उत्कीर्ण है । खण्डहरों से उपलब्ध अनेक सिक्कों को एकत्र करके ग्वालियर के संग्रहालय में सुरक्षित रख दिया गया है।
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परन्तु खेद है कि आज यह नगरी वहां अपने रूप में नहीं है । किन्तु ग्वालियर राज्य में उसके स्थान पर 'पवाया' नामक छोटा-सा गांव बसा हुआ है। अब यह मध्यप्रदेश प्रान्त के ग्वालियर जिले का एक गांव है | देहली से बम्बई जाने वाली सैन्ट्रल रेलवे लाइन पर डबरा नामक स्टेशन से कुछ दूर पर स्थित है। ग्वालियर से 63 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में स्थित है ।
तो यह है पद्मावती नगरी का इतिहास । यह पद्मावती नगरी ही पद्मावतीपुरवाल जाति के निकास का स्थान है । इस दृष्टि से वर्तमान 'पवाया ग्राम' पद्मावतीपुरवालों के लिए विशेष महत्व की वस्तु हैं भले ही आज वहां पर पद्मावतीपुरवालों का निवास न हो किन्तु उसके आस-पास आज भी पद्मावतीपुरवालों का निवास पाया जाता है। ग्वालियर में ही वर्तमान में 30 घर इस समाज के निवास करते हैं ।
पद्मावतीपुरवाल समाज -
त्रिभुज की दूसरी रेखा है पद्मावतीपुरवाल समाज । अतः साहित्य एवं विद्वानों की राय में पद्मावतीपुरवाल
1. श्री महेन्द्र कुमार जैन बी. ए. आगरा ने सुनहरीलाल अभिनन्दन ग्रन्थ में लिखा है कि पद्मावतीपुरवाल जाति विश्व में अपनी कुछ विशेषताओं को समेटे हुए है। कहा जाता है कि यह वर्तमान की चौरासी जातियों में सम्मिलित नहीं है। पद्मावतीपुरवाल जाति एक स्वतंत्र जाति प्रतीत होती है ।
यहां पर हम थोड़ा स्पष्टीकरण करना चाहेंगे। प्रथम तो स्वतंत्र जाति से क्या तात्पर्य है स्पष्ट नहीं है क्योंकि प्रत्येक जाति का अपना स्वतंत्र अस्तित्व होता है। दूसरे 84 जातियों की संख्या वर्तमान में लगभग 237 है । क्योंकि प्रत्येक प्रान्त की अलग अलग 84 जातियों की सूची है। उनमें कुछ नामों की ही समानता है। जहां तक 84 जातियों की सूची में पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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सम्मिलित होने का प्रश्न है तो कवि विनोदीलाल ने जयमाला में 24 जातियों का उल्लेख किया है उसमें पद्मावती पुरवाल जाति का नाम है। इसके अलावा संवत् 1852 की एक पाण्डुलिपि, बखतराम शाह द्वारा वर्णित बुद्धि विलास पं. लक्ष्मीचन्द जी ने लक्ष्मी विलास में भी 84 जातियों का उललेख है उनमें भी पद्मावती पुरवाल नाम है।
2. साहित्य में पद्मावती पुरवाल जैन जाति के उत्पत्ति के संबंध में कुछ प्रकाश 'ब्रह्मगुलाल चरित्र' (17वीं शताब्दी) से मिलता है। उसके अनुसार इस जाति का सोमवंश और सिंह तथा धार दो गोत्र थे। इन्होंने क्षत्रिय वृत्ति त्यागकर वणिक वृत्ति अपनाई और धन-धान्य से परिपूर्ण हो गये। ___3. श्रद्धेय पं. नाथूराम प्रेमी ने ‘परवार जाति के इतिहास पर प्रकाश' नाम से अपने लेख में परवारों के साथ पद्मावती पुरवालों का संबंध जोड़ने का प्रयत्न किया है। और पं. बस्तराम के 'बुद्धि विलास' के अनुसार सातवां भेद भी प्रगट किया है। तथा पं. फूलचंद सिद्धान्त शास्त्री ने अपने 'परवार जाति के इतिहास' में इसकी पुष्टि की है।
परन्तु पं. परमानन्द शास्त्री इससे सहमत नहीं हैं। उन्होंने लिखा है कि हो सकता है कि इस जाति का संबंध परवारों के साथ रहा भी हो, किन्तु पद्मावती पुरवालों का निकास परवारों के सत्तममूर पद्मावतिया से हुआ हो, यह कल्पना ठीक नहीं जान पड़ती है और न किसी प्राचीन प्रमाण से उसका कोई समर्थन ही होता है। और न सभी 'पुरवाड वंश' परवार ही कहे जा सकते हैं। क्योंकि पद्मावती पुरवालों का निकास पद्मावती नगरी के नाम पर हुआ है, परवारों के ‘सपृममूर' से नहीं। आज भी जो लोग कलकत्ता और देहली आदि दूर शहरों में चले जाते हैं उन्हें कलकतिया या कलकत्ते वाला, देहलवी या दिल्लीवाला कहा जाता है। ठीक उसी तरह परवारों के सत्तम मूर पद्मावतिया की स्थिति है। 4. ललितपुर के बड़े मंदिर के शास्त्रागार में कविताबद्ध चारुदत्त चरित
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की हस्तलिखित एक प्रति पाई गयी। उसकी रचना कवि भानामल गोलालारे और कवि विश्वनाथ पद्मावती पुरवार इन दोनों ने मिलकर की थी। अपनी प्रशस्ति में कवि भाणमल जी लिखते हैं
नगर जहांनाबाद रहाई। पद्मावति पुरवार कहाई।
विश्वनाथ संगति शुभ पाय । तब यह कीनी चरित बनाई।। 5. अनेकान्त जून 1969 पृष्ठ 58 पर पं. परमानन्द शास्त्री ने 'जैन समाज की कुछ उपजातियां' शीर्षक लेख में लिखा है__पद्मावती पुरवाल सभी दिगम्बर जैन आम्नाय के पोषक हैं और बीसपंथ के प्रबल समर्थक हैं, प्रचारक हैं। पद्मावती पुरवाल ब्राह्मण भी पाये जाते हैं। यह अपने को ब्राह्मणों से संबद्ध मानते है। इस जाति के विद्वानों में ब्राह्मणों जैसी प्रवृत्ति पाई जाती है।
इन्हीं पं. परमानन्द शास्त्री ने 'जैनधर्म का प्राचीन इतिहास' भाग-2 पृष्ठ 458 पर लिखा है__ चौरासी जातियों में पद्मावती पुरवाल भी एक उपजाति है जो आगरा, मैनपुरी, एटा, ग्वालियर आदि स्थानों में रहती है। इनकी संख्या भी कई हजार पाई जाती है। यद्यपि इस जाति के कुछ विद्वान अपना उदय ब्राह्मणों से बतलाते हैं, परन्तु इतिहास से उनकी यह कल्पना कल्पित जान पड़ती है। इसके दो कारण हैं-एक तो यह कि उपजातियों का इतिवृत्त अभी अंधकार में है। जो कुछ प्रकाश में आया है उसके आधार से उसका अस्तित्व विक्रम की दशवीं शताब्दी से पूर्व का ज्ञात नहीं होता। हो सकता है कि वे उसके पूर्ववर्ती रही हों, परन्तु बिना किसी प्रामाणिक आधार के इस संबंध में कुछ नहीं कहा जा सकता।
पट्टावली द्वारा दूसरा कारण भी प्रामाणिक प्रतीत नहीं होता। क्योंकि पट्टावली में आचार्य पूज्यपाद (देवनन्दी) को पद्मावती पुरवाल होना प्रमाणित नहीं होता, कारण कि देवनन्दी ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। पद्यावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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पद्मावती नगरी ही पद्मावती जाति के निकास का स्थान है। इसलिए इस दृष्टि से पवाया ग्राम पद्मावती पुरवालों के लिए विशेष महत्व की वस्तु है ।
6. तीर्थंकर महावीर स्मृति ग्रन्थ प्रकाशक जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर में प्रकाशित लेख 'गोपादौ देवपत्तने' के लेखक श्री हरिहरनिवास द्विवेदी लिखते हैं
पद्मावती पुरवाल अपना उद्गम ब्राह्मणों को बतलाते हैं। जैन जाति के आधुनिक विवेचकों को पद्मावती पुरवाल उपजाति के ब्राह्मण प्रसूत होने घोर आपत्ति है । परन्तु इतिहास पद्मावती पुरवालों में प्रचलित अनुश्रुति का समर्थन करता है ।
पद्मावती देवी
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त्रिभुज में रेखांकित तीसरी रेखा पद्मावती देवी की है। अतः इस पर थोड़ा प्रकाश डाला जाता है
पद्मावती पुरवाल समाज के कतिपय जिनालयों में पद्मावती देवी की प्रतिमा एक आलेनुमा वेदी में विराजमान है जिसका नित्यप्रति शृंगार होता है। जैनधर्म में यह एक महत्वपूर्ण घटना प्रसिद्ध है। भगवान पार्श्वनाथ दीक्षा के चार माह बाद दीक्षा वन में जाकर देवदारु वृक्ष के नीचे विराजमान हुए। वे सात दिन का योग लेकर ध्यानमग्न हो गये। तभी सम्बरदेव अपने विमान द्वारा आकाश मार्ग से जा रहा था । अकस्मात उसका विमान रुक गया। देव ने अपने विभंगावधि ज्ञान से देखा तो उसे अपने पूर्वभव का वैर स्मरण हो आया। वह क्रोध में फुंकारने लगा। उसने भीषण गर्जन - तर्जन करके प्रलयंकर वर्षा करना प्रारम्भ कर दिया। फिर उसने प्रचण्ड गर्जन करता हुआ पवन प्रवाहित किया। पवन इतना प्रबल वेग से बहने लगा, जिसमें वृक्ष, नगर, पर्वत तक उड़ गये। जब इतने पर भी पार्श्वनाथ ध्यान से विचलित नहीं हुए, तब वह अधिक क्रोधित हुआ और क्रोधित होकर नाना प्रकार के शस्त्रास्त्र चलाने लगा। वे शस्त्र तप के
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प्रभाव से तीर्थंकर के शरीर पर पुष्प बनकर गिरते थे। जब घातक शस्त्र भी निष्फल हुए, तब सम्बर ने माया से अप्सराओं का समूह उत्पन्न किया। कोई गीत द्वारा रस संचार करने लगी, कोई नृत्य द्वारा वातावरण में मादकता उत्पन्न करने लगी । अन्य अप्सरायें नाना प्रकार के हाव-भाव और चेष्टायें करने लगीं । किन्तु आत्मध्यानी वीतराग पार्श्व जिनेन्द्र अन्तर्विहार में मग्न थे, उन्हें बाह्य का पता ही न था । किन्तु देव भी हार मानने वाला नहीं था । उसके भयानक रौद्रमुखी हिंसक, पशुओं द्वारा उपसर्ग किया, कभी भयंकर भूत-प्रेतों की सेना द्वारा उत्पात किया, कभी उसने उपल वर्षा की। उसने पार्श्वनाथ पर अचिन्त्य, अकल्प्य, उपद्रव किये, सारी शक्ति लगा दी उन्हें पीड़ा देकर ध्यान से विचलित करने की किन्तु वह धीर-वीर महायोगी अविचल रहा । वह तो बाह्य से एकदम निर्लिप्त, शरीर से निर्मोह होकर आत्मरस में विहार कर रहा था ।
इस प्रकार उस सावरदेव ने सात दिन तक पार्श्वनाथ के ऊपर घोर उपसर्ग किये। यहां तक कि उसने छोटे-मोटे पर्वत तक लाकर उनके समीप गिराये ।
अवधि ज्ञान से यह उपसर्ग जानकर नागेन्द्र धरणेन्द्र अपनी इन्द्राणी के साथ वहां आया। वह फण रूपी मण्डप से सुशोभित था । धरणेन्द्र ने भगवान को चारों ओर से घेर कर अपने फणों के ऊपर उठा लिया । पद्मावती देवी भगवान के ऊपर वज्रमान छत्र तानकर खड़ी हो गई ।
यहां पाठकों का ध्यान इस बात की ओर आकर्षित करना आवश्यक समझते हैं कि जब भगवान पार्श्वनाथ पर धरण ( धरणेन्द्र) नामक नाग ने अपने विशाल फणमण्डल को उन पर तान कर उनकी रक्षा की। उसमें पद्मावती का नाम नहीं है। आचार्य समन्तभद्र ने अपने वृहत्सवयम्भू स्तोत्र में भगवान पार्श्वनाथ के स्तवन में इस घटना का चित्रण करते हुए लिखा है
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वृहत्फणामण्डलमण्डपेन यं स्फुरत्तडिपिङ्ग रुघोपसमिणः। नुगृह नागो धरणो धराधरं विराग सध्या तडिदम्बुदो पया। अतः पद्मावती के द्वारा भगवान पार्श्वनाथ को अपने मस्तक पर बैठाये हुए जो मूर्ति देखी जाती है वे सब पश्चात्कालीन हैं। उनका वास्तविक घटना से कोई संबंध नहीं है। दक्षिण में हुम्मच पद्मावती क्षेत्र में एक विशाल शिलापट्ट है जिसमें भगवान पार्श्वनाथ पर धरणेन्द्र छत्र ताने खड़ा हैं वह चित्रांकन ही यथार्थ है। देवी, देवताओं की भक्ति के युग में वीतरागता के उपासक जैन धर्म में भी यह देवी पूजा प्रवर्तित करने के लिए इस तरह की कथायें भट्टारक युग में रची गईं जिनके फलस्वरूप भगवान पार्श्वनाथ को उनके रक्षक धरणेन्द्र को भुलाकर लोग पद्मावती के भक्त बन गये।
पासणह चरिउ (पदमकीर्तिकृत) के अनुसार-“धरणेन्द्र ने आकर जिनवर की प्रदक्षिणा की, दोनों पादपङ्कजों में प्रणाम किया तथा वन्दना की। फिर उसने जिनेन्द्रदेव को जल से उठाया। उसने जिनवर के दोनों चरणों को प्रसन्नता से अपनी गोदी में रखा तथा तीर्थंकर के मस्तक के ऊपर अपना विशाल फणमण्डप फैलाया। वह नाग सात फेणों से समन्वित था।
इन्द्रों ने आकर केवलज्ञान की पूजा की। सम्बर नामक ज्योतिष्ठ देव भी काललब्धि पाकर शान्त हो गया और उसने सम्यग्दर्शन संबंधी विशुद्धता प्राप्त की।
इस घटना से जैन समाज में पद्मावती देवी के प्रति श्रद्धा हो गई। परिणामतः कतिपय लोगों ने पद्मावती देवी की प्रतिमा भी मन-मंदिर के बजाय कहीं-कहीं मन्दिरों में स्थापित की है। उनमें पद्मावतीपुरवाल जैन समाज के कतिपय लोग भी हैं।
दूसरा तथ्य यह भी है कि पद्मावती नगरी नाग साम्राज्य की राजधानी 23
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रही है। भगवान पार्श्वनाथ भी उरग वंश में उत्पन्न हुए थे जो नागवंशी की ही एक शाखा रही। पार्श्वप्रभु का प्रभाव नागवंशी राजाओं पर रहा। उनका विहार भी यहां कई बार हुआ और नागेन्द्र धरणेन्द्र और उनकी इन्द्राणी पद्यावती ने पार्श्व प्रभु की उपसर्ग के समय सहायता की।
अतएव नाम साम्य, ग्राम नाम साम्य और श्रद्धा साम्य के कारण भी श्रद्धा का भाव होने से पद्मावती देवी की मान्यता रही है।
पद्मावती नगरी की अनेकता-यों तो अजमेर के निकट पुष्कर सरोवर के पास भी एक पद्मावती नगर था। मथुरा के निकट भी इस नाम के नगर का उल्लेख ग्रन्थों में है।
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निशदिन श्रीजिन मोहि अधार ॥टेक॥ जिनके चरन-कमल के सेवत, संकट कटत अपार ॥निशदिन.॥ जिनके बचन सुरारस-गर्भित, मेटत कुमति विकार ॥निशदिन.॥ भव आताप बुझावतको है, महामेघ जलधार निशदिन.॥ जिनको भगति सहित नित सुरपत, पूजत अष्ट प्रकार निशदिन.॥ जिनको विरद नेदविद वरनत, दारुण दुख-हरतार ॥निशदिन.॥ भविक वृन्द की विथा, अपनी ओर निहार निशदिन.॥
-वृंदावन
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गाथा पद्मावतीपुरवाल जाति के उद्भव की
जैसा कि लिखा जा चुका है कि पद्मावती पुरवाल जाति का निकास पद्मावती नगरी से है परन्तु इसके उद्भव संबंधी अनेक किंवदन्तियां और भी हैं एवं विद्वानों के विचार हैं, उनको यहां दिया जा रहा है
1. ऋषभ देव के दो पुत्र भरत और बाहुबली के द्वारा इक्ष्वाकु के दो वंश कालान्तर में और किये गये, जिन्हें क्रमशः सूर्य और चन्द्रवंश के नाम से पुकारा जाता है। सोमवंश में सोम-श्रेयांस बन्धु बड़े प्रतापी राजा हुए। इन्हीं के पुत्र जयकुमार भरत की सेना में सेनापति और बाद में ऋषभ देव के 72वें गणधर हुए। सेनापति जयकुमार ने ही स्वयंवर प्रथा चलाई जो मध्य युग तक क्षत्रियों में बहु प्रशंसित प्रथा रही। इस स्वयंवर प्रथा के अनुसार जयकुमार ने सुलोचना से विवाह किया। कहा जाता है कि पद्मावती पुरवाल इन्हीं जयकुमार के वंशज हैं, जिनका मूल निवास हस्तिनापुर था। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि पद्मावती पुरवाल जाति मूलतः क्षत्रिय सोमवंशीय जाति है और ऋषभकाल से ही जैन धर्मावलम्बी
है।
चूंकि सोमवंशीय जयकुमार का निवास हस्तिनापुर था, उसके वंशज धीरे-धीरे संख्या की दृष्टि से तथा कुछ अज्ञात कारण भी रहे हों, से वे पदमनगर में आकर बस गये। यह भी अनुमान लगाया जाता है कि
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कालान्तर में इस पंदमनगर का नाम बिगड़कर पद्मावती हो गया और यहां के रहने वालों को बाहर 'पद्मावती पुर वाले' के नाम से जाना जाने लगा। यही पद्मावती पुर वाले बिगड़कर 'पद्मावती पुरवाल' शब्द रह गया और क्षत्रियों की एक शाखा एक पृथक जाति 'पद्मावती पुरवाल' के रूप में पहचानी जाने लगी।
2. पद्मावती नगरी जो अपने ऐश्वर्य और धनधान्य के कारण बहुत प्रशंसित थी, एक तपस्वी के कोप का शिकार बनी। तपस्वी ने अपनी विद्या तथा प्रभाव से नगरवासियों को नाना प्रकार से सताना प्रारम्भ किया। अंत मं तंग होकर उस नगर के 1400 परिवार निकलकर अन्यत्र चले गये। वे तीन शाखाओं में बंटे-एक शाखा दक्षिण को, दूसरी मध्यभारत को और तीसरी उत्तर भारत में बस गई। ये लोग चूंकि पदमनगरी के थे, इस कारण पद्मावती पुरवाल कहाये।।
3. पद्मावती नगरी के राज्य मंत्री के एक सुन्दर कन्या का जन्म हुआ। वह कन्या इतनी सुन्दर थी कि राजा उस पर मोहित हो गया। उसने उस कन्या से विवाह करना चाहा। किन्तु आयु, जाति एवं धार्मिक अन्तर के कारण मंत्री कन्या को नहीं देना चाहता था। मध्ययुगीन शासक की कन्या पर आसक्ति दिनोंदिन बढ़ती गई। अंत में मंत्री के समक्ष राजा का प्रस्ताव आया। उन दिनों पद्मावती पुरवाल समाज में जातीय पंचायत का प्रचलन था। मंत्री ने यह प्रस्ताव पंचायत के समक्ष रखा। पंचायत ने प्रस्ताव का विरोध किया। फलतः शासक से मंत्री ने कन्या न देने के निर्णय की बात कही। राजा यह सुनकर बल प्रयोग पर उतारू हो गया। उसने युद्ध या विवाह या राज्य से चले जाने की घोषणा की। जातीय पंचायत ने राज्य त्यागकर चला जाना ही उचित समझा। किन्तु उन्मादी शासक ने सेना भेजकर कन्या छीननी चाही। इस पर सभी निष्कासित बन्धुओं ने सेना का मुकाबला किया और विजय हासिल की। ‘पद्मावती' जो कन्या का नाम पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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था, युद्ध की अकारण हिंसा के कारण घबस गई और स्वयं आत्मदाह कर लिया। पराजित शासक ने जब कन्या के आत्मदाह की बात सुनी तो उसे बड़ा दुःख हुआ और लज्जा का अनुभव किया। उसने सभी से लौटने का आग्रह व अनुरोध किया। किन्तु पुनः लौट जाना, 'अत्याचारी शासन में रहना लोगों ने स्वीकार नहीं किया।
इन्हीं निष्कासित लोगों ने कन्या के नाम पर पद्मावती नगरी बसाई और स्वयं पद्मावती पुरवाल कहने लगे। उन्होंने अपनी सामाजिक व्यवस्था का नवीनीकरण किया। अपने प्रधान को सिरमौर कहने लगे और पंडित को पाण्डे, जो पुरोहित का कार्य करता था और प्रबंधक को सिंघई शब्दों से संबोधित किया। इस प्रकार पद्मावती पुरवाल जाति का उद्भव हुआ।
इसी कथानक से मिलता जुलता एक कथानक श्री रामेश्वर दयाल गुप्त, हरिद्वार ने 'वैश्य समाज का इतिहास' में पृष्ठ 28/7 पर इस प्रकार दिया है
मुगलकाल में एक सूबेदार के दीवान का नाम शाहसूर था। उसकी रूपवती कन्या का नाम पद्मावती था जिससे मुगल सूबेदार ने डोला मांगा था। वह रातोंरात राज्ये से निष्कमण कर गये। पर मुगल सैनिकों ने आ घेरा। इसी बीच पद्मावती का विवाह सगाई वाले जाति बन्धु से हो गया, पर युद्ध में पति मारा गया। तब पद्मावती सती हो गई। गुप्त स्थान का नाम पद्मावती माना गया। इस नाम का एक कुण्ड बिहार में भी है।
4. कहा जाता है कि पार्श्वनाथ भगवान पर जब घोर उपसर्ग हुआ तो पाताल लोक के पद्मावती धरणेन्द्र का आसन कम्पायन हुआ। वह उपसर्ग दूर करने के उद्देश्य से धरणेन्द्र अपने दो रूपों में उपस्थित हुआ-आसन बनकर तथा छत्र बनकर । इसी समय भगवान को केवलज्ञान की उत्पत्ति हुई। लोगों ने सर्प के रूप में रक्षा करते हुए धरणेन्द्र को देखा तो गद्गद् हो गये। लोगों ने बाद में सभी स्थान को अहिछत्र के नाम से प्रसिद्ध
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किया। आज भी बरेली के निकटस्थ इस क्षेत्र की पद्मावती पुरवालों में बड़ी महत्ता है। उस उपसर्ग के स्थान पर एक पद्यावती नामक नगर बसाया गया तथा एक विशाल किला, जिसका क्षेत्रफल लगभग 12 मील' का होगा निर्माण किया। समय के झंझावत ने इस गौरवशाली नगरी का आज हर प्रकार से चिन्ह मिटा दिया, किन्तु पद्मावती पुरवाल समाज में आज भी इसका पूज्य स्थान बना हुआ है। इस पद्मावती नगरी के भक्तों ने स्वयं को पद्मावती पुरवाल घोषित किया।
5. पद्मावती पुरवाल बाहुबली के शासन क्षेत्र पोदनपुर के निवासी थे। कालान्तर में पोदनपुर ‘पद्मावती' हो गया। और वहां के निवासी चन्द्रवंशीय क्षत्रिय पद्मावती पुग्वाल कहलाये। पोदनपुर का प्रथम अक्षर ‘पों' तथा अंतिम अक्षर 'र' से मिलकर पोर शब्द का बनना माना गया है।
नोट : उपरोक्त किंवदन्तियां 'सुनहरीलाल अभिनन्दन ग्रन्थ' से ली गई हैं। काफी विरोधाभास है। किंवदन्ती किसी घटना का प्रतीतात्मक रूप होती हैं। उनका वास्तविक रूप समझने के लिए विशेष अध्ययन की आवश्यकता है। परन्तु एक बात स्पष्ट है कि पद्मावती पुरवाल जाति का निकास पद्मावती नगरी से हुआ है। इन किंवदन्तियों से प्रकट है। एक बात यहां किंवदन्ती क्रमांक 4 से स्पष्ट है जिसका उल्लेख भी हम पूर्व में कर चुके हैं कि 'पद्मावती' धरणेन्द्र की इन्द्राणी का पार्श्वनाथ के उपसर्ग दूर करने में कोई भूमिका नहीं है। पद्मावती पुरवाल जाति की उत्पति विषयक एक अन्य गाथा
सबसे प्राचीन जनश्रुति पद्मावती की प्राप्त होती है। ईस्वी प्रथम शताब्दी के आसपास मथुरा, कान्तिपुरी, पद्मावती और विदिशा में नाग राजाओं का राज्य था। इनमें से कुछ को निर्विवाद रूप से सम्राट कहा जा सकता है। इन चारों नगरों में कान्तिपुरी और पद्मावती ग्वालियर क्षेत्र में हैं। पद्मावती वर्तमान में पवाया नाम के छोटे से ग्राम के रूप में विद्यमान पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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है । कान्तिपुरी के स्थान पर कुतवार नामक ग्राम है। जिस समय ये दोनों स्थान महानगरों के रूप में बसे थे, उस समय गोपाद्रि ग्रोपों अर्थात गोपाल की भूमि थी और उसका विशेष महत्व नहीं था ।
जैनियों की चौरासी उपजातियों में एक 'पद्मावती पुरवाल' भी है। इसी उपजाति में रइधू नामक जैन कवि हुआ था। वह अपने आपको 'पोमावय कुल-कमल- दिवाकर' लिखता है। कुछ पद्मावतीपुरवाल अपना उद्गम ब्राह्मणों से बतलाते हैं । जैन जाति के आधुनिक विवेचकों को पद्मावती पुरवाल उपजाति के ब्राह्मण प्रसूत होने में घोर आपत्ति है । परन्तु इतिहास पद्मावती पुरवालों में प्रचलित अनुश्रुति का समर्थन करता है। जिसे वे पूज्यपाद देवनन्दि कहते हैं वह पद्मावती का नाग सम्राट देवनन्दि है । वह जन्म से ब्राह्मण था । उसकी मुद्रायें अत्यधिक संख्या में पद्मावती में प्राप्त होती हैं जिस पर 'चन्द' का लाच्छन मिलता है और 'श्री देवनागान्य या 'महाराजा देवेन्द्र' श्रुति वाक्य प्राप्त होते है। देवनाम का अनुमानित समय पहली ईस्वी शताब्दी है । पद्मावती पुरवालों में प्रचलित अनुश्रुति तथा पद्मावती के देवनाग का इतिहास एक दूसरे का पूरक है। ज्ञात होता है कि देवनन्दि अथवा उसके किसी पुत्र ने जैन धर्म ग्रहण कर लिया था और उसकी संतति अपने आपको पद्मावती पुरवाल जैन कहने लगी। जैन मुनि और जैन व्यापारी कभी एक स्थान पर बंधकर नहीं रहते। ये पद्मावती पुरवाल समस्त भारत में फैल गये, तथापि वे न तो पूज्यपाद देवनन्दि को भूले और न अपनी धात्री पद्मावती को ही भूल सके। इस प्रकार पद्मावती (पुर) नगर के रहने वाले पद्मावती पुरवाल कहाये ।
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पद्मावती पुरवाल समाज के निग्रंथ मुनिराज
सर्व वर्षायु संवत् तिथि
आचार्य का
जाति
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71.6.29 308 ज्येष्ठ सुदी 10 श्री पूज्यपाद पद्मावती पुरवाल 65.3.3 990 माघ सुदी 14 श्री माघचन्द्र पद्मावती पुरवाल 98.11.22 1310 पौष सुदी 14 श्री प्रभाचन्द्र पद्मावती पुरवाल 91.0.18 1385 पौष सुदी 7 श्री पद्मनन्दि पद्मावती पुरवाल
गृहस्थ दीक्षा वर्ष पट वर्ष अंतर दिन वर्ष 15 11.7.0 44.11.22 7 13 20 32.0.24 9 12 12 74.11.15 8 10.7.0 23.5.0 65.0.18 10
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"भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङमय का अवदान' प्रथम खण्ड पृ. 452-454 में स्व. डा. नेमीचंद शास्त्री ज्योतिषाचार्य ने आचार्य श्री महावीर कीर्तिजी महाराज के गुटके के आधार पर प्रमुख दि. जैन आचार्यों का विवरण दिया है। इसमें पद्मावतीपुरवाल के आचार्य इस प्रकार हैं (पृष्ठ संख्या 30 देखें)
संक्षिप्त परिचय आचार्य श्री पूज्यपाद देवनन्दि जी महाराज भारतीय जैन परम्परा में जो लब्ध प्रतिष्ठ ग्रन्थकार हुए हैं, उनमें आचार्य पूज्यपाद देवनन्दि का नाम विशेष तौर से उल्लेखनीय है। इन्हें विद्वता और प्रतिभा का समान रूप से वरदान प्राप्त था। जैन परम्परा में स्वामी समन्तभद्र और सन्मति के कर्ता सिद्धसेन के बाद पूज्यपाद देवनन्दि को ही महत्ता प्राप्त है। आपकी अमरकीर्तियों का प्रभाव दिगम्बर श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओं में समान रूप से दिखाई देता है। इस कारण उत्तरवर्ती विद्वान इतिहासज्ञों और साहित्यकारों ने इनकी महत्ता और विद्वता को स्वीकार किया है। और उनके चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित किये हैं।
आचार्य देवनन्दि अपने समय के प्रसिद्ध तपस्वी मुनि पुङ्गव थे। वे साहित्य जगत के प्रकाशमान सूर्य थे जिनके आलोक से समस्त वाङमय आलोकित रहेगा। इनका दीक्षा नाम देवनन्दि था। बुद्धि की प्रखरता के कारण वे जिनेन्द्र बुद्धि कहलाये और देवों द्वारा उनके चरण-युगल पूजे गये, इस कारण वे लोक में पूज्यपाद कहलाए।
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जीवन परिचय-आप कर्नाटक देश के निवासी थे और ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। पूज्यपाद चरित और राजावली कथे नामक ग्रन्थ में आपके पिता का नाम माधव भट्ट और माता का नाम श्रीदेवी दिया है। आपका जन्म कोले नाम के ग्राम में हुआ था।
जीवन घटना-आपके जीवन में अनेक घटनायें-1. विदेह गमन, 2. घोर तपश्चरणादि के कारण आखों की ज्योति का नष्ट होना तथा शान्ताष्टक के निर्माण और एकाग्रता पूर्वक उसका पाठ करने से उसकी पुनः सम्प्राप्ति, 3. देवताओं द्वारा चरण पूजा जाना, 4. औषध ऋद्धि की उपलब्धि, 5. पाद स्पृष्ट जल के प्रभाव से लोहे का स्वर्ण में परिणित हो जाना।
आपकी रचनाएं-तत्वार्थ वृत्ति (सर्वार्थ सिद्धि), समाधि तंत्र, इष्टोपदेश, दशभक्ति, जैनेन्द्र व्याकरण, वैद्यक शास्त्र, छन्द ग्रन्थ, शान्त्यष्टक, सार संग्रह और जैनाभिषेक।
समय-आचार्य पूज्यपाद का समय सं. 666 से पूर्व का है। अकलंकदेव ने भी सर्वार्थ सिद्धि को वार्तिकादि के रूप में तत्वार्थ वार्तिक में अपनाया
है।
सन्मति में सूत्र और कुछ द्वाविंशतिकाओं के कर्ता सिद्धसेन का समय चौथी-पांचवीं शताब्दी का है। अतएव पूज्यपाद भी इसी समय के विद्वान
__ आचार्य देवनन्दि मूलसंघ के अन्तर्गत नंदिसंघ के प्रधान आचार्य थे। नन्दिसंघ की पट्टावली में भी देवनन्दि का दूसरा नाम पूज्यपाद बतलाया है। वादिराज ने भी इनका स्मरण किया है। आदि पुराण के कर्ता जिनसेन इनकी स्तुति करते हुए कहते हैं
'कषीनां तीर्थकृद्देवः किं तरां तत्र वर्ण्यते ।
विदुषां वाङमलध्वंसि तीर्थ यस्य वचोमयम्।' पद्यावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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अर्थात- जो कवियों में तीर्थंकर के समान थे और जिनका वचन रूपी तीर्थ विद्वानों के वचन मल को धोने वाला है। उन देवनन्दि आचार्य की स्तुति करने में कौन समर्थ है ?
आचार्य शुभचन्द्र ज्ञानार्णव में उनके गुणों का उद्भावन करते हुए कहते
हैं
'अणकुर्वन्ति यद्वाचः कायवाक् चित्त सम्भवम् । कलङ्कमङ्गिनां सोडयं देवनन्दी नमस्यते ॥1.15॥
अर्थात् - जिनकी शास्त्र पद्धति प्राणियों के शरीर, वचन और चित्त कं सभी प्रकार के मैल को दूर करने में समर्थ है, उन देवनन्दी को मैं प्रणाम करता हूं।"
2. आचार्य श्री माघचन्द्र जी महाराज
आपका जन्म विक्रम सं. 990 में माघ शुक्ला 14 को हुआ था। आप 13 वर्ष तक गृहस्थ रहे। 20 वर्ष तक दीक्षाकाल में व्यतीत किए। 32 वर्ष 24 दिन आचार्य पद पर आसीन रहे । आपने 65 वर्ष 24 दिन की कुल आयु पायी । आचार्यश्री महान तपस्वी, व्याख्यानदाता, ग्रन्थकार और दिग्गज विद्वान थे । आपकी ज्ञान गरिमा अपरिसीम थी ।
3. आचार्य श्री लक्ष्मीचन्द्र जी महाराज
जन्म जेठ वदी 12, विक्रम संवत 1033 को हुआ । गृहस्थावस्था 11 वर्ष । 25 वर्ष तक मुनि और 14 वर्ष 4 माह 6 दिन आचार्य पद सुशोभित किया। 50 वर्ष चार माह तीन दिन में आयु पूर्ण की। निर्भीक वक्ता और महान तपस्वी थे 1
4. आचार्य श्री प्रभाचन्द्र जी महाराज
जन्म विक्रम सं. 1310 पौष सुदी 14, यह मूलसंघ देशीयगण पुस्तक गच्छ के विद्वान थे और श्रुतमुनि के विद्यागुरु थे। जो सारत्रय में निपुण पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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थे। इससे यह समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय के ज्ञाता जान पड़ते हैं। क्योंकि अभयचन्द्र सैद्धांतिक के शिष्य बालचन्द्र मुनि ने जो श्रुतमुनि के अणुव्रत गुरु होने से उनके प्रायः समकालीन थे। इन्होंने शक सं. 1195 (वि.सं.1330) में द्रव्य संग्रह पर टीका लिखी है। दिगम्बर जैन ग्रन्थ कर्ता और उनके ग्रन्थ, नाम की सूची में उनका समय वि.सं. 1316 का उल्लेख है, जो प्रायः ठीक जान पड़ता है। आपने 98 वर्ष 11 महीना 15 दिन की पूर्ण आयु पायी थी।
5. आचार्य श्री पद्मनन्दी जी महाराज आपका जन्म पौष सुदी 7 वि.सं. 1385 को हुआ। 10 वर्ष 7 माह गृहस्थावस्था में व्यतीत किए। 23 वर्ष 5 माह दीक्षित अवस्था में गुजारे
और 65 वर्ष 8 दिन आचार्य पद सुशोभित करते हुए 99 वर्ष 8 दिन की पूर्णावस्था में समाधिग्रहण कर मुक्त हुए। घोर संयम का पालन करते हुए आप संघपति बने। आपकी विद्वता अत्यन्त प्रखर थी।
मुनि श्री ब्रह्मगुलाल चन्द्रवाड़ के निकटस्थ टापू या टप्पल ग्राम के निवासी श्री ब्रह्मगुलाल पद्मावतीपुरवाल थे। वे चन्द्रवाड़ के जैन धर्म पोषक चौहान राजा कीर्तिसिंह के दरबारी, कुशल लोक कवि और सिद्धहस्त अभिनेता थे। उस समय भारत पर मुगल सम्राट जहांगीर का शासन था। इसी के अधीन इन नगरों और आसपास के क्षेत्र पर महाराज कीर्तिसिंह राज्य करते थे। टापू ग्राम तीन ओर से यमुना नदी से घिरा हुआ है। इसी ग्राम में पद्मावती पुरवाल जाति के गौरव स्वरूप हल्ल श्रेष्ठी निवास करते थे। एक बार जब ये कार्यवश घर से बाहर खेत पर गये हुए थे, उनके घर में भयानक आग लग गई। इसमें न केवल सारा घर ही जल गया, इनका परिवार भी भस्म हो गया। हल्ल राजसभा के मान्य सभासद थे। हल्ल के ऊपर आई इस विपत्ति के कारण राजा-प्रजा सभी को बड़ा दुःख हुआ। कुछ समय पश्चात् पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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राज्य के बहुत आग्रह करने पर हल्ल ने प्रसिद्ध श्रेष्ठी शाहंशाह की गुणवती सुशील कन्या के साथ विवाह कर लिया। इस दूसरी पत्नी से ब्रह्मगुलाल का जन्म हुआ।
इनके गुरु हथिकान्त-अटेर के भट्टारक जगतभूषण थे। कवि हृदय ब्रह्मगुलाल ने अल्पकाल में ही अनेक विषयों का अध्ययन कर लिया। वे एक सभ्य स्वस्थ और रूपवान पुरुष थे। उन्हें गाने बजाने और स्वांग भरने का शौक था। जारखी नगर के श्रेष्ठी धर्मदासजी के भतीजे मथुरामल इनके बालमित्र थे। कवि की बढ़ती हुई ख्याति से जलकर राजा के दीवान ने एक बार राजकुमार को उकसाया और ब्रह्मगुलाल से सिंह का स्वांग भरने के लिए कहलाया। ब्रह्मगुलाल ने राजकुमार के कहने पर सिंह का स्वांग भरना तो स्वीकार किया किन्तु कोई अपराध होने पर उसको क्षमा करने का वचन ले लिया। यथा समय ब्रह्मगुलाल सिंह का स्वरूप धरकर राजदरबार में पहुंचे और अपनी कला से सभी को चकित कर दिया। तभी राजकुमार ने उन्हें छेड़ा
'सिंह नहीं तू स्यार है, मारत नाहिं शिकार।
वृथा जनम जननी दियो, जीवन को धिक्कार।' इतना सुनते ही सिंह रूपधारी ब्रह्मगुलाल को क्रोध आ गया। वे सिंह के समान दहाड़े और उछलकर अपने पैने नाखूनों से राजकुमार के शरीर को फाड़ दिया। राजकुमार मर गया। सारे दरबार में शोक छा गया। शेर चला गया। कुछ समय बाद ब्रह्मगुलाल आये। और विलाप करने लगे। राजा ने कहा-'गलती तुम्हारी नहीं, राजकुमार की थी। उसने ही तुम्हें गीदड़ कहकर उत्तेजित किया था।'
एक दिन दीवान ने राजा को बहकाया-'महाराज! आप ब्रह्मगुलाल से कहिये कि वह दिगम्बर मुनि का वेष धरकर आपको समझाये तो आपका शोक कम हो जायेगा। राजा ने यह बात ब्रह्मगुलाल से कही। निरुपाय
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ब्रह्मगुलाल छह माह की मोहलत लेकर तथा अपनी पत्नी और मित्र और परिवार जनों को समझा बुझाकर जंगलों में चले गये और दिगम्बर मुनि की दीक्षा लेकर घोर तप साधना करने लगे। छह माह बाद वे दिगम्बर मुनि ' के रूप में दरबार में आये। राजा को उपदेश देकर उनका शोक दूर किया। जब उनकी असलियत का पता लगा तो राजा और प्रजा ने, उनकी पत्नी और मित्र ने मुनि वेष त्यागकर गृहस्थ जीवन यापन करने का अनुरोध किया । किन्तु उन्होंने सबको एक ही उत्तर दिया- 'संसार में सब स्वांग भरे जा सकते हैं किन्तु दिगम्बर मुनि का स्वांग नहीं भरा जाता और एक बार दिगम्बर मुनि बनने पर वह परम पवित्र पद छोड़ा नहीं जाता।' यह कहकर वे जंगल की ओर चले गये। उनके मित्र मथुरामल भी उनका अनुगमन करते हुए जंगल में चले गये और मुनिराज ब्रह्मगुलाल से क्षुल्लक पद की दीक्षा लेकर गुरु के साथ साधना में निरत हो गये ।
लोकमानस में उनकी ऐसी छाप पड़ी थी कि एटा निवासी कविवर छत्रपति ने इनके जीवन चरित एवं रचनाओं पर एक छोटा सा काव्य ब्रजभाषा संवत 1909 में लिखा था। ब्रह्मगुलाल चरित दोहा चौपाई की शैली में है । ब्रह्मगुलाल चरित नाम काव्य भी कई वर्षों तक पद्मावती पुरवाल समाज में विशेषकर महिलाओं में केवल धार्मिक भावनाओं से ही पढ़ा जाता था।
एटा निवासी कविवर क्षत्रपति ने इनके पिता के संबंध में लिखा है'सोलह सौ के ऊपरै, सत्रहसों के मांहि । पंडित ही में ऊपजे, दिरंग हल्ल दो भाय ॥
ब्रह्मगुलाल के पिता हल्ल का जन्म 1600 से ऊपर और सत्रह सौ के अन्दर पांडों में ही हुआ था । हल्ल की प्रथम पत्नी के देहावसान के बाद दूसरी पत्नी से ब्रह्मगुलाल का जन्म हुआ था। अनुमान है कि इनका जन्म 1640 के लगभग रहा होगा।
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कविवर क्षत्रपति ने इस ग्रन्थ को संवत् 1909 में पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र माधवदी 12 शनिवार की संध्या को पूर्ण किया था जिसका प्रमाण यह दोहा है
"संक्त विक्रम लो सार, रसनम, रसससि ए अंकलार।
बदि माघ द्वादशी सनी मान, पूरण रिघि पूर्वापाट मांग ॥ इस प्रकार श्री ब्रह्मगुलाल जी के निधन के 200 वर्ष बाद इस ग्रन्थ की रचना की गई।
इतिहास में उल्लेख है कि पद्मावती पुरवाल ब्रह्मगुलाल पद्मावती (वर्तमान पवाया) से चलकर गंगा यमुना के बीच ‘टापू' या टापा गांव पहुंचे। कुछ विद्वानों के अनुसार यह टापा गांव चन्दवार निकट (फिरोजाबाद के पास) है। इसी टापा ग्राम में ये लोग आकर बस गये थे। ___टापा गांव वर्तमान काल में फिरोजाबाद नगर के उत्तर में दो मील दूर एक छोटी बस्ती है। उस समय टापा नगर एक राजा की राजधानी था। चन्दवार के राजा कीर्तिसिंह का राज्य टापे तक फैला हुआ था।
इनका पालन पोषण बड़े लाड़ प्यार से हुआ। स्वस्थ एवं सुन्दर होने के कारण उनकी शिक्षा एक श्रुत पाठक विद्वान के द्वारा हुई। अल्पकाल में ही ये धर्मशास्त्र, गणित, व्याकरण, काव्य, साहित्य, छन्द, अलंकार, शिल्प शकुनशास्त्र, वैद्यक आदि में पारंगत हो गये जैसा कि कवि छत्रपति ने लिखा है
'ब्रह्मगुलाल कुमारणे, पूर्व उपग्यो पुण्य।
पाते बहु विद्या फुरी, कमो जगत ने धन्य॥' इन्हें दूसरों की रची लावनी, शैर आदि सुनकर गाने की अभिरुचि उत्पन्न हो गई जिसके कारण स्वयं भी कविता करने लगे। इनकी प्रारम्भिक रचनाएं वीर, हास्य, श्रृंगार तथा अश्लीलता को स्पर्श करने वाली थीं। रासलीला रचने, स्वांग करने तथा अभिनय की प्रवृत्ति उत्तरोत्तर
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विकसित होती गई। अपनी कला व विनम्रता से वे जनता में प्रसिद्ध एवं सम्मान के पात्र हो गये। राज्य मंत्री ने छलकर इन्हें जोगी का स्वांग रचने के लिए राजा से कहलाया। इनके घर में सुन्दर गुणवती सुशील विवाहित पत्नी थी । भरा-पूरा परिवार था । परन्तु साधु वेष धारण करने पर वह नकली रूप असली में परिवर्तित हो गया। हृदय में वैराग्य उत्पन्न होने पर दिगम्बर मुनि का वेष धारण कर सदा के लिए साधु बन गये। सभी माया मोह छोड़कर विरक्त जैन मुनि हो गये।
त्रेपन क्रिया, कृपण जगावन चरित्र, समोशरण, जलगालन विधि, मथुराबाद पच्चीसी, विवेक चौपाई, नित्यनियम पूजा के अनूठे छन्द, हिन्दी अष्टक आदि छन्दों में सभी काव्य ग्रन्थ हैं। सूर, तुलसी, मीरा, बनारसीदास जैन, जैन कवि भगवतीदास जी, अध्यात्म विद्या के पंडित भी इनके समकालीन कवि थे। श्री बनारसीदास जी जैन आगरावासी थे। फिरोजाबाद भी पधारे थे। श्री पी. डी. जैन इण्टर कालिज फिरोजाबाद में श्री बनारसीदास की स्मृति में एक चबूतरा व श्री ब्रह्मगुलाल की पादुका बनाकर सुन्दर छत्री बनी हुई है। सन् 1951-52 के करीब श्री पी. डी. जैन इण्टर कालिज फिरोजाबाद में एक इमली के पेड़ के आंधी में गिर जाने से भूगर्भ से इनके चरण प्राप्त हुए थे। ऊपर प्राचीन लेख उत्कीर्ण है। यह चरण जैन नशियां जी में विराजमान हैं।
इन्होंने ब्रजभाषा में सात काव्य ग्रन्थों का सृजन किया है। इनकी गद्य-पद्य की लिखी पुस्तकें, कवि की वास्तविक जन्म तिथि, सही निवास स्थान एवं इनके साहित्यिक कार्यकलापों का अनुसंधान होने की आवश्यकता
है ।
श्री ब्रह्मगुलाल जी बहुत दिनों तक ग्राम जारखी (आगरा) जो कि टापा के पास ही है, अपने मित्र मथुरामल के यहां रहे और उनके कहने पर ही जारखी में ही कई ग्रन्थों की रचना की थी । जारखी के दोनों जैन मंदिरों पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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में प्राचीन जैन ग्रन्थ भंडार है। वहां कुछ शोध सामग्री मिल सकती है । फिरोजाबाद में बोधा कवि, श्रीधरपाठक, निपट निरंजन, मुंशी जुगलकिशोर 'हुस्न' आदि कवि हुए जिनमें श्री ब्रह्मगुलाल अग्रणीय हैं। फिरोजाबाद को, इस बात का गौरव है कि इतने उच्च कोटि के कवियों का जन्म हुआ ।"
आचार्य सुधर्मसागर जी महाराज
श्री 108 आचार्य सुधर्मसागर जी महाराज का गृहस्थ अवस्था का नाम नन्दलाल जी था । आपका जन्म चावली (आगरा) में वि.सं. 1942 में भाद्रपद शुक्ला दशमी (सुगन्ध दशमी) को हुआ। पिता श्री वैद्य तोताराम जी माता श्री मेवारानी थीं। आपके परिवार में छह भाई हुए। आप धर्मरत्न पं. लालाराम जी शास्त्री के लघु भ्राता तथा न्यायालंकार पं. मक्खनलाल शास्त्री के ज्येष्ठ भ्राता थे। आप पद्मावती पोरवाल जाति के भूषण व तिलक गोत्रज थे ।
शिक्षा- आपकी आरम्भिक शिक्षा अपने गांव में ही हुई। इसके बाद आपने दिगम्बर जैन महाविद्यालय, मथुरा और सेठ हीराचन्द्र कमलचन्द्र जैन बोर्डिंग हाउस, बम्बई में रहकर शास्त्री (सिद्धान्त, न्याय, व्याकरण साहित्य) का अध्ययन किया और जैन महासभा तथा बम्बई परीक्षालय से परीक्षा देकर शास्त्री उपाधि प्राप्त की। आप आरम्भ से ही उदार, सरल, सभ्य, शिक्षित, धर्म रुचि के थे
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सामाजिक-धार्मिक कार्य- आपने अपने अमित अध्ययन, अनुभव, अभ्यास, अध्यवसाय से हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, मराठी, गुजराती भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया। आप श्रेष्ठ वक्ता और सुयोग्य लेखक तथा टीकाकार एवं सम्पादक थे। सामाजिक-धार्मिक विषयों पर आपने सुरुचिपूर्ण लघु पुस्तकें भी लिखीं। आप कवि थे। आपकी कतिपय पूजायें आज भी समाज में अतीव चाव से पढ़ी जाती हैं। आपने ईडर और बम्बई रहकर
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वहां के शास्त्र भंडारों को सम्हाला । आपने समाज को ज्ञान लाभ दिया। आपने अनेक भीलों से मांसाहार छुड़ाया। शिकार खेलना बन्द करवाया। ठाकुर कुरासिंह को जैन ही नहीं बनाया बल्कि उनके द्वारा जैन मंदिर भी
बनवाया ।
त्याग साधना की ओर बढ़ते कदम -आपने ईडर तारंगा में मनोज्ञ मूर्तियां विराजमान कराई। आप महासभा के सर्वदा सहायक रहे। समाज रत्न, संघ भक्त सुप्रसिद्ध सेठ पूनमचन्द घासीलाल जवेरी परिवार को धार्मिक बनाने का श्रेय आपको ही है। आपने चारित्र चक्रवर्ती 108 आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज से दूसरी प्रतिमा ली थी। आपके ही प्रयत्न से सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र पर आचार्य श्री का ससंघ विहार हुआ था । संघपति सेठ पूनमचन्द जी घासीलाल द्वारा अतीव समारोहपूर्वक पंचकल्याणक महोत्सव भी हुआ था । वि. सं. 1984 में सम्मेदशिखर में आपने आचार्य श्री शांतिसागर जी से ब्रह्मचर्य प्रतिमा के व्रत लिये। अब आपका नाम ब्रह्मचारी ज्ञानचन्द्र हो गया । इस समय आपने दो घंटे तक जैन धर्म का धार्मिक धारावाहिक तात्विक विवेचन किया।
वैराग्य की ओर - कुण्डलपुर क्षेत्र में आपने दशम प्रतिमा के व्रत स्वीकार किये और कुछ ही समय बाद आचार्य श्री से ही क्षुल्लक दीक्षा ले ली और आपका नाम क्षुल्लक, ज्ञानसागर हो गया। आत्मकल्याण के साथ आपने कुछ ग्रन्थों की टीकायें लिखीं जिनमें रयणसार, पुरुषार्थानुशासन, रत्नमाला, उमास्वामि श्रावकाचार के नाम उल्लेखनीय हैं। आपने गुजराती में जो ग्रन्थ लिखे उनमें जीव- विचार, कर्म- विचार, दान- विचार प्रमुख हैं। आपके ही आदेश में आपके भाइयों ने पंचपरमेष्ठियों के स्वरूप की बोधक 3 फीट ऊंची प्रतिमायें गजपन्था में विराजमान कराई तथा देहली के धर्मपुरा मंदिर में अष्ट प्रतिहार्य युक्त 3 फीट ऊंची प्रतिमा आपकी प्रेरणा से आपके भाइयों ने विराजमान कराई।
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संघहित श्रेष्ठ कार्यक्षुल्लक ज्ञानसागर जी ने संघहित एक श्रेष्ठ कार्य यह किया कि उन्होंने सभी मुनिराजों को संस्कृत का अध्ययन कराया। क्षुल्लक व ऐलकों को भी संस्कृत शिक्षण लेने के लिए कहा। आचार्य शान्तिसागर जी आपके इस सत्कार्य की सराहना करते थे। तपोनिधि आचार्य कुन्थसागर ने जो संस्कृत में ग्रन्थ लिखे उनकी पृष्ठभूमि में आपकी मनोभावना थी। अध्यापन के साथ संघ के हित में आपने अनुभवी वैद्य का भी कार्य वैसे ही किया जैसे आपके पिताजी पड़ोसियों के लिए सहज भाव से करते थे।
मुनि और आचार्य-जब प्रतापगढ़ में सेठ पूनमचन्द घासीलाल जी ने पंचकल्याणक प्रतिष्ठा कराई तब केवलज्ञान कल्याणक के समय आपने फाल्गुन शुक्ला त्रयोदशी वीर निर्वाण संवत् 2460 में श्री 108 आचार्य श्री शांतिसागर जी से मुक्तिदायी मुनिदीक्षा ली। आचार्य श्री ने आपको सुधर्मसागर कहकर सम्बोधित किया। आपके साथ ही क्षुल्लक नेमिकीर्ति जी मुनि आदिसागर बने और ब्र. सालिगराम जी क्षुल्लक अजितकीर्ति जी बने। यह कार्य लगभग चालीस हजार मानवमेदिनी के समक्ष हुआ। अब आप समन्तभद्र आचार्य के शब्दों में विषय वासना से परे ज्ञान-ध्यान, तप-रत साधु हो गये।
संघ के समस्त कार्य आचार्य श्री शांतिसागर जी ने आपको सौंप रक्खे थे। अतएव उन्होंने आपकी अनिच्छापूर्वक भी आचार्य पद सौंप दिया। आपने बहुत अनुनय-विनय की और पद से मुक्ति चाही पर आचार्यश्री ने आपको ही अपना उत्तराधिकारी बनाया। पौष शुक्ला दशमी रविवार को आपको अनेक मुनिराजों, व्रतियों तथा अनेक स्थानों के समाज के समक्ष आचार्य घोषित किया गया। इस समय अनेक विद्वान, श्रेष्ठ राज्याधिकारी, उपस्थित थे। सभी ने ताली बजाकर, नाम की जय बोलकर आपको अपना आचार्य मान लिया। कुशलगढ़ जैन समाज के इस कुशलदायी कार्य की सभी ने सराहना की।
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समाधिमरण और शोभायात्रा-आपने आचार्य पद पर आसीन रहते संघ को अनुशासनबद्ध किया। झाबुआ निवासियों से आचार्य श्री के रूप में आपने दो माह पूर्व ही कह दिया था कि अब मेरा शरीर अधिक से अधिक दो माह तक टिकेगा। आप सर्वदा धार्मिक कार्यों में सावधान रहते थे। समाधिमरण के लिए तैयारी कर रहे थे। पौष शुक्ला द्वादशी सोमवार वि. सं. 1995 में जब दोपहर को संघ के साधु आहारचर्या से आये तब उन्होंने आचार्य श्री की समाधि वेला समीप देखी। आपको क्षय रोग था। पर दो दिन से ही था भी, इसमें संदेह होने लगा था। तीन दिन पहले से ही आपने खान-पान-प्रमाद जनित क्रियाओं को त्याग दिया था। अंतिम समय में आपने जिनेन्द्र दर्शन की इच्छा प्रगट की तो भट्टारक यशःकीर्ति ने भगवान के दर्शन कराऐ। आपने गद्गद् हो भक्ति भाव लिये कहा-'हे प्रभो! मेरे आठों कर्म नष्ट हों और मुक्ति श्री मिले।' इसी दिन संध्या के समय अत्यन्त सावधानी के साथ आपने बांदला (राजस्थान) में समाधिमरण का लाभ लिया।
श्री 108 आचार्य सुधर्मसागर के स्वर्गवास का समाचार क्षणभर में दाहोद, इन्दौर, रतलाम, थांदला, झाबुआ आदि स्थानों पर पहुंचा। अतीव साज-सज्जा के साथ पद्मासन में आचार्य श्री का दिव्य शरीर नगर के प्रमुख मार्गों से निकला। सद्यःस्नात पं. लालाराज जी जलधारा देते विमान के सबसे आगे थे। मुनि और आर्यिका, श्रावक और श्राविका चतुर्विधि संघ साथ था। एक ब्राह्मण ने आचार्यश्री की पूजा की, शेखनाद कर उनको स्वर्गवासी घोषित किया। शास्त्रोक्त पद्धति से दाह-संस्कार हुआ। शोक सभा में पं. लालाराम जी ने भाषण ही नहीं दिया बल्कि अनेक पद-चिन्हों पर चलने के लिए द्वितीय प्रतिमा के व्रत भी लिये। जहां आपका अंतिम संस्कार हुआ वहां तीन दिन तक बाजे बजे, जागरण, भजन-कीर्तन हुए, महाराज की पूजा हुई।
घोषणा-राज्य की ओर से घोषणा हुई-‘आचार्य सुधर्मसागरजी का स्मृति दिवस मनाने के लिए अवकाश रहेगा, हिंसा नहीं होगी।' संघ की पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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ओर से घोषणा हुई- आचार्यश्री के स्मृति दिवस पर प्रतिवर्ष रथोत्सव होगा।' मुनिसंघ ने स्वेच्छा से सुधर्मसागर संघ की स्थापना करने का भाव प्रगट किया।
श्री दिगम्बर जैन नवयुवक मंडल, कलकत्ता ने उनको सार्वजनिक रूप से अभिनन्दन करने के लिए एक विशालकाय अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन कराया था।
आचार्यश्री महावीरकीर्तिजी महाराज इस भारत वसुन्धरा में समय-समय पर जिन महापुरुषों ने जन्म लेकर स्व-पर उपकार द्वारा जीवन को अलंकृत कर धर्मप्राण देश को पावन किया है, उन्हीं महापुरुषों में से एक चरित्र नायक आचार्यश्री महावीरकीर्ति जी भी हैं। भगवान महावीर की आदर्श दिगम्बर साधु परम्परा में इस बीसवीं सदी में जो तपस्वी सन्त हुए उनमे आचार्य महावीर कीर्ति जी महाराज भी ऐसे प्रमुख श्रेष्ठ तपस्वी रत्न थे जिनकी अगाध विद्वता, कठोर तपस्विता, प्रगाढ़ धर्मश्रद्धा, आदर्श चरित्र और अनुपम त्याग ने विश्व में वास्तविक धर्म की ज्योति प्रज्ज्वलित की।
वंश परिचय-आगरा जिले में किसी समय चन्द्रवाड़ जिसे चन्द्रवार भी कहते हैं। बहुत बड़ा नगर था। विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में चौहान वंशी राजाओं का राज्य रहा है। वर्तमान मे वह एक उजड़ी हुई छोटी बस्ती है। उन राजाओं के समय में अनेक राज्य श्रेष्ठी, प्रधानमंत्री, कोषाध्यक्ष आदि उच्च राजकीय पदों पर आसीन रहे हैं। प्रसंगवश एक ऐतिहासिक घटना का उल्लेख करना उचित होगा।
एक बार इस नगर पर यवनों का आक्रमण हुआ। तब नगर के निवासी अपने घरबार छोड़कर भाग गये। जैन समाज के धार्मिक व्यक्तियों को भी नगर छोड़कर भाग जाने को बाध्य होना पड़ा। उस समय एक जिन मंदिर
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में एक महान अतिशय युक्त बहुत बड़ी भगवान चन्द्रप्रभु की स्फटिकमणि की चमत्कृत दिव्य प्रतिमा थी । श्रावकों ने जाते-जाते उस प्रतिमा जी को वेदी सहित यमुना में डुबो दी। बहुत वर्षों बाद फिरोजाबाद में एक जिनभक्त को स्वप्न आया कि स्फटिकमणि की महान अतिशययुक्त प्रतिमा नदी के मध्य अमुक स्थान पर वेदी सहित जलमग्न है। वह कहां, कैसे मिलेगी ? इसका उत्तर भी स्वप्न में ज्ञात हुआ कि फूलों से भरी टोकरी नदी में बहा दी जाये और बहते - बहते वह टोकरी जहां रुक जाये, वहीं प्रतिमा मिलेगी। फलस्वरूप वैसा ही किया गया। अगाध जल में टोकरी रुकी। भारी जल में प्रवेश कर प्रतिमा निकालना दुष्कर कार्य था, किन्तु महान अतिशय ! उस समय हुआ कि ज्यों-ज्यों नदी में प्रवेश करते गये, पानी घटता गया, अन्त में प्रतिमा तक पहुंचे। प्रतिमा उठाई और वापस लौटने लगे तब पानी का प्रवाह पूर्ववत् हो गया। बड़ी धूमधाम, गाजे बाजे के साथ जलूस निकालकर फिरोजाबाद के मंदिर में वह प्रतिमा विराजमान की गई। वर्तमान में यह मंदिर चन्द्रप्रभु मंदिर कि नाम से विख्यात है ।
इसी चन्द्रवार नगर में पन्द्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में महाराधिराज रामचन्द्र देव के शासन काल में महाराज उर्फ मोदी नामक दि. जैन पद्मावती पुरवाल जाति में उत्पन्न एक जैन श्रावक थे। उस समय चन्द्रवार के कुछ पठान एवं महाराज मोदी फिरोजाबाद आकर बस गये । आचार्यश्री का जन्म इन्हीं महाराज मोदी के वंश में हुआ ।
जन्म - आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी का जन्म मिती बैसाख वदी 9 वि. 1967 को सुप्रतिष्ठ औद्योगिक नगरी फिरोजाबाद, उत्तरप्रदेश में हुआ । आपके पिता का नाम लाला रतनलाल जी और माता का नाम बून्दा देवी था। आप पद्मावतीपुरवाल के प्रसिद्ध कुल महाराजा खानदान के थे। यह जाति दि. जैन समाज में एक प्रसिद्ध जाति रही है। ब्रह्मगुलाल जैन मुनि एवं जुगमन्दिरदास जैसे अनेक धार्मिक सेठ तथा माणिकचन्द्र न्यायाचार्य जैसे विद्वान हुए हैं। वर्तमान में भी इस जाति के उच्च कोटि के विद्वान धर्म पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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वंश वृक्ष श्री महाराज बनाम मोदी श्री ला. वंशीधर जी जैन श्री रतनलाल जी जैन (फिरोजाबाद) पत्नी का नाम श्रीमती बूंदा देवी
श्री कम्पिलदास जैन
श्री पन्नालाल जी.जैन
राजकुमार जा
(बम्बई) डाक्टर
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श्री कन्हैयालाल धर्मेन्द्रचन्द्र महेन्द्रकुमार संतकुमार (फतेहपुर)
(मेरठ) (पूज्य आचार्यश्री) (कानपुर) व्यवसाय वैद्य सुखदा फार्मेसी के संचालक
सीमेंट का कारोबार 1. श्री जगदीशचन्द जैन
1. श्री महावीर प्रसाद जैन . 2. श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन
2. श्री अमरनाथ जैन 3. श्री पदमचन्द्र जैन
3. श्री वीरेन्द्र कुमार जैन 4. श्री नरेन्द्र कुमार जैन
4. श्री सुवीन्द्र कुमार जैन 5. श्री रमेशचन्द जैन
5. श्री श्रेयांसकुमार जैन
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और समाज की सेवा कर रहे हैं। आचार्यश्री का गृहस्थावस्था का नाम महेन्द्रकुमार था। आपके पिता धार्मिक प्रवृत्ति के थे। अतिथि सत्कार में तत्पर रहते थे। वे कुशल व्यापारी थे।
आचार्य श्री अपने माता-पिता के तीसरे पुत्र थे। आपके चार भाई1. कन्हैया लाल, 2. धर्मेन्द्रनाथ, 3. संतकुमार और 4. राजकुमार चिकित्सक हैं।
शिक्षा-आपकी प्रारम्भिक शिक्षा फिरोजाबाद में हुई। दस वर्ष की अवस्था में स्नेहमयी माताजी का देहान्त हो गया। इससे आपके मन में विरक्तता का भाव उत्पन्न हो गया और आत्मकल्याण के लिए शास्त्रों का विशेष ज्ञान करने हेतु आपने दिगम्बर जैन महाविद्यालय ब्यावर और सरसेठ हुकमचन्द महाविद्यालय इन्दौर में शास्त्री कक्षा तक ज्ञान प्राप्त किया। आपकी बुद्धि अत्यन्त तीक्ष्ण और प्रतिभा अपूर्व थी। न्यायतीर्थ, आयुर्वेदाचार्य आदि की परीक्षाएं देकर उनमें उत्तीर्ण हुए। संस्कृत, व्याकरण, साहित्य, न्याय सिद्धान्त आदि अनेक विषयों का गहन अध्ययन कर अच्छी योग्यता प्राप्त की और साथ-साथ अनेक विद्याओं का अच्छा ज्ञान भी प्राप्त किया। धर्मशिक्षा के संस्कारों ने आपकी उदासीनता को विरक्तता में परिवर्तित कर दिया। परिणामस्वरूप उभरते यौवन में ही आजन्म अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लिया।
व्रत निष्ठा-बीस वर्ष की अवस्था में ही आपने परम पूज्य महान तपस्वी, परम निर्भीक, प्रखर प्रभावी प्रवक्ता श्री 108 आचार्य कल्प चन्द्रसागर महाराज के साथ सप्तम प्रतिमा ब्रह्मचर्य रूप से रहकर आपने परम पूज्य आचार्य श्री 108 वीरसागर जी महाराज से वि.सं. 1994 में टांकाढूंका (मेवाड़) में क्षुल्लक दीक्षा ली। बत्तीस वर्ष की अवस्था में पूज्य 108 आचार्य श्री आदिसागर जी महाराज से मुनि दीक्षा ली। आपका दीक्षान्त नाम महावीरकीर्ति रखा गया। आप वास्तव में महावीर ही थे। इस पद्यावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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प्रकार आपका ज्ञान चारित्र के साथ जुड़ा।
दिगम्बर साधु अवस्था धारण कर कुछ वर्ष तक आप दक्षिण प्रान्त में विहार कर धर्म का उद्योत करते रहे। आचार्य आदिसागर ने आचारांग के अनुकूल आपका आचरण देखकर अपना उत्तराधिकारी बनाया और अपने पट्ट पर आसीन किया । आचार्य बनकर आपने चतुर्विधि संघ का कुशलता से संचालन किया। भारत के अनेक प्रान्तों- दक्षिण महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, मालवा, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार आदि में भ्रमण कर दिगम्बर जैन धर्म का प्रचार किया व अनेक मुनि आर्यिका, श्रावक, श्राविका, क्षुल्लक, ब्रह्मचारी आदि बनाकर आत्म कल्याण में
लगाया ।
उपसर्ग विजेता- आचार्य श्री महान उपसर्ग विजयी और साधुरत्न थे । आपकी क्षमाशीलता, साहस और क्षमता का परिचय अनेक घटनाओं से मिलता है
1
एक बार आप बड़वानी सिद्ध क्षेत्र पर ध्यानमग्न थे। किसी दुष्ट पुरुष मधुमक्खियों के छत्ते पर पत्थर फेंक दिया। मधुमक्खियों ने आचार्य श्री पर आक्रमण कर दिया । लहुलुहान होकर भी आपने ध्यान नहीं छोड़ा। इसी प्रकार आप खण्डगिरि उदयगिरि क्षेत्र की यात्रा पर जा रहे थे कि पुरुलियां में तीन शराबी लोगों ने आकर उन्हें अकारण ही मारने के लिए लाठियां उठाईं। सेठ चांदमल जी ने अपने गुरु की रक्षा करने के लिए स्वयं लाठियां खाई परन्तु फिर भी कुछ तो आचार्य श्री को लगीं। पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट ने आकर शराबियों को खूब फटकारा। दुष्ट लोग क्षमा मांग कर भाग गये ।
एक बार पूज्य आचार्य श्री तीर्थराज सम्मेद शिखर जी पर टोंक वंदना करने गये। तब रात्रि में जल मंदिर में ठहर गये। उस समय अगहन माह की कड़कड़ाती सर्दी थी । श्वेताम्बर कोठी के कर्मचारियों ने दुष्टतावश
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आचार्य श्री को जल मंदिर से बाहर निकाल दिया। आचार्य श्री शांतिपूर्वक बाहर बैठ गये। उस असहनीय सर्दी में रातभर बाहर रहने के कारण आपका सारा शरीर अकड़ गया तथापि आचार्यश्री ने यह सब सहज भाव से सहन किया तथा वीरता का परिचय दिया। वास्तव में आचार्यश्री ने इस अत्यन्त विषम कलियुग में इस वीतराग साधुचर्या में रहकर अपने अपूर्व आत्म तेज, अविचल धर्मनिष्ठा और आदर्श मुनि का उदाहरण उपस्थित किया।
आचार्यश्री में ब्रह्मचर्य की अपूर्व आभा दिखती थी। इसके कारण ही आप घण्टों तक एक आसन से अविचल होकर ध्यान मग्न रहते थे। आपने जबसे मुनिव्रत धारण किया तबसे इन्दौर, भोपाल, कटनी, शिखरजी, फिरोजाबाद, जयपुर, नागौर, उदयपुर, गिरनार, पावागढ़, ऊन, धरियाबाद, बड़वानी, मांगीतुंगी, गजपन्था, हुम्मच पद्मावती, कुन्थलगिरि आदि अनेक बड़े-बड़े शहरों और सिद्धक्षेत्रों में चातुर्मास योग धारण किया। __ आचार्यश्री महावीरकीर्ति जी महाराज ज्योतिष, मंत्र-तंत्र के ज्ञाता तो थे ही, आप में सत्य भविष्यवाणी करने की, विष दूर करने की एवं असाध्य रोगों को दूर करने की क्षमता उत्पन्न हो गई थी। कई घटनाएं भक्तों द्वारा सुनी गई हैं। सिद्धांत चक्रवर्ती आचार्य श्री विद्यानन्दजी महाराज ने इन्हीं आचार्य श्री महावीरकीर्ति महाराजजी से क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की थी।
आचार्यश्री की अंतिम समाधि-आचार्यश्री की निर्वाण भूमियों के प्रति अपार निष्ठा थी। शायद इसीलिए कि आप स्वयं निर्वाण के तीव्र अभिलाषी थे। मुनि हो या श्रावक अन्त समय में समाधिमरण से शरीर को शांत परिणामों से छोड़ना ही श्रावक और मुनिधर्म का सार या फल है। आचार्यों ने समाधिमरण का महत्व शास्त्रों में बताया है। अन्त समय में समाधिमरण से मृत्यु होना स्वर्ग और मोक्ष का कारण है।
जब आप गिरनार क्षेत्र के दर्शन कर शजय अहमदाबाद होते हुए पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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मेहसाना पहुंचे। मेहसाना में समाधि से तीन दिन पूर्व 3 जनवरी 1972 को आचार्यश्री ने सभी संघस्थ त्यागी और व्रतियों को बुलाया। सबको बिठाकर बड़ी गंभीरता से संबोधित किया। सम्भव है आचार्य श्री को अपने तीन दिन के पश्चात् स्वर्गारोहण की झलक मिल गई हो। उन्होंने कहा-“आज से श्री 108 मुनि सन्मतिसागर जी महाराज संघ के आचार्य होंगे। एवं श्री 105 आर्यिका विजयमति जी को मुख्य गणिनी हम अपने आदेश से नियुक्त करते हैं। हमारे बाद यही व्यवस्था होगी।"
26 जनवरी 1972 का वह दिन आया जब रात्रि सवा नौ बजे आचार्य श्री की आत्मा सर्वथा शरीर छोड़कर चली गई। समाधि सम्राट, योगीन्द्रतिलक, उग्र तपस्या का धनी इस असार संसार से दूर चला गया। 27 जनवरी 1972 के मध्यान्ह 12 बजे मेहसाना की भूमि आचार्यश्री के दाह संस्कार से पावन हो गई। शरीर भस्म हो गया, रह गई उनकी याद, गुणों का स्मरण और उनकी निर्भीक देशना।।
आचार्य महावीरकीर्ति दि. जैन धर्म प्रचारिणी संस्था अवागढ़ (एटा) उत्तर प्रदेश ने आचार्य श्री महावीर कीर्ति स्मृति ग्रन्थ प्रकाशन कराया है। प्रकाशन तिथि महावीर जयन्ती सन् 1978 है।
वात्सल्य रत्नाकर आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज श्रमण संस्कृति में साधु का विशिष्ट स्थान है जो संसारसागर में डूबते जीवों को उसी प्रकार सहारे होते हैं जैसे भटके हुए निशा-यात्री के लिए आकाश द्वीप। आचार्य विमलसागर जी महाराज उन दुर्लभ महापुरुषों में थे जिन्हें वीर प्रसूता भारत जननी युगों बाद जन्म देती है।
साधु जो प्रकृति वेषधारी है, पंचेन्द्रिय विषयों के विजेता हैं, आरम्भ-परिग्रह रहित हैं, साधु परम्परा के साधक हैं, ऐसे साधु के विषय में पंडित प्रवर
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दौलतराम जी ने लिखा है
'अरि मित्र महल मसान कंचन कांच निदन प्रति वरन । अर्घावतारन असि प्रहारन में सदा समता धरन ॥ ' इसी भावना को जिन्होंने चरितार्थ किया है उनका नाम है- परम तपस्वी, सन्मार्ग दिवाकर, स्वपरोपकारी 108 आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज ।
भारतवर्ष की पुण्यधरा पर अवतरण के लिए व्याकुल भारत के उत्तर प्रदेश एटा जनपद के अंतर्गत जलेसर कस्बे का कोसमा ग्राम में जनमे श्री
चन्द के पिता श्री बिहारीलाल और माता कटोरीबाई ने कब सोचा था कि उनका पुत्र एक दिन भारत का संत शिरोमणि बनकर जन्म स्थान कोसमा, कुल, जाति पद्मावती पुरवाल और वंश की कीर्ति को उज्ज्वलता से निमज्जित करेगा। सं. 1973 के आश्विन कृष्णा सप्तमी का वह शुभ दिन था, बालक नेमीचन्द ने जन्म लिया ।
मां की ममता बालक को छह माह से अधिक अपना वात्सल्य न दे सकी और वैराग्य के अंकुरण में नेमीचन्द को मिला वियोग, एक कारण बना। इसके बाद भी नारीत्व के कमनीय स्वप्निल बंधन उन्हें बांध न सके। मां के वियोग के बाद पिता एवं बूआ दुर्गादेवी ने पालन पोषण किया ।
शिक्षा के क्षेत्र में- बालक नेमीचन्द ने प्रारम्भिक शिक्षा गांव की पाठशाला में पूर्ण की। तत्पश्चात् गोपालदास वरैया दि. जैन सिद्धान्त विद्यालय, मोरैना से शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण की। उनकी इस सफलता का श्रेय था उस भक्ति को जो उनकी णमोकार मंत्र के प्रति थी । उत्तर लिखने से पूर्व कापी के शीर्ष पर णमोकार मंत्र लिखा जाता। शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद प्रधानाध्यापक के रूप में पं. नेमीचन्द विद्यादान करने लगे ।
निरन्तर विकास के पथ पर अग्रसर पं. नेमीचन्द जी सत्संगति में
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विश्वास रखते थे। उनकी विद्वत मंडली में प्रमुख थे - श्री अयोध्याप्रसाद जी, श्री ज्ञानचंद जी, श्री लाला पदमचंद जी आदि ।
तर्कशक्ति से विजयी - एक बार पंडित जी की आर्यसमाजियों से शास्त्रार्थ जैसी स्थित बन गई। आर्यसमाजी पंडितों ने अपनी विभिन्न शंकायें समाधानार्थ रखीं
1. ऐसा भोजन चाहिए जो किसी खेत का बोया नहीं हो। किसी अन्न का भी न हो और जिस अग्नि में पकाया गया हो वह अग्नि न कोयले की हो, न लकड़ी, न गैस स्टोव आदि किसी प्रकार की हो और पेट भी भर जाये ।
2. पानी ऐसा चाहिए जो न कुएं का हो, न नल का, न बावड़ी का न सागर, न तालाब या कुण्ड का ही हो और प्यास भी बुझ जाये ।
3. जिस वस्तु से यह भोजन परोसा जाये वह वस्तु भी चम्मच आदि न हो ।
4. भोजन का ग्राहक न देव हो, न तारकी हो, न तिर्यञ्च हो और न मनुष्य ।
बस संचित ज्ञान प्रस्फुटित हो उठा, समाधान के स्वर स्वतः निसृत होने लगे पं. नेमीचन्द के
ज्ञान रूपी भोजन अपनी आत्मा से आत्मा में ही उत्पन्न होकर समता रूपी जल का सिंचन कर ध्यानरूपी अग्नि से पकाकर अनुभवरूपी चम्मच से आस्वादन करता हुआ योगी निरन्तर ऐसे भोजन का पान करता हुआ कभी भी अघाता नहीं है ?
उत्तर से संतुष्ट होकर वे आर्यसमाजी विद्वान पंडित जी के ज्ञान का लोहा माने बिना नहीं रहे ।
प्रतिष्ठाचार्य के रूप में सम्यक्ज्ञान का प्रचार-प्रसार करने एवं जैन संस्कृति की अक्षुण्ण परम्परा को बनाए रखने के उद्देश्य से पंडित जी ने पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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धार्मिक विधिविधानों को शास्त्रोक्ति रीति से कराना प्रारम्भ कर दिया और अल्प समय में ही इस क्षेत्र में प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली।
जैन धर्म की रक्षा में तत्पर-जैन धर्म एवं धर्मायतनों की रक्षा के लिए आप सदैव तत्पर रहते थे। एक बार उत्तर प्रदेश के केलई ग्राम में एक जिन मंदिर के निर्माण पर व्यवधान डाल रहे अल्पमतियों को मंत्रशक्ति के बल से पराजित कर जैन मंत्रों की शक्ति एवं जिन भक्ति का साक्षात उदाहरण प्रस्तुत किया।
सर्वगुण सम्पन्न पंडित जी अपने क्षेत्र में सेवा भाव से वैद्य का कार्य भी करते थे तथा वस्त्र व्यवसाय भी करने लगे। साइकिल पर कपड़ा लादकर गांव-गांव कपड़ा बेचने जाने लगे।
सम्मेद शिखर जी की वन्दना-एक समय आप सिद्धभूमि श्री सम्मेदशिखरजी की वन्दनार्थ बिना ब्रेक की साइकिल पर दृढ़ इच्छा शक्ति के बल पर चल दिये और रास्ते की विभिन्न बाधाओं को झेलते हुए तीर्थ वन्दना सफलता पूर्वक कर महान पुण्य का संचय किया।
तीर्थवन्दना का साक्षात फल-तीर्थ वन्दना से वापिस लौटने पर साइकिल खराब हो गई। कोई दुकान दिखाई नहीं दी तो णमोकार मंत्र का जाप करते हुए जंगल में चले। अब तक उन्हें एक दाढ़ी वाला बाबा और साइकिल की दुकान दिखी। पंडित जी के निवेदन पर उसने साइकिल सुधार दी। पंडित जी कुछ आगे बढ़े कि ध्यान आया कि पंप तो दुकान पर ही रह गया है तो वापस लौटे। परन्तु आश्चर्य! पंडित जी आश्चर्य चकित रह गये क्योंकि वहां कोई दुकान नहीं थी और न दाढ़ी वाला बाबा, केवल पंप यथा स्थान रखा था। आप एक बार श्री गिरनार जी की वन्दना को भी गये।
वैराग्य और दीक्षायें-श्री नेमीचन्द जी ने मथुरा, अलवर, बड़ौदा, आगरा, जयपुर आदि का भ्रमण विभिन्न दृष्टिकोणों से किया। आप जब जयपुर पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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की 108 चन्द्रसागर जी महाराज के दर्शनार्थ गये तो वहां शूद्र जल त्याग का व्रत लिया और वहीं चार माह अध्ययन कार्य किया। फिर साधु सेवा तथा तीर्थ यात्रा में निरत रहे। इसी बीच आपके पिताजी का देहावसान हो गया।
कई संस्थाओं में अध्यापन कार्य करने के पश्चात् कुचामन रोड स्थित श्री नेमिनाथ विद्यालय के प्रधानाध्यापक चुने गये। वहां 108 श्री वीरसागर जी का संघ पधारा और आपने द्वितीय प्रतिमा के व्रत ग्रहण किये। व्रतों में क्रमशः वृद्धि होती गई और आपने अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत लेकर सातवीं प्रतिमा धारण की।
सं. 2007 प्रथम आषाढ़ वदी पंचमी को बड़वानी सिद्धक्षेत्र पर श्री 108 आचार्य शांतिसागर जी की आज्ञा से आचार्य श्री महावीर कीर्ति जी महाराज ने आपको क्षुल्लक दीक्षा दी और आप क्षुल्लक ऋषभसागर कहलाने लगे। माघ सुदी 13 सं. 2009 में धर्मपुरी (निवास) पहुंचकर ऐलक दीक्षा ली और सुधर्मसागर के नवीन नाम से संस्कारित हुए। पुनः सोनागिर क्षेत्र पर फागुन सुदी 13 सं. 2009 को निर्गन्थ दीक्षा ली और आपका नाम श्री विमलसागर रखा गया।
मुनि दीक्षा के उपरान्त आपने 8 वर्ष कठोर तपस्या और गहन स्वाध्याय किया तथा उत्तर दक्षिण भारत का भ्रमण किया। कुछ समय उपरान्त
आपने अपना निज का संघ बनाया तथा अगहर वदी 2 सं. 2018 को टूंडला (आगरा) में पं. माणिकचन्द जी धर्मरत्न एवं विशाल जन समूह के बीच आपको आचार्यत्व पद दिया गया।
उपसर्ग, अतिशय एवं धर्मप्रभावना-आपका सम्पूर्ण जीवन उपसर्गों और घटनाओं का रहा है। जब आप अतिशय क्षेत्र बन्धाजी (टीकमगढ़) पहुंचे तो वहां के सूखे पड़े कुएं में शांतिधारा कराकर श्री आदि प्रभु का प्रक्षाल जल डलवा दिया और कुएं में जल ही जल हो गया। मिर्जापुर रास्ते में सिंह और विशालकाय अजगर का उपसर्ग हुआ। जौनपुर के रास्ते में 53
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एक रेलवे चौकी पर जहां रात्रि विश्राम करना पड़ा एक भयानक सर्प आपके सामने तीन घंटा पड़ा रहा। गिरनार की तीर्थ वन्दना पर जब पावा और उसके बाद जब भररिया पहुंचने पर वहां के निवासियों ने मारने का उपक्रम किया तो आपकी तपस्या के प्रभाव से उपसर्ग टला।
शुभ चिन्ह-आचार्यश्री विभिन्न शुभ चिन्हों से विभूषित थे। दाहिने पैर में पदमचक्र, हृदय में श्रीवत्स, शरीर में विभिन्न तिल, कांचन वर्ण, आदि उनकी महानता सिद्ध करते हैं।
उपाधियां-मुनिश्री 108 विमलसागर जी महाराज को सन् 1960 में टूंडला में विद्वत समुदाय द्वारा पूज्य आचार्यश्री महावीरकीर्ति की सहमति से आचार्य पद प्रदान किया गया। सन् 1963 में बाराबंकी में चातुर्मास के बीच चारित्र चक्रवर्ती पद प्रदान किया। सन् 1979 में सोनागिर जी में श्री नंगानग कुमार की मूर्तियों की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के समय ज्ञानकल्याणक के दिन ज्ञान दिवाकर श्री भरतसागरजी महाराज ने जनभावना को देखते हुए ‘सन्मति दिवाकर' मद से अलंकृत करने का प्रस्ताव रखा जिसका समर्थन परम श्रेद्धय सम्यक्ज्ञान प्रसार योजना के पुरोधा क्षुल्लक श्री ज्ञानानन्द जी महाराज ने रखा। सभी भक्तों ने इसी नाम से आचार्य श्री की वन्दना की। आपके अन्य गुणों को देखकर आप वात्सल्य मूर्ति, करुणानिधि, स्वपरोपकारी भक्तों द्वारा स्वयंमेव कहे जाने लगे।
अपने विहार के माध्यम से आचार्य श्री ने अपनी पग धूलि से हजारों स्थानों को पवित्र किया। स्वयं भी अनगिनत तीर्थों की वन्दना की। जीर्ण-शीर्ण हो रहे तीर्थों के उद्धार हेतु नर-नारियों को प्रेरित किया। लाखों लोगों को शूद्र जल एवं मांस-भक्षण आदि का त्याग कराया। लगभग 350 त्यागी आपके द्वारा बनाये गये तथा 30 ब्रह्मचारी, 2 एलक, 3 क्षुल्लक, क्षुल्लिकाएं, 2 आर्यिकाएं और 4 मुनि बना चुके तथा और भी अनेक त्यागी बनाये। ऐसी अटूट प्रभावना आपके व्यक्तित्व में थी। पद्मावतीपरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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ऐसे परोपकारी सद्गुरु इस वर्तमान काल में बहुत कम पाये जाते हैं। जो स्वयं चारित्रिक भूमिका पर आरूढ़ होकर पिरों को उठाने में और उठों को धर्म का अमृत देने में निरत रहते हैं। धर्म की आधारशिला इन्हीं पूज्य संतों पर टिकी है तथा जीवन्त है।
आपकी समाधि सन् 1994 में श्री सिद्धक्षेत्र सम्मेदशिखर पर हुई। विमल समाधि
बीसवीं सदी के आचार्य पद पर प्रतिष्ठित अमर संतों में आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज ही एक मात्र ऐसे संत है जिन्होंने तीर्थराज सम्मेद शिखरजी पर सल्लेखना पूर्वक सम्यक् समाधि मरण किया। उनकी अमर स्मृति समाधि मन्दिर की भव्य, अनूठी, दिव्य-रचना भी दर्शनीय, वन्दनीय है। इस विमल समाधि मन्दिर में तीन गृह हैं
प्रथम गृह में आचार्य श्री की आशीर्वाद मुद्रा युक्त वात्सल्यमयी मूर्ति विराजमान है जो भव्यात्माओं को पर्वतराज की ओर चढ़ते हुए तथा उतरते हुए मानो मंगल आशीर्वाद प्रदान कर रही है। द्वितीय गृह में आचार्य श्री के पुनीत चरण-कमल विराजमान हैं, जो मुमुक्ष को मंगल आचरण के लिए संकेत कर रहे हैं तथा तीसरा गृह आराधकों को शांति से बैठकर आराधना करने के लिए सुरक्षित किया गया है।
आचार्यश्री की मुनिदीक्षा सिद्धक्षेत्र सोनागिर जी पर हुई थी। स्मृति स्वरूप मुनि श्री चैत्यसागर जी की प्रेरणा से पर्वतराज सोनागिर जी पर भी छतरी निर्मित की गई है।
वीर निर्वाण संवत् 2515 सन् 1989 में स्याद्वाद विमल ज्ञानपीठ (अ. भा.श्री स्याद्वाद शिक्षण परिषद) सोनागिर (दतिया) द्वारा सन्मति दिवाकर परम पूज्य श्री आचार्य विमलसागर जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित कराया गया।
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पूज्य आचार्य श्री सन्मतिसागरजी महाराज
जीवन का पुरुषार्थ संयम की साधना और इच्छाओं की विराधना में हैं। मुनि और जैन संतों का जीवन संयम की जीवन्त प्रतिमा हुआ करती है। वे संसार में रहकर उसके नहीं होते। वे कर्म करते हुए भी निष्कर्म रहते हैं ।
फफोतू जिला एटा उत्तर प्रदेश में श्री प्यारे लाल जी के पुत्ररत्न श्री ओमप्रकाश उन जीवात्माओं की श्रेणी में से एक हुए जिन्होंने स्वात्मकल्याण की लगन लगाई । साधारण परिस्थितियों में रहकर विद्याध्ययन किया । आप प्रारम्भ से साधु-संतों के सहवास में रहे और एक दिन वह आया जब फाल्गुन सुदी 13 सं. 2019 में आचार्य विमलसागर की धर्ममयी प्रेरणा से श्री सम्मेदशिखर की पुण्यस्थली से मुनिदीक्षा लेकर नये नाम सन्मतिसागर को सार्थक किया। उस समय आप बाल ब्रह्मचारी थे और आयु 25 वर्ष
थी
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दीक्षोपरान्त आपने बाराबंकी, बड़वानी, मांगीतुंगी, श्रवणबेलगोला, हुम्मच, कुन्थलगिरि और गजपंथा आदि में अपने वर्षाकालीन चातुर्मास धर्माराधनापूर्वक व्यतीत किये।
आपने परमपूज्य आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी महाराज से विधिवत् शास्त्रों का अध्ययन किया। आप महसाना में आचार्यश्री के समाधिकाल में उनके चरणों में ही उपस्थित थे । महाराज ने आपको अपने संघ का पट्टाधीश घोषित किया। तबसे आप वीतरागतापूर्वक संघ का संचालन कर रहे हैं ।
जुलाई 1995 में पूज्य आचार्यश्री सन्मतिसागरजी महाराज का वर्षायोग गांधीनगर दिल्ली में हुआ । सामाजिक व्यवधान एवं चातुर्मासिक व्यवस्थाओं के लिए एक धर्मशाला की आवश्यकता महसूस की गई। पद्मावती पुरवाल जाति के प्रबुद्ध व्यक्तियों से विचार-विमर्श कर श्री पद्मावती पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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पुरवाल दिगम्बर जैन पंचायत दिल्ली-6 एवं श्री पद्मावती पुरवाल दिगम्बर जैन समाज शाहदरा क्षेत्र के सदस्यों की संयुक्त बैठक में 3 सितम्बर, 1995 को पूर्ण सहमति एवं उत्साह के वातावरण में एक धर्मशाला बनाने का संकल्प किया गया। 01 जुलाई, 1996 को धर्मशाला की जगह की रजिस्ट्री श्री पद्मावती पुरवाल दिगम्बर जैन समाज शाहदरा क्षेत्र के नाम हुई। श्री पद्मावतीपुस्वाल दि. जैन पंचायत, धर्मपुरा दिल्ली -6 के अध्यक्ष श्री रमेशचंद जैन कागजी और उनके माध्यम से पूरी पंचायत के इस अद्भुत सहयोग और अनूठे त्याग की श्री प. पु. दि. जैन समाज शाहदरा क्षेत्र के अध्यक्ष श्री नरेन्द्र कुमार जैन एवं उनके समस्त साथियों के साथ-साथ पूरे जनमानस और दिल्ली के बाहर के प्रबुद्ध महानुभावों ने इसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की। यह पूरा कार्य आचार्य श्री सन्मतिसागरजी महाराज के आशीर्वाद से सम्पन्न हुआ ।
- सम्पादक मंडल
आचार्यश्री पार्श्वसागरजी महाराज
श्री 108 आचार्यश्री पार्श्वसागर जी महाराज का गृहस्थावस्था का नाम राजेन्द्रकुमार था । आपका जन्म कार्तिक सुदी सप्तमी वि.सं. 1972 को कोटला ( फिरोजाबाद) में हुआ। आपके पिताश्री रामस्वरूप जी व माता श्रीमती जानकीबाई थीं। आप पद्मावती पुरवाल जाति के भूषण थे । आपकी धार्मिक एवं लौकिक शिक्षा साधारण हुई। आपने विवाह नहीं किया। बाल ब्रह्मचारी ही रहे ।
दशलक्षण पर्व में अशुभ स्वप्न देखने पर आपमें वैराग्य प्रवृत्ति जाग उठी व आपने वि.सं. 1717 में आचार्यश्री 108 विमलसागर जी महाराज से सोनागिर में क्षुल्लक दीक्षा ले ली। इसके बाद वि. सं. 2018 में फाल्गुन शुक्ला 8 को आचार्य श्री विमलसागर जी से मेरठ में मुनि दीक्षा ले ली। आपने मेरठ, बड़वानी, ईडर, सुजानगढ़, कोल्हापुर आदि स्थानों पर पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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चातुर्मास कर धर्मवृद्धि की। आपको छहढाला, बारहभावना, वैराग्य पाठ का विशेष ज्ञान था। आपने नमक, घी, तेल आदि का त्याग कर दिया था ।
शरीर की निर्बलता के कारण आप श्री सोनागिरसिद्ध क्षेत्र पर विराजमान रहने लगे थे और अंत में 1987 में यहीं पर समाधि हुई ।
आचार्य श्री निर्मलसागरजी महाराज
गिरनार के महान संत तीर्थरक्षा शिरोमणि, श्रमणरत्न गिरनार गौरव श्री 108 आचार्य निर्मलसागर जी का जन्म मार्गशीर्ष कृष्ण दौज वि.सं. 2003 सन् 1946 को ग्राम पहाड़ीपुर जिला एटा ( अब फिरोजाबाद, उत्तर प्रदेश) में पद्मावती पुरवाल परिवार में हुआ। आपका गृहस्थावस्था का नाम श्री रमेशचन्द्र था। आपके पिताश्री सेठ बिहारीलाल एवं माता श्री गोमावती थे। दोनों ही धर्मात्मा एवं श्रद्धालु थे । देव- शास्त्र - गुरु के प्रति उनकी अनन्य भक्ति थी तथा अधिक समय धार्मिक कार्यों में ही व्यतीत करते थे। उन्होंने पांच पुत्र एवं तीन कन्याओं को जन्म दिया। उनमें सबसे लघु पूज्य आचार्य श्री ही हैं ।
सबसे छोटे होने के कारण माता पिता का आप पर विशेष स्नेह रहा । लेकिन यह प्यार अधिक समय तक न रह सका। आपकी छोटी उम्र में आपके माता-पिता देवलोक सिधार गए। आपका लालन-पालन आपके बड़े भाई श्री गौरीशंकर जी द्वारा ही हुआ। आपकी वैराग्य भावना बचपन बलवती हुई । आपके मन में घर के प्रति उदासीनता रही। आपके हृदय में आहार दान देने व निर्ग्रन्थ मुनि बनने की भावना ने घर कर लिया था । आप जब छहढाला आदि पढ़ते थे तो इस संसार के चक्र परिवर्तन को देखकर आपका हृदय कांप उठता था तथा वह धर्मचक्षुओं द्वारा प्रभावित होने लगता था । आप सोचते थे कि इन दुःखों से बचकर अपने को कल्याण मार्ग की ओर लगाकर सच्चे सुख को प्राप्त करना चाहिए ।
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त्यामवृत्ति-शुभकर्म के उदय से परमपूज्य श्री 108 आचार्यश्री महावीर कीर्तिजी का आगमन हुआ। उससमय आपकी उम्र 12 वर्ष की थी। महाराज श्री भी आपके ही घराने में से थे। आपने उनके समक्ष जमीकन्द का त्याग किया ओर थोड़े समय उनके साथ रहे। फिर भाई के आग्रह से घर आना पड़ा। अब आपको घर कैद सा जान पड़ा तो आपके भाई ने शादी के प्रयत्न किये लेकिन सब निष्फल रहे। आप आचार्य श्री 108 शिवसागर जी के संघ में थोड़े दिन रहे। वहां से बड़वानी यात्रा को कुछ लोगों के साथ चल दिये। बड़वानी में आचार्य श्री 108 विमलसागर जी का संघ विराजमान था। आपने वहां पर दूसरी प्रतिमा के व्रत लिये। इस समय आपकी उम्र 15 वर्ष की थी। फिर बाद में आप दिल्ली पहुंचे, वहां पर परमपूज्य आचार्य श्री 108 सीमंधरजी का संघ विराजमान था। उनके साथ आप गिरनारजी गये।
श्रमणत्व की ओर बढ़ते कदम-बैसाख शुक्ला 14 सन् 1965 को आपने आचार्यश्री सीमंधर जी से गिरनार क्षेत्र की चौथी टोंक पर क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की। उस समय आपकी उम्र 17 वर्ष की थी। वहां से विहार कर संघ का चातुर्मास अहमदाबाद में हुआ। उसके बाद अपने गुरु की आज्ञा से सम्मेदशिखर जी के लिए विहार किया। आप पैदल यात्रा करते हुए आगरा आये।
मुनि दीक्षा-आगरा में परम पूज्य आचार्य श्री 108 विमलसागर जी का संघ विराजमान था। आपने सं. 2024 आषाढ़ शुक्ला पंचमी रविवार के दिन महाव्रत को धारणकर आचार्यश्री विमलसागरजी से मुनि दीक्षा धारण की और मुनि श्री निर्मलसागर नाम से संबोधित हुए। संघ का चातुर्मास आगरा में ही हुआ। आपके मन में यात्रा की भावना बलवती थी। अतः महाराज श्री से आज्ञा लेकर व क्षुल्लक जी का साथ लेकर यात्रा के लिए विहार किया। रास्ते में आपका चातुर्मास सागर में हुआ। वहां से विहार
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करते हुए आप कुण्डलपुर आये। वहां पर आपसे ब्र. निजात्माराम जी ने क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की।
वन्दना एवं विहार-कुण्डलपुर से विहार करते हुए आप श्री सम्मेदशिखरजी पधारे। वहां पर आपकी वन्दना सकुशल हुई। बाद में आपका चातुर्मास हजारीबाग में हुआ। उसके बाद आप मधुबन में आये। वहां पर क्षुल्लक जी ने आपसे महाव्रत ग्रहण किये। बाद में आप ईसरी पंचकल्याणक में पधारे तथा वहां पर 8-10 दीक्षायें आपके द्वारा हुईं। वहां से विहार करते हुए बाराबंकी पधारे। जहां आपका चातुर्मास हुआ।
आचार्य पद - बाराबंकी में चातुर्मास के पश्चात् आपकी जयंती के शुभ अवसर पर समाज ने प्रभावित होकर आपको आचार्य पद से विभूषित किया। वहां वे विहार करते मेरठ आए । मेरठ से आप संघ सहित पांडव नगरी भगवान शांतिनाथ, कुन्थनाथ, अरहनाथ की जन्म भूमि हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र पर अक्षय तृतीया के दिन जिस दिन भगवान आदिनाथ ने श्रेयांस राजा से प्रथम आदिकाल का आहार गन्ने के रस के रूप में लिया था - पधारे। संघ सहित विराजकर आपने सम्पूर्ण संघ ने आहार में गन्ने का रस लेकर उस दिन की याद ताजी की मानो वह दृश्य ही सामने हो । वहां आचार्यश्री संघ सहित एक माह रहकर मीरापुर, जगनमठ, मुजफ्फरनगर, खतौली, सरधना, बरनाला, बिनौली, बड़ागांव, बड़ौत आदि नगरों में होते हुए चातुर्मास के लिए दिल्ली कैलाशनगर में विराजे। यहां पर गुरु आज्ञा से महाराज श्री को समाज द्वारा आचार्य पद से सुशोभित किया गया ।
गिरनार सत्व संकट निवारक - परम पावन गिरनार तीर्थक्षेत्र में विगत बीस वर्ष से जैन धर्मावलम्बियों को क्षेत्र की पूजा-अर्चना से वंचित रखा जाता था। भगवान नेमिनाथ की निर्वाण स्थली पंचम टोंक पर चरण चिन्हों को फूलों से ढककर उन पर रुपये पैसे चढ़ाने को साधु-संतों द्वारा बाध्य किया जाता था। इतना ही नहीं पूज्य आचार्य श्री महावीर कीर्ति जी पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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महाराज एवं अन्य जैन मुनियों के साथ भी अभद्रता की घटनायें हुईं। इन घटनाओं ने जैनियों को भयभीत कर दिया। जिससे क्षेत्र पर यात्रियों की संख्या निरन्तर कम होने लगी । और गिरनार क्षेत्र का सत्व संकट में पड़ गया ।
सत्य पुनर्स्थापना सन् 1980 में आचार्य श्री निर्मलसागर जी महाराज संघ सहित कन्याकुमारी से पदयात्रा करते हुए गिरनार आये। गिरनार की तत्कालीन परिस्थितियों ने मुनि-हृदय को व्यथित कर दिया। उन्होंने तभी संकल्प किया- 'गिरनार क्षेत्र को जैन धर्मावलम्बियों के लिये निरापद बनाऊंगा तथा देश में गिरनार क्षेत्र की प्रभावना करूंगा ।
आचार्य श्री के सतत् समर्पित प्रयास का ही परिणाम है कि अब गिरनार वन्दना करने जाने वाले बन्धुओं को कोई उत्पीड़न नहीं कर सकता। आचार्य श्री की सत्प्रेरणा से चौबीस तीर्थंकरों के निर्वाण दिवस पर स्थानीय दिगम्बर जैन गुरुकुल के छात्रागण इन्द्र वेशभूषा में निर्वाण लाडू चढ़ाने पांचवीं टोंक तक जाते हैं और भक्ति भाव से निर्वाण महोत्सव मनाते हैं । आचार्यश्री की संकल्प शक्ति के परिणाम स्वरूप ही अब जैन बन्धु पूरी स्वतंत्रतापूर्वक तीर्थराज की वन्दना करते हैं। इस प्रकार आचार्यश्री के शुभ संकल्प से ही गिरनार क्षेत्र का सत्व पुनर्स्थापित हुआ।
गिरनार जी में नव निर्माण-आचार्य श्री निर्मलसागर जी महाराज की प्रेरणा से क्षेत्र पर भव्य मानस्तम्भ युक्त समवशरण मंदिर, श्री तीन चौबीसी जिनालय एवं भगवान नेमिनाथ का 22 फुट ऊंचा भव्य जिनबिम्ब खड़ा किया गया है। दिनांक 1 दिसम्बर 1998 से 6 दिसम्बर 1998 तक शताब्दियों के बाद गिरनारजी पर 'न भूतो न भविष्यति' ऐसा पंचकल्याणक महोत्सव सम्पन्न हुआ । आचार्यश्री को समाज ने 'गिरनार गौरव' की पदवी से विभूषित किया। आप व्रतों में दृढ़ एवं साहसी हैं, सरलता अधिक है, क्रोध तो देखने तक में नहीं आता । प्रकृति शान्ति एवं नम्र है। वीतराग निर्ग्रन्थ साधुओं के प्रति अगाध श्रद्धा है ।
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आचार्य श्री अजितसागरजी महाराज । • आप प्रतिष्ठाचार्य संहिता सूरि ब्र. पं. सूरजमल जी निवाई (राज.) के गृहस्थावस्था के बड़े भाई हैं। आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की परम्परा में प्रकाण्ड विद्वान ऋषिराज हैं। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी हैं और अनेक साधुओं एवं त्यागियों को ज्ञानदान देने का श्रेय आपको प्राप्त है। परम विदुषी आर्यिका रत्न सुपार्श्वमती माताजी आपको गुरु रूप में स्मरण करती हुई भक्ति से गद्गद् हो जाती हैं। प्राचीन ग्रन्थ भण्डारों से खोजकर जिनशासन की अनेक विलुप्त विधियों को आप प्रकाश में लाये हैं। विभिन्न प्राचीन गुटकों से एवं ग्रन्थों से पृथक-पृथक विषयों पर आपने हजारों श्लोकों का संग्रह किया है। इसके पहले भी आपकी अनेक रचनाए प्रकाश में आ चुकी हैं। विद्वानों के साथ तत्व चर्चा में आप रुचिपूर्वक रस लेते हैं एवं ग्रन्थों के सतत् अवलोकन से प्रदीप्त प्रतिभा का पूर्ण परिचय देते हैं।
विक्रम संवत् 1982 में भोपाल के पास आष्टा नामक कस्बे के समीप प्राकृतिक सुरम्यता से परिपूर्ण भौंरा ग्राम में पद्मावती परवाल जाति में उत्पन्न परम पुण्यशाली श्री जवरचन्द्र जी के घर माता श्री रूपाबाई की कुक्षि से आपका जन्म हुआ था। जन्म के बाद माता-पिता ने आपका नाम राजमल रखा।
शल रूपा मां रूपाबाई सुग्रहणी, कार्यकुशल एवं धर्मपरायण महिला हैं। फलतः उनके आदर्शों का असर होनहार संतान पर पड़ा। आपके पिताश्री स्वभाव से सरल, धार्मिक वृत्ति के व्यक्ति थे। वे वजनकसी का कार्य करते थे। जन्म के समय आपकी स्थिति साधारण थी।
आपसे बड़े तीन भाई-1. श्री केशरीमल, 2. श्री मिश्रीलाल और 3. श्री सरदारमल जी हैं। घर पर ही अपने उद्योग के साथ परिवार सहित जीवन यापन कर रहे हैं। पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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• आपकी रुचि प्रारम्भ से ही विरक्ति की ओर चीन बालपन से ही आपका स्वभाव सरल, मृदु एवं व्यवहार नम्रतापूर्वक रहा। विद्यार्थी जीवन में आपकी बुद्धि प्रखर एवं तीक्ष्ण थी। वस्तु परिज्ञान आपको शीघ्र ही हो जाता था। आपकी स्कूली शिक्षा कक्षा 4 तक ही इन्दौर जिला के 'अजनास' गांव में हुई।
वैराग्य की ओर बढ़ते कदम-प्रारम्भिक शिक्षा के बाद संवत् 2000 में आपने आचार्यवर श्री वीरसागर जी महाराज के प्रथम दर्शन किये। फलतः आपके हृदय में परम कल्याणकारी जैन धर्म के प्रति अनन्य श्रद्धा ने जन्म लिया। 17 वर्ष की अल्पायु में आचार्यश्री की सत्प्रेरणा से प्रभावित होकर
आप संघ में शामिल हो गये और जैनागम का गहन अध्ययन प्रारम्भ कर दिया। जैसे-जैसे आपकी निर्मल आत्मा को ज्ञान प्राप्त होता मया वैसे-वैसे आपकी प्रवृत्ति वैराग्य की ओर होने लगी। वि.सं. 2002 में आपने झालरापाटन (राजस्थान) में आचार्यवर श्री वीरसागर जी महाराज से सातवीं प्रतिमा के व्रत अंगीकार कर लिये।
इस अवस्था में आकर आपने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत की कठिन प्रतिज्ञा लेकर सांसारिक भोग विलासों को ठुकराते हुए कठोर व्रतों का अभ्यास कर शरीर को दुर्द्धर तपस्या का अभ्यासी बनाया। इस पवित्र ब्रह्मचर्य अवस्था में आकर आपने अथक श्रम से आगम का ज्ञान प्राप्त किया उससे आपकी उचित प्रतिष्ठा हुई।
ज्ञानवृद्धि व पद प्रतिष्ठायें-ज्ञानवृद्धि के साथ आपकी ख्याति फैलती गई। अनेक पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं में सफलतापूर्वक व्रतविधान कराने के कारण 'प्रतिष्ठाचार्य', आत्म-कल्याण की ओर प्रवृत्त अनेक श्रावक-श्राविकाओं को आगम की उच्च शिक्षा देने के कारण ‘महापंडित' तथा अपनी विद्वतापूर्ण प्रवचन शैली, लेखन-शैली के कारण विद्यावारिधि' पद से समाज ने आपकी साधना को अलंकृत किया।
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व्यामोह विहीनता- आप में एक विशिष्ट गुण का प्राधान्य पाया जाता है। जब आप तर्कसंगत, विद्वतापूर्ण विशेष कोई भी कार्य करते तो उसका श्रेय अन्य किसी व्यक्ति विशेष को इंगित कर देते तथा स्वयं प्रतिष्ठा के निर्लोभी बने रहते । कार्य का सम्पादन स्वयं करते और उसकी प्रतिष्ठा, इज्जत के अधिकारी अन्य व्यक्ति होते । यह आपकी व्यामोह विहीनता, महानता, प्रबल सांसारिक वैराग्य और क्षणभंगुर शरीर के प्रति निर्ममत्व के साथ ही मानव समाज के कल्याण की उत्कृष्ट भावना का प्रतीक था।
परम दिगम्बर जैनेश्वरी दीक्षा- इस प्रकार ज्ञान और चारित्र में श्रेष्ठता पा जाने पर आपके अन्तर में वैराग्य की प्रबल ज्योति का उदय हुआ तथा सीकर (राज.) में आकर जनसमूह के सामने परम पूज्य दिगम्बर जैनाचार्य श्री शिवसागर जी महाराज से समस्त अंतरंग और बहिरंग परिग्रह का त्याग करके कार्तिक सुदी 4 संवत् 2018 की शुभ तिथि व शुभ नक्षत्र में आपने दिगम्बर मुनिदीक्षा धारण कर ली। आचार्यश्री ने आपका नाम संस्कार श्री अजितसागर नाम से किया ।
आपका संस्कृत ज्ञान परिपक्व एवं अनुपम है । आपने निरन्तर कठोर अध्ययन एवं मनन से ज्ञान का भंडार अपनी आत्मा में समाहत किया। उससे अच्छे-अच्छे विद्वान दांतों तले उंगली दबाकर नत हो जाते हैं
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मुनिश्री सुहागसागरजी
आपका जन्म ग्राम रीवां, जिला मैनपुरी उ.प्र. में हुआ। पिता का नाम श्री लाहौरी लाल व माता का नाम रतन बाई था। मुनिश्री का गृहस्थावस्था का नाम चन्द्रकान्त था । बाल्यावस्था गांव में ही गुजरी। युवावस्था प्राप्त होते ही इन्दौर जाकर स्वतन्त्र व्यवसाय किया । इदौर पंचकल्याणक में आचार्य श्री विमलसागर जी से सप्तम प्रतिमा के व्रत ग्रहण किए। संघ के पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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फिरोजाबाद चातुर्मास के अवसर पर आषाढ़ शुक्ला 13 सन् 1986 में क्षुल्लक दीक्षा तथा संघ के मथुरा-चौरासी पहुंचने पर ऐलक पद ग्रहण किया। मुनि दीक्षा सोनागिरजी में ली। सुहागनगरी फिरोजाबाद में प्रथम दीक्षा होने के कारण नाम 'सुहागसागर जी' पड़ा।
___ मुनिश्री पदमसागरजी मुनिश्री एटा नगर के निवासी थे और आचार्य श्री सन्मतिसागर जी की गृहस्थावस्था के भानजे थे। अल्पावस्था में आचार्य श्री सन्मतिसागर जी से श्री सम्मेदशिखर जी में मुनिदीक्षा पा ली थी। वे अकेले ही विहार करने लगे। राजस्थान के एक अतिशय क्षेत्र में आपकी समाधि हो गई।
मुनिश्री संभवसागरजी आपका जन्म ग्राम रैमजा, जिला फिरोजाबाद में हुआ था। पिताश्री का नाम श्री पन्नालाल व मातुश्री का दुर्गाबाई था। गृहस्थावस्था का नाम श्री लाल था। ब्रह्मचर्य व्रत मिर्जापुर में लिया। क्षुल्लक दीक्षा व मुनिदीक्षा आचार्य श्री विमलसागर जी से श्री सम्मेद शिखर में प्राप्त की। मुनिश्री अपने गुरु आ. श्री विमलसागर जी के संघ के साथ ही रहते थे। आपकी समाधि आगरा जिलांतर्गत एत्मादपुर में हुई जहां उनके चरण विराजमान हैं।
मुनिश्री विष्णुसागरजी आपका जन्म एटा जिले के कुसवा ग्राम में हुआ जो जलेसर-एटा के बीच कुसवा स्टेशन से 4 फाग दूर है। पिताजी का नाम श्री प्यारेलाल
और मां का नाम कुन्था देवी था। प्रारम्भिक शिक्षा निज ग्राम तथा गांव पोंडरी से कक्षा 4 उत्तीर्ण की। श्री गोपाल दि. जैन सिद्धांत विद्यालय मुरैना
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में अध्ययन कर विशारद तृतीय खण्ड तथा शिक्षा पायी। फिरोजाबाद आकर मुनीमी और स्वतन्त्र व्यवसाय किया। नई बस्ती फिरोजाबाद में रहते हुए आचार्य विमलसागर दि. जैन विद्यालय तथा औषधालय की स्थापना और निर्माण कार्य में योग दिया। 1986 में आचार्य श्री 108 बिमलसागर जी महाराज ससंघ फिरोजाबाद में चातुर्मास हेतु पधारे तो आपने और ब्र. महीपाल जी श्रावण शुक्ला 15 रक्षाबंधन के दिन क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा के समय आपका नाम विष्णुसागर और महीपाल जी का नाम अकम्पनसागर रखा गया। सोनागिरिजी पंचकल्याणक के अवसर पर पौष कृष्ण 5 को आचार्यश्री विमलसागर जी महाराज से मुनि दीक्षा ली और उन्हीं के संघ में रहे। दुर्बल और अशक्त हो जाने के कारण आजकल मुनिश्री जितेन्द्रसागर जी के साथ श्री 1008 चन्द्रप्रभ दि. जैन अतिशय क्षेत्र फिरोजाबाद में विराजमान हैं। आपने 'पद्मावती पुरवाल जाति : रत्नों की खान' शीर्षक पुस्तक लिखी है।
मुनिश्री जितेन्द्रसागरजी आपका जन्म ग्राम छिकाऊ, जनपद फिरोजाबाद में हुआ था। पिताश्री का नाम श्री अन्तराम और माताजी का नाम श्रीमती जानकीबाई था। आप 4 भाई थे। दो स्वर्गवासी हो चुके हैं। 6 पुत्र और तीन पुत्रियां हैं। गांव में स्वतंत्र व्यवसाय करते थे। 15 वर्ष निर्विरोध ग्राम प्रधान रहे। कुछ समय से फिरोजाबाद स्थायी निवास बना लिया था। मुनिश्री शांतिसागर जी से सप्तम प्रतिमा के व्रत जारखी ग्राम में लिए। आचार्य श्री विमलसागर जी के फिरोजाबाद वर्षावास (1986) के अवसर पर आश्विन शुक्ला दशमी को क्षुल्लक दीक्षा ली। मुनि दीक्षा आचार्य श्री विमलसागर जी से ही श्री सम्मेद शिखर जी में 1994 में विजयादशमी के दिन ग्रहण की। वर्तमान मे आप श्री चन्द्रप्रभ दि. जैन अतिशय क्षेत्र फिरोजाबाद में मुनि श्री विष्णुसागर जी के साथ विराज रहे हैं। पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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आचार्य श्री निर्भयसागरजी महाराज टूण्डला निवासी श्री दरबारी लाल जी की धर्मपत्नी श्रीमती पुष्पादेवी ने 1-1-41 को एक बालक को जन्म दिया। 10वीं कक्षा पास करने के बाद उसने कपड़े की दुकान की। भारतीय संस्कृति और राजनीति से उनका लगाव था इसलिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से उनका निकट का संपर्क रहा। 1992 में घटी घटना के कारण मन को शान्ति नहीं मिली। चिंतन
और मनन से मन वैराग्य की ओर बढ़ता चला गया और 28 अप्रैल 1999 को गिरनार पर्वत पर आचार्य श्री निर्मलसागर जी महाराज से मुनि दीक्षा ग्रहण की।
28-2-2001 को मुनिश्री सरगन (गुजरात) के उमता तालुका आये। ध्यान अवस्था में उन्हें बोध हुआ कि यहां जो टीला है, उसके नीचे मंदिर
और पुरातत्व की महत्वपूर्ण सामग्री है। उन्होंने खुदाई के लिए आग्रह किया। गुजरात राज्य के तत्कालीन राज्यपाल श्री सुन्दर सिंह भंडारी जी की अनुमति से 6 अप्रैल को खुदाई प्रारम्भ की गई और 5 जून 2001 को वहां 74 मूर्तियां जो 1100 से लेकर 23 वर्ष तक पुरानी थीं, निकली। श्री राम के कलात्मक मंदिर व पुराने दागिने प्राप्त हुए। 5 जुलाई 2002 को पू. मुनिश्री ने वहां मंदिर जी की स्थापना कराई। 24 अक्टूबर 2002 को तपस्वी आचार्य सन्मति सागर जी ने उन्हें आचार्य पद प्रदान किया। आचार्य श्री का ध्यान आत्मकल्याण व जनकल्याण की ओर है। उनकी पुस्तकें भी प्रकाशित हुई हैं।
मुनि श्री उर्जयन्तसागरजी महाराज एटा के प्रसिद्ध बर्तन व्यापारी लाला बंगाली के पुत्र श्री शिखरचंद की धर्मपत्नी श्रीमती इन्द्राणी जैन ने मोक्षसप्तमी 21-8-1977 को एक बालक को जन्म दिया। उसका नाम रखा राहुल जैन और उसने 10वी कक्षा तक
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शिक्षा प्राप्त की। इस होनहार बालक की भव्य आत्मा वैराग्य की ओर थी। अतः 15 दिसम्बर 1994 वात्सल्य रत्नाकर आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज से सम्मेद शिखर पर्वत पर मुनि दीक्षा ग्रहण की। आचार्य श्री की समाधि के कुछ समय बाद दिल्ली आने के मार्ग में बसे गांवों, कस्बों, शहरों में धर्म प्रभावना करते हुए उनका दिल्ली आगमन हुआ। यहां आकर पूज्य आचार्य श्री विद्यानंद जी महाराज के सानिध्य में रहकर कुन्द-कुन्द भारती में आगम का ज्ञान प्राप्त किया। उसके पश्चात् धर्म प्रभावना करते हुए जयपुर (राजस्थान) पहुंचे। राजस्थान में कई पंचकल्याणकों एवं अन्य विशाल आयोजनों को अपना सान्निध्य प्रदान किया। वर्तमान में आप जयपुर में विराजमान हैं।
मुनिश्री अनन्तसागरजी आप पद्मावतीपुरवाल जाति के श्री हीरालालजी एवं माताश्री मेनकाबाई के पुत्र हैं। गृहस्थावस्था का नाम नेमचन्द्र जी है। आपका जन्म वि.सं. 1967 में पुनहरा (एटा) में हुआ। आपने शादी नहीं की, बालब्रह्मचारी रहे। क्षुल्लक दीक्षा, सं. 2016 कोल्हापुर में विजयसागर नाम से, ऐलक दीक्षा माह कार्तिक सुदी पंचमी संवत् 2026 दिल्ली में, एवं मुनिदीक्षा माह फाल्गुन सं. 2027 को श्री सम्मेदशिखर पर श्री अनंतसागर जी नाम से पूज्य आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज से ली। ध्यान, अध्ययन में सदा लीन रहने वाले साधु हैं।
आर्यिका 105 श्री विशिष्टमती माताजी जन्म स्थान शिकोहाबाद (उ.प्र.) पूर्व नाम मीनाक्षी जैन पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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पिता का नाम माता का नाम जाति दीक्षा स्थान दीक्षा तिथि दीक्षा गुरु
श्री जयन्ती प्रसाद जैन श्रीमती विनयदेवी जैन पद्मावती पुरवाल टोडारायसिंह (टोंक), राजस्थान 16 जुलाई, 1989 गणिनी आ. श्री विशुद्धमती माताजी।
आर्यिका 105 श्री विनीतमती माताजी जन्मस्थान अवागढ़ (एटा) उ.प्र. पूर्व नाम
मनोरमा जैन पिता का नाम स्व. श्री शांतिस्वरूप जी माता का नाम श्रीमती मालती देवी जैन जाति
पद्मावती पुरवाल लौकिक शिक्षा धार्मिक शिक्षा धर्मालंकार दीक्षा स्थान कुचामन सिटी (राजस्थान) दीक्षा तिथि 5 अगस्त, 1993 दीक्षा गुरु गणिनी आ. श्री विशुद्धमती माताजी।
बी.ए.
क्षुल्लक 105 श्री विजयसागरजी श्री 105 क्षुल्लक विजयसागर जी का बचपन का नाम श्री नेमीचन्द्र जी था। आपका जन्म पुन्हेरा (एटा) में हुआ। आपके पिता का नाम श्री हीरालाल जी था जो एक सफल व्यापारी थे। आपकी माता श्रीमती
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माणिकबाई थीं। आप पद्मावती पुरवाल जाति के भूषण हैं। आपकी . लौकिक कक्षा 5 तक हुई आप बाल ब्रह्मचारी रहे। आपके चार भाई और चार बहनें हैं। संतों की संगति से आपको वैराग्य भावना जागी।
बाद में वि.सं. 2021 में कोल्हापुर स्थान पर आचार्यश्री विमलसागर से क्षुल्लक दीक्षा ले ली। आपने सोलापुर, ईडर, सुजानगढ़ इत्यादि स्थानों पर चातुर्मास कर धर्मवृद्धि की। आपके नमक, घी, तेल, दही आदि का त्याग
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क्षुल्लिका 105 श्री विलक्षणमती माताजी जन्म स्थान बझेरा (एटा) उ.प्र. पूर्व नाम इन्द्राणी देवी जैन पिता का नाम श्रीमान हुन्डीलाल जी जैन माता का नाम श्रीमती मुन्नीदेवी जैन जाति
पद्मावती पुरवाल पति का नाम डा. खजान्चीलाल जी जैन दीक्षा स्थान चंवलेश्वर पार्श्वनाथ (राजस्थान) दीक्षा तिथि 10 नवम्बर 1994 ई. दीक्षा गुरु
गणिनी आ. श्री विशुद्धमती माताजी।
क्षुल्लिका 105 श्री प्रभावती माताजी आप पिताश्री मुन्नेलाल जी एवं माता श्री कपूरीदेवी की पुत्री हैं। आपका जन्म स्थान अहारन (आगरा) है। जन्म तिथि भादों सुदी 11 सन् 1929, जाति पद्मावती पुरवाल है। गृहस्थावस्था का नाम जयमालादेवी था। आपका विवाह श्री सुगंधीलाल जी, खांडा (आगरा) निवासी से हुआ। परन्तु दुर्भाग्य से वैधव्य का अपार दुःख शीघ्र आ पड़ा। माह बैसाख सं. पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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1969 ई को आगरा में द्वितीय प्रतिमा एवं मिती माह सुदी 11 सं. 1969 ई. को फिरोजाबाद में क्षुल्लिका दीक्षा पूज्य श्री आचार्य विमलसागर जी महाराज से ली। आप संघ की विदुषी, तपस्विनी एवं शांत परिणाम की क्षुल्लिका हैं।
स्व. ब्रह्मचारी पंडित गौरीलालजी शास्त्री
(व्रती विद्वान) ऐसे व्यक्तित्व जो आचरण एवं ज्ञान की महिमा से मंडित होते हैं जीवन के सच्चे पोषक होते हैं। सप्तम प्रतिमाधारी, जातिभूषण, धर्म दिवाकर, विद्वतवर्य, पंडित गौरीलाल जी जैन सिद्धान्तशास्त्री ऐसी ही महान् आत्मा थे, जिन्होंने तत्कालीन परिस्थितियों से जूझकर छद्मस्थ वेष में रहकर ब्राह्मण विद्वानों से संस्कृत का अध्ययन किया। क्योंकि उस समय ब्राह्मण जैन विद्वान को संस्कृत पढ़ाने से घृणा करते थे।
आपने अपने जन्म से ग्राम बेरनी (एटा) को धन्य किया। संस्कृत, व्याकरण के आप उच्च कोटि के विद्वान थे और सिद्धान्तगत प्रत्येक शब्द का अर्थ निरुक्तिपूर्वक करते थे। शंका-समाधान की अपनी निजी शैली थी। स्व. मुनिराज श्री चन्द्रसागर जी महाराज को उद्भट संस्कृत विद्वान बनाने का श्रेय आपको ही था। आपने रत्नकरंड श्रावकाचार, षटकर्मोपदेश, रत्नमाला आदि अनेक ग्रन्थों की हिन्दी टीका की। आप प्रतिष्ठाचार्य भी थे।
आपने मथुरा में दि. जैन महाविद्यालय की स्थापना कर उसे जैन दीक्षा का प्रमुख केन्द्र बनाया तथा स्वयं जैन बद्री, मूडबिद्री में रहकर जयधवलादिक ग्रंथों का स्वाध्याय किया। आपने पद्मावती परिषद् की स्थापना करके पद्मावती पुरवाल पत्र निकाला और उसके सम्पादक रहे। आपने आगे
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चलकर शास्त्रीय परिषद की स्थापना की और अपने सम्पादकत्व में जैन सिद्धान्त पत्र निकाला ।
वि. सं. 1997 में आपका स्वर्गवास हो गया ।
ब्रह्मचारी वासुदेवजी (पिलुआ)
आपका जन्म सन् 1895 में पिलुआ ग्राम में हुआ था । पिताश्री लखमीचन्द जैन प्रतिष्ठित व्यापारी और ठेकेदार थे। उन्हें आयुर्वेद का भी
अच्छा ज्ञान था ।
श्री वासुदेव जी बाल्यकाल से ही सेवाभावी, सुकोमल स्वभाव के होनहार बालक थे । दस वर्ष की अल्पावस्था में ही श्री चम्पालाल की पुत्री गुणमाला जैन के साथ आपका विवाह हो गया। 32 वर्ष की अवस्था में सहधर्मिणी एक विवाहित पुत्री, एक सात वर्षीय पुत्र और 2 वर्षीय कन्या को छोड़कर स्वर्ग सिधार गईं। इस असामयिक वियोग से मन में सुप्त वैराग जाग उठा । पुनर्विवाह का आग्रह दृढ़ता से ठुकरा दिया। पं. लीलाधर शास्त्री कलकत्ता के सान्निध्य में आयुर्वेद का विधिवत अध्ययन किया ।
औषध- दान और साधुवृती सेवा को आपने अपना मिशन बना लिया। बंगाल के बुगड़ा तथा मदारीपुर में औषध दान देकर जनसाधारण तथा साधु- वृती सेवा में संलग्न श्री सम्मेद शिखर की यात्रा के लिए अक्सर जाते रहते और तीन चार मास तक साधुवृतियों की सेवा में लगे रहते। इस प्रकार साधु-समागम, औषध-दान और तीर्थराज की वन्दना का लाभ एक साथ प्राप्त होता ।
45 वर्ष की अवस्था में आपने श्री चन्द्रसागर जी महाराज से सप्तम प्रतिमा (ब्रह्मचर्य का व्रत ग्रहण किया । आचार्य श्री शांतिसागर जी,
आ.
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श्री वीरसागर जी एवं मुनि श्री चन्द्रसागर जी की समाधि साधना आपने प्रमुख भूमिका निबाही। अस्वस्थतावश धुवड़ी (आसाम) में आप अपने सुपुत्र श्री रतनचन्द्र के पास आ गए और वहीं आषाढ़ कृष्णा 2 सन् 1961 को आपका देहावसान हो गया।
ब्रह्मचारी पाडे श्रीनिवासजी ब्रह्मचारी पांडे श्रीनिवास जी जैन का जन्म चैत्र बदी नवमी विक्रम सं. 1959 में फिरोजाबाद (उ.प्र.) में हुआ था। आपके पिता श्री बैनीराम पाण्डे थे और माता जामवती देवी थीं। आपने पद्मावती पुरवाल जाति को भूषित किया है। आपकी लौकिक शिक्षा जितनी कम हुई, धार्मिक शिक्षा उतनी ही अधिक हुई। आपने उत्कृष्ण क्षयोपशम एवं निरंतर स्वाध्याय से चारों अनुयोगों का गहन अध्ययन किया। ___ आपका विवाह श्रीमती केतुकी देवी के साथ हुआ था। आपके परिवार में दो भाई, एक बहन और चार पुत्र हैं। आपके भाई चोखेलाल जी भी अच्छे धर्मविद थे। अपनी आजीविका हेतु आपने कपड़े का व्यापार किया। जनरल स्टोर खोला, चूड़ी व सर्राफे का कार्य किया तथा किराना का भी व्यापार किया। इससे आपकी स्थिति उत्तरोत्तर सुदृढ़ होती गई।
आप अतीव स्वाध्याय प्रेमी, मिलनसार एवं गुणानुरागी रहे। आपने पंडित धूरीलाल जी से धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन किया। आपने पंडित पन्नालाल जी, सन्तलालजी, माणिकचन्द जी न्यायाचार्य आदि विद्वानों के अनुभव से लाभ लिया। ज्ञान के साथ चारित्र की दिशा में आप आगे बढ़े। सन् 1957 में आपने पूज्य श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी जी से सातवीं प्रतिमा के व्रत ग्रहण किये। आपने प्रतिदिन देवपूजा, शास्त्र स्वाध्याय, सामायिक जैसे कार्यों में दत्तचित्त होकर मध्यम विरक्त जैसा गृहस्थ जीवन व्यतीत किया। अपने प्रभाव से अनेक लोगों को धर्म की दिशा में बोध दिया।
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इन्दौर, उज्जैन, रतलाम, फिरोजाबाद के मंदिरों में आपने मूर्तियां भी विराजमान कराईं।
आप श्री दिगम्बर जैन महावीर समिति, फिरोजाबाद के कर्मठ कार्यकर्ता रहे । दिगम्बर जैन पद्मावती पुरवाल फण्ड कमेटी फिरोजाबाद के सक्रिय सदस्य रहे। अपनी जाति की सभा के भी वर्षों मंत्री रहे। श्री पन्नालाल दिगम्बर जैन इण्टर कालिज की स्थापना व प्रगति में आपका आरम्भ से ही अविस्मरणीय सहयोग रहा। आप धार्मिक, सामाजिक सभी क्षेत्रों में सक्रिय होकर सेवा में सन्नद्ध रहते थे। 5 मार्च 1987 को आपने इन्दौर मे नश्वर शरीर का त्याग किया।
ब्रह्मचारी पं. बिहारीलालजी शास्त्री
ब्र. पंडित श्री बिहारीलाल जी के पिता श्री मोहनलाल जी और माता श्रीमती भूदेवी थीं । आपने ग्राम खेरी, डाकघर बरहन, जिला आगरा में वि. सं. 1963 में पद्मावती पुरवाल आम्नाय में जन्म लिया ।
1
ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम, हस्तिनापुर, स्याद्वाद जैन महाविद्यालय बनारस और जम्बू विद्यालय से जैन न्याय मध्यमा, धर्मन्याय शास्त्री की परीक्षायें उत्तीर्ण कीं । सन् 1927 से 1930 तक स्वाध्यायशाला, अम्बाला (छावनी), मेरठ, अलीगढ़ और जलेसर की जैन पाठशालाओं में प्रधानाध्यापक रहे।
आपने सहजानन्द शास्त्रमाला मेरठ में पुस्तकों का प्रकाशन भी कराया। अपनी धर्मपत्नी श्रीमती कंचनबाई ( इन्दौर ) के साथ ही सातवीं प्रतिमा धारण कर उदासीन पूर्वक धर्म परिणिति रखकर जीवन यापन किया ।
स्व. ब्र. श्रीलालजी काव्यतीर्थ
ब्र. श्रीलाल जी का जन्म 1 जनवरी सन् 1896 में टेहू (आगरा) उत्तर प्रदेश में हुआ । यहीं आपकी प्रारम्भिक शिक्षा हुई। आपकी बुद्धि बचपन पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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से प्रखर व्यवसाय प्रधान थी। आपने बनारस जाकर 12 वर्ष की अल्पायु में व्याकरण प्रथमा पास की। फिर कलकत्ता विश्वविद्यालय से काव्यतीर्थ परीक्षा उत्तीर्ण की। सन् 1912 तक आप प्रौढ़ विद्वान माने जाने लगे।
पं. पन्नालाल जी बाकलीवाल ने आपके और पं. गजाधर जी के सहयोग से भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था को जन्म दिया। इस संस्था से अनेक अलभ्य जैन ग्रन्थ प्रकाशित हुए जैसे राजवार्तिक, समय - प्राभृत, पत्र परीक्षा, शब्दार्णव चन्द्रिका, जैनेन्द्र प्रक्रिया आदि । ब्रह्मचारी जी ने संस्कृत प्रवेशिनी के दो भाग लिखे जो अतीव प्रशंसित व लोकप्रिय हुए। ये संस्कृतभाषा समुद्र के सन्तरण के लिए जलयान ही हैं। पंडित पन्नालाल जी बाकलीवाल ने कलकत्ते में शुद्ध प्रेस खोला जिसमें सरेस के बेलन के स्थान पर कम्बलों का बेलन था । छपे हुए ग्रन्थों के विरोधी वातावरण में भी बाकलीवाल बढ़ते ही गये ।
श्रीलालजी का प्रथम विवाह हुआ तो पत्नी पुत्र को जन्म देकर चली गई । पुनः विवाह हुआ, गृहस्थ बने और द्वितीय पत्नी का भी पहली पत्नी सा निधन हुआ। आपका चित्त संसार की विषय-वासना से विरक्त हुआ । 15 अगस्त 1947 को ग्रांडट्रंक रोड हावड़ा में आपकी फर्म को मुसलमानों ने घेर लिया। पर आप सम्यकदृष्टि लिये विचलित नहीं हुए ।
आपने जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था में गोम्मटसार टीका टोडरमल जी की छापी। विनोद मासिक पत्र निकाला। एक बौद्ध भिक्षुक ने इसी प्रेस से कातन्त्र व्याकरण छपाई । जगरूप सहाय वकील ने वह सर्वार्थसिद्धि छपाई जो वस्तुतः ब्रह्मचारी जी की कृति थी। विमल पुराण भी संस्था ने छापा । पं. श्रीनिवास जी शास्त्री, पं. मक्खनलाल जी न्यायालंकार के सहयोग से संस्था बढ़ रही थी ।
आप राजेन्द्रकुमार कुंवर जी के साथ व्यावसायिक बृद्धि लिये फर्म में कार्य करने लगे । आप आशातीत आगे बढ़े। जब आचार्य वीरसागर जी
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का शिखर जी में चातुर्मास हुआ था तब आपने गृहविरत ब्रह्मचर्य सप्तम प्रतिमा उनसे ले ली। तीर्थयात्रा की। पुनः संस्था की उन्नति में लगे। सन् 1956 में संस्था महावीर जी में आ गई। यहां संस्था को नये सहयोगी मिले। उनमें से एक ब्रह्मचारी पंडित संहिता सूरी सूरजमल भी हैं जो ब्रह्मचारी जी के एक मित्र हैं।
ब्र. श्रीलालजी ने अनेक विद्या विहीनों को विद्या दी, अनेक आजीविका विहीनों को आजीविका दी और कई एक को आजीविका के योग्य बनाया। आपने अनेक जैन-अजैन छात्रों को मुक्तहस्त ज्ञानदान दिया। आपकी प्रेरणा से टेहू गांव में पार्श्वनाथ दि. जैन संस्कृत विद्यालय खोला गया। उसमे निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की गई। इस संस्था ने अनेक विद्वानों, श्रीमानों को जन्म दिया।
ब्रह्मचारी जी की बड़ी भावना थी कि व्रतियों के लिए एक आश्रम खोलें व संस्कृत विश्वविद्यालय बने। ब्रह्मचारी जी ने निस्वार्थ भाव से गृहस्थ जीवन में रहते हुए जो कार्य किया वह स्मरणीय बना। एक कुर्ती व धोती से ही काम चलाने वाले, सात्विक वृत्ति वाले श्री लाल जी श्री (लक्ष्मी) के लाल ही थे। आप गुरुजी के रूप में प्रसिद्ध हो गये थे। ___ आपका बुत (स्टेच्यू) शांतिवीर नगर (महावीर जी) में लगने के लिए तैयार हो चुका है, किसी शुभ मुहूर्त में लगा दिया जायेगा।
ब्रह्मचारी श्री सुरेन्द्रनाथ जी आपका जन्म फरुखाबाद में हुआ। कलकत्ता में व्यापार से निवृत होकर स्व. श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी के उदासीन आश्रम में रहने लगे। वर्षों वहां के अधिष्ठाता रहे। आचार्य कुन्दकुन्द देव के आध्यात्मिक ग्रन्थों पर
आपको अधिकारपूर्ण ज्ञान था। गहरी तत्व चर्चा में आपका वचन निर्णायक होता था। पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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पन्द्रहवीं शताब्दी के महाकवि
अपभ्रंश भाषा के महाकवि रइधू के पिता का नाम हरिसिंह और पितामह का नाम संघपति देवराज था। इनकी मां का नाम विजयश्री था। अपने भाइयों में वे सबसे कनिष्ठ थे। बड़े भाइयों का नाम क्रमशः वाहोल एवं माहणसिंह था। रइधू काष्ठा संघ माथुरगच्छ की पुष्कर गणीय शाखा से संबंध थे। __ रइधू की धर्मपत्नी का नाम सावित्री था। उससे उदयराज नाम का एक पुत्र हुआ। जिस समय उदयराज का जन्म हुआ उस सयम कवि अपने 'रिट्ठणेमि चरिउ' की रचना में संलग्न था। रइधू पद्मावती पुरवाल वंश में उत्पन्न हुआ था। 'पोमावइ कुल कमल दिवाघरू'
और कविवर उक्त पद्मावती कुलरूपी कमलों को विकसित करने वाले दिवाकर (सूर्य) थे जैसा कि ‘सम्मइ जिन चरिउ' के उपरोक्त वाक्य से प्रकट है। कविवर ने अपने कुल का परिचय 'पोमावइ कुल', 'पोमावइ पुरवाड वंस' जैसे वाक्यों द्वारा कराया है जिससे वे पद्मावती पुरवाल कुल में उत्पन्न हुए थे।
कविवर रइधू प्रतिष्ठाचार्य थे। उन्होंने कई प्रतिष्ठायें कराई थीं। उनके द्वारा प्रतिष्ठित संवत् 1497 की आदिनाथ की मूर्ति का लेख भी है। यह प्रतिष्ठा उन्होंने गोपाचल दुर्ग में कराई थी। इसके अलावा संवत् 1510 और 1525 की प्रतिष्ठित मूर्तियां हैं।
रइधू के ग्रन्थ प्रशस्तियों से पता चलता है कि हिसार, रोहतक, कुरुक्षेत्र, पानीपत, ग्वालियर, सोनीपत और योगिनीपुर आदि स्थानों के श्रावकों में उनकी अच्छी प्रतिष्ठा थी। वे ग्रन्थ रचना के साथ-साथ मूर्ति
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प्रतिष्ठा एवं अन्य क्रियाकाण्ड भी करते थे। रइधू ने बाल मित्र कमलसिंह संघवी ने उन्हें बिम्ब प्रतिष्ठाकारक कहा है। गृहस्थ होने पर भी कवि प्रतिष्ठा का कार्य सम्पन्न करते थे।
कवि के निवास स्थान के संबंध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता, पर ग्वालियर, उज्जयनी के उनके भौगोलिक वर्णन को देखने से यह अनुमान सहज में लगाया जा सकता है कि कवि की जन्मभूमि ग्वालियर के आसपास होनी चाहिए क्योंकि उसने ग्वालियर की राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थितियों का जैसा वर्णन किया है उससे नगरी के प्रति कवि का आकर्षण सिद्ध होता है। अतएव कवि का जन्म स्थान ग्वालियर के आसपास होना चाहिए। कवि के ग्रन्थों से पता चलता है कि वे ग्वालियर में नेमिनाथ और वर्धमान जिनालय में रहते थे। __ रइधू ने अपने गुरु के रूप में भट्टारक गुणकीर्ति, यशकीर्ति, श्रीपाल ब्रह्म, कमलकीर्ति, शुभचन्द्र और भट्टारक कुमरसेन का स्मरण किया है। इन भट्टारकों के आशीर्वाद और प्रेरणा से कवि ने विभिन्न कृतियों की रचना की है।
स्थिति काल-विभिन्न रचनाओं, मूर्तिप्रतिष्ठाओं, गुरुओं के स्मरणादि, राजवंशों के शासन आदि के आधार पर रइधू का रचना काल वि.सं. 1457-1536 सिद्ध होता है। महाकवि रइधू ने अकेले ही विपुल परिमाण में ग्रन्थों की रचना की है। इसे महाकवि न कहकर एक पुस्तकालय रचियता कहा जा सकता है। विभिन्न स्रोतों के आधार पर अभी तक 37 रचनाएं खोजी गई हैं
1. मेहेसर चरिउ (आदिपुराण), 2. णेमिणाह चरिउ, 3. पासणाह चरिउ, 4. सम्मइजिन चरिउ, 5. तिसट्ठि महापुरिस चरिउ, 6. महापुराण, 7. बलहद चरिउ, 8. हरिवंश पुराण, 9. श्रीपाल चरित, 10. प्रद्युम्न चरित, 11. वृत्तसार, 12. कारण गुण षोडशी, 13. दशलक्षण जयमाला, पद्यावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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14. रत्नत्रयी, 15. बधर्मोपदेशमाला, 16. भविष्यदत्त चरित, 17. करकुंड चरित, 18. आत्मसम्बोध काव्य, 19. उपदेश रत्नमाला, 20. जिमंधर चरित, 21. पुण्याश्रव कथा, 22. सम्यक्तगुणविधानकाव्य, 23. सम्मग्गुणारोहण काव्य, 24. बेडशकारण जयमाला, 25, बारहभावना (हिन्दी) 26. सम्बोध पंचाशिका, 27. धन्यकुमार चरित, 28. सिद्धान्तधर्मसार, 29. वृहत सिद्धचक्र पूजा (संस्कृत) 30. सम्यक्त्व भावना, 31. जसहर चरिउ, 32. जीवंधर चरिउ, 33. कोमुइकहापबन्धु, 34. सुक्कोसल चरिउ, 35. सुदंसण चरिउ, 36. सिद्धचक्क माहप्प, 37. अणयमिउ कहा। ___ कवि को रचना करने की प्रेरणा सरस्वती से प्राप्त हुई थी। कहा जाता है कि एक दिन कवि चिन्तित अवस्था में रात्रि में सोया। स्वप्न में सरस्वती ने दर्शन दिया और काव्य रचने की प्रेरणा दी।
महाकवि रइधू पुरस्कार फिरोजाबाद के 'श्री श्यामसुन्दरलाल शास्त्री श्रुत प्रभावक न्यास' द्वारा महाकवि के नाम पर उपर्युक्त पुरस्कार की स्थापना की गई है। प्रतिवर्ष महावीर जयन्ती के अवसर पर जैन जगत के एक विद्वान को 21000/की धनराशि, श्रीफल तथा प्रशस्तिपत्र भेंट कर सम्मानित किया जाता है।
सोलहवीं शताब्दी के कवि
बुध विजयसिंह कवि के पिता का नाम सेठ पिल्हवा और माता का नाम राजमती था। कवि का वंश पद्मावती पुरवाल था और यह मेरूपुर के निवासी थे। कवि ने अपने गुरु का नाम उल्लेख नहीं किया है। कवि की एकमात्र कृति 'अजितपुराण' उपलब्ध है जिसका रचनाकाल वि.सं. 1505 कार्तिक पूर्णिमा है। इससे कवि का समय 1485 से 1525 तक समझना चाहिए।
कवि ने इस ग्रन्थ की रचना महाभव्य कामराज के पुत्र देवपाल की 79
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प्रेरणा से की है। इस ग्रन्थ मे कवि ने द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ का जीवन वृत्त गुफिल किया है। इसमें 10 सन्धियां हैं। पूर्व भवावली के पश्चात तीर्थंकर के गर्भ, जन्म, तप ज्ञान और निर्वाण कल्याणकों का विवेचन किया है। प्रसंगवश लोक, गुणस्थान, श्रावकाचार, श्रमणाचार, द्रव्य और गुणों का भी निर्देश किया गया है।
इस ग्रन्थ की प्रथम संधि के नवम कड़वक में जिनसेन, अकलंक, गुणभद्र, गृद्धपिच्छ, प्रोष्ठिल, लक्ष्मण, श्रीधर और चतुर्मुख के नाम आये
कवि विजयसिंह की कविता उच्चकोटि की नहीं है। यद्यपि उनका व्यक्तित्व महत्वाकांक्षी का है, तो भी वे जीवन के लिए आस्था, चरित्र और विवेक को आवश्यक मानते हैं।
उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी के विद्वत जन
(अकारान्त से) पंडित प्रवर अजितकुमार जी शास्त्री आपका जन्म चावली (आगरा) उत्तर प्रदेश में हुआ। जब वि.सं. 1957 में माघ शुक्ला अष्टमी को पंडित जी का जन्म हुआ तब देश और समाज प्लेग के रोग से दुखी हो रहा था। ढाई वर्ष की अवस्था में माता-पिता के साथ सम्मेदशिखर की यात्रा की थी। चूंकि शैशवकाल में ही आपको माता-पिता के सुख से वंचित होना पड़ा था अतएव आप बड़े भाई इन्द्रप्रसाद जी के संरक्षण मे और दादी सीताबाई की गोद में क्रमशः बड़े और खड़े हुए।
सात वर्ष की आयु से आपने विद्या आरम्भ की। सन् 1913 में आप भा.दि. जैन महाविद्यालय चौरासी मथुरा में पढ़ने लगे। चार वर्ष पढ़े। कुछ समय बनारस रहे। वहां पंडित राजेन्द्रकुमार जी और पंडित कैलाशचन्द्र पद्मावतीपुरवाले दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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जी जैन जैसे मेधावी साथी मिले।आपने माणिकचन्द्र दि. जैन परीक्षालय बम्बई से जहां शास्त्री परीक्षा पास की वहां राजकीय परीक्षा न्याय मध्यमा भी उत्तीर्ण की। न्यायतीर्थ परीक्षा की तैयारी लो की पर देशव्यापी असहयोग आन्दोलन के कारण परीक्षा नहीं दी। सन् 1944 में पंजाब विश्वविद्यालय से प्रभाकर परीक्षा पास की और प्रवेशिका (मैट्रिक) परीक्षा भी उत्तीर्ण की।
सन् 1920 से आप कार्य क्षेत्र में आगे बढ़े। सर्वप्रथम भा. दिगम्बर जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था कलकत्ता में छह माह कार्य किया। फिर दि. जैन सेतवाल महासभा बम्बई के ढाई वर्ष तक व्यवस्थापक रहे। साथ ही जैनकुमार सभा, बम्बई की प्रमुख-पत्रिका जैन प्रभादर्श मासिकी का सम्पादन किया। दि.जैन खण्डेलवाल महासभा के पाक्षिक पत्र खण्डेलवाल जैन हितेच्छु के सम्पादन में भी बिना नाम के सहयोग दिया।
सन् 1923 में अक्षय तृतीया को आपका विवाह हुआ। आपके चार पुत्र हुए जिनमें अरुण कुमार ही जीवित रहा और चार पुत्रियां हुई। आप 1924 में मुल्तान में आकर बसे और अध्यापक बन गये। सन् 1925 में दुकानदार बने और 1934 में अकलंक प्रेस की नींव डाली। जब 16 जुलाई 1947 को देश के विभाजन की योजना बनी तब आपको भी मुल्तान छोड़कर सहारनपुर आना पड़ा। वहां लाला हुलासराय जी ने आपको और मुद्रालय को समुचित स्थान दिया। 10 माह सहारनपुर रहे। चूंकि यहां प्रेस का व्यवसाय बखूबी नहीं चला, इसलिए सन् 1948 में दिल्ली आ गये। अभय प्रेस सदर बाजार में खोला और अहाता केदार में आवास बनाया। जब एक दयामयी भूल से सन् 1950 में प्रेस से स्वत्व जाता रहा तब आप चार वर्ष तक जैन गजट के वैतनिक सम्पादक रहे। सन् 1956 में आपने पुनः प्रेस खोला। सन् 1966 में आप महावीर जी आ गये। यहां के शांत वातावरण में ही आपने अंतिम सांस ली। 20 मई को आपका स्वर्गवास हो गया।
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सन् 1918 ई. में ब्र. ज्ञानचन्द की प्रेरणा से 'मानव जीवन की सफलता' पर निबन्ध लिखा था। प्रतिमा पूजन आपका विद्यार्थी जीवन में लिखा गया वह पहला निबन्ध था जो पद्मावती पुरवाल (कलकत्ता) में प्रकाशित हुआ। भा.दि. जैन संघ के मुख पत्र जैन दर्शन का सम्पादन व प्रकाशन किया। जैन गजट का 1950 से 1968 तक सम्पादन किया। सन् 1966 से शांतिवीर नगर, महावीर के श्रेयमार्ग पत्र का भी सम्पादन किया।
आपने एक बहुत बड़ी संख्या में पुस्तकें लिखीं जिनमें सत्यार्थदर्पण, सत्पथ दर्पण, जैन धर्म परिचय, अनेकान्त परिचय, दैनिक जीवन चर्या, स्वास्थ्य विज्ञान के नाम उल्लेखनीय हैं। आपने कुछ ऐसे भी ग्रन्थ लिखे जिनपर नाम नहीं दिया। आपने पत्रों के माध्यम से लगभग सौ फर्मों का मैटर लिखा। आपने 130 छात्रों और 30 छात्राओं को पढ़ाया। आप अवैतनिक रूप से पढ़ाने के पक्ष में थे। पर समाज के आग्रह से नाम मात्र का पारिश्रमिक लेते थे। आपने सन् 1947 से ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया था।
पंडित जी का जीवन चरित्र आज भी प्रेरणादायक बना है। कुछ विशेषताएं थीं-1. आगरा के कुली ने सारा सामान इधर-उधर का ठग लिया था, पर आप अमृतसर के कुली को पैसे देने के लिए तीन बार मुल्तान से अमृतसर गये। 2. जब सच्चा कलावत्तू खरीदने वाला मुसलमान 137/- रुपयों वाला बटुआ भूल गया तथा आपने उसकी खोज कराई और बटुआ सौंप दिया। 3. आपने एक से अधिक संस्थाओं की सेवा की थी। 4. आप एक से अधिक वर्षों तक शास्त्री परिषद के मंत्री रहे। __ अन्य व्यक्ति को कष्ट न देकर, दुष्ट व्यक्ति के सामने नहीं झुकते हुए, सज्जनों के मार्ग पर चलते हुए, आर्थिक लाभ थोड़ा हो तो वह भी बहुत समझना चाहिए के सिद्धान्त को पालने करने वाले व्यक्तित्व वाले थे पंडित जी।
संक्षेप मे पंडित जी अपूर्व अध्यवसायी, सहृदय व्यक्ति थे। वे सही अर्थ में मानव थे। पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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, स्व. पं. अजितकीर्यजी शास्त्री, बी.ए. आपक जन्म टेहू (आगरा) में हुआ। मंत्र शास्त्र के अच्छे ज्ञाता थे। लाल वस्त्र पहनकर घंटों मंत्र जाप करते थे। कुशल वैद्य भी थे। टेहू में आपने एक संस्कृत विद्यालय एवं हाईस्कूल की स्थापना की थी। आपके बड़े भाई जयचन्द जी शास्त्री भी अच्छे विद्वान थे तथा इन्दौर में सरस्वती भवन में जिनवाणी की सेवा करते थे।
श्री अनूपचंद जैन एडवोकेट इतिहासकारों ने चंदवार को फिरोजाबाद का उद्गम स्थल माना है जो जैन धर्म का प्रमुख स्थान हैं आपके पूर्वज यहां के मूल निवासी थे जो चंदवार के पतन के बाद फिरोजाबाद नगर के मोहल्ला कटरा पठानान में आकर बसे।
फिरोजाबाद में लोक-संगीत, नाटक, लोकगीत, रचयिता नाटककार रंगमंच के कुशल नायक, श्री भागचन्द जैन इस परिवार के प्रमुख थे। इन्हीं भागचन्द जी के सुयोग्य पुत्र हैं श्री अनूपचन्द्र जैन। आपका जन्म 20 अगस्त 1942 को हुआ।
शिक्षा-आपने हाई स्कूल की परीक्षा सन् 1958 में उत्तीर्ण की। इण्टर तथा बी.ए. की परीक्षा पास करके आर्थिक संकट के कारण कुछ समय तक क्लर्क का भी कार्य किया। परन्तु अध्ययन की अभिलाषा से आगस कालिज आगरा में डबल कोर्स लेकर एम.ए. एलएल.बी. की उपाधि प्राप्त की। जीवन के संघर्षों ने आपको स्वावलम्बी तथा मिलनसार बनाया।
वकालत के क्षेत्र में एक वकील के लिए जिस श्रम, साहस और अध्ययन की आवश्यकता होती है उसके प्रति आप सदैव जागरूक रहे। उनमें सिविल, क्रिमिनल, भाड़ा-नियन्त्रण कानून आदि के मुकदमों का
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अच्छा ज्ञान है। सन् 1975 में आपको भारतवर्षीय अभिभावक कांफ्रेन्स में नगर का प्रतिनिधित्व किया। आपने सन् 1984-85 में मासिक विधि पत्रिका 'न्यायाचार्य' का सम्पादन किया। 4 फरवरी 1992 से 31 दिसम्बर 1995 तक जिला शासकीय अधिवक्ता रहे।
राजनीतिक क्षेत्र में - आपने सन् 1960 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए और सन् 1969 में यूथ कांग्रेस के संयोजक हुए। आपने कांग्रेस पाटी की अनेक कान्फ्रेंसों में भाग लिया ओर चुनाव सभाओं का संचालन किया जिनको श्रीमती इंदिरा गांधी, श्री मोहनलाल सुखाड़िया तथा श्री एच. एन. बहुगुणा ने संबोधित किया था ।
रुचि - आपकी शिक्षा में विशेष रुचि रही है। अतः अनेक शिक्षण संस्थाओं जैसे - महात्मा गांधी बालिका विद्यालय, सेठ छदामीलाल जैन महाविद्यालय, श्री पी. डी. जैन इण्टर कालिज, कमला नेहरू हायर सेकेन्ड्री स्कूल आदि के प्रबंध समिति के सदस्य रहे । इसके अलावा भी अन्य कई शिक्षण संस्थाओं के प्रबन्ध समितियों के सदस्य हैं। दिगम्बर जैन पद्मावती पुरवाल पंचायत, फिरोजाबाद के अध्यक्ष रहे ।
दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यानन्द के आप परम भक्त हैं। अतः सन् 1993 में भगवान बाहुबली महामस्तकाभिषेक श्रवणबेलगोला की राष्ट्रीय कमेटी में नामांकित हुए। भारतीय जैन मिलन फिरोजाबाद के अध्यक्ष भी चुने गये । स्व. साहू अशोक कुमार जैन एवं श्री रतनलाल जैन की अध्यक्षता मे बनी दिगम्बर जैन महासमिति के आप जिला संयोजक भी हैं।
एडवोकेट श्री अनूपचन्द्र जैन एक अच्छे वक्ता हैं। अपनी बात आकर्षक ढंग से कहने की उनमें क्षमता है। किसी भी विषय पर वे बिना झिझक के बोल सकते हैं। अधिकांश नगर में आयोजित समारोह में आप उन्हें बोलता देख सकते हैं । निःसंदेह आप बहु प्रतिभा के धनी एक ऐसेव्यक्ति हैं जिनमें सभी गुण हैं जिनसे व्यक्ति लोकप्रिय बनता है। इसका पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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प्रमुख कारण आपकी सामाजिकता है।
कुछ भी हो आप प्रथमतया सामाजिक व्यक्ति हैं, उदारता आपका गुण है। सामाजिक और धार्मिक कार्यों में सहयोग देने तथा दूसरों को प्रेरित करने की आप में बड़ी लगन है तथा दूसरों के दुःख में दुःखी होना और सुख में सुख का अनुभव करना एक बहुत बड़ी सेवा है। अतः आपमें जो प्रबल सेवा भाव है वह प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय है ।
वर्तमान में आप अ. भा. दिगम्बर जैन शास्त्री परिषद, अ.भा. दिगम्बर जैन विद्वत परिषद् तथा अ.भा. दिगम्बर जैन विद्वत महासंघ के सदस्य और भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा के संयोजक हैं। प्रभावी वक्ता, शास्त्र प्रवचनकार लेखक और समीक्षक हैं।
स्व. पंडित अमोलकचन्द जी उड़ेसरीय
स्व. पंडितजी का जन्म सन् 1893 में ग्राम उड़ेसर, जिला एटा में हुआ था। आपके पिता श्री गुलाबचन्द्र जैन त्याग-वृत्ति के सामाजिक कार्यकर्ता थे ।
अमोलक चन्द्र जी ने प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद कार्यक्षेत्र में पदार्पण किया। सर्वप्रथम श्री दि. जैन पाठशाला, फिरोजपुर छावनी में कार्यारम्भ करते हुए वहां जीव दया प्रचारक सभा स्थापित की जिसके माध्यम से कई स्थानों पर पशु बलि प्रथा बन्द कराने में सफलता प्राप्त की। मांसाहार त्याग एवं जीव दया प्रचार हेतु साहित्य प्रकाशन कराया।
आपकी मुख्य विशेषता प्रबन्ध - पटुता और कुशल प्रशासन की अपूर्व क्षमता थी । सन् 1914 में आप श्री भगवानदास जी की प्रेरणा से इन्दौर आ गए। आपकी विशेष योग्यता की ख्याति के कारण आपको 'सर सेठ हुकमचन्द दि. जैन बोर्डिंग हाउस जंबरी बाग' के सुपरिन्टेण्डेंट का कार्यभार सुपुर्द कर दिया गया। पंडितजी ने इस विशाल संस्था के इस पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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गुर-गम्भीर पद का निर्वाह ऐसी कुशलता से किया कि आजीवन उसी के होकर रह गये। बोर्डिंग में रहने वाला प्रत्येक छात्र आपका पितृतुल्य स्नेह पाकर श्रद्धावनत रहता था। शिक्षा पूर्ण कर जो भी छात्र बोर्डिंग से विदा होता पूज्य पंडितजी के प्रति आजीवन श्रद्धावान रहता। एक बार बोर्डिंग के पूर्व स्नातकों ने आपके प्रति अपनी हार्दिक श्रद्धा और कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु सार्वजनिक अभिनन्दन किया और सम्मानपत्र अर्पित किया।
श्री दि. जैन मालवा प्रान्तीय सभा के सरस्वती भण्डार और परीक्षालय के मंत्रित्व के पदभार को सफलतापूर्वक संचालित कर उसकी प्रबंध कारिणी सदस्यता द्वारा उसके सम्यक् संचालन में सराहनीय योग दिया।
मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति के सदस्य, भारतीय दि. जैन पद्यावती परिषद के मंत्री एवं 'पद्मावती पुरवाल' पत्र के संपादक मण्डल में रहे। श्री पन्नाला दि. जैन विद्यालय फिरोजाबाद की प्रबन्ध समिति के भी सदस्य रहे। श्री भारतवर्षीय दि. जैन महासभा के सभा-विभाग के मंत्री पद का भार भी आपके ही सबल बाहुओं पर डाला गया।
पंडितजी शांत स्वभाव, उदार प्रकृति, ममतामयी सुमधुर वाणी से सहज ही अपनी ओर आकर्षित कर लेते थे। वे समाज का शुभचिंतन करने वाले दूरदर्शी और अनुभवी विद्वान थे। सामाजिक उन्नति और युवा पीढ़ी के निर्माण में आपका अपूर्व योगदान रहा। आप का शिष्यवर्ग आज भी आपका श्रद्धापूर्ण स्मरण करता है।
पांडे उग्रसेनजी शास्त्री श्री उग्रसेन जी का जन्म आगरा जिले के नगला स्वरूप नामक एक छोटे से ग्राम में हुआ। आपके पिताश्री सुखनन्दनलाल जी कृषि कर्मी व्यक्ति थे। आपकी मां का नाम श्रीमती रामप्यारी देवी था। 13 माह की । अवस्था में आपको मां के असीम प्यार से वंचित होना पड़ा। 4 वर्ष की . पद्यावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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अवस्था में चेचक के भयंकर प्रकोप से आपका जीवन बुझते-बुझते बचा। छोटी दादी के लालन पालन ने आपके मातृवियोग के दुःख को अनुभवों में लाने नहीं दिया।
6 वर्ष की आयु में आपने पढ़ना प्रारम्भ किया। 8 वर्ष की आयु में अपनी दादी के साथ शिखरजी की यात्रा की, 12 वर्ष की उम्र में आपने कक्षा 5 पास की। आपका रुख अध्ययन की ओर देखकर आपके चाचाजी ने आपको सहारनपुर की दि. जैन जम्बू विद्यालय में प्रविष्ट करा दिया, यहां आप प्रवेशिका में दाखिल हो गये।
प्रवेशिका तथा विशारद के तीनों खण्ड उत्तीर्ण करने के बाद आपने शास्त्री, ज्योति शास्त्री, ज्योतिषरल और ज्योतिष आचार्य किया।
फाल्गुन शुक्ला द्वितीया संवत् 1997 में किरण देवी के साथ आपका विवाह सम्पन्न हुआ। परन्तु टी.बी. रोगाक्रान्त होने के कारण 3 वर्ष बाद किरण देवी का देहान्त हो गया। आपकी सासुजी ने दूसरी शादी आपकी साली के साथ कर दी। किन्तु 3 वर्ष बाद आपकी दूसरी पत्नी सोमश्री भी टी.बी. रोग से चल बसी। तब आपको विरक्ति उत्पन्न हो गई और आप विवाह सुख की कामना से बहुत दूर हो गये। किन्तु दादी जिन्होंने आपको पाला था, की स्नेहसिक्त आज्ञा से विमलादेवी के साथ आपको फिर विवाह करना पड़ा जिनसे आपको तीन पुत्र और दो पुत्रियों का योग मिला।
टूंडला में अकलंक ज्योतिष भवन का संचालन किया। पांडे समाज में आप सुशिक्षित एवं प्रतिष्ठा प्राप्ति विद्वान रहे। आपका जीवन समाज सेवा, धर्मप्रभावना एवं सामाजिक संस्थाओं की समुन्नति में व्यतीत रहा। अनेक संस्थाओं के संस्थापक के रूप में सदैव स्मरणीय रहेंगे। सुप्रसिद्ध पांडे कंचनलाल जी आपके भतीजे थे। पांडे वीरचंद जैन आपके पुत्र हैं। पिताश्री की तरह उनका भी कार्यक्षेत्र वही है। 87
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१.
पांडे कंचनलालजी "हंसी खेल में स्वांग धरो अरु जिन मत की दीक्षा धारी' वाली लोकोक्ति के कारण भूत ऐतिहासिक मुनिराज ब्रह्मगुलाल की पीछी परम्परा में पांडेय कंचनलाल जी का जन्म हुआ। पंच मंगल के रचयिता पाण्डेय रूपचंद जी आपके कुटुम्ब के ही दिवाकर हैं। उसी परम्परा में पाण्डेय कंचनलाल जी थे जिनको विपत्तियों के बादल प्रारम्भ से ही घेरे रहे। बचपन से ही पिता के स्नेह से वंचित रहे, बड़े भाई श्री लालारामजी तथा माताजी कंठश्री के सौहार्द से आप प्रारम्भिक शिक्षा के बाद मथुरा-चौरासी पर सन् 1922-23 में पढ़े। उसके बाद 24-25 में बनारस स्याद्वाद विद्यालय में अध्ययन किया। घर की स्थिति अच्छी न होने से अधूरी शिक्षा छोड़कर वापस आ गये।
एटा में दुकान की तथा बाबू जगरूप सहाय वकील द्वारा माला टीका सर्वार्थ सिद्धि (आचार्य पूज्यपाद कृत) स्थान-स्थान पर विक्रय की तथा बाद में सन् 1930 में पं. पन्नालाल जैन की स्मृति में जारखी में एक विद्यालय की स्थापना हुई उसमें आनरेरी प्रचार मंत्री रहे। उसके बाद विद्यालय फिरोजाबाद चला गया जो आज पी.डी. जैन इण्टर कालिज के नाम से चल रहा है। आपके पूर्वज पांडे हीरालाल जी अपने मूल निवास फिरोजाबाद में ही रहते थे। अतः जारखी के बजाय विद्यालय के वहीं संचालन मे आपकी विशेष प्रेरणा रही।
आपने अपने कुल परम्परागत पंडिताई, विवाह पढ़ना आदि कार्य को बड़ी निपुणता से निभाया। धार्मिक ग्रन्थों का स्वाध्याय निरन्तर करना आपकी विशेषता रही। आपकी विवाह पठन पद्धति अपनी निराली ही विशेषता रखती थी। आपके आचार्यत्व में सम्पन्न होने वाला विवाह संस्कार केवल एक संस्कार समारोह ही नहीं होता था अपितु स्वजातीय नियम एवं शास्त्रों के उदाहरणों द्वारा संस्कारों के समझने का बहुमूल्य अवसर होता था।
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आफ्ने पाण्डेय संगठन कमेटी का गठन कर पौडेय महानुभावों की उचित शिक्षा दीक्षा का भी प्रबन्ध किया। अखिल भारतवर्षीय जीवदया प्रचारिणी सभा में वर्षों सेवा कार्य किया। जगह-जगह जाकर हिंसा बंद कराई। पैड़त, जखैया आदि स्थानों पर बलि देना बन्द कराया जो अबतक बन्द है।
राजनीति के क्षेत्र में आपका अपना स्थान रहा। ग्राम पंचायत के प्रधान पद को आप 12 वर्ष तक सुशोभित करते रहे। प्राइमरी पाठशालाएं, धर्मशालाएं, कुआं आदि का निर्माण कराके ग्राम की बहुमुखी उन्नति की। पशुपालन, वृक्षारोपण तथा ग्राम की सीमाओं में शिकार पर प्रतिबन्ध लगाने जैसे महत्वपूर्ण कार्य करके समाज में ही नहीं जैन जैनेतर समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त की। आप अपनी तहसील के आदर्श प्रधानों में माने जाते थे।
ब्रिटिश काल में भी आप 38 गांवों की अत्याचार निरोधक समिति के प्रधान मंत्री थे। उस समय आपने अत्याचारों के विरोध में जनता में एक नवीन भावना का संचार किया था। अपनी उपस्थिति में झगड़ा होने पर न्यायालय में नहीं जाने देते थे। दोनों पक्षों के विचार मालूम कर दोनों को ही समझा-बुझाकर आपस में प्रेम कराके झगड़ों का निपटारा करा देते थे। __ आप जनप्रिय, लोकप्रिय रहे। राजकीय योगों से कितने ही वृद्ध, वृद्धाओं की पेंशन बंधवा दी तथा स्वयं भी अपने पैसे से मदद करते रहते थे। दीन-दुःखी लोग कोई न कोई सहायता के लिए आते रहते थे।
प्रतिष्ठाचार्य पं. कन्हैयालाल नारेजी आपका नाम पंडित कन्हैयालाल है परन्तु आप अपने गोत्र 'नारे' के नाम से जाने जाते हैं। आपके पिता श्री हुकमचन्द चौधरी पद्मावती पुरवाल हैं। आपने अपने जीवन में मुख्य रूप से महाराष्ट्र प्रांत में पंचकल्याणक प्रतिष्ठाएं करायी एवं वेदी प्रतिष्ठाएं करवाकर जैन धर्म की प्रभावना की।
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लौकिक शिक्षा के रूप में ज्योतिष विशारद, आयुर्वेदाचार्य, होम्योपैथी (एम.बी.एच.डी.सी.एम.सी.) महाराष्ट्र सरकार, बम्बई से आर.एम.पी., बिहार से तथा पूना महाराष्ट्र से की। आपका जन्म भोपाल में हुआ। परम पूज्य आचार्य श्री 108 शान्निसागरजी महाराज के सम्पर्क से आपमें धार्मिक भावना जागृत हुई। पंडित शान्तिनाथ शास्त्री से धार्मिक शिक्षण शास्त्री स्तर प्राप्त किया। धार्मिक एवं सामाजिक गतिविधियां
आप माणिक चन्द हीराचन्द जुबलीबाग ट्रस्ट, बम्बई के आठ वर्ष तक और जैन सिद्धांत संरक्षिणी सभा के 3 वर्ष तक उपदेशक रहकर सम्पूर्ण देश में भ्रमण कर धर्म चेतना जागृत की। आप ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन बम्बई के भी दो वर्ष तक व्यवस्थापक रहे। नादगांव में चार वर्ष तक अध्यापन कार्य किया। आपको गुजराती, मराठी, हिन्दी, उर्दू और संस्कृत भाषाओं का ज्ञान था। आपने लगभग 63 पंचकल्याणक प्रतिष्ठाएं, 500 वेदी प्रतिष्ठाएं, 155 सिद्धचक्र विधान करवाकर जैन धर्म के ध्वज को कीर्तिमान रखा। ___समाज उत्थान हेतु आष्टा में दि. जैन सन्मार्ग समिति की स्थापना , जलगावं में महिला मंडल की स्थापना की। सन् 1969 से आपने स्वतंत्र व्यापार (प्रिंटिंग प्रेस) आष्टा में चलाया तथा विधान प्रतिष्ठा और कुण्डली रचना करते रहे।
समाज द्वारा सम्मान-आपने विविध पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं की समयाविधि में आपको समाज द्वारा कई सम्मानित उपाधियां प्राप्त हुई। कवजाणा पंचायत द्वारा 'जैन रत्न' श्री देवेन्द्रकीर्ति महाराज द्वारा 'मंत्र प्रतिष्ठा विशारद, नादगांव समाज द्वारा ‘ज्योतिष विशारद' तथा 'वाणी भूषण तथा धर्म रत्न', वैद्य शास्त्री (कलकत्ता आयुर्वेद स्कूल) धर्म अनुष्ठान तिलक आदि उपाधियां प्रदान की गईं। पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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पंडित कुंजीलालजी शास्त्री ' पिता श्री छदामीलाल जी जैन की एकमात्र संतान के रूप मे आपका जन्म 4 नवम्बर 1921 में मटसेना ग्राम पो. अहारन जिला आगरा उत्तर प्रदेश में हुआ था। डेढ़ वर्ष की अल्पायु में माता श्रीमती मालादेवी जैन का स्वर्गवास हो गया।
अपने ग्राम में प्रारम्भिक शिक्षा समाप्त कर नगला सिकन्दर पढ़ने गये। बाद में श्री गोपालदास वरैया दि. जैन सिद्धान्त विद्यालय मोरैना से 1939 में शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण की और वहीं 6 वर्ष धर्म अध्यापक रूप में कार्य किया।
इसके पश्चात् 1944 से 52 ई. तक सुप्रसिद्ध फर्म श्री राजेन्द्रकुमार कुंवर जी जैन कलकत्ता की फैक्टरी में मैनेजर पद पर 8 वर्ष कार्य किया। सन् 1946 में हावड़ा (कलकत्ता) के साम्प्रदायिक उपद्रव में दो हजार मुसलमानों द्वारा फैक्टरी पर आक्रमण हुआ और आपकी सारी सम्पत्ति लूट ली गई।
अध्ययन की लालसा समाप्त नहीं हुई और पुनः लौकिक शिक्षण हेतु कमर कस ली तथा सन् 1954 से हाई स्कूल परीक्षा में सम्मिलित होकर 1963 तक हिन्दी तथा संस्कृत में एम.ए. किया। इस अवधि में आपने स्वतंत्र व्यवसाय के रूप में पुस्तक प्रकाशन एवं विक्रेता का कार्य किया। 1963 के बाद पुनः अध्यापन क्षेत्र में उतरे और श्री जैन विद्यालय गिरडीह (हजारी बाग) में प्रधानाध्यापक पद पर कार्य किया। इस प्रकार 'एक म्यान में दो तलवार' जैसा काम किया। एक ओर व्यापार दूसरी ओर अध्ययन।
सन् 1966 में भागलपुर विश्वविद्यालय से Dip-Edu की उपाधि ग्रहण की जो कि आपकी सेवा में स्थायित्व देने में सहायक हुई।
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साहित्यिक जागरूकता-विद्यार्थी जीवन से ही गद्य-पद्य दोनों में लिखने की प्रवृत्ति जागी और विद्यालय से निकलने के बाद 4 वर्ष तक हस्तलिखित पत्रिका 'सिद्धान्त चन्द्रिका' का सम्पादन किया। ‘मार्तण्ड' तथा 'बालकेशरी' पत्र का प्रकाशन किया। आप आर्ष आगमवादी परम्परा के पोषक रहे। तत्संबंध में आपने सामाजिक मंचों से अपने लेखों व पत्रिकाओं के माध्यम से काफी प्रचार-प्रसार किया।
आचार्यवर श्री शांतिसागर जी महाराज के समक्ष आप सिद्धक्षेत्र गजपंथा में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के अवसर पर शास्त्र प्रवचन हेतु गद्दी से जब प्रश्नों का समाधान दे रहे थे तो आचार्यश्री ने आपको ‘पंडित' होने का आशीर्वाद दिया। 4 सितम्बर 1989 को आपका निधन हो गया।
श्री लाला केशवदेवजी, कायथा जिला आगरा स्व. लालाजी में राष्ट्रीयता कूट-कूट कर भरी हुई थी। मण्डल कांग्रेस कमेटी नारखी की मीटिंगों में आपकी राय का विशेष महत्व होता था। ग्राम सभा कायथा के प्रधान के पद पर रहकर पुलिया, पीने के कुएं, सिंचाई के कुएं, वृक्षारोपण, स्कूल आदि निर्माण कार्यों में दसियों वर्षों तक पूरा समय दिया। जैन अतिशय क्षेत्र कमेटी मरसलगंज के अध्यक्ष रहकर इस संस्था द्वारा वृक्षारोपण आदि राष्ट्रीय महत्व के कार्यों में योगदान
दिया।
स्व. ब्र. पडित खूबचन्दजी सिद्धान्त शास्त्री आपका जन्म बेरनी में हुआ था। स्व. न्यायवाचस्पति पं. गोपालदास जी वरैया के प्रमुख शिष्यों में से थे। सिद्धान्त, न्याय एवं साहित्य आदि सभी विषयों के चूड़ान्त विद्वान थे। वर्षों भा. दि. जैन महासभा के मुख पत्र 'जैन गजट' के सम्पादक रहे। आप इन्दौर रहकर सर सेठ हुकमचन्द जी • पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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को स्वाध्याय करते थे। गुरुओं के परम भक्त थे । आबाज बहुत महीन थी। परन्तु वक्तृत्व बड़ा प्रभावशाली एवं समाधान कारक होता था । असंख्य शास्त्रीय प्रमाण कंठस्थ थे । अतः जिज्ञासु आपके पास बड़ी शान्ति का अनुभव करता था। इस युग में अखिल भारतीय स्तर के चोटी के विद्वान थे। सभी समाज में आपका सम्मान था । आपने गोम्मटसार तत्वार्थधिगम, महाभाष्य, अभिग्रन्थों की टीका की । रत्नकरंड श्रावकाचार की बहुत सुन्दर टीका लिख रहे थे, परन्तु असमय में निधन से अधूरी रह गई । जितनी प्रकाशित हो गई है अद्वितीय है। संस्कृत भाषा में कविता का भी अच्छा अभ्यास था ।
स्व. पं. गजाधरलालजी न्यायतीर्थ
आप स्वर्गीय पं. रामप्रसाद जी के लघुभ्राता थे। कलकत्ता में रहते थे । बहुत उच्च कोटि के विद्वान थे। घी का व्यापार करते थे, परन्तु जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था से लगाव होने के कारण तत्वार्थ राजवार्तिकी की टीका में आपने प्रमुख योगदान किया। अनेक ग्रन्थों की स्वतंत्र टीका भी की । प्रखर प्रतिभा के धनी थे ।
पंडित चन्द्रशेखरजी वैद्य
आगरा जिले में रेलवे स्टेशन टूंडला के पास जोंधरी स्थान है। श्री 105 एलक जानकीप्रसाद वहीं के निवासी थे। उनके गृहस्थ जीवन के सुपुत्र श्री नेकीराम जी अत्यंत धार्मिक एवं विद्वान पुरुष हुए हैं । उनका अधिकांश समय श्री रायबहादुर सेठ टीकमचन्द जी सोनी अजमेर के पुत्रों को पढ़ाने में बीता। श्री नेकीराम जी उन्हीं सोनी जी के मंदिर जी में शास्त्र प्रवचन भी करते थे ।
इन्हीं शास्त्री श्री नेकीराम जी के सुपुत्र चन्द्रशेखर जी हुए। आपका जन्म द्वितीय भाद्रपद मास, कृष्ण पक्ष षष्ठी भृगुवार वि. सं. 1974 को पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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रोहिणी नक्षत्र में माता श्रीमती कुसुमवती की पुनीत कुक्षी से हुआ। आपके जन्म के आठ वर्ष बाद आपके अनुज इन्द्रसेन का जन्म हुआ पर एक बर्ष बाद ही उनका निधन हो गया। तब से अपने माता पिता के एकमात्र पत्र आप ही रह गये।
सन् 1929 से 1933 तक में आपने धर्मशास्त्री, तृतीय खण्ड, न्यायशास्त्री तृतीय खण्ड साहित्य शास्त्री तृतीय खण्ड एवं दि. न्यायतीर्थ की परीक्षायें उत्तीर्ण की। इसके पश्चात् श्वे. न्यायतीर्थ धर्म एवं न्यायशास्त्री चतुर्थ खण्ड तथा न्यायाचार्य की परीक्षाएं उत्तीर्ण की।
सन् 1933 में आपका विवाह एटा निवासी लाला बाबूराम जी जैन की सुपुत्री प्रकाशवती के साथ हो गया। श्रीमती प्रकाशवती जैन एक विदुषी महिला थीं। धर्म विशारद और आयुर्वेद विशारद के अलावा सिलाई कटाई में डिप्लोमा प्राप्त हैं। __ आपकी रुचि का विषय प्रारम्भ से आयुर्वेद रहा। कई चिकित्सालयों में वैतनिक व अवैतनिक रूप से कार्य करते हुए आपने अपने विषयक्षेत्र को अत्यन्त विस्तृत कर लिया। दो हजार से अधिक लेख एवं चालीस पुस्तकों की रचना की।
जून सन् 1935 से मार्च 36 तक आप महावीर दि. जैन विद्यालय किशनगढ़ (जयपुर) में प्रधानाध्यापक रहे। जैन संस्था हांसी (हिसार) में मार्च 36 से 38 तक प्रवक्ता रहे। दिस. 38 से 40 तक गोपालगढ़ में अध्यापन एवं चिकित्सा कार्य किया। जून सन् 40 से 42 तक बोर्डिंग हाउस, जबलपुर में सुपरिन्टेन्डेन्ट रहे। अक्टूबर 42 से 44 तक धनवन्तरि कार्यालय विजयगढ़ अलीगढ. में संपादक रहे। दिसम्बर 44 से जून 45 तक जैन समाज औषधालय रामगंज मंडी (कोटा) में चिकित्सा कार्य किया। जून सन् 46 से जैन समाज जबलपुर में चिकित्सा व प्रवचन कार्य चल रहा है। पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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18 वर्ष की अवस्था से आपने लिखना प्रारम्भ किया। आपकी लेखनी का विषय प्रमुख रूप से आयुर्वेद रहा। वैसे हिन्दी गद्य साहित्य को भी आपने अपनाया। अब तक करीब 20 पत्र पत्रिकाओं में आपके लेख प्रकाशित हो चुके हैं।
प्रकाशित पुस्तकें-1. तत्काल फलप्रद प्रयोग (प्रथम भाग 151 योग, 2. महिला रोग चिकित्सा (पूर्वाध) 301 प्रयोग, 3. महिला रोग चिकित्सा (उत्तराध), 4. तत्काल फल पद (चौथा भाग) 388 स्वादिष्ट प्रयोग, 5. पुरुष रोग चिकित्सा, 6. सौ रोगों का सरल इलाज, 7. प्राकृत चिकित्सा, 8. धर्मार्थ औषधालयों के प्रयोग (प्रथम भाग), 9. धर्मार्थ औषधालयों के चिकित्सा अनुभव, 10. पथ्य दर्शक, 11. चिकित्सा चन्द्रशेखर (प्रथम भाग), 12. उपदंश-सुजाक चिकित्सा 13. तिलिस्मी औषध भंडार, 14. नवीन चिकित्सानुभव, 15. कुमारी विज्ञान, 16. सूरज रोग विज्ञान, 17. आठ औषधों से औषधालय चलाना, 18. अनुभव भण्डार, 19. तीन खजाने, 20. कुकरकास विज्ञान, 21. अनुभव हजारा, 22. पाक भंडार (प्रथम द्वितीय भाग), 23. नारू रोग विज्ञान, 24. फार्मेसी भवन कार्यालयों के गुप्त योग, 25. धर्मार्थ औषधालयों के प्रयोग (दूसरा भाग) 26. झांसी विश्वविद्यालय के प्रयोग।
आप आयुर्वेद के महान पंडित एवं धर्म के सन्मान्य विद्वान थे। आपने समाज की अत्यधिक सेवा की।
श्री जगरूपसहाय जी जगरूपसहाय का जन्म उम्मरगढ़ (एटा) उत्तरप्रदेश में हुआ। आपके पिता श्री बहोरीलालजी और माताश्री मुन्नी देवी थीं। आपके पिता की स्थिति साधारण थी पर बाबाजी की प्रतिष्ठा समाज में थी। आपकी आरम्भिक शिक्षा जम्बू विद्यालय सहारनपुर में हुई। अनन्तर माधव
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कालिंज उज्जैन में पढ़ते हुए हाईस्कूल और इण्टर किया। होल्डर कालिज इन्दौर से एम.ए. (अर्थशास्त्र) तथा एम.ए. अंग्रेजी के उपाधि प्राप्त की। बी.आर. कालिज, आगरा से एल.टी. किया। आपके परिवार में दो भाई हैं। इनमें से राजेन्द्रकुमार जी हिन्दी, संस्कृत में एम.ए. शास्त्री हैं व पी.डी. जैन इण्टर कालिज, फिरोजाबाद में ही संस्कृत के अध्यापक हैं। आपके ताऊ बनारसीदास ने मरसलगंज में कई कमरे बनवाए।
कार्य परिचय-सन् 1953 से आपने अध्यापन कार्य प्रारम्भ किया। शुरू में विद्याभवन इण्टर कालिज, सासनी में अध्यापन कार्य करने के बाद सन् 1957 से पी.डी. जैन इण्टर कालिज में अध्यापन कार्य करते हुए 1990 में अवकाश ग्रहण किया। आप पर्युषण पर्व के अवसर पर फिरोजाबाद, महेश्वर, शिकोहाबाद में विशेष सम्मानित हुए। आप महात्मा गांधी स्मारक ट्रस्ट, जलेसर, मान-सरोवर साहित्य संगम, फिरोजाबाद, वीर समिति, उज्जैन, वर्धमान मण्डल इन्दौर के सदस्य रहे। पद्मावती संदेश की स्थापना में सहयोग ही नहीं दिया बल्कि उसके सहायक सम्पादक रहे। आपने जैन दर्शन, जैन संदेश, जैन गजट, पद्मावती संदेश में अनेक निबन्ध लिखे।
आपने अंग्रेजी में पाठ्यक्रम के अनुरूप कुछ पुस्तकें भी विद्यार्थियों के लिए लिखीं। 18 जून 1997 को मात्र 67 वर्ष की आयु में आपका निधन हो गया।
स्व. पंडित जिनेश्वरदासजी आप सरनऊ के निवासी थे कुचामन (राजस्थान) में बहुत साल तक रहे। आज भी उस समय के अधिकांश ब्राह्मण अपने को पंडित जी का शिष्य घोषित करते हुए गर्व का अनुभव करते हैं। आपकी बनाई हुई चतुर्विंशति पूजन लोकप्रिय है।
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'स्व. धन्यकुमारजी
स्व. धन्यकुमार जी के पूर्वज मूलतः फफोलू के रहने वाले थे। इनके बाबा शाह धनपतराय व्यापार के लिये कलकत्ता चले गये और वहीं उत्तरपाड़ा में बस गये। वहीं धन्यकुमार जी का जन्म हुआ । इनके पिताश्री का नाम शाह हरदयाल जी था। उत्तर पाड़ा का दिगम्बर जैन मंदिर श्री धनपतराय जी ने ही बनवाया था। श्री धन्यकुमार जी ने अनेक वर्षों तक कलकत्ता से जैन गजट का प्रकाशन किया तथा अनेक जैन संस्थाओं से संबंधित रहे। आपने विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर, विख्यात उपन्यासकार शरदचन्द्र चट्टोपाध्याय आदि बंगलाभाषा के अनेक साहित्यकारों की रचनाओं का हिन्दी भाषा में रूपान्तर किया। आपने जैन शोध संस्थान आगरा और शांतिवीर नगर, महावीर जी में साहित्य शोधन का भी कार्य किया । मृत्यु से 14 वर्ष पूर्व आप अपनी ससुराल बरहन आकर रहने लगे थे ।
1
7,0 %
स्व. नरसिंहदासजी कौन्देय
आपका जन्म आगरा जिलान्तर्गत चावली ग्राम में हुआ। इस चावली ग्राम में वर्षों से एक न एक विद्वान जन्म लेते रहे हैं। उन्हीं में से एक चोटी के विद्वान पंडित नरसिंहदास जी भी हैं। आपके पिताश्री लाला हेतसिंह जी धर्मानुरागी व्यक्ति थे । वैद्यक का व्यवसाय था । स्थिति साधारण थी । किन्तु जिनभक्ति एवं स्वाध्याय आदि में विशेष रुचि थी ।
आपकी प्रारम्भिक शिक्षा चावली ग्राम में ही हुई। बाद में आपने अलीगढ़ और खुरजा आदि स्थानों में शिक्षा ग्रहण की। उस समय कोई जैन विद्यालय नहीं थे। धर्म की पिपासा आपके हृदय में अंगड़ाइयां ले रही थी। वह ऐसा जमाना था जब ब्राह्मण विद्वान जैन छात्रों को पढ़ाते नहीं थे। आपके पिताश्री के हृदय में तथा स्वयं आपके हृदय में शिक्षा प्राप्त करने की अत्यन्त ललक थी। फलतः आप पं. मोतीलाल जी शास्त्री एवं पं. पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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रणछोड़दासजी के साथ काशी गये और वेश बदलकर एक अजैन छात्र के रूप में व्याकरण, न्याय और साहित्य आदि का अध्ययन करने लगे। पिताश्री की प्रेरणा और अपनी लगन से आप दिन दूनी रात चौगुनी मेहनत करने में निरत रहते थे। संयोगवश एक बार आपके छद्मवेष का पता चल गया और तब आप वहां से प्राण बचाकर भागे। अध्ययन की ऐसी ललक
और अनवरत परिश्रम आज की पीढ़ी क्या किसी पीढ़ी के छात्रों में दर्शन मात्र को नहीं मिलती। आप काशी से भागकर नदिया पहुंचे। किन्तु कुछ समय बाद ही वह स्थान भी छोड़ना पड़ा।
19 वर्ष की आयु में आपको अजमेर के स्वनाम धन्य सेठ मूलचन्दजी सोनी ने अपने यहां धर्म शिक्षण और निजी स्वाध्यायार्थ नियुक्त किया। उस अवसर पर आपने ग्रन्थों का गहन-गंभीर अध्ययन मनन किया। साथ ही परम्परागत कर्मकाण्ड ग्रन्थों का गहन मनन और शास्त्रीय विधि नियमों का अवलोकन किया। आपके हृदय प्रवेश पर अध्ययन की कितनी अथक ललक लालसा थी कहा नहीं जा सकता। अपनी प्रतिभा के कारण आप निरन्तर जनता के हृदय का हार बनते गये। और कर्मकाण्ड संबंधी ज्ञान और यश अहर्निश बढ़ता ही गया।
अजमेर में उस समय अच्छी ज्ञान गोष्ठी हुआ करती थी जिसमें स्वयं सेठ मूलचंद जी बैठकर ज्ञानस्वादन किया करते थे। श्री फूलचंद जी पांडया आदि कई स्वाध्याय प्रेमी ऐसे थे जो गोम्मटसारादि ग्रन्थों का मनन किया करते थे। आपको उस ज्ञान गोष्ठी से बहुत कुछ सीखने का अवसर मिला।
आपका ज्ञान कोष बढ़ता ही गया। आपके पाण्डित्य पर निखार आता गया और आप लोकप्रिय और यश-भाजन बनते गये।
अजमेर में आपने त्रयोदश वर्षों तक कार्य किया। इसके उपरान्त पिताश्री का देहान्त हो जाने के कारण आपको अजमेर छोड़ना पड़ा। रायबहादुर सेठ मूलचंद जी सोनी व उनके सुपुत्र रा.ब. श्री सेठ नेमीचन्द पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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जी सोनी ने आपसे बहुत ही आग्रह किया परन्तु आप फिर अजमेर में नहीं रुक सके । परिणामतः आप अजमेर से चावली चले आये और व्यवसाय करने लगे । व्यवसाय की उलझन ने भी आपकी ज्ञान-पिपासा को स्वल्प भी कम नहीं होने दिया । व्यवसाय में निरत रहने पर भी आपको स्वाध्याय की लगन अजस्त्र रूप से बनी रही और यही कारण है कि आपके निरन्तर बढ़ते हुए ज्ञान प्रगति के चरण क्षणैकार्थ भी नहीं रुके।
आप कर्मकाण्ड के पंडित बन गए। कर्मकाण्ड संबंधी पाण्डित्य के द्वारा आपने जो कीर्ति हस्तगत की वह कहने का विषय नहीं । आपकी प्रतिष्ठादि की विधि उस समय अत्यन्त प्रामाणिक मानी जाती थी। श्रद्धालु धार्मिक जन चावली ग्राम तक पहुंचते और आपको ससम्मान आमंत्रित कर ले जाते थे । आपके द्वारा लगभग 50 पंचकल्याणक एवं गजरथ महोत्सव सम्पन्न हुए। इसका ज्वलन्त उदाहरण यह है कि गजरथ क्षेत्र बुन्देलखण्ड में आज भी आपका नाम ससम्मान स्मरण किया जाता है ।
संवत् 1992 में अजमेर के धर्मप्रेमी सर सेठ भागचन्द जी सोनी ने इन्हें पुनः अपने यहां निजी स्वाध्यायार्थ बुला लिया। आपको इस परिवार से जो भी सम्मानवर्द्धक वात्सल्य मिला वह अब शायद विरले विद्वानों को ही मिलता होगा, वह भी सौभाग्य से । जीवन के अन्त तक आप अजमेर में रहे । कार्तिक सुदी त्रयोदशी संवत् 2001 में आपका देहावसान हो गया।
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अजमेर में रायबहादुर सेठ टीकमचन्द जी सोनी ने पूज्य 108 मुनिराज चन्द्रसागर जी महाराज की मंगलमयी प्रेरणा से 84 फुट ऊंचा विशाल मानस्तम्भ सिद्धकूट चैतयालय में बनवाया था। उसका सम्पूर्ण विधिकार्य आपकी शास्त्रीय सम्मति से ही सम्पन्न हुआ था ।
आप पर्यूषण पर्व में कई स्थानों पर गये और अपने सुधासिक्त प्रवचनों से बड़े-बड़े धुरन्धर विद्वानों का मन लुभाया। आपकी शैली रोचक एवं गंभीर थी। आपके चार पुत्र रत्न हुए किन्तु उनमें से द्वितीय पुत्र नहीं हैं। आपका लगभग 80 व्यक्तियों का सुशिक्षित परिवार है।
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- आप कर्मकाण्ड संबंधी ज्ञान उत्तराधिकार में अपने तृतीय पुत्र श्री हेमचन्द्र जैन कौन्देय शास्त्री एम.ए. काव्यतीर्थ 'प्रभाकर' को सौंप अपनी कीर्ति और पाण्डित्य को अमरत्व प्रदान कर इस असार संसार से पलायन कर गये। आपकी पुण्य स्मृति में आपकी सुपुत्री ने श्री सोनागिर सिद्ध पर मंदिर नं. 58 के चबूतरे का कुछ भाग निर्माण कर पाटिया लगाया।
प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाश जैन प्राचार्य पद से निवृत्त होने पर भी प्राचार्य नाम से ख्याति प्राप्त श्री नरेन्द्र प्रकाश जी जन्मजात प्रतिभा से आत्मज्ञान में अधिकार प्राप्त, सुमधुर वक्ता, ओजस्वी लेखक, अखिल भारतीय जैन समाज में सम्मान प्राप्त हैं। आपका जन्म फिरोजाबाद (उत्तर प्रदेश) में 31 दिसम्बर सन् 1933 ई. में हुआ। आपके पिताश्री सुप्रतिष्ठ प्रतिष्ठाचार्य श्री रामस्वरूप जी एवं माताश्री श्रीमती चमेलीबाई थीं। आपके पिताश्री के बड़े भाई श्री पं. कुंजबिहारीलाल जी भी अच्छे कवि एवं विधि विशेषज्ञ (प्रतिष्ठाचाय) थे। आप अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व से पद्मावती पुरवाल जाति को गौरवान्वित कर रहे हैं।
आपके पिताश्री समाज में सदैव समादर तथा प्रतिष्ठा पाते रहे थे। मात्र पिता ही नहीं अपितु पूरा परिवार विद्वता के लिए प्रख्यात रहा है।
साढ़े आर वर्ष की उम्र में आप अध्ययनार्थ श्री पन्नालाल दिगम्बर जैन विद्यालय फिरोजाबाद में प्रविष्ट हुए। सन् 1945 में आपने कक्षा 4 की परीक्षा अच्छे स्कों में उत्तीर्ण की। जब आप कक्षा 4 में थे, तब आपके ऊपर ऐसी भयंकर बीमारी का प्रकोप हुआ कि आप मृत्यु के मुंह से लौटे। लोगों ने आपको मृत समझ लिया। घर में कुहराम मच गया। किन्तु कुछ क्षणों बाद देखा गया तो आपकी श्वांस चलती हुई प्रतिभासित हुई और आपने नवजीवन प्राप्त किया।
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. इसके बाद आप एस.आर. इण्टर कालिज, फिरोजाबाद में प्रविष्ट हुए। वहां आपको मैट्रिक की परीक्षा में सन् 1951 में प्रथम श्रेणी मिली।
साहित्य के प्रति आपकी रुचि दिन प्रतिदिन बढ़ती गई। इण्टर कालिज, फिरोजाबाद में आप अपने समय के श्रेष्ठ वक्ता थे। आपको सन् 1948 से 1953 तक बराबर सर्वश्रेष्ठ वक्ता के प्रमाण पत्र एवं पुरस्कार मिलते रहे। आप जब इण्टर के विद्यार्थी थे तब आपका विवाह राजेश्वरी देवी आत्मजा श्री जयकुमार दास जी जैन (एटा) के साथ सम्पन्न हुआ।
सन् 1953 में आपने श्री पी.डी. जैन इण्टर कालिज, फिरोजाबाद में सहायक अध्यापक के रूप में कार्य शुरू किया और इसी विद्यालय में निरन्तर 39 वर्ष सेवारत रहकर 1992 में प्राचार्य पद से अवकाश ग्रहण किया। स्वाध्यायी रूप से आपने बी.ए. तथा एम.ए. की परीक्षाएं उत्तीर्ण की।
आप विद्यालय पत्रिका के संपादक तथा कालिज की हिन्दी परिषद के अध्यक्ष रहे। नगर के बुद्धजीवियों की संस्था 'मानसरोवर साहित्य संगम' के मुख्य सचेतक तथा उत्तर प्रदेश शिक्षक संघ जनपद, आगरा के अध्यक्ष रहे। आपने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया। इतना ही नहीं आपकी योग्यता से प्रभावित हो अनेक बड़ी-बड़ी संस्थाएं आपसे सहयोग की प्रार्यनी हुई। आपने सभी की कुछ-न-कुछ सेवायें कीं। आप अखिल भारतीय शांतिवीर सिद्धान्त संरक्षिणी सभा, अ.भा.दि. जैन शास्त्री परिषद तथा अ.भा. जैन परिषद परीक्षा बोर्ड के सदस्य होकर बैठकों में आवश्यक रूप से पहुंचते रहे। उक्त संस्थाओं में आप नाम के सदस्य नहीं, अपितु काम में सबसे आगे रहते रहे।
उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा के संघ द्वारा संचालित आन्दोलन में आपने सर्वप्रथम हाथ बढ़ाया। शायद इसी के फलस्वरूप 1969 में आपको एक माह की जेल की हवा खानी पड़ी। सत्याग्रह एवं जेल जीवन की सुखद स्मृतियां आज भी प्रेरणा देने में नहीं चूकतीं। आपको फिराजाबाद के
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प्रसिद्ध जैन मेला भूमि सत्याग्रह को संचालित करने का अवसर मिला। .
आपने अनेक समारोहों का संचालन एवं संयोजन किया जिनमें से निम्न समारोह सचमुच चिरस्मरणीय बन गये हैं__ 1. अग्रसेन जयंती का कवि सम्मेलन, 2. फिरोजाबाद के जैन मेले में जैन समाज के उत्कृष्ट विद्वान पंडित इन्द्रलाल जी शास्त्री, जयपुर की अ. भा. शास्त्री परिषद द्वारा अभिनन्दन समारोह, 3. मानसरोवर साहित्य संगम द्वारा न्यायाचार्य पं. माणिकचन्द्र जी कौन्देय का अभूतपूर्व सम्मान और 4. फिरोजाबाद का जैन मेला भूमि सत्याग्रह।
लौकिक शिक्षा के साथ ही धार्मिक शिक्षा के प्रति भी आपका प्रगाढ़ स्नेह रहा, स्नेह मात्र ही नहीं, बल्कि धार्मिक शिक्षा एवं सद्गुणों के प्रसार-प्रचार हेतु आपने आचार्य विमलसागर जैन विद्यालय के नाम से धार्मिक पाठशाला, नई बस्ती फिरोजाबाद में संस्थापित की जिसमें आज भी अनेक छात्र अध्ययन करते हैं। उस शाला में धार्मिक शिक्षा दी जाती है।
साहित्य के क्षेत्र में आपने सराहनीय कार्य किया। आपके अनेक निबन्ध प्रकाशित हो चुके हैं। मुनि विद्यानन्द कृतित्व और व्यक्तित्व आचार्य विमलसागर परिचय, एवं आचार्य विमलकीर्ति जी (परिचय) ये तीन रचनायें प्रकाशित हैं तथा अपनी कोटि की अद्वितीय हैं।
हिन्दी दिग्दर्शन, हिन्दी रचना कल्पद्रुम, रचना रश्मि, चन्द्रप्रभ वैभव एवं व्याकरण प्रदीप नामक आपकी पुस्तकें आपकी प्रकाशित रचनाएं हैं। 'समाज किधर?' और 'यह फिरोजाबाद है' नामक दो निबन्ध संग्रहों का प्रकाशन विचाराधीन है।
आपने अब तक निम्न पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया है1. पद्मावती संदेश, 2. अमृत, 3. जैन संस्कृति 4. युग परिवर्तन, 5. जैन गजट के संपादक आज भी हैं।
इस तरह आपकी उदीयमान प्रतिभा और व्यक्तित्व पर विहंगम दृष्टि पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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डालते हुए कहा जा सकता है कि आप एक उच्च कोटि के विद्वान, अनन्य साहित्य प्रेमी एवं अनुपम साहित्य सेवी, मुनिभक्त तथा धार्मिक पंडित हैं।
विशेष और
कृतित्व-उपरोक्त वर्णित के अतिरिक्त1. शाकाहार, एक आन्दोलन 2. बाबू जयकुमार जैन स्मृति ग्रंथ
3. फिरोजाबाद में रानीवाला परिवार
4. चन्द्रप्रभु वैभव
5. कुछ अभिनन्दन ग्रन्थों के तथा 20 ट्रेक्टों के सम्पादन- प्रकाशन, दो सौ से अधिक चिन्तन परक आलेख
रुचियां - अध्ययन, तीर्थाटन, साधु-सत्संग, पत्रकारिता एवं चिंतन-मनन-प्रवचन |
सम्मान
1. आचार्य विद्यासागर रजत दीक्षोत्सव पुरस्कार (इक्कीस हजार की श्रद्धा निधि एवं रजत प्रशस्ति पत्र )
2. गोम्मटेश्वर विद्यापीठ पुरस्कार (जैनमठ श्रवणबेलगोला)
3. वर्णी वाग्देवी पुरस्कार (भारतवर्षीय दि. जैन शास्त्री परिषद्) 4. श्रमण भारती पुरस्कार, मैनपुरी
5. ऋषभदेव पुरस्कार, ऋषभांचल (गाजियाबाद )
6. आचार्य श्री विमलसागर (भिंड) स्मृति - श्रुत संवर्धन पुरस्कार 98 (इकतीस हजार की श्रद्धा निधि एवं प्रशस्ति पत्र )
7. 'मनीषा' प्रा. नरेन्द्र प्रकाश जैन अभिनन्दन ग्रन्थ ( 700 पृष्ठ ) का समर्पण ।
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मानद उपाधियां- वाणीभूषण, व्याख्यान वाचस्पति, विद्यावाचस्पति, समाज भूषण, व्याख्यान केसरी, सिद्धान्तरत्न आदि अनेक मानद उपाधियों से सम्मानित हो चुके हैं।
सम्प्रति
1. अध्यक्ष श्री भारतवर्षीय दि. जैन शास्त्री परिषद
2. महामंत्री श्री अ.भा. दिगम्बर जैन महासभा शताब्दी महोत्सव समिति 3. सम्पादक जैन गजट
4. अध्यक्ष 'अर्हत वचन' (त्रैमासिक शोध पत्रिका) सलाहकार परिषद
रायसाहब बा. नेमिचन्द जैन जलेसर ( एटा)
जन्मजात समाज सेवी के रूप में रायसाहब की जनसेवा और निर्माण कार्यों का बड़ा इतिहास है । आपने नगरपालिका जलेसर के सदस्य के रूप में अपने सार्वजनिक जीवन का प्रारम्भ किया जो बाद में अध्यक्ष बनकर रहे। इस पद पर रहते हुए जलेसर का जीवन बदल दिया। आज वह विकसित नगर बना हुआ है
सार्वजनिक पुस्तकालय, सुभाष पार्क, गांधी शिक्षा सदन के अन्तर्गत एम.जी.एम. इण्टर कालिज आपके कीर्तिस्तम्भ हैं। ब्रिटिश शासन काल में आपने सार्वजनिक कार्यों में तत्कालीन अधिकारियों का पूरा सहयोग प्राप्त किया । माननीय श्री चन्द्रभान जी गुप्त, श्री बनारसीदास जी, श्री मोहनलाल जी गौतम, श्री लालबहादुर जी शास्त्री, पं. श्री कृष्णदत्त पालीवाल आदि मंत्री के रूप में जलेसर पधारे। रेल - उपमंत्री स्व. रोहनलाल जी चतुर्वेदी के निकट सम्पर्क में रहकर टूंडला-जलेसर- एटा रेलवे लाइन निकलवाने में आपने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। आप वर्षों मण्डल कांग्रेस कमेटी जलेसर के अध्यक्ष रहे और कितनी ही शासकीय समितियों के सदस्य रहे । आपके जीवनकाल में ही एक अभिनन्दन ग्रन्थ आपको भेंट किया गया । पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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. ..' श्री प्रेमकुमारजी . पिता श्री सुनहरीलाल जी एवं आपके चाचाजी बाबू देवीप्रसाद जी फिरोजाबाद के नामी सामाजिक कार्यकर्ता थे। स्थानीय पी.डी. जैन इण्टर कालिज की स्थापना एवं प्रगति में दोनों का सक्रिय योगदान रहा। मातुश्री जौमाला की कोख से प्रेमकुमार जी का जन्म 6 अगस्त 1929 को हुआ था। उस समय परिवार की आर्थिक व सामाजिक स्थिति दोनों अच्छी थीं। पिताजी फिरोजाबाद तहसील के प्रमुख वकील थे। अतः लोग उन्हें 'मुख्तार साहब' कहकर पुकारते थे।
प्रारम्भिक शिक्षा फिरोजाबाद में, बी.एससी. आगरा कालिज, आगरा से 1949 में तथा स्वाध्यायी रूप से अर्थशास्त्र एवं समाजशास्त्र में एम.ए. की उपाधियां ग्रहण की। विधि की उपाधि प्राप्त करने के बावजूद धार्मिक प्रवृत्ति होने के कारण संयमित जीवन के परिपालनार्थ अध्यापन कार्य को प्रमुखता दी और पन्नालाल दिगम्बर जैन इण्टर कालिज में सरविस प्रारम्भ कर वहीं से अवकाश ग्रहण किया।
आप मुंशी वंशीधर जैन धर्मशाला फिरोजाबाद, अतिशय क्षेत्र मरसलगंज (आगरा) एवं हकीम मौजीराम बंगालीलाल जैन धार्मिक ट्रस्ट फिरोजाबाद के ट्रस्टी हैं तथा इण्टर कालिज के सदस्य।
पद्मावती संदेश एवं पद्मावती पुरवाल जैन सामाजिक पत्रिकाओं में लिखते आ रहे हैं तथा फिरोजाबाद के जैन मेला में आपका सक्रिय योगदान रहता है। आपके दो पुत्र व दो पुत्री हैं। आपके जीवन पर पूज्य 108 श्री मल्लिसागर जी महाराज की साधना एवं कठिन चर्या का प्रभाव पड़ा और बचपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति को जीवन का लक्ष्य बना लिया था।
स्व. पंडित पन्नालालजी 'न्याय दिवाकर' । आपका जन्म जारखी (आगरा) में हुआ था। जिस प्रकार मिश्री चारों
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ओर से मीठी होती है, इसी प्रकार आपकी प्रतिभा भी चाहे प्रवचन हो, चाहे लेखन हो, चाहे प्रतिष्ठा विधि हो और चाहे अन्य समाजिक विषय हो, चहुं ओर से आश्चर्यजनक रूप से चमत्कारिणी थी। आपने उस समय संस्कृत भाषा का विपुल ज्ञान अर्जन किया था, जब काशी के संस्कृत विद्वान वेद निन्दक कहकर जैनियों के साथ अछूत जैसा व्यवहार करते थे। उनके पाद स्पर्श से जमीन को अपवित्र मानकर गंगाजल से शुद्ध करते थे। इनके विद्या अर्जन करने की घटना अकलंक देव के इतिहास को दुहराती है। आपने अनेक शास्त्रार्थों में जैन शासन की विजय पताका फहराई। आपका कार्य क्षेत्र प्रायः सहारनपुर स्व. लाला जम्बूप्रसाद जी के यहां रहा, परन्त प्रतिभा का धनी, यह सरस्वती पुत्र वेतन भोगी मृत्यु की तरह नहीं जिया। गुरुपद पर ही अलंकृत रहे और रईस लाला जी इनके साथ शिष्य की तरह ही व्यवहार किया करते थे। पांडित्य का माथा उन्होंने सदैव उन्नत रखा। उस युग के ये विख्यात प्रतिष्ठाचार्य थे, कारण संस्कृत भाषा पर इनका असाधरण अधिकार था एवं वाणी में मिश्री घुली थी। आपने तत्वार्थ राजवार्तिक की हिन्दी टीका भी लिखी थी। आज पंडित जी का यश पी.डी. जैन इण्टर कालेज है।
श्री पुष्पेन्द्रकुमार कौन्देय पिछली तीन पीढ़ियों से समाज सेवा में समर्पित रहने वाले परिवार में श्री पुष्पेन्द्रकुमार कौन्देय का जन्म 9 मई 1941 को हुआ। आपके पिता श्री केशवदेव जी का 78 वर्ष की आयु में हुआ। आपकी माताजी का नाम स्व. सुखदेवी जी है। सन् 1963 में आपका विवाह श्रीमती कुसमलता जी (एटा) के साथ हुआ। जिनसे आपके तीन पुत्र एवं एक पुत्री प्राप्त हुई।
आपकी सामाजिक सेवाएं उल्लेखनीय हैं। हैदराबाद जैन समाज के सन् 1988 से मंत्री पद पर कार्य कर रहे हैं। इसके पूर्व समाज के उपाध्यक्ष भी रह चुके हैं। हैदराबाद सम्पूर्ण जैन समाज के भी आप मंत्री हैं। श्री दि. पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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जैन ट्रस्ट के मैनेजिंग ट्रस्टी हैं। हैदराबाद में आयोजित पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में आपने उल्लेखनीय सहयोग दिया। महासभा के आप सदस्य हैं। कर्मठ समाज सेवी हैं।
आपके तीन पुत्रों में प्रवीन कुमार, अनिल कुमार एवं अनूप कुमार हैं। आपकी एकमात्र पुत्री अनिता जैन का आगरा में विवाह हो चुका है।"
स्व. पं. फूलचंदजी न्यायतीर्थ आपका जन्म सकरौली (एटा) में एवं निधन फिरोजाबाद में हुआ। विद्यार्थी जीवन से ही प्रखर बुद्धि थे। पीछे से व्यवसाय में अधिक रुचि हो जाने से उस क्षेत्र में चले गये।
पं. बनवारीलालजी जैन 'स्याद्वादी' पं. श्री बनवारी लाल जी का जन्म मर्थरा गांव में श्री सेवतीलाल जी जैन के परिवार में 1904 में हुआ था। आप बाल्यकाल से ही विलक्षण प्रतिभा लिए हुए थे। आपकी शिक्षा में अधिक चाह थी इसलिए आप प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात मुरैना चले गए। यहां पर आपने संस्कृत धर्म साहित्य और न्याय में शास्त्री तक शिक्षा प्राप्त की। तदुपरांत आपने दिल्ली विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में बी.ए. पास किया। शिक्षा समाप्ति के उपरांत आपने दिल्ली में जैन गजट पत्र के मैनेजर का पदभार संभाला। समाजसेवा की डगर पर यह आपका पहला कदम था। पत्र के माध्यम से आपने एक वर्ष तक बड़ी योग्यतापूर्वक समाज सेवा की। आपने ‘भागीरथ' नामक पत्र का प्रकाशन भी किया। शिक्षा क्षेत्र में सेवा करने की जिज्ञासा के फलस्वरूप लगभग 20 वर्ष तक आपने जैन संस्कृत कमर्शियल हायर सेकेन्डरी स्कूल दिल्ली में विद्यार्थियों को पढ़ाया। इनसे खुश होकर स्कूल की प्रबन्ध समिति ने अनेक बार नकद और प्रशस्ति पत्र देकर पुरस्कृत किया। इतने समय के पश्चात आप पुनः साहित्य की ओर
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मुड़े और हिन्दी के दैनिक समाचार पत्र 'नवभारत टाइम्स' में 15 वर्ष तक व्यापार संपादक (कमर्शियल चीफ सब-एडीटर) के पद पर कार्य किया। सन् 1944 से 1965 तक 'वीर' पत्रिका का संपादन किया।
पंडित जी साहित्य प्रेमी थे। आपने विद्यार्थी जीवन में ही जैन काव्यों की महत्ता पर श्री दिगम्बर जैन सभा के लखनऊ अधिवेशन में भाव सहित व्याख्या करके सर्वोत्तम पारितोषिक प्राप्त किया। साहित्य सर्जन के क्षेत्र में उनकी सफल लेखनी द्वारा ‘मोक्ष शास्त्र की टीका', 'गुड़िया का घर', 'ब्रह्मगुलाल चरित' आदि अनेक उपयोगी ग्रंथों की रचना हुई थी, जो आज भी अत्यधिक चर्चित हैं। आप दिल्ली की पद्मावती पुरवाल दिगम्बर जैन पंचायत के प्रतिष्ठित मंत्री पद पर 32 वर्ष तक रहे। आपके ही मंत्रित्व काल में श्री पद्मावती पुरवाल दिगम्बर जैन मंदिर' तथा 'पद्मावती पुरवाल दिगम्बर जैन धर्मशाला' का निर्माण हुआ। पंडित जी ने अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन पद्मावती पुरवात पंचायत में दिल्ली का प्रतिनिधित्व किया
और बाद में उपाध्यक्ष पद ग्रहण किया। आपने अपने कार्यकाल में दहेज प्रथा उन्मूलन की जोरदार वकालत की जिसके फलस्वरूप उन दिनों लगभग 20 जोड़ों के सादगी से विवाह सम्पन्न हुए।
आपने अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परिषद द्वारा ताम्र पत्र की प्राप्ति भी की, इसके अतिरिक्त वे 'आल इण्डिया विद्वत परिषद' के आनरेरी वाइस प्रेसीडेन्ट भी रहे। पूज्य पंडित जी अपने जीवनकाल में अनेकों जैन एवं जैनेतर संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए गए, जिसमें 'जैन मिलन इण्टरनेशनल संस्था' ने विशेष रूप से सम्मानित किया। उनके सम्मान में बोलते हुए दिल्ली के मुख्य कार्यकारी पार्षद श्री जगप्रवेश चन्द्र ने उनके जीवन को अनुकरणीय बताया।
उनके अपने परिवार की वंशावली में उनके तीनों सुपुत्र उन्हीं के पदचिन्हों पर चलते हुए इस सामाजिक जगत में कार्यरत हैं। दो पुत्र लंदन पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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( इंग्लैंड) में स्थायी रूप से रह रहे हैं तथा तीसरे पुत्र 'नवभारत टाइम्स' दिल्ली में कार्यरत हैं। इन्होंने भी अपने परिवार के बच्चों में वे ही संस्कारित बीज डाले हुए हैं।
यद्धपि आपका भौतिक शरीर 5 नवम्बर, 1988 को पंच भूतों में विलीन हो गया लेकिन आपके व्यक्तित्व और कृतित्व की चर्चा आज भी होती रहती है। हम पंडित जी के प्रति अपनी विनयांजलि अर्पित करते हैं ।
स्व. पं. बंशीधरजी शास्त्री
आपका जन्म बेरनी (एटा) में हुआ, परन्तु कार्यक्षेत्र शोलापुर रहा । वहां आपका प्रेस था। बड़े तीक्ष्ण एवं शास्त्रों के मर्मज्ञ थे। किसी भी शास्त्रीय विवाद में आपके सामने टिक सकना हर किसी के वश का नहीं था। आपके नाम के आगे शास्त्री, काव्यतीर्थ, उपाधि नहीं 'पंडित' लगाते थे । आपने आत्मानुशासन आदि अनेक ग्रन्थों की टीका तथा अष्ट सहस्त्री जैसे कठिन ग्रन्थ का संपादन किया ।
श्री भगवानस्वरूपजी, पूर्व चेयरमैन, टूंडला
श्री भगवान स्वरूप जी जैन टूंडला टाउन एरिया कमेटी के 30 वर्ष तक चेयरमैन रहे । अतः 'चेयरमैन' इनका उपनाम बन गया। प्रारम्भ में टाउन एरिया की स्थिति गांव जैसी थी, परन्तु अनवरत प्रयासों से उसका विकास नगर के ढंग पर हुआ। पूरे ढूंडला में प्रत्येक गली पक्की कराई गई। बिजली योजना का प्रारम्भ सन् 41 में कराया गया और पेयजल योजना सन् 60 में पूरी कराई। आपके समय में स्वच्छता के कारण नगर में मच्छर नहीं थे। आपके कारण अधिकारी और कर्मचारियों में भ्रष्टाचार नहीं था और जनता का हर कार्य सुचारु रूप से सुविधापूर्वक होता गया।
जैन धर्म पालन का आदर्श टाउन एरिया में प्रस्तुत किया और बन्दर पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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नहीं पकड़ने दिये और न कुत्तों को मारने दिया गया।
नगर में शिक्षा के विकास के लिए विद्या सम्वर्धिनी समिति की स्थापना कराई और उसके वर्षों अध्यक्ष रहे। उसमें एक विशाल कमरा अपनी ओर से निर्माण कराया तथा जूनियर हाई स्कूल की स्थापना कराई जो आज इण्टर कालिज के रूप मे फल-फूल रहा है। कितनी ही धार्मिक और सामाजिक संस्थाओं से आपका संबंध रहा है। आप राष्ट्रोन्नति के कार्यों में सहयोग देते रहे ।
श्री भगवतस्वरूपजी 'भगवत'
आपका जन्म फरिहा (मैनपुरी) उ.प्र. में संवत् 1967 को श्री चौबे जी जैन के घर हुआ था। आपके पिता बूरे बतासे के प्रसिद्ध व्यापारी थे तथा पद्मावती पुरवाल दि. जैन समाज में आपका पर्याप्त आदर था ।
आपका विवाह सखावतपुर (आगरा) निवासी लाला कनीराम की सुपुत्री श्रीमती महादेवी जी के साथ हुआ था । माता के स्वर्गवास के पश्चात् सारा भार पिताजी के ऊपर आ गया । फलतः व्यापारादि में आपको संलग्न होना पड़ा।
"
संवत् 1986 में फिरोजाबाद के मेले के समय श्री पूज्य चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागर जी महाराज ससंघ फरिहा पधारे। जिनके सत्समागम से आप में धार्मिक भावना जागी और आप अपनी भावनाओं का प्रगटीकरण कविता के माध्यम से करने लगे जो प्रायः 'जैन गजट' और 'खण्डेलवाल जैन हितेच्छु' में प्रकाशित होती रहती थीं। जब आपकी अवस्था 19 वर्ष की थीं, पं. जोखीराम जी शास्त्री की प्रेरणा से फरिहा की बन्द पाठशाला पुनः आरम्भ हुई जहां आपने अपने व्यापार कार्यों को चलाते हुए अध्ययन और आगम का ज्ञान व श्रद्धान प्राप्त किया।
पारिवारिक संताप - आपकी छोटी उम्र में ही पिताजी का देहान्त हो जाने पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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से घर के सम्पूर्ण कार्य आप एवं आपके छोटे भाई लक्ष्मण स्वरूप जी पर आ पड़े। संवत् 1990 में फरिहा में प्लेग महामारी से आपको बड़ा संघर्ष करना पड़ा। कुछ समय बाद आपके भाई लक्ष्मण स्वरूप का दुःखद वियोग, उनके तीन पुत्र एवं दो पुत्रियों तथा स्वयं के 14 वर्षीय पुत्र एवं 11 वर्षीय पुत्री का अल्पकाल में ही वियोग के महान दुःख को झेल ही नहीं पाये कि अंतिम पुत्र जो लगभग 4 वर्ष का था चल बसा । इस प्रकार अपने सामने कुल दीपक बुझ जाने के कारण आपने फिरोजाबाद जाने का निश्चय किया। परन्तु पंडित रत्नेन्दु जी जो आपके परम मित्र (गुरुभाई) ने क्षेत्र की सेवा करने के व्रत और संकल्प की प्रेरणा देकर रोका।
निस्पृह तीर्थ सेवी-इस प्रकार सांसारिक विपत्तियों को झेलकर आपने जो भी सेवाएं मरसलगंज को अर्पित की वे स्मरणीय रहेंगी। आप निरन्तर उसकी सेवा में संलग्न रहे। सन् 1963 में श्री ऋषभनाथ भगवान की विशाल पद्मासन प्रतिमा पंच कल्याणक मेला द्वारा प्रतिष्ठा कराकर क्षेत्र पर विराजमान करने का श्रेय आपको ही है।
आपका जीवन अत्यन्त धार्मिक, मुनि त्यागियों को आहार दान देने में हमेशा तत्पर, विद्वानों का आदर एवं साधर्मी भाइयों से वात्सल्य भाव आपके निजी उदात्त गुण हैं।
साहित्य सेवी-जहां तक साहित्य सेवा का संबंध है आपने कई प्रसिद्ध ग्रन्थ लिखे हैं। प्रमुख हैं-सुकुमाल महामुनि चरित (तीन भाग), सुखानन्द मनोरमा चरित (दो भाग), भगवत लावनी शतक संग्रह तथा भगवान पार्श्वनाथ पूजा आदि हैं।
आपको शांतिवीर सिद्धान्त संरक्षिणी सभा ने 'धर्मभूषण' की उपाधि से विभूषित किया तथा मरसलगंज के वार्षिक मेले के अवसर पर आपका अभिनन्दन कर सम्मानार्थ 'अभिनन्दन ग्रंथ दिया जो उनकी अतुलनीय सेवाओं के आगे छोटा है।
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स्व. कवि भगवतजी (एत्मादपुर) कवि भगवत जी का जन्म एत्मादपुर में हुआ था। आपने बड़ी अल्प वय पाई थी। परन्तु उतने ही अल्पसमय में आपने जैन साहित्याकाश को अपनी सुललित रचनाओं से आच्छादित कर दिया। आप बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। कहानी, उपन्यास, कविता एवं नाटक साहित्य प्रकाशित हो चुका है। आपकी दो रचनाएं ऋषभ स्तुति एवं महावीर स्तुति श्री सोनागिर सिद्ध क्षेत्र पर पर्वतराज के मुख्य मंदिर नं. 57 चन्द्रप्रभु जिनालय की वेदी के दायें तरफ परिक्रमा में श्री नेमिनाथ की वेदी के पीछे लिखी हैं।
__ लोकमंच नायक
स्व. श्री भागचन्द जैन जीवन की शतकीय पारी को मात्र 6 वर्ष से चूक जाने वाले ला. भागचन्द जी नृत्य, संगीत, कला, साहित्य और रंगमंच के अनन्य प्रेमी थे। स्थानीय एस.आर.के. कालिज और द्वारिकाधीश मंदिर के निर्माता सेठ कन्हैयालाल गोइन्का भी समान अभिरुचियों के व्यक्ति थे। नाट्य-संगीत के कार्यक्रमों में मिलते जुलते दोनों में निकट का संपर्क हो गया। शनैः-शनैः ला. भागचंद सेठजी की अंतरंग मित्र-मण्डली के अभिन्न अंग बन गये। सेठजी की अगआई में संध्या को नित्यप्रति ही संगीत-गायन की गोष्ठी जमती जिसमें उन्हीं जैसी समान रुचि और विचारों के लोग-पं. परसराम, पं. वैद्यमित्र, श्री जुगल किशोर, श्री रघुवर दयाल कानूनगो, लाला भागचंद जैन और मास्टर किशनलाल आदि भजन, संगीत गायन की सरिता मे गोते लगाया करते थे।
उन दिनों नगर में दो नाटक-मण्डली सक्रिय थीं। एक 'आनन्द नाट्य-समिति' जिसकी स्थापना श्री रघुवरदयाल गुबरेले, पं. श्यामलाल
और लाला गुरुदयाल जैसे राष्ट्रीय विचारधारा वाले लोगों ने की थी। पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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दूसरी 'सत्य धर्म नाट्य समिति के संस्थापक सेठ कन्हैयालाल थे। यह धार्मिक नाटकों का मंचन करती थी। ला. भागचन्द दोनों ही मण्डलियों में समानरूप से समादृत थे तथा दोनों समितियों के नाटकों में भाग लेते थे। सेठजी लिखित 'श्रीकृष्ण जन्म' और पं. श्यामलाल रचित 'रंग में भंग' नाटक बड़े ही लोकप्रिय हुए। भागचंद जी ने दोनों में ही प्रमुख भूमिकाएं निबाही थीं।
जैन धर्म में आपकी दृढ़ आस्था थी। शायद ही कोई धार्मिक आयोजन होगा जिसमें वे सम्मिलित न होते हों। नगर ही नहीं अपने सुमधुर भजन संगीत से उन्होंने कलकत्ता, मुम्बई, जयपुर, हटिया, श्रीमहावीरजी, सोनागिरि जी मैनपुरी आदि की संगीत सभाओं में अपनी कला की धाक जमा दी थी। ला. भागचन्द जी ने 18 जुलाई 1987 को 94 वर्ष की दीर्घायु में अंतिम श्वास छोड़ा।
विद्यावारिधि न्यायालंकार
पं. मक्खनलालजी शास्त्री पंडित प्रवर मक्खनलाल जी का जन्म चावली ग्राम में हुआ। आपके पिता श्री वैद्य तोताराम जी थे और माता मेवारानी थीं। आप पद्मावती पुरवाल जाति के भूषण थे व तिलक गोत्रज थे। परिवार में आपके छह भाई हुए। श्री रामलालजी ने विवाह नहीं किया, व्यापार और धर्म साधन किया। श्री मिट्ठनलालजी रुई के व्यापारी बने। पं. लालाराम जी ने लगभग 100 ग्रन्थों की टीकायें लिखीं। पंडित नंदलाल जी शास्त्री तो कालान्तर में मुनि सुधर्मसागर बन गये थे। पंडित जी के छोटे भाई श्री लालजी जौहरी धर्मात्मा एवं पंडित जी स्वयं अतीव धार्मिक सुप्रतिष्ठित व्यक्ति थे।
शिक्षा-अपने गांव में छठी कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद पंडित जी ने दिगम्बर जैन विद्यालय, मथुरा और सहारनपुर में संस्कृत का अध्ययन
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किया। वैद्यक पढ़ने के विचार से पीलीभीत के प्रसिद्ध ललितहरी वैद्यक विद्यालय में भी प्रविष्ट हुए पर जिन दर्शन का साधन नहीं देख विद्यालय छोड़ आए और बनारस के विद्यालय में न्यायतीर्थ के ग्रन्थ पढ़े। मोरैना आकर पंडित प्रवर पंडित गोपालदास जी वरैया से उच्च कोटि के शास्त्रीय धार्मिक ग्रन्थ पढ़े ।
कार्य- जब पंडित धन्नालाल जी और खूबचन्द जी ने अतीव आग्रह किया तब आप कलकत्ते की कपड़े की दुकान छोड़ मोरैना आ गये। गुरुणा गुरु गोपालदास जी वरैया के कीर्तिस्तम्भ जैसे गोपाल दिगम्बर जैन महाविद्यालय का चार युगों तक अक्षुण्ण रूप से संचालन कर आपने सही अर्थों में गुरुदक्षिणा चुकाई व समाज सेवा की। समाज में आचार-विचारवान विद्वान को जन्म और जीवन देने का श्रेय आपको है । इनमें डा. लालबहादुर जी शास्त्री, कुंजीलाल जी शास्त्री, भागचन्द जी शास्त्री, श्रेयांस कुमार जी काव्यतीर्थ, फूलचन्द जी शास्त्री, मल्लिनाथ जी शास्त्री, धर्मचक्रवर्ती जी शास्त्री आदि हैं । आपके छात्रों में आचार्य विमलसागर जी मुनि पार्श्वसागर जी, प्रबोधसागर जी, भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति जी व लक्ष्मीसेन जी भी हैं। जिन पर आपको गर्व और गौरव रहा।
रैना विद्यालय के आप प्रधानाचार्य ही नहीं रहे बल्कि उसकी आर्थिक व्यवस्था के सुयोग्य स्तम्भ रहे । कलकत्ता से सत्तर हजार रुपये लाये तो देहली से बीस हजार लाये। ग्वालियर से शिक्षा संभाग से मिलने वाली 30 /- रुपये की सहायता को 100/- करवाया। महाराजा ग्वालियर से मिलकर बारह बीघा जमीन संस्था को दिलाई जिससे 750/- रुपये मासिक किराया आता रहा । संस्था के ऊपरी भाग में आपने वर्धमान चैत्यालय बनवाया। पंच परमेष्ठियों की भी प्रतिमायें बनवाईं। गुरुदेव गोपालदास जी वरैया का शुक्ल वर्ण का साढ़े तीन फुट ऊंचा पद्मासन स्टेचू भी आपने
बनवाया ।
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समाज साहित्य सेवा-आपके संकेत मात्र से सर सेठ हुकमचन्द जी ने 1500/- की सहायता 5000/- में बदल दी। आप लगभग 16 वर्ष तक आनरेरी मजिस्ट्रेट भी मोरैना में रहे। औकाफ कमेटी में भी आपको रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। आपने जिन सिद्धान्त ग्रन्थों की टीकायें लिखीं उनमें-राजवार्तिक, पंचाध्यायी, पुरुषार्थ सिद्धयुपाय नाम उल्लेखनीय है। आपने अनेक गंभीर उच्च कोटि के विस्तृत ट्रैक्ट लिखे जिनमें सिद्धान्त सूत्र समन्वय, सिद्धान्त विरोध परिहार मुख्य हैं। सैद्धान्तिक विरोध दूर करने हेतु आपने जो ट्रैक्ट लिखे उनमें स्पश्यास्पर्ध्य विचार, चर्चासागर पर शास्त्री प्रमाण, जैनधर्म हिन्दू धर्म से भिन्न है, मुनि विहार, कानजी मतखण्डन, आर्यभ्रम निवारण आदि हैं।
उपाधियों की उपलब्धि-देहली और अम्बाला के शास्त्रार्थों में मौखिक व लिखित रूप से आपने विरोधियों को निरुत्तर कर दिया तो 'बादीभ केसरी' पदवी मिली। आपका देहली शास्त्रार्थ मुद्रित भी हुआ। जब आप महासभा पर सेढवाल अधिवेशन में सुधारकों ने संकट ला दिया तब वहां के लोगों ने आपकी प्रेरणा से सामना किया। जब आप महासभा के प्रमुख पत्र 'जैन गजट' के सहायक सम्पादक थे तब बालचन्द्र रामचन्द्र कोठारी ने आप पर इसलिए मुकदमा चलाया कि आपने पत्र में मनगढन्त बातों का पर्दाफाश किया था। न्यायाधीश ने केस को खारिज करते हुए लिखा था-“ये दूरदेश के विद्वान अपनी निस्वार्थ वृत्ति से धार्मिक सिद्धान्तों की रक्षा एवं धर्म से भी एक बड़ी सभा की रक्षा के लिए इतना कष्ट उठा रहे हैं। अपने सिद्धान्त से तिलमात्र भी नहीं हट रहे हैं। दूसरी ओर सुधारवादी फरियादी लोग समय के साथ दौड़ रहे हैं जो सिद्धान्त से सुदूर हैं।" महासभा की रक्षा करने से आपके भाई लालाराम जी को 'धर्मरत्न' और पंडित जी को 'धर्मवीर' उपाधि मिली। दिगम्बर जैन शास्त्री परिषद के पैठन (महाराष्ट्र) के अधिवेशन में 'विद्यावारिधि उपाधि दी गई। जैन दर्शनाचार्य परीक्षा उत्तीर्ण करने पर गुरुवर्य गोपालदास बरैया ने संस्था की 115
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ओर से 'न्यायालंकार' उपाधि दी। कलकत्ता के जैन समाज ने दशलक्षण पर्व में बुलाया और शंका समाधान, शास्त्र प्रवचन से 'न्याय दिवाकर' की उपाधि दी।
सभापतित्व एवं सम्पादन - दिगम्बर जैन शास्त्री परिषद सिवनी अधिवेशन में आप सभापति रहे । दिगम्बर जैन सिद्धान्त संरक्षिणी ने फरिहा में आपको सभापति बनाकर सम्मानित किया । 'जैन गजट' का आपने बारह वर्ष तक सम्पादन किया। कुछ समय के लिए आपने 'जैन गजट' को अर्ध साप्ताहिक भी कर दिया था। 'जैन दर्शन' पाक्षिक स्वतंत्र पत्र पुनः प्रकाशित किया। बाद में यही पत्र सिद्धान्त संरक्षिणी सभा का मुख - पत्र बन गया। भा. दि. जैन महासभा परीक्षालय के वर्षों मंत्री रहे । आपके गुणों को देखकर अनेक आचार्यों ने आशीर्वाद दिये। आपने आचार्य शांतिसागर संघ के संकट राजाखेड़ा में कौशल पूर्वक दूर कर दिया। अपने जीवन को जोखिम में डालकर आक्रमकों को पकड़वा दिया। केस चला तो अपराधियों को पांच वर्ष जेल व 100/- जुर्माना किया गया ।
चारित्र की दशा में प्रवृत्ति - आपने आचार्य श्री शांतिसागर महाराज से दूसरी प्रतिमा के व्रत लिये व आचार्य महावीर कीर्ति जी से तीसरी प्रतिमा के व्रत लिये। जैनों के हाथ का ही कुएं का जल लेते थे । इस जल लेने के प्रयत्न में एक बार आपके प्राणों पर आ बनी। आप पंजाब मेल चढ़ते समय गिरे पर निरापद रहे । आप पद्मावती देवी का प्रसाद मानते थे । आपने अपने लिए कभी कहीं से भेंट नहीं ली। आपकी यह निर्लोभिता आपको आदर्श विद्वान प्रमाणित करती थी। आपने अनेक सिद्ध क्षेत्रों की वन्दना की । आचार्य शांतिसागर जी ने अपने संलेखना काल में भी आपको आशीर्वाद दिया- 'तुम अपना धर्मसाधन करते हुए निर्भीकता से धर्मरक्षा में तत्पर रहते हो, आगम पर अटल श्रद्धा रखते हो, अतः तुम्हारा सम्यग्दर्शन दृढ़ है, तुम्हारा कल्याण होगा ।'
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पंडित जी जहाँ देवदर्शन से गुणों का विकास मानते थे, वहीं रात्रि भोजन से प्रच्छन्न त्रस जीव भक्षण दोष मानते थे। भावों की शुद्धि के लिए द्रव्य शुद्धि भी आवश्यक मानते थे। पंडित जी की मनोकामना थी कि समाज में धार्मिक वातावरण, सदाचार पालन, धार्मिक वात्सल्य बना रहे। सभी अपनी आत्मा का हित कर सकें। पंडित जी अध्ययनवृद्ध, अनुभववृद्ध और ज्ञानवृद्ध थे।
बीसवीं शती की उच्च विद्वत्परम्परा में ज्येष्ठ, अनेक विद्वानों के निर्माता, निर्भीक वक्ता, आर्ष मार्ग के सम्वाहक, अनेक ग्रन्थों के प्रणेता, अनुवादक, सम्पादक, सुकवि, व्रती पंडित मक्खनलाल जी शास्त्री न्यायालंकार को उन्हीं की पुण्य स्मृतियों से संजोया-संवारा गया स्मृति ग्रन्थ सन् 1993 में तैयार हुआ। प्रकाशक भारतवर्षीय दि. जैन महासभा।
आप सन् 1979 में चिरनिद्रा में लीन हो गये।
पं. मथुरादासजी शास्त्री समाज के मान्य विद्वानों में पंडित मथुरादास जी का नाम आदर के साथ लिया जाता है। जैन साहित्य के गहन अध्येता तथा एम.ए. साहित्याचार्य आदि लौकिक उपाधियों के अधिकारी विद्वान पंडित जी हैं।
आपका जन्म एटा उत्तर प्रदेश में हुआ। आप दिल्ली विद्वत समिति के मंत्री हैं। आपका कार्य क्षेत्र गुजरानवाला गुरुकुल एवं महावीर जैन हायर सैकिन्ड्री स्कूल, नई सड़क दिल्ली रहा। आपने निष्ठा, लगन एवं अपनी कुशल प्रशासन क्षमता के कारण समन्तभद्र विद्यालय को उन्नति के शिखर पर जाने का महान कार्य किया। इस विद्यालय के आचार्य पद पर आपने विद्यालय के साथ समाज सेवा और धर्म प्रभावना के महान कार्य किये।
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डा. मदनलालजी इसौली (एटा) . एटा जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में डा. मदनलाल जी का भारी प्रभाव है। आप प्रारम्भिक जीवन से राष्ट्रीय विचारों के रहे और मंडल कांग्रेस कमेटी के सदस्य रहे। अपने क्षेत्र के विकास और निर्माण में भरपूर योगदान दिया और देते रहे हैं। जलेसर के एम.जी.एम. कालिज के उपाध्यक्ष रहते हुए कालिज के विकास में विशेष प्रयत्नशील रहे। 29 अक्टूबर 1999 को आपका देहावसान हो गया।
स्व. पंडित मनोहरलालजी शास्त्री आपका जन्म पाढम (मैनपुरी) में हुआ। परन्तु कार्यक्षेत्र झालरापाटन रहा। गोम्मटसार कर्मकाण्ड जैसे महान ग्रन्थों की हिन्दी टीका आपने की, समयसार आदि उच्च आध्यात्मिक ग्रन्थों का सम्पादन किया। अल्प वय में ही आप स्वर्गवासी हो गये। मंत्र शास्त्र के आप वेत्ता थे।
श्री महावीरप्रसाद जैन सर्राफ, देहली दिल्ली के समाज सेवी श्री महावीर प्रसाद जैन सर्राफ का सामाजिक जीवन बहुत व्यापक और सक्रिय रहा है। इनका सेवा क्षेत्र किसी एक दिशा में बंधकर नहीं रहा। शिक्षा क्षेत्र से लेकर धार्मिक, सामाजिक एवं राष्ट्रसेवा के प्रशसनीय प्रमाण उपलब्ध हैं। आप रचनात्मक एवं संगठनात्मक सेवाओं के कारण जैनों के ही नहीं अजैनों के भी अपने थे।
आप अपनी सम्प्रदाय रहित निःस्वार्थ सेवा के कारण ही सन् 1937 से कांग्रेस कमेटी सुईवालान मण्डल, दिल्ली के सैक्रेटरी और अध्यक्ष जैसे सम्मानीय पदों पर रह चुके हैं। आपने इन पदों पर रहकर जो सेवा की है, वह सदैव स्मरणीय रहेगी।
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शिक्षा के क्षेत्र में भी आपकी अमूल्य सेवाएं रही हैं। पी. डी. जैन इण्टर कालेज, फिरोजाबाद की प्रबंध समिति के आजीवन सदस्य थे। उसके उपाध्यक्ष पद पर भी रहे।
आप सोनागिर में पद्मावती पुरवाल पंचायत मंदिर नं. 5 की प्रबन्ध समिति के अध्यक्ष भी रहे हैं।
दिल्ली में पद्मावती पुरवाल पंचायत के प्रभावी व्यक्तित्व रहे हैं। दिल्ली में पद्मावती पुरवाल दि. जैन पंचायत के तत्वावधान में एक मन्दिर एवं धर्मशाला का संचालन हो रहा है। इन दोनों के निर्माण में आपका जो योगदान रहा है, आने वाली पीढ़ियां सदियों तक याद करती रहेंगी ।
पं. माणिकचन्द्रजी न्यायाचार्य
पूज्य पंडित माणिकचन्द्र जी उन शीर्षस्थ विद्वानों में से एक थे जिनका जीवन धर्म और संस्कृति के लिए पूरी तरह समर्पित था । जिन्होंने चौदह वर्ष घोर परिश्रम करके डेढ़ लाख श्लोक प्रमाण नितान्त कठिन ' श्लोक वार्तिक' का हिन्दी भाष्य लिखकर अपनी उत्कृष्ट विद्वता का परिचय व प्रमाण दिया। इतना ही नहीं आपने इसके आदि और अन्त में बड़े क्लिष्ट शब्दों द्वारा गंभीर साहित्य के पचासों संस्कृत छन्दों का निर्माण कर ग्रन्थ के संक्षिप्त प्रमेयों का दर्शाया है। श्री विद्यानंद आचार्य कृत अठारह हजार श्लोक प्रमाण इस ग्रन्थ की किसी ने इससे पूर्व टीका नहीं की थी ।
आपका जन्म चावली जिला आगरा (उ.प्र.) में वि.सं. 1943 माघ शुक्ला पंचमी को लाला हेतसिंह जी वैद्य के घर माता श्री मल्लाबाई की कोख से हुआ।
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ग्यारह वर्ष की अवस्था में अपने ग्राम से चौरासी मथुरा विद्यालय में अध्ययन हेतु गये और वहां से बनारस प्रथम उत्तीर्ण कर जयपुर महापाठशाला पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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से न्यायोपाध्याय एवं साहित्य परीक्षा दी। संवत् 1964-66 तक स्याद्वाद विद्यालय बनारस से मध्यमा, आचार्य व न्यायाचार्य की परीक्षाएं उत्तीर्ण की। श्रदेय गोपालदास वरैया दि. जैन सिद्धान्त विद्यालय मोरैना में सिद्धान्त का गहन अध्ययन कर गोम्मटसार, त्रिलोकसार और पंचाध्यायी आदि का मंथन किया।
आर्थिक उपार्जन हेतु आपने अध्यापन के अतिरिक्त अन्य को संसाधन नहीं अपनाया। वि.सं. 1958 से सं. 2018 तक लगभग 60 वर्ष तक आपने गोपालदास वरैया दि. जैन सिद्धान्त विद्यालय मुरैना में, जम्बू विद्यालय सहारनपुर में (24 वर्ष प्रधानाध्यापक) तथा पन्नालाल दिगम्बर जैन कालिज फिरोजाबाद में धर्माध्यापक पद पर कार्य किया। आपने उक्त दोनों मोरैना और सहारनपुर विद्यालय में 400 प्रौढ़ जैन विद्वान तैयार किये। 'विद्यादानेन वर्द्धते' की नीति में आस्था रखने वाले श्रद्धेय पंडित जी ने अपने छात्रों को बड़े श्रम से एवं निष्ठापूर्वक जैन सिद्धान्त के ऊंचे-ऊंचे ग्रन्थों का ज्ञान दिया।
प्रतिदिन बह्ममुहूर्त में एक करवट से सोकर उठना और एक मील तक जाकर भ्रमण करना अपनी वार्धक्य अवस्था में भी नियमित रखा। घूमते हुए संस्कृत श्लोकों, स्त्रोतों का मनन करते जाना आपका स्वभाव बन गया था। घूमकर लौटकर आने पर जाप्य, सामायिक एवं ध्यान करना नित्य कर्म था। पुरुषार्थ पूर्वक इन्द्रिय-दमन, आत्मरमण, कषाय विग्रह एवं शुभ भावनायें आना आपके दैहिक तप में समग्रीभूत था।
जिनदर्शन एवं पूजन के अनुरागी, मुनियों में अतिशय भक्ति रखने वाले, दूसरे प्राणियों के उपकार की वांछा लिये आप दूसरी प्रतिमा के धारी एक चारित्रशील व्यक्ति थे।
आपने धर्मफल सिद्धान्त, षद्रव्यों की आकृतियों, जैन शासन रहस्य, दर्शन-दिग्दर्शन आदि पुस्तकें लिखी हैं।
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आपने छात्रों को ही नहीं, कतिपय मुनियों और गृहस्थों को पढ़ाया। अनेक प्रसिद्ध विद्वान आपके शिष्य हैं।
आपने काशी में वैष्णव विद्वानों के साथ संस्कृत भाषा में होने वाले शास्त्रार्थों में भाग लेकर जैन धर्म की प्रभावना की। दिल्ली, भिवानी, अजमेर, नौगांव आदि जगहों पर आर्यसमाजियों के साथ शास्त्रार्थ कर जिन शासन का महत्व प्रगट किया। दिल्ली, अजमेर, सुजानगढ़, बम्बई, जबलपुर आदि नगरों में दशलक्षण पर्व के अवसर पर अपने प्रभावी शास्त्र प्रवचन द्वारा लाखों जैन बन्धुओं को जैन प्रमेयों का ज्ञान कराया। जिसके फलस्वरूप आपको न्यायभूषण, न्याय दिवाकर, तर्क शिरोमणि, प्रवचन चक्रवर्ती, न्यायरत्न आदि सम्मानित पदवियां प्राप्त हुईं।
आपका मई 1968 में फिरोजाबाद जैन मेले के अवसर पर एक सार्वजनिक भव्य अभिनन्दन हुआ था जो आपके प्रखर बौद्धिक और विद्वतापूर्ण व्यक्तित्व का प्रतीक था। आप जयपुर, बनारस और कलकत्ता आदि विश्वविद्यालयों की शास्त्रीय, आचार्य एवं दर्शनाचार्य आदि परीक्षाओं के परीक्षक रहे।
2 जून 1968 को फिरोजाबाद की प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था मानसरोवर साहित्य संगम ने आदरणीय पंडित जी का सार्वजनिक सम्मान करते हुए उनके सम्मान में प्रकाशित 'प्रशस्तिका' और 'अभिनन्दन पत्र' भेंटकर उन्हें 'नगर-गौरव' की उपाधि से विभूषित किया।
जिनशासन की प्रभावना आपके जीवन का मुख्य लक्ष्य रहा। आपने निश्चय और व्यवहार नयों को पकड़कर श्रुत प्रभाव को सर्वोच्च स्वीकारिता दी। आपका कहना रहा कि एकान्त का कदाग्रह व्यवहार अभीष्ट नहीं है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य के सभी ग्रन्थों पर अटल श्रद्धान रहा।
जैन सिद्धान्त संबंधी आपके सैकड़ों लेख प्रकाशित हुए। 8 नवम्बर 1971 को आपका यह शरीर पंच-तत्वों में विलीन हो गया।
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पंडित रमेशचन्द्रजी शास्त्री
जन्म स्थान एवं तिथि ग्राम खरिकन्ध, पो. अहारन, जिला आगरा, रेलवे स्टेशन अहारन, सन् 1910
पिता: श्री झण्डूलाल जी (दि. जैन पद्मावती पुरवाल)
शिक्षा : श्री गोपाल दि. जैन सिद्धान्त विद्यालय मोरैना एवं जम्बू विद्यालय सहारनपुर से शास्त्री एवं मैट्रिक परीक्षा ।
सामाजिक सेवा : श्री जिनेश्वर दिगम्बर जैन विद्यालय कुचामन सिटी (राज.) में अध्यापन कार्य किया। सन् 1931 से श्री शांतिनाथ दि. जैन विद्यालय सांभरलेक (राज.) में प्रधान अध्यापक रहे। आप उक्त संस्था के संस्थापक भी थे । एक पुस्तकालय की भी वहीं स्थापना की ।
आपकी धर्मपत्नी श्रीमती भूदेवी शिक्षित महिला थीं तथा वह भी सांभरलेक में प्रधानाध्यापिका रहीं ।
पं. रामस्वरूपजी शास्त्री
आपका जन्म वि.सं. 1961 में आगरा जिलान्तर्गत, तहसील एत्मादपुर, पो. अहारन, ग्राम जटौआ में हुआ था। आपके पिता श्री जसराम जी रुई के कुशल व्यापारी थे । माता श्रीमती सेवती देवी जी आपको तीन वर्ष की अल्पायु में छोड़कर चली गई थीं। आपके बड़े भाई स्व. पं. कुंजबिहारीलाल जी शास्त्री अच्छे कवि एवं विधि विशेषज्ञ थे ।
शिक्षा अध्ययन हेतु संवत् 1966 में हस्तिनापुर गुरुकुल गये । उस समय महात्मा भगवानदीन थे। जिनका वात्सल्य आपको मिला। आगे की शिक्षा महाविद्यालय मोरैना एवं इन्दौर में हुई और धर्म में शास्त्री तथा हाई स्कूल उत्तीर्ण किया ।
सामाजिक सेवा - अपना अध्ययन समाप्त कर जीविकोपार्जन हेतु आरोन
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जागीर, सुजानगढ़, कुचामन, आंका (टोंक स्टेट) में प्रधानाध्यापक के रूप में कार्य किया। इसके बाद स्वतंत्र व्यवसाय किया। जैन विद्यालय गिरडीह जिला हजारीबाग में धर्म एवं संस्कृत के अध्यापक रहे।
आरम्भ से आपकी रुचि प्रतिष्ठा कराने, संस्कारादि और विधानादि कराने की रही। इस क्षेत्र में काफी लोकप्रियता प्राप्त की । साहित्य के प्रति आपका लगाव कम नहीं रहा। प्रश्नोत्तर शतक (प्रथम भाग ) एवं सरस सवैया आपकी स्वतंत्र प्रकाशित रचनायें हैं। इसके अलावा जैन क्रिया-काण्ड प्रदीप, दृष्टान्त लहरी, जैन विवाह - विधि और प्रश्नोत्तर शतक (द्वितीय भाग) तथा लावनी संग्रह आपकी अप्रकाशित कृतियां हैं। जैन पद्धति से विवाह कराना आपने राजस्थान में कई स्थानों पर सर्वप्रथम प्रारम्भ किया । इस प्रकार जीवन के विविध क्षेत्रों में आपने कार्य किया ।
29 दिसम्बर 1983 को फिरोजाबाद में पंडितजी ने समाधिपूर्वक अपने नश्वर शरीर का त्याग किया।
पंडित राजकुमारजी शास्त्री, निबाई
आयुर्वेदाचार्य पं. राजकुमार जी शास्त्री का जन्म ग्राम सकरौली (एटा) उत्तरप्रदेश में हुआ। आपके पिता श्री लाला रेवती प्रसाद जी और माता श्रीमती सरस्वती देवी थीं। आप अपने माता-पिता के तीसरे पुत्र हैं। आप प्रारम्भ से विनयशील, सरल स्वभावी, मेधावी थे। आपकी शिक्षा बनारस, आरा, उज्जैन में हुई । आपने शास्त्री, साहित्यतीर्थ और आयुर्वेदाचार्य परीक्षायें उत्तीर्ण कीं ।
साहित्य और समाज सेवा- आपने कुछ नाटक और पुस्तकें लिखी हैं। आप सफल लेखक और प्रभावक वक्ता हैं। आप महासभा परीक्षालय के वर्षों परीक्षक रहे । 'अहिंसा जैन बुलेटिन' एवं 'अहिंसा वाणी' मासिकी के सम्पादक रहे। अखिल विश्व जैन मिशन के कार्य को बढ़ाने के लिए पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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संचालक बनकर सराहनीय कार्य किया। अनेक संस्थाओं के संस्थापक सदस्य व सहायक अधिकारी, निवाई नगर कांग्रेस के माननीय अध्यक्ष हैं और वर्षों म्यूनिस्पल बोर्ड के चेयरमैन रहे।
आपने अहिंसा परिषद् की स्थापना की। अखिल विश्व जैन मिशन के संचालक स्व. श्री कामता प्रसाद जी के साथ अहिंसा प्रचार व प्रसार में सक्रिय रहे। श्री कामता प्रसाद जी और लखनऊ के डॉ. ज्योति प्रसाद जी के निधन के बाद मिशन के संचालक का काम आपको सौंपा गया। इनके मार्ग दर्शन में मिशन के माध्यम से जैन साहित्य विदेशों में काफी भेजा गया। कार्यकर्ताओं और सहयोगियों के साथ उनका काफी स्नेह रहता था। आप निर्धन व असहाय लोगों की सेवा में हमेशा अग्रणी रहे। इसके लिए आपने एक अलग ट्रस्ट की स्थापना की, जो अभी भी चल रहा है आपके प्रथम पुत्र हास्य कवि द्वितीय पुत्र डॉ. रमेश चन्द जैन नेत्र विशेषज्ञ, तृतीय पुत्र डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन चतुर्थ पुत्र श्री विमल कुमार जैन एवं पांचवें पुत्र डॉ. सुभाष चन्द सभी सेवा भावी सम्पन्न व परोपकारी हैं। शास्त्रीजी का स्वर्गवास हो गया।
कविवर पं. रत्नेन्दुजी कविवर पं. रत्नेन्दु जी का जन्म वि.सं. 1972 में फिरोजाबाद से उत्तर की ओर फरिहा नामक ग्राम में हुआ था। पिता श्री जोखीराम सात्विक वृत्ति के एक सद्गृहस्थ थे। ‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात'-रलेन्दु जी बचपन से ही सुकुमार प्रकृति के एक होनहार जीव थे। दुबले-पतले शरीर, कोमल वाणी और सतेज नयनों से उनकी प्रतिभा फूट पड़ती थी। बहुत थोड़े समय में ही निरन्तर अभ्यास से काव्य कला ज्योतिष और वैद्यक में निपुणता प्राप्त कर ली थी। 20 वर्ष की अल्पावस्था में ही बे पद्यावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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आस-पास के गांवों में काफी लोकप्रिय हो गये थे। जैनकुल में जन्मे होने पर भी वे केवल उसी समाज में सीमित होकर नहीं रहे। वे प्रगतिशील विचारधारा के व्यक्ति थे। जैन धर्म से उन्हें प्रेम था लेकिन जातिवाद से उन्हें घृणा थी।
कवि का कार्यक्षेत्र विस्तृत था। एक ओर जहां वे अतिशय क्षेत्र मरसलगंज के सर्वोदयी विकास में सदा अग्रणी रहे वहीं दूसरी ओर आप राजनीति में भी सक्रिय थे। वे सच्चे समाज सेवी भी थे। हरएक की मुसीबत में सांत्वना व धैर्य का सम्बल लिये वह सबसे आगे रहते। सहानुभूति के जुबाई जमाखर्च से उनकी महत्ता नहीं थी। वे सशरीर दुःखी जनों की सेवा के लिए उनके दर पर उपस्थित हो जाते थे। फरिहा के धनी और निर्धन समान रूप से उनकी सलाह से लाभान्वित होते रहे। बोली की मिठास और व्यवहार की सरलता ने सबको वश में कर लेते थे।
यों तो रत्नेन्दुजी की कवितायें समय-समय पर प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं परन्तु उनका एक बड़ा भाग अभी अप्रकाशित है। कारण नाम का मोह उन्हें था ही नहीं। आपने तीन-चार खण्ड काव्य और अनेक लम्बी कविताएं लिखीं। उनका हृदय अति संवेदनशील है। वे देश के शोषित और दलितों के दुख दर्द और उत्पीड़न से आहत हैं। कवि की गहन सहानुभूति उनके प्रति बड़े वेग से उमड़ी है। 'पैसेवाला', 'दीन', 'अतृप्त ताण्डव', 'सुख-दुःख', 'प्रेम', 'धर्म संगीत', 'अवांछित संध्या आदि कविताओं में उन्होंने त्रस्त और अभावग्रस्त जनमानस की सजीव तस्वीरें उभारी हैं। 'आप्त मीमांसा' या 'देवागम स्तोत्र' नामक संस्कृत काव्य का सवा सौ छंदों में हिन्दी अनुवाद भी किया है। 'आप्त स्तम्भ' खण्ड काव्य उनकी मौलिक रचना है। दो तीन वर्ष की लम्बी बीमारी के बाद संवत् 2006 में वे दिवंगत हो गये।
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स्व. पं. रघुनाथदासजी
आप सरनऊ (एटा) निवासी थे। 'जैन गजट' पत्र के नवें ( सन् 1916 से 1923) 7 वर्षों तक सम्पादक रहे। महासभा के माध्यम से समाज सेवा में अग्रणीय रूप से आपने भाग लिया ।
स्व. पं. रामप्रसादजी शास्त्री
आपका जन्म जटौआ (पो. अहारन, जिला आगरा) में हुआ था । परन्तु सेवा क्षेत्र ऐलक पन्नालाल दि. जैन सरस्वती सदन, बम्बई रहा । स्व. पंडित जी उत्कृष्ट विद्वान एवं गुरुभक्त थे। किसी भी शास्त्री विषय पर सप्रमाण लेखन आपका प्रिय विषय था। आपने अनेक पुस्तकें लिखीं। विद्वानों से स्नेह करते थे एवं बड़े मधुर वक्ता थे ।
पंडित लालारामजी शास्त्री
पं. लालाराम जी शास्त्री का जन्म ग्राम चावली में हुआ था। आपके पिता श्री तोताराम जी पद्मावती पुरवाल समाज के भूषण थे। आप जैसे धर्मात्मा, निरपेक्ष, अनुभव वैद्य के वैसे ही स्वभाव व सज्जन व परोपकारी थे । पिता के ये गुण विद्वच्छिरोमाणी, धर्मरत्न सरस्वती दिवाकर सुपुत्र लालाराम जी में सुविकसित हुए। आपके छोटे भाइयों में पंडित श्री नंदलाल जी ( मुनिश्री सुधर्मसागरजी) और पं. मक्खनलाल जी शास्त्री, मोरैना के नाम विशेषतया उल्लेखनीय हैं।
जैसे अन्य विद्वान यत्र-तत्र विद्यालयों में पढ़ाने के लिये प्रसिद्ध हैं, वैसे ही शास्त्री जी एक से अधिक ग्रन्थों के टीकाकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। आप धर्म में शास्त्री और संस्कृत-हिन्दी भाषा के अधिकारी विद्वान थे । आपकी टीकाओं की विशेषता यह रही कि आप जहां ग्रन्थ का कठिन भाग पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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सरल बना देते थे वहां अन्तस्थल का रहस्य भी पाठक को बखूबी समझा देते हैं। मूलग्रन्थ के अनुरूप आशय रखते हैं। ग्रन्थ के बाहर की स्वयं की व अन्य की कोई स्वतंत्र बात आपकी टीकाओं में नहीं है।
आपने आदिपुराण, उत्तरपुराण, शान्तिपुराण, चारित्रसार, आचारसार, ज्ञानामृत सार, प्रश्नोत्तर श्रावकाचार, जिनशतक (समन्तभद्रकृत) सुभौम चरित सुक्ति मुक्तावली, तत्वानुशान, बृहत्स्वयंभू स्त्रोत, चतुविंशति सन्धान, चतुविंशति तीर्थंकर स्त्रोत, सुधर्म श्रावकाचार, आदि अनेक ग्रन्थों की टीकायें लिखीं। आपने कुछ स्वतंत्र पुस्तकें भी लिखी जैसे बालबोध, जैन धर्म, क्रिया मंजरी । मुनियों व तीर्थ क्षेत्रों की पूजाएं भी लिखीं।
आप दिगम्बर जैन महासभा के मुख पत्र 'जैनगजट' के सम्पादक रहे। महासभा के सहायक मंत्री भी रहे। महासभा ने आपको 'धर्मरत्न' की उपाधि दी। शास्त्री परिषद के भी आप सभापति व संरक्षक रहे। दि. जैन सिद्धान्त संरक्षिणी सभा के दो अधिवेशनों में आपको सभापति बनाया गया था और 'सरस्वती दिवाकर' उपाधि दी। 4 जनवरी 1962 को 79 वर्ष आयु में आपका फिरोजाबाद नगर में स्वर्गवास हो गया।
विद्वद्-भूषण डा. लालबहादुर शास्त्री व्यक्तित्व की अनन्तता-बौद्धिक प्रतिभा, अप्रतिहत कवित्व, प्रभावी वक्तृत्व और शालीन व्यक्तित्व के धनी डा. लालबहादुर शास्त्री का आंखों में स्नेहिल और अपनापन, वाणी में माधुर्य और जिनके साहचर्य व अपरिमेय संतोष की झलक एक साथ देखने को मिली है। आपका स्थान जैन समाज के विशिष्ट विद्वानों में शीर्षस्थ है।
जीवन का प्रारम्भ और विकास-डा. शास्त्री का जन्म लालरू (पंजाब) में एक समृद्ध परिवार में हुआ। पिताश्री रामचरन लाल जी ईस्ट इंडिया रेलवे में एक उच्च पदाधिकारी थे। आपका परिवार मूलतः जिला आगरा, 127
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एत्मादपुर, तहसील के गांव पमारी से संबंधित था। क्रमशः 5 वर्ष और 8 वर्ष की अवस्था में माता-पिता का वियोग सहना पड़ा।
अध्ययन व शिक्षा-आपका अध्ययन ब्यावर महाविद्यालय और बाद में गोपाल दि. जैन सिद्धान्त विद्यालय, मोरैना में हुआ। आप एक मेधावी छात्र रहे। सन् 1930 में असहयोग आन्दोलन के समय ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्यालय के छात्रों को उकसाया परन्तु तत्कालीन जिलाधीश की रिपोर्ट से इनकी गतिविधियों पर विद्यालय में नियंत्रण रखा।
अध्यापन कार्य-आप वर्षों सर सेठ हुकमचन्द जी, इन्दौर के यहां पारिवारिक अध्यापक रहे। आपका सत्संग इन्दौर में स्व. पं.देवकीनन्दन जी शास्त्री, स्व. पं. बंशीधर जी न्यायालंकार, स्व. पं. खूबचन्द जी शास्त्री आदि जैसे उद्भट विद्वानों से हुआ। परस्पर जैन दर्शन के गूढ़ तत्वों के रहस्य का ज्ञान प्राप्त किया। सन् 1963 में सेठजी की पारमार्थिक संस्थाओं के मंत्री रहे। पुनः सन् 1966 से देहली में लालबहादुर शास्त्री केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ में (शिक्षा मंत्रालय से संबंधित) प्रवक्ता नियुक्त हुए। आपकी अध्यापन पटुता ने शीघ्र ही आपको रीडर पद पर पदस्थ करके 'जैन दर्शन' का विभागाध्यक्ष बना दिया।
शैक्षणिक योग्यता-अंग्रेजी साहित्य से बी.ए., संस्कृत में एम.ए. एवं साहित्याचार्य करने के बाद 1963 में 'आचार्य कुन्दकुन्द और उनका समयसार' विषय पर शोध-प्रबन्ध लिखकर आगरा विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की उपाधि ग्रहण की। इसके अलावा संस्कृत एसोसियेशन की सर्वोच्च उपाधि न्यायतीर्थ एवं काव्यतीर्थ प्राप्त की।
समाज के प्रकाश स्तम्भ-आज अध्यात्मक के क्षेत्र में निश्चयनय की दुहाई देकर जैन साधुओं और साध्वियों के प्रति हेय दृष्टि का वातावरण कुछ मुमुक्षुओं द्वारा पैदा किया जाकर लोक सम्मत धर्म को व्यवहारिक पृष्ठ भूमि से काटकर मात्र अनन्तज्ञान चैतन्य स्वरूप कहकर स्वयं को पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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शुद्ध चैतन्य स्वरूपी एवं सम्यक्त्वी होने की अर्हता में चारित्र के प्रति एक कृत्रिमता का भाव ओढ़ लिया। उपादान में जो होता है उसको प्रतीक्षा में सारे निमित्त पुरुषार्थों पर पानी फेर बैठे हैं। ऐसे अध्यात्मक के एकान्त मिथ्यात्व के निरसन में आपका अपूर्व योगदान रहता था और आपने कुन्दकुन्द स्वामी के रत्नत्रय संबंधी मार्ग की अनेकान्त और समन्वयमा दृष्टि की दिशा समाज को दी। चारित्र और संयम, दान, दयाश्वरूपी धर्म का यथारूप व्याख्यान देकर एक सही दिशा प्रशस्त की।
व्यक्तित्व की गरिमा-आपकी वक्तृत्व कला इतनी जादूगरी प्रभावक एवं आकर्षक रही कि लोग मंत्रमुग्ध जैन दर्शन के गूढ़ तत्वों को सरल भावों से ग्रहण कर लेते थे। विद्वतापूर्ण भाषणों से आपने समस्त भारत भूमि पर अपनी विशिष्टा की छाप अंकित कर दी। जिससे समाज ने आपको ‘विद्वद भूषण', 'व्याख्यान वाचस्पति', 'पंडित-रत्न' आदि सम्मानपूर्ण पदों से विभूषित कर अभिनन्दन पत्र एवं रजत पदक भेंट किये।
एक सुयोग्य सम्पादक की गुणक्ता-आप अनेक पत्रों के सम्पादक रहे। सन् 1939 के आसपास 'जैन संदेश' के सहायक सम्पादक एवं लगभग 15 वर्ष तक 'जैन गजट' (साप्ताहिक) के प्रधान सम्पादक रहे। 1962 से आप 'जैन दर्शन' (साप्ताहिक) के प्रधान सम्पादक रहे। आपके सम्पादकीय हासिये से लिखे जाने वाले विद्वतापूर्ण एवं तर्कयुक्त लेखों से विपक्षी विचारों वाले भी लोहा मानते थे।
सम्पादन कला के मर्मज्ञ लेखक-मोक्ष मार्ग प्रकाशक का आज की हिन्दी में सुन्दर सम्पादन कर उसकी महत्वपूर्ण भूमिका (प्रस्तावना) में सिद्ध किया है कि पं. टोडरमल जी ने गोम्मटसार आदि की टीका छोटी आयु में नहीं अपितु बड़ी आयु में की। संस्कृत रामचरित ग्रन्थ का हिन्दी अर्थ देकर विद्वतापूर्ण सम्पादन किया। आचार्य विद्यानन्दि कृत आप्त परीक्षा का भी सम्पादन किया। इसके अलावा कई छोटी-छोटी किन्तु
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जनसाधारण की उपयोगी पुस्तकें भी लिखीं। जैसे-महावीर दर्शन, महावीर वाणी, मुक्ति मंदिर, सत्य और तथ्य, बेटी की विदा, घरवाला लिखी। ये सब पुस्तक हिन्दी कवितायें हैं। इसी प्रकार संस्कृत काव्य पर भी आपका असाधारण अधिकार रहा। आपने तत्कालीन राष्ट्रपति श्री जाकिर हुसैन को एक समारोह में एक संस्कृत कविता लिखकर दी।
सम्मानीय पदों के गौरवधारी-आप भा.दि. जैन शास्त्री परिषद के अध्यक्ष रहे। भा.दि. जैन महासभा व भा.व. शान्तिवीर कार्यकारिणी के सदस्य रहे। आप पद्मावती पुरवाल दि. जैन पंचायत, धर्मपुरा, दिल्ली के अध्यक्ष रहे। आप अपने विद्यापीठ के प्रवक्ता परिषद के अध्यक्ष भी रहे। व्यक्ति ही नहीं संस्था थे-आपका जीवन इतने कृतत्वों से संपूरित रहा कि आप व्यक्ति से संस्था बन गये। एक ओर आपकी निरभिमानिता परन्तु दूसरी ओर स्वाभिमानी गरिमा आप में परिलक्षित होती थी। शायद यही कारण है कि धनिक वर्ग से आपकी ज्यादा पटरी नहीं खाई। फिर भी आप किसी की अवज्ञा नहीं करते थे और न आशावश किसी का गुणगान । एक निस्पृह व्यक्ति की सम्पुटता से युक्त रहे। लोभ से कहीं झुकते नहीं देखा गया। आप भारत के विभिन्न प्रान्तों में विद्वतापूर्ण व्याख्यान मालाओं के लिए आमंत्रित किये जाते रहे। परन्तु उसमें आपका कोई आर्थिक लाभ या योग नहीं होता था। विशुद्ध जैनधर्म की सेवा और शुद्ध तय रूप प्रचार-प्रसार रहा।
आपको अभिनन्दन ग्रन्थ का समर्पण सन् 1986 में सुजानगढ़ में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव पर आयोजित शास्त्री परिषद के अधिवेशन में विशाल जनसमूह के मध्य किया गया।
सोनागिर सिद्धक्षेत्र पर पर्वतराज के मुख्य मंदिर नं. 57 चन्द्रप्रभु जिनालय की वेदी के दायी तरफ परिक्रमा पथ में श्री नमिनाथ की वेदी के ऊपरी भाग में चारों ओर दश धर्म पर रचनाएं लिखी हुई हैं। पद्यावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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काफी समय पूर्व आप स्वर्गवासी हो चुके हैं। श्री डी. के. जैन, इन्दौर, श्री राजेश, बहादुर एवं श्री जयस जैन दिल्ली में आपके पुत्र हैं ।
श्री राजेश बहादुर जी देव शास्त्र गुरु के लिए समर्पित हैं।
जन्म
पिताश्री
बाबाश्री
पं. शिवमुखरायजी शास्त्री
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा सं. 1959 कुतकपुर (आगरा)
लाला कंचललाल जैन जमींदार
लाला हीरालाल जी जारखी वाले जिन्होंने कुतकपुर में जिनालय बनवाया । श्रीमती दुर्गा देवी
माताश्री
प्रारम्भिक शिक्षा - बरहन (आगरा) में, चौरासी मथुरा के पश्चात् सर सेठ स्वरूपचंद हुकमचंद महाविद्यालय, इन्दौर में शासकीय अध्ययन किया ।
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कार्य-अध्ययन के पश्चात् 10 वर्ष तक श्री गोपालदास वरैया दि. जैन सिद्धान्त विद्यालय, मोरैना में गृहपति का गुरुत्व पद संभाला। इस बीच 1930 में परम पूज्य आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के संघ पर दिद्दा नाम के ब्राह्मण और उसके साथियों द्वारा नंगी तलवारों का उपसर्ग आता देखकर दूर किया । उपसर्ग राजाखेड़ा (धौलपुर) में हुआ था। श्री आचार्य के संघ का सत्समागम रहा।
आप तीर्थ वन्दना प्रेमी और वात्सल्य गुण के आगर थे । गार्हस्थिक धर्म का परिपालन ही आपकी दिनचर्या रही। मोरैना विद्यालय के गृहपति के कार्य से मुक्त होकर 36 वर्ष दि. जैन पंचायत पाठशाला, मारोठ में अध्यापन कार्य किया।
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पांच लाख रुपये से श्रीमंत सेठ मगनलाल जी हीरालाल जी पाटनी रायबहादुर द्वारा स्थापित पारमार्थिक ट्रस्ट के मैनेजर एवं सदस्य मनोनीत हुए। 1950 में जोधपुर रेडियो स्टेशन, आल इंडिया देहली आदि रेडियो स्टेशनों से धार्मिक प्रोग्राम प्रसारित करवाने में आपका सक्रिय सहयोग रहा । स्वयं भी रेडियो स्टेशन जोधपुर से भाषण दिये । अ.भा. जैन जनगणना समिति, बड़ौत एवं पशुवध निरोधक समिति देहली एवं एटा के कार्यों में सहयोग एवं स्थानीय जीव दया पालक समिति के सदस्य ।
एक हिंसात्मक व्यापारी ब्राह्मण श्री कंवरलाल पाराशर को अपने प्रभावक उपदेश से इस व्यापार से त्याग करवाया तथा परमार्थिक ट्रस्ट द्वारा जीव दया भवन का निर्माण करवाया।
सामाजिक कार्य - अपने प्रयासों से मारोठ में हायर सेकेन्ड्री स्कूल की स्थापना शासन के सौजन्य से करवाई जो श्री ऋषभचन्द गोधा उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के नाम से है।
एक सुपुत्र श्री मणीन्द्रकुमार और 5 सुपुत्रियों के बीच एक भरे-पूरे शिक्षित परिवार में शांति और संतोष का असीम रस लेते हुए जीवन यापन किया । धर्मपत्नी सौ. फूलमाला देवी भी सरल एवं धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं ।
जैन पत्र-पत्रिकाओं में लेख एवं सामाजिक सुधार, मांसाहार वर्जन संबंधी लेख, प्रेरक विचार देते रहते थे।
',
डा. सुमतिचन्दजी जैन
पं. माणिकचंद्र जी न्यायाचार्य के अग्रज पं. नरसिंह दास जी के आत्मज डा. सुमतिचन्द्र जी पं. हेमचन्द्र जी अजमेर वालों के लघु भ्राता हैं ।
आप कुशल प्रशासक एवं मूर्धन्य विद्वान हैं । 'जैन धर्म आत्मा का स्थान' (Structure and Functions of Soil in Jainism ) विषय पर पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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अत्यंत खोजपूर्ण महाप्रबंध लिखकरआगरा विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की है। समाजसेवी एवं कुशल प्रवक्ता हैं। उत्कृष्ट चिंतक एवं गंभीर लेखक हैं। देहली में शासकीय विद्यालय के प्राचार्य रहे। जैन विश्वभारती लाडनूं (राजस्थान) में शोध अधिकारी के पद पर रहकर अध्ययन और अध्यापन किया। साहू श्रेयांस प्रसाद की प्रेरणा और प्रोत्साहन से भारतीय ज्ञानीठ दिल्ली में 10 वर्ष तक शोध-अधिकारी के पद पर कार्य किया। आपके शोध-प्रबन्ध का प्रकाशन भी प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्था द्वारा 1978 में हुआ जिसकी जैन और जैनेतर विद्वानों भूरि-भूरि प्रशंसा की। शोध अधिकारी के रूप में आपके दो दर्जन से ऊपर शोध-पत्र प्रकाशित हुए। पं.दौलतराम कृत 'छ:ढाला' नामक विख्यात ग्रंथ का आपने विस्तृत टीका सहित 1993 में अंग्रेजी में अनुवाद किया है जिसकी भूमिका जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली के कुलपति डा. डी.एस. कोठारी ने लिखी है। इसके अतिरिक्त आपके द्वारा लिखित और अनुवादित कई ग्रंथ प्रकाशन की प्रतीक्षा में हैं।
डा. साहब की प्रारम्भिक शिक्षा गांव के प्राइमरी स्कूल से शुरू हुई। स्याद्वाद विद्यालय, वाराणसी में संस्कृत भाषा, व्याकरण एवं धर्मशास्त्र का अध्ययन किया। गवर्नमेण्ट कालेज, अजमेर से बी.ए., सेंट जोंस कालेज, आगरा से एम.ए. गणित, आगरा विश्वविद्यालय से एम.ए. दर्शन शास्त्र; राजपूत कालेज आगरा से एल.टी. और अन्त में आगरा कालेज, आगरा के दर्शन एवं मनोविज्ञान विभागाध्यक्ष डा. ब्रजगोपाल तिवारी के मार्गदर्शन में आगरा विश्वविद्यालय से दर्शन विषय में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। इसी मध्य काव्यतीर्थ एवं दिगम्बर जैन न्याय मध्यमा उत्तीर्ण की। दिगम्बर जैन परिषद् परीक्षा बोर्ड, दिल्ली से A.J.Ph., M.J.Ph. और F.J.Ph. की उपाधि परीक्षायें अंग्रेजी माध्यम से उत्तीर्ण की। बाद में कई वर्षों तक आप इसी परीक्षा बोर्ड के विभिन्न कोर्सी तथा शोध लेखों के परीक्षक भी रहे।
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आजीविका अर्जन दिगम्बर जैन इण्टर कालेज, आगरा में गणिताध्यापक के रूप में शुरू हुआ। उ.प्र. शासन के शिक्षा विभाग में भी गणिताध्यापक रहे। यू.पी.एस.सी. दिल्ली द्वारा चुने जाने पर दिल्ली प्रशासक के शिक्षा विभाग में प्राचार्य पद से अवकाश ग्रहण कर अब रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहे हैं। प.पू. दि. जैन पंचायत धर्मपुरा दिल्ली-6 ने आपकी उपलब्धियों पर अवार्ड योजना के अंतर्गत सम्मान किया है।
पं. श्रीनिवासजी शास्त्री आपका जन्म चिरहोली (आगरा) ग्राम में हुआ था। बड़े सरल एवं मिष्टभाषी विद्वान थे। कलकत्ता में रहते थे तथा बंगाल बिहार, उड़ीसा दि. जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी का कार्य देखते थे। बड़े मंदिरजी में शास्त्र प्रवचन भी करते थे। आपने अनेक पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं में तर्कतीर्थ पं. झम्मनलाल जी के साथ योगदान किया। इस क्षेत्र में वही उनके गुरु थे।
और तर्कतीर्थ जी प्रतिष्ठा विधि में जितने प्रामाणिक थे उसका कोई जवाब नहीं। पं. श्रीनिवास जी ने अनेक वेदी एवं मंदिर प्रतिष्ठायें कराई। खंडगिरि सिद्ध क्षेत्र पर श्री पार्श्वनाथ मंदिर की प्रतिष्ठा के वे ही आचार्य थे। मितभाषी, प्रसन्नचित्त एवं परदुःख कातर सज्जन थे।
स्व. श्री सुनहरीलाल जैन, आगरा आपका जन्म आगरा जनपद के ग्राम लतीफपुर में श्रावण शुक्ला 10 शुक्रवार संवत् 1972 (15 अगस्त, 1915 ई.) को सम्पन्न जमींदार परिवार में हुआ। आपके पिता का नाम श्री दौलतराम जैन तथा माता का नाम श्रीमती सेवती बाई जैन था। सन् 1935 में आपकी माता श्रीमती सेवती बाई का निधन हो गया। सन् 1936 में हिम्मतपुर निवासी सेठ बाबूलाल जैन की पुत्री छुट्टो देवी के साथ आपका विवाह हुआ।
आपकी प्रारम्भिक शिक्षा ग्राम हिरनगऊ के विद्यालय में हुई। परन्तु पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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अधिक समय तक पढ़ाई बातू नहीं रही।
आपका सार्वजनिक जीवन प्रत्यक्ष रूप से 1964 में प्रारम्भ हुआ। श्री पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव पर श्री भारतवर्षीय दि. जैन संरक्षिणी सभा का मरसलगंज में 69 वां अधिवेशन हुआ, उसके स्वागताध्यक्ष के रूप में आप पहली बार पधारे। तब से आपका सार्वजनिक जीवन विविध क्षेत्रों में विभिन्न रूपों में गतिशील रहा। आप समाज में धार्मिकता के प्रतीक, और आदर्श शिक्षा सेवी के रूप में सुस्थापित हुए।
सन् 1982 में श्री भा. दि. जैन महासभा ने आपकी अनुपस्थिति में तथा अनभिज्ञता में आपको अपना अध्यक्ष मनोनीत किया। श्री महावीर ग्रंथ अकादमी, जयपुर की संचालक समिति के आप सम्मानित सदस्य नियुक्त किये गये।
सेवाएंट्रस्टी श्री शांतिवीर संस्थान, शांतिवीर नगर, श्रीमहावीर जी। ट्रस्टी श्रीमती छुट्टोदवी जैन दातव्य ट्रस्ट, आगरा। ट्रस्टी ऋषभनगर अतिशय क्षेत्र, मरसलगंज परम संरक्षक-आचार्य महावीर कीर्ति दिगम्बर जैन धर्म प्रचारिणी सभा, अवागढ़ (एटा) ।
संरक्षक-आगरा दि. जैन परिषद आगरा, श्री दि. जैन अतिशय क्षेत्र तथा विद्यालय, पपौरा जी आगरा दि. जैन शिक्षा समिति एवं एम.डी. जैन इन्टर कालिज,आगरा। श्री बाबूलाल जैन उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, अलीगढ़। सरपंच-अवागढ़ पंचायत, अवागढ़। निर्माण सहयोग1. महावीर दि. जैन इण्टर कालिज, आगरा के भवन, फर्श आदि।
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2. श्री शौरीपुर दि. जैन बटेश्वर, आगरा में प्रवेश द्वार ।
3. श्री दि. जैन संस्थान केसरिया जी, उदयपुर में कक्ष ।
4. श्री दि. जैन अतिशय क्षेत्र ऋषभनगर, मरसलगंज में दौलत प्रवेश द्वार आदि ।
5. श्री दि. जैन मंदिर कचौरा बाजार में फर्श ।
6. श्री दि. जैन राजगिरी में पहाड़ की सीढ़ियां ।
7. श्री दि. जैन सम्मेद शिखर जी में रेलिंग ।
8. श्री दि. जैन सोनागिर जी में मंदिर का जीर्णोद्धार ।
9. श्री दि. जैन मंदिर नसियां जी (पीर कल्याणी) आगरा का फर्श ।
10. श्री शांतिवीर नगर महावीर जी में एक कक्ष ।
आपके व्यापारिक संस्थान
1. मैसर्स दौलतराम सुन्हरीलाल जैन बेलनगंज आगरा ।
2. मैसर्स लोकेश आयरन इण्डस्ट्रीज, बेलनगंज आगरा ।
3. मैसर्स एक्सेपंडेन्ट मैडल मैन्यू. (इंडिया), बेलनगंज आगरा । 4. मैसर्स लोकेश रबड़ इण्डस्ट्रीज, बेलनगंज आगरा ।
5. मैसर्स लोकेश सेल्स कारपोरेशन, कलकत्ता ।
6. मैसर्स लोकेश मैटल कार्पोरेटर्स (इंडिया), हावड़ा।
जीव दया के क्षेत्र में उपलब्धियां - भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय ने आगरा के निकट हजरतपुर गांव में एक विशाल कट्टीखाना (Slaughter house) का निर्माण कराया। योजना यह थी कि यहां गायों को काटकर उनका मांस सुखाकर डिब्बों में पैक किया जाये और सेना को सप्लाई किया जाये। सरकार ने करोड़ों रुपया व्यय करके मशीनरी फिट कराई । पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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श्री सुनहरीलाल इस हत्या केन्द्र की बात सुनकर चौंके। पशुओं की रक्षा के लिए उनके धवल नेतृत्व में नर-नारियों की टोलियां निकल पड़ी। जेलें सत्याग्रहियों से भरने लगीं। लाला सुनहरीलाल कभी तो दिल्ली में मंत्रियों से अपनी मांग के मनवाने के लिए मेमोरेन्डम देते फिरते थे, कभी सत्याग्रहियों को भोजन पहुंचाते थे, कभी कारागृह पर कैदियों से भेंट करते फिर रहे थे। कभी जुलूस के आगे झंडा उठाये चल रहे होते। आखिरकार जनता का बलिदान और संगठन रंग लाया। भारत सरकार झुकी, हजरतपुर की मशीनें उखड़ी और कट्टी खाने का विशाल भू-भाग पशुओं का चारागाह बन गया। जनता ने लालाजी को बधाइयां दीं, गले में हार डाले, जय-जयकार किये।
आपकी समर्पित सेवाओं के प्रति कृतज्ञता स्वरूप 30 मार्च 1983 को सिद्धक्षेत्र सोनागिर में भट्टारक चारुकीर्ति जी मूबिद्री के द्वारा अभिनन्दन-पत्र आपको भेंट किया गया था।
लालाजी ने अपने पूज्य पिता का वैभव देखा था तो उनकी मुसीबतें भी झेली थीं। पिता के उत्तरदायित्वों को निभाते हुए उन्होंने वे सभी श्रमशील कार्य किये जो पेट भरने और परिवार पालने हेतु अनिवार्य थे। आपने परिवार का मात्र भरण-पोषण ही नहीं किया, बल्कि प्रत्येक सदस्य को उसको अपने पैरों पर खड़ा भी किया।
स्व. पं. शिवजीरामजी पाठक आपका जन्म रारपट्टी (एटा) में हुआ, परन्तु कार्यक्षेत्र रांची रहा। बड़े स्पष्ट वक्ता एवं विधि विशेषज्ञ थे।आपकी बनाई हुई 'षोडश संस्कार विधि' एवं प्रतिष्ठा-विधि आदि कई पुस्तकें हैं।
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पं. श्यामसुन्दरलालजी शास्त्री
आपके पिता श्री ओंकार प्रसाद जी जैन जमींदार थे। कुशल वैद्य होने के नाते आपने जीवन भर निःशुल्क औषधि रोगियों को दी।
जन्म स्थान एवं तिथि
शिक्षा
जीविकोपार्जन
परिवार में प्रतिभा के
पृष्ठ
ग्राम गोंछ, डाकखाना फिरोजाबाद, उ. प्र. आषाढ़ वदी अष्टमी सन् 1916 में पद्मावती पुरवाल आम्नाय में संस्कारित ।
श्री गोपाल दि. जैन सिद्धान्त महाविद्यालय मोरैना में सन् 1935 में शास्त्री तक शिक्षा ली। विद्वत वर्ष पं. मक्खन लाल जी शास्त्री न्यायालंकार आपके शिक्षा गुरु ।
आप आजीवन अविवाहित रहे तथा आपके आर्थिक उपार्जन हेतु प्रारम्भ से कपड़े का व्यापार किया ।
दो भाई और दो बहिनें ।
देवशास्त्र गुरु की भक्ति एवं सिद्धान्त शास्त्रों का अच्छा अध्ययन रहा। दिगम्बर जैन समाज बम्बई, पावागढ़, कुंथलगिरि, बाराबंकी, कलकत्ता और फिरोजाबाद में प्रवचन हेतु जाते रहे तथा अपनी पांडित्य प्रभा से समाज को प्रभावित कर 'सिद्धान्त - विज्ञ शिरोमणि' तथा 'वाणी भूषण' उपाधियां तथा अभिनन्दन पत्र प्राप्त किये। संस्कृत, हिन्दी गद्य-पद्य दोनों में लिखा ।
स्वतंत्र रचनाएं - आचार्य विमलसागर भक्तामर स्त्रोत, आचार्य महावीर कीर्ति पूजन, षट्कर्म समुच्चय और आचार्य सुधर्मसागर चरित्र हैं । बालकेशरी और स्याद्वाद मार्तण्ड पत्रिकाओं के संपादक रहे।
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सामाजिक कार्य-आप श्री पन्नालाल दिगम्बर जैन इण्टर कालिज एवं स्थानीय दि. जैन मेला महोत्सव समिति के मंत्री रहे तथा प्रमुख कार्यकर्ता के रूप में स्थानीय सभी प्रमुख संस्थाओं में महत्वपूर्ण कार्य किया।
जैन मेला भूमि सत्याग्रह का नेतृत्व किया और इस संदर्भ में 100 व्यक्तियों के एक जत्थे सहित जेल यात्रा की। बाराबंकी प्रवचन करने हेतु पहुंचने पर इन्हें भोजक समझा गया और प्रथम रात्रि एक पौरी में कष्टपूर्वक व्यतीत करनी पड़ी। दूसरे दिन वास्तविकता की स्थिति में आपका बड़ा सत्कार हुआ। निधन-25 मई 1999
धर्मालंकार पं. हेमचन्दजी कौन्देय आगरा अन्तर्गत ग्राम चावली अनेक विद्वानों की जन्मभूमि रही है। यहां पं. नरसिंहदास शास्त्री 'जैन धर्म दिवाकर' एक अच्छे प्रतिष्ठाचार्य रहे हैं। पं. हेमचन्द्र जी आप ही के होनहार सुपुत्र हैं जिन्होंने जनसाधारण के बोध के लिए साहित्य निर्माण की उत्कृष्ट भावना को साकार रूप दिया। आप मुनिभक्त थे। आपका जन्म आसोज बदी 6 सं. 1973 में माता श्री श्रीमती फूलमाला देवी की कोख से हुआ था।
प्रारम्भिक शिक्षा श्री दि. जैन जम्बू विद्यालय सहारनपुर में तथा श्रद्धेय पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री के शिष्यत्व में स्याद्वाद महाविद्यालय बनारस में हुई। जैन दर्शन शास्त्री, न्यायतीर्थ, काव्यतीर्थ उपाधि प्राप्त कर आगरा विश्वविद्यालय से एम.ए. और पंजाब की 'प्रभाकर' परीक्षा उत्तीर्ण की। __ अध्ययन समाप्त कर जैन हाई स्कूल फिरोजाबाद छावनी में 1938-39 दो वर्ष तथा राजकीय टी. जैन हायर सैकेन्ड्री स्कूल अजमेर में 32 वर्ष (1940-1972) तक शासकीय सेवा में रहकर अध्यापन कार्य किया। अजमेर में 35 वर्ष तक आपने पयूषण पर्व पर अपनी गंभीर एवं रोचक
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भाषण शैली द्वारा ज्ञान प्रसार और स्वाध्याय सम्वर्द्धन का सराहनीय कार्य किया। आपकी विद्वता से प्रभावित होकर गिरडीह, जोधपुर, सुजानगढ़, कलकत्ता और गोहाटी में आपका सादर अभिनन्दन किया गया तथा सुजानगढ़ समाज ने आपको 'धर्मालंकार' की सम्मानित उपाधि प्रदान की।
प्रमुख रचनाएं-आस्तिक का नमस्कार, भक्ति मार्ग, विचित्र परिणय, बाहुबली वैराग्य, समदर्शी (हिन्दी एकांकी) आदि हैं। इसके अलावा कुछ धार्मिक निबन्ध भी लिखे जो अभिनन्दन ग्रन्थों में यथासमय प्रकाशित होते रहे। __ आपको क्रिया काण्डों का विशेष ज्ञान था जो धरोहर के रूप में प्राप्त हुआ था। आपने अनेक वेदी प्रतिष्ठायें सम्पन्न करायीं। आपको मंत्र शास्त्रों का विशेष ज्ञान था।
सन् 1981 में आपने आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज की प्रेरणा से सहारनपुर में रात्रि विद्यालय की स्थापना की तथा उसके मंत्री रहे। आप शास्त्री परिषद की प्रबन्धकारिणी के सदस्य तथा अजमेर की कई स्थानीय संस्थाओं के सदस्य रहे।
लाला हुन्डीलाल जैन, मुहम्मदी (आगरा) सन् 1947 में देश की आजादी के बाद नवनिर्माण के लिए किये गये रचनात्मक कार्यों में आपका पूर्ण सहयोग रहा। ग्राम सभा मुहम्मदी के प्रधान पदों पर रहते हुए पंचायत भवन और प्राइमरी पाठशाला का निर्माण कराया। टूंडला-अवागढ़ रोड से अपने गांव तक सड़क मिलाने का प्रारम्भ आपके द्वारा ही किया गया। आपके सुपुत्र श्री फूलचन्द जी जैन अपने क्षेत्र में महत्वपूर्ण जनसेवी कार्यकर्ता रहे हैं और क्षेत्र के विकास में सक्रिय भाग लिया है।
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स्व. श्री हजारीलाल वकील, फिसेजाबाद : फिरोजाबाद के पं. ज्योतिप्रसाद के यहां 23 अगस्त 1912 को जिस बालक ने जन्म लिया उसका नाम हजारीलाल रखा गया। विलक्षण प्रतिभा के धनी इस बालक ने अल्प आयु में ही बी.ए., एल.एल.बी. की परीक्षा पास कर वकालत का व्यवसाय प्रारम्भ किया। अच्छा यश कमाया। पर इससे न तो स्वयं श्री हजारीलालजी और ना ही उनके पिता श्री ज्योतिप्रसादजी संतुष्ट थे। पंडित जी का स्वयं का व्यक्साय भी अच्छा था। वे शुद्ध और अच्छी कमाई पर विश्वास करते थे। श्री हजारीलालजी अपने पिताजी के परम भक्त थे। उनकी भक्ति की तुलना मातृ-पितृ भक्त श्रवणकुमार से की जाती थी। पिताजी की भावनाओं के अनुकूल और अपनी संतुष्टि के लिए उन्होंने वकालत की ही नहीं। उन्होंने पिताजी के व्यवसाय को ही आगे बढ़ाने का मन बनाया, पर धार्मिक भावनाओं से परिपूर्ण और सुसंस्कारित श्री हजारीलालजी का मन समाज सेवा और राष्ट्र सेवा की ओर बढ़ा और उस ओर निरंतर आगे बढ़ते गये। रचनात्मक कार्यकर्ताओं में आपका नाम बड़े आदर और प्रमुखता से लिया जाने लगा। कुछ कर दिखाने के लिए कृतसंकल्प श्री हजारीलाल ने अपने आपको पूरी तरह समाज और राष्ट्र के लिए समर्पित कर दिया।
सन् 1939 से 1944 तक-फिरोजाबाद नगरपालिका के आप सम्मानित सदस्य रहे। लगभग 8 साल तक शिक्षा-चेयरमैन का पद भार भी अपने कुशलतापूर्वक सम्भाला था। गांधी-सेवा संघ के आप संयुक्त मन्त्री भी रह चुके थे। जिला नियोजन समिति एवं भ्रष्टाचार निरोध समिति के सदस्य रह कर आपने इस क्षेत्र की चिर स्मरणीय सेवाएं की हैं। शिक्षा प्रधान संस्था 'पी.डी. जैन इण्टर कालेज के संस्थापकों में आपका महतवपूर्ण स्थान है। इस कालेज के भी आप प्रबन्धक व अध्यक्ष रहे थे। इस कालेज. का मुख्य द्वार आपने अपने पिता जी की पुण्य स्मृति में निर्माण करवाया 141
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है। आपने अपना पुस्तकालय भी इस संस्था को दान में दिया है।
जीवन में 'व्यक्तिगत उत्थान के महत्व एवं उसकी उपयोगिता को दृष्टि में रखते हुए आपने 'पारख - मण्डल' की स्थापना की। यह संस्था भी बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुई । इसके माध्यम से अनेकों व्यक्तियों ने आत्मचिन्तन की दिशा में अच्छी प्रगति की है। एक राजनैतिक दल से जुड़े होने पर भी आप दलगत राजनीति से सदैव दूर रहते थे। आपके जीवन से समाज की महती सेवा तथा प्रशंसनीय कार्य हुए हैं। आपमें जितनी उच्च शिक्षा थी उतनी ही नम्रता भी थी। आप जिस कार्य को आरम्भ कर देते थे उसके सम्पूर्णति तक पूरी लगन के साथ उसमें जुटे रहते थे । अभिमान शून्य और समाज के अग्रणीय महानुभावों में आपका स्मरण किया जाता है ।
प्रसिद्ध साहित्यकार एवं पत्रकार पं. बनारसीदास चतुर्वेदी के शब्दों में 'उनका जीवन परिश्रमशीलता, आदर्शवादिता, परोपकारिता और अदम्य उत्साह के लिए उदाहरण के रूप में पेश किया जा सकता है।' इसमें कोई शक नहीं कि आधुनिक काल में हमारे नगर में भाई हजारीलाल जैन से बढ़कर दूसरा कोई नगर सेवक दिखाई नहीं देता ।
इस शताब्दी के छठे दशक के पूर्वाद्ध में बत्तीस एकड़ के विस्तृत एवं विशाल भू. भाग पर तब लगभग बीस लाख रुपयों की लागत से उ. प्र. सरकार द्वारा निर्मित- फिरोजाबाद का सुविशाल सरोजिनी नायडू स्मारक चिकित्सालय बाबू हजारीलाल के बहुमूल्य जीवन के बेशकीमती बीस वर्ष की सतत् साधना एवं घोर परिश्रम का ही सुफल है। सुप्रसिद्ध पत्रकार श्री रतन लाल बंसल के अनुसार- 'यह ऐसा कठिन कार्य था जिसमें बाबू हजारी लाल जैसा आत्म विश्वासी व्यक्ति ही सफल हो सकता था । निश्चय ही फिरोजाबाद में कोई ऐसा दूसरा व्यक्ति नहीं था, जो इस कार्य को सिद्ध कर पाता' ।
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फिरोजाबाद के एक भू.पू. विधायक श्री जगन्नाथ लहरी ने बाबूजी को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए लिखा था- 'जहां तक हमारी जानकारी और विश्वास है हम यह कह सकते हैं कि अगर बाबू हजारीलाल जैन ने इतना परिश्रम न किया होता तो यह अस्पताल यहां कभी भी निर्मित नहीं होता । जिस दिन (1 जून 1945 ) से वे अस्पताल कमेटी के अवैतनिक मंत्री चुने गये थे उसी दिन से उन्होंने अपनी पूरी शक्ति इसके निर्माण में लगा दी और मृत्युपर्यन्त (10 जुलाई 1965 ) इसी में लगे रहे। भारत के स्वाधीनता आंदोलन की प्रमुख महिला और स्वतंत्र भारत में उत्तर प्रदेश की प्रथम राज्यपाल सरोजनी नायडू से मिले सहयोग के परिणामस्वरूप इस अस्पताल का नाम सरोजिनी नायडू हास्पिटल रखा गया।
भू. पू. अध्यक्ष नगर कांग्रेस कमेटी, फीरोजाबाद, श्री रामस्वरूप शर्मा ने बाबूजी की सेवाओं का स्मरण करते हुए कहा था- 'हमें उनकी स्मृति को स्थायी बनाने तथा उनके उपकारों के प्रति कृतज्ञता प्रकाशन स्वरूप स्थानीय सरोजनी नायडू स्मारक चिकित्सालय में उनकी प्रतिमा स्थापित करना चाहिए। जहां के कण-कण में उनका शरीर लगा हुआ है और जो केवलमात्र उन्हें के प्रयत्नों के फलस्वरूप ऐसा सुन्दर और उपयोगी रूप
प्राप्त कर सका ।'
निःसन्देह फिरोजाबाद के सरोजिनी नायडू स्मारक चिकित्सालय के निर्माण और विकास के लिए बाबू हजारीलाल की सेवाएं अद्वितीय हैं लेकिन उनकी सेवा का श्रेय केवल अस्पताल तक ही सीमित नहीं था । सच तो यह है कि समाज सेवा का कोई क्षेत्र उनकी सेवाओं के योगदान से अछूता नहीं था।
श्री तिलक विद्यालय इण्टर कालेज के वे प्रथम प्रबन्धक थे। श्री पी. डी. जैन इण्टर कालेज के प्रमुख संस्थापकों में से एक हैं तथा वे इसके प्रबन्धक एवं अध्यक्ष भी रहे। बहुत कम लोगों को विदित होगा नगर में
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विज्ञान की स्नातकोत्तर शिक्षा संस्था श्री छदामी लाल जैन महाविद्यालय की स्थापना के लिए स्व. सेठजी को प्रेरित करने वाले बाबू हजारी लार हीये।
वे कर्मठ कांग्रेसी कार्यकर्ता तो थे ही, कई वर्षों तक वे नगर कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भी रहे। ' एक बार सरकार ने श्री कैलाशचन्द्र चतुर्वेदी एवं श्री गिरिजाशंक भटनागर के साथ बाबू हजारी लाल जैन को आनरेरी मजिस्ट्रेट की बैंच मनोनीत किया था। बाबूजी ने सम्मान का यह पद यह कहकर अस्वीका कर दिया कि इस नगर की आबादी का एक बड़ा हिस्सा अल्प संख्यव (मुस्लिम) समुदाय का है। अतः बैंच में उक्त समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में एक मुस्लिम का भी मनोनयन होना चाहिए। कहने की आवश्यकत नहीं कि शासन ने बाबूजी के सुझाव और त्यागपूर्ण भावना की सराहन करते हुए बैंच में उनके स्थान पर श्री आफताब अहमद को नामित किया ऐसे उदार, त्यागी और न्याय प्रिय थे बाबू हजारीलाल जी।
नगर पालिका फिरोजाबाद द्वारा बाबूजी के निवास स्थान वाली गली क नाम 'हजारीलाल जैन मार्ग' रख दिए जाने के अलावा इस नगर में स्व बाबू हजारीलाल जैन की स्मृति रक्षा हेतु कुछ नहीं किया। हर्ष का विषर है कि उनके सुपुत्रों ने अपने पूज्य पिता की कीर्ति रक्षा हेतु उनकी एव आदम कद प्रतिमा अस्पताल के मुख्य प्रवेश द्वार के सम्मुख स्थापित क दी है, जिसका अनावरण उ.प्र. के तत्कालीन वन एवं जन्तु मंत्री श्री रघुब दयाल वर्मा ने 23 अगस्त 1998 को किया। श्री हजारीलाल र्ज पद्मावती-पुरवाल जाति के प्रथम ऐतिहासिक पुरुष हैं, जिनका बुर (स्टेच्यू) किसी सार्वजनिक सरकारी संस्थान में स्थापित है। सर्वर्थ प्रकाशचन्द, उमेशचन्द, सतीशचन्द, नवीनकुमार व सुशीलकुमार आपवं योग्य एवं सुसंस्कारित पुत्र है। इनके द्वितीय पुत्र श्री उमेशचन्द (मुखियाजी पावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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ने नजफगढ़ (दिल्ली) के धार्मिक एवं सामाजिक क्षेत्र में यश के नये कीर्तिमान स्थापित किए हैं। इनका टाइल्स का व्यवसाय तो उच्च स्तर पर
है ही।
श्री पी.डी. जैन इण्टर कालेज, फिरोजाबाद इस विद्यालय की स्थापना मूलतः जैन दर्शन के प्रकाण्ड पंडित श्री पन्नालाल जी 'न्यायदिवाकर' की स्मृति को अक्षुण्ण रखने के लिए उनके जन्म स्थान जारखी (आगरा) के कुछ उत्साही नवयुवकों ने 8 दिसम्बर 1927 को की थी। नाम श्री पन्नालाल दि. जैन व्यापारिक विद्यालय रखा गया। बच्चों को व्यापार का प्रारम्भिक ज्ञान देकर निर्धन साधर्मी भाइयों की आर्थिक स्थिति सुधार कर समाज को समुन्नत बनाना इसका उद्देश्य था। श्री छेदीलाल बजाज, विद्यालय प्रबंध समिति के अध्यक्ष, श्री रामस्वरूप 'भारतीय' मंत्री तथा विशम्भर दयाल कोषायक्ष थे। वस्तुतः श्री 'भारतीय' ही विद्यालय के प्राण थे। उन्हीं के सबल कंधों पर ही विद्यालय का पूरा भार था। और वे बड़ी कुशलता से अपने दायित्व का निर्वाह करते थे। तीन-चार वर्ष भली-भांति चलकर अन्ततः 1932 में यह विद्यालय आर्थिक विषमताओं के कारण समाप्त हो गया।
जिस प्रकार श्री न्याय दिवाकर जी जारखी ग्राम छोड़कर स्थायी रूप से फिरोजाबाद आ बसे थे वैसे ही उनकी पुनीत स्मृति में जारखी ग्राम में रोपा गया विद्यालय रूपी यह विरवा फिरोजाबाद के कुछ उत्साही लोगों द्वारा उस ग्राम से लाकर इस नगर में 'ट्रांसप्लांट' कर दिया गया। इनमें प्रमुख थे सर्वश्री लाला ज्योति प्रसाद, बाबू सुनहरी लाल मुख्तार, पांडे श्रीनिवास, मास्टर सन्तलाल, लाला रामशरण एवं लाला धनपाल एटा वाले। विद्यालय को लोहियान गली स्थित मुंशी बंशीधर की धर्मशाला में स्थापित किया गया और इसके सम्यक् संचालन हेतु पांडे श्रीनिवास इसके अध्यक्ष और लाला रामशरणजी मंत्री चुने गए। दो दशक तक विद्यालय
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अपर प्राइमरी स्तर तक इस धर्मशाला में चलता रहा । यद्यपि इसके जीवन में कई बार उतार-चढ़ाव आए किन्तु उत्साही कार्यकर्ताओं ने इसकी जड़ों को सूखने नहीं दिया। यहां स्व. पं. हरिप्रसाद (नगला सिकंदर) का श्रद्धापूर्ण स्मिरण आवश्यक है जिन्होंने विद्यालय को प्राणपण से जीवित बनाए रखा।
दैवयोग से 1950 में विद्यालय को स्थानीय एस.आर. के. इण्टर कालेज के भू.पू. अध्यापक पं. हाकिम सिंह उपाध्याय का सत्यपरामर्श और गतिशील सेवाएं सहज ही उपलब्ध हो गईं और 1950 की जुलाई में ही विद्यालय अपर प्राइमरी से जूनियर हाईस्कूल हो गया। सुदृक्ष प्रधानाध्यापक, योग्य और अनुभवी अध्यापक मण्डल और उत्साही कार्यकर्ताओं की लगने से तत्कालीन जिला विद्यालय निरीक्षक इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उपाध्यायजी और कार्यकर्ताओं को स्वयं ही 'हायर सैकण्डरी स्कूल' के रूप में मान्यता प्राप्त करने हेतु आवेदन माध्यमिक शिक्षा परिषद् को भेजने के लिए प्रेरित किया। शिक्षा परिषद् द्वारा निर्धारित सभी परिस्थितियां अनुकूल और संतोषजनक पायी जाने पर अधिकारियों ने 1951 में जुलाई मास से कला वर्ग में हायर सैकिण्डरी स्कूल की मान्यता प्रदान कर दी। हायर सैकिण्डरी स्कूल की मान्यता प्राप्त होते ही अतिरिक्त भवन और 'सुरक्षित कोष' की आवश्यकता पड़ी। समस्या कठिन थी लेकिन 'जहां चाह वहां राह' की उक्ति के अनुरूप इन आवश्यकताओं की आपूर्ति हो
गई।
सुरक्षित कोष की राशि प्रबन्ध समिति ने आपस में चन्दा कर जमा कर दी। स्थानीय श्री दि. जैन पद्मावती पुरवाल फण्ड कमेटी ने बाहुबली पार्क
और नसिया हेतु खरीदे विशाल भू-खण्ड पर विद्यालय कमेटी की प्रार्थना पर उन्हें नवीन भवन निर्माण की अनुमति दे दी। भवन निर्माण हेतु धन कमेटी के उत्साही सदस्यों ने अत्यन्त परिश्रम पूर्वक चन्दा एकत्र कर पावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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जुटाया। अल्प समय में ही द्रुतगति से आठ नवीन अध्ययन कक्षों का निर्माण होते ही विद्यालय जुलाई 1951 में कोटला रोड पर नसिया जी स्थित नवीन भवन में आ गया। इन दिनों मुनीम जयन्ती प्रसाद जैन विद्यालय प्रबन्ध समिति के अध्यक्ष, भानु कुमार जैन लोहिया प्रबन्धक एवं मंत्री तथा पं. हाकिम सिंह उपाध्याय प्रधानाध्यापक थे। जिन लोगों ने धूप-गर्मी, वर्षा और शीत की बिना परवाह किये चन्दे की विपुल राशि एकत्र कर भवन निर्माण करा स्वपन साकार किया उनमें प्रमुख थे सर्वश्री स्व. पाण्डे श्रीनिवास, बाबू सुनहरीलाल मुख्तार, पाण्डे राजन लाल, लाला रामशरण पंसारी, लाला रघुवर दयाल, बाबू हजारीलाल, बाबू देवी प्रसाद और हकीम प्रेमचन्द्र आदि। जुलाई 1952 में विद्यालय को हाई स्कूल विज्ञान और वाणिज्य वर्ग में भी कक्षाएं प्रारम्भ करने की अनुमति मिल गई।
1952 में विद्यालय की प्रबन्ध समिति में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ। पं. श्याम सुन्दर लाल शास्त्री के रूप में इसे एक सुयोग्य और समर्पित मंत्री तथा बाबू हजारी लाल जैन जैसा कुशल और लोकप्रिय प्रबन्धक प्राप्त हुआ। जुलाई 1953 के सत्र से विद्यालय को इण्टर आर्ट्स में कक्षाएं संचालित करने की अनुपति प्राप्त हो गई। नवीन कक्षाओं की मान्यता के साथ-साथ नये कमरों, नवीन साज-सज्जा तथा अतिरिक्त रक्षित कोष की आवश्यकता उठ खड़ी हुई। कोष की पूर्ति अध्यक्ष, मुनीम श्री जयन्ती प्रसाद जैन द्वारा आवश्यक राशि जमा करा देने से पूर्ण हो गई। कमरों की सज्जा के लिए पांच हजार का फर्नीचर बरेली से मंगाया गया। भवन निर्माण हेतु भूमि की समस्या मंत्री पं. श्याम सुन्दर लाल शास्त्री के अनवरत प्रयासों ग्राम-सभा मुहम्मदपुर गजमल पुर के सौजन्य
और सौहार्द तथा जिलाधिकारियों के कृपापूर्ण सहयोग से विद्यालय भवन से सटा हुआ 18 बिस्वा सरकारी बंजर भूमि खण्ड पट्टे पर मिल जाने से 147
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हल हो गई और उसमें तुरत-फुरत चार बड़े कमरों का निर्माण हो गया । 1954 में विद्यालय को विज्ञान वर्ग में तथा 1956 में इण्टर कामर्स की मान्यता प्राप्त होने के साथ हाईस्कूल तथा इण्टर दोनों के कला विज्ञान और वाणिज्य वर्गों में मान्यता प्राप्त कर एक पूर्णांग इण्टर मीडिएट कालेज बन गया ।
विकास के इस स्तर तक पहुंचने के उपरान्त कालेज अधिकारियों ने अपना ध्यान संस्था के बाह्य और आंतरिक रूप को सजाने-संवारने और निखारने की ओर केन्द्रित किया। जिन आवश्यक आवश्यकताओं की इस बीच उपेक्षा हो गई थी उनकी पूर्ति की गई। नए कमरों का निर्माण हुआ । हाई स्कूल और इण्टर कक्षाओं के लिये पृथक-पृथक विज्ञान की प्रयोगशालाएं बनी । ट्यूबवैल लगा, प्रधानाचार्य तथा कार्यालयों का निर्माण अतिथि भवन तथा नवीन पुस्तकालय भवन तथा मनोरम बगीचे का ले आउट आदि विगत वर्षों में शनैः-शनैः होते रहे हैं।
काल अचानक ही ले जाएगा, गाफिल होकर रहना क्या रे ॥ काल. ॥ छिनहूं तोकूं नाहिं बचावैं, तो सुभटन का रखना क्या रे ॥ काल. ॥ रंच संवाद करन के काजै, नरकन में दुख भरना क्या रे ॥ काल. ॥ कुलजन पथिकन के काजै, नरकन में दुख भरना क्या रे ॥ काल. ॥
- दुधजन
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समाज-सेवाभावी
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्री जुगमन्दरदास जैन
आपका जन्म सन् 1912 में एटा, उत्तर प्रदेश में हुआ। तेरह वर्ष की अल्पायु में ही आप नौकरी के लिए कलकत्ता आये। शिक्षा होने पर भी अर्थाभाव से पढ़ नहीं सके तो आपने शास्त्र स्वाध्याय और जन सम्पर्क से शिक्षा ली। सन् 1930 के स्वतंत्रता संग्राम हेतु राजनीति में भाग लेने देहली आये । दिल्ली जिला कांग्रेस स्वयं सेवक संघ कैम्प, दरियागंज का संचालन किया । क्रान्तिकारी पार्टी में सम्मिलित हुए ।
सन् 1938 के अन्तर्प्रान्तीय षड्यंत्र केस में देश के अनेकानेक क्रान्तिकारियों के साथ आपको भी गिरफ्तार किया गया। कई सप्ताह के लोमहर्षक यंत्रणाओं के बावजूद भी वे अडिग रहे । परिवार आश्रयहीन था। उनकी पत्नी टी. बी. की बीमारी से स्वर्गस्थ हो गईं। कोई ठोस सबूत न मिलने से उन्हें छोड़ दिया गया । किन्तु पुलिस की गिद्ध दृष्टि उन पर लगी रही। इसके बावजूद वह क्रान्तिकारियों से सक्रिय संबंध बनाये रहे । देशभक्ति की भावनायें यंत्रणाओं में और भी अधिक निखर आई थीं।
वहां से बंगाल आये। सन् 1934 के बाद कलकत्ता के कम्युनिस्ट और मजदूर नेता स्व. अब्दुल हलीम कामरेड, सोमनाथ लहरी व सरोज मुखर्जी आदि के सम्पर्क में उन्होंने मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट सिद्धान्तों का अध्ययन किया तथा वे उनके साथ मजदूर आंदोलन में भाग लेते रहे।
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सन् 1937 से पुनः व्यापार शुरू किया। 1940 में पत्नी के शोक को शान्ति से सहन किया। सन् 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में क्रान्तिकारी नेता अरुणा आसफ अली, श्री जयप्रकाश नारायण और डा. राममनोहर लोहिया को उनके फरारी जीवन में सहायता की तथा अपने घर में आश्रय दिया।
साथी जुगमन्दिर दास जैन ने साधनहीनता की अवस्था में जीवन यात्रा प्रारम्भ की। किन्तु उन्होंने देश जनता और समाज को इतना दिया कि उनका जीवन सार्थक और सफल बन गया और वह सदैव के लिए अमर बन गये। सन् 1942 में उन्होंने धातु के बर्तनों का निजी व्यापार शुरू किया। कलकत्ता के लिलुआ नामक स्थान पर स्टेनलेस स्टील का कारखाना स्थापित किया। यह उनके कठोरतम श्रम, योग्यता, कार्यकुशलता, विनम्रता और ईमानदारी का ही सुफल था।
सन् 1953 में बाबू छोटेलालजी कलकत्ता की प्रेरणा से समाज सेवा की दिशा में आये। सरल स्वभाव, कार्यनिष्ठ होने के कारण जुगमन्दिर दास जी अनेक संस्थाओं के जन्म और जीवनदाता रहे। स्टेनलेस स्टील के बर्तनों के उत्पादन कर्ता होकर आपने काफी कीर्ति कमाई।
पद्मावती पुरवाल जैन डायरेक्टरी का प्रकाशन कर आपने अपनी निष्ठा, विद्वता एवं कर्मठता का परिचय दिया।
व्यक्तित्व-सौम्य मुखमुद्रा वाले बाबूजी विद्वानों के अनुरागी थे। आप पद्मावती पुरवाल समाज के भूषण ले। पद्मक्ती संदेश के जन्म और जीवनदाता आप ही थे। इस पत्र ने आपके विषय में विशेषांक भी निकाला था जिसमें आपके पारिवारिक, सामजिक, धार्मिक, राष्ट्रीय कार्यों का उल्लेख है।
बाबू देवीप्रसाद जैन, फिरोजाबाद स्व. बाबू देवीप्रसाद जी जन्मजात राष्ट्रीय कार्यकर्ता थे। सन् 1930-31 पपावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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से लेकर 42 तक के प्रत्येक आन्दोलन में खेलपानी कार्यकर्ताओं के परिवारों की सहायता करना और कार्यकर्ताओं को निकालना आपका महत्वपूर्ण कार्य रहा। फिरोजाबाद नगर की कई शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और विकास में पूर्ण सहयोग दिया। श्री चन्द्रप्रभु दि. जैन कन्या इण्टर कालिज, श्री पी.डी. जैन इण्टर कालिज, श्री कमला नेहरू इण्टर कालिज आपके सहयोग से विकसित हुए। नगर कांग्रेस कमेटी के विभिन्न पदों पर रहते हुए संगठन को मजबूत किया। नगर के भारती-भवन पुस्तकालय के मंत्री पद पर रहकर उसके द्वारा राष्ट्रीय विचारों का प्रचार-प्रसार किया। 27 अक्टूबर 1979 को उनका देहावसान जयपुर में ज्येष्ठ पुत्र श्री अशोक कुमार जैन के घर हुआ।
श्री धनवन्तसिंह जैन, फिरोजाबाद फिरोजाबाद नगर के राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं में आपका नाम सम्मान के साथ लिया जाता है। पहले आप 12 मार्च 1941 को व्यक्तिगत सत्याग्रह में गिरफ्तार किये गये और एक वर्ष दो माह कारागार में रहे।
सन् 1942 के 'करो या मरो' आन्दोलन में आप प्रथम डिक्टेटर थे। 9 अगस्त के जुलूस का नेतृत्व करते समय ऐंग्लो इण्डियन मजिस्ट्रेट ने इन पर पिस्तौल तान दी। इस पर कालिज के छात्रों ने सामने आकर सीना खोल दिया कि पहले हम पर गोली चलाओ, बाद में हमारे डिक्टेटर को मारना। अंत में पुलिस अधिकारियों के पैर उखड़ गये।
23 अगस्त 1942 को भाषण देते हुए गिरफ्तार किये गये और 4 माह की सजा हुई। सन 43 में डाक बंगला फूंकने के अपराध में पुनः गिरफ्तार हुए और ढाई वर्ष नजर बन्द रहे।
देश के स्वतंत्र होने के पश्चात् आपने आचार्य विनोबा भावे के भू-दान आन्दोलन में भाग लिया।
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। बाबू धन्यकुमार जैन पूर्व चेयरमैन, अवागढ़
आपके राजनैतिक जीवन का प्रारम्भ सन् 1942 से हुआ। आन्दोलन काल में सहयोग प्रदान करते हुए 1947 में जिला कांग्रेस कमेटी के सदस्य चुने गये। सन् 1960 से लगातार ब्लाक कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद पर रहे। इस समय जनता इन्टर कालिज अवागढ़ के प्रबन्धक और सन् 64 से अवागढ़ टाउन एरिया के चेयरमैन रहे। आपके राष्ट्र प्रेम के कारण जनता और शासन दोनों ने आपको अनेक पदों पर मनोनीत किया। भूमि प्रबन्धक समिति के चेयरमैन, रीजनल कमेटी उद्योग मण्डल, आगरा के मनोनीत सदस्य, जिला फूड एडवाइजरी कमेटी के चेयरमैन, 20 सूत्रीय कार्यक्रम के ब्लाक अध्यक्ष, जिला हरिजन कल्याण समिति के सदस्य, भारत सेवक समाज के ब्लाक अध्यक्ष, जिला नागरिक समिति के सदस्य, जिला कृषि उद्योग प्रदर्शनी के सदस्य, भारतीय सांस्कृतिक मिलन कला केन्द्र, अवागढ़ के अध्यक्ष पदों पर रहते हुए अधिकांश समय जन-सेवा में ही व्यतीत होता है। आपकी लगन और सूझ-बूझ के फलस्वरूप अवागढ़ नगर क्षेत्र समिति को प्रदेश की सर्वश्रेष्ठ समिति घोषित करके पुरस्कृत किया गया। जनता इण्टर कालिज, अयागढ़ आपकी राष्ट्रीय सेवाओं का उदाहरण है। अवागढ़ में आपने एक विशाल और भव्य मन्दिर भी बनवाया है।
___ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी
वैद्य श्री पन्नालाल जैन 'सरल' अपने विद्यार्थी जीवन से ही देश सेवा की ओर आकर्षित होकर 'ग्राम सुधार' नामक मासिक पत्रिका का संचालन किया। सन् 1939 में भारतीय पुस्तकालय, नारखी के मंत्री बनकर पूरे ब्लाक में राष्ट्रीयता का प्रचार किया। ग्राम्य-गीतों का संकलन किया। सन् 1942 में मंडल कांग्रेस कमेटी के मंत्री बने। अगस्त आन्दोलन में जेल-यात्रा की। तब से आज पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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तक पूरा जीवन जन सेवा के लिए समर्पित है। तहसील सप्लाई कमेटी, प्रान्तीय रक्षकमण्डल तहसील कमेटी, कोटला ब्लाक के वरिष्ठ उपाध्यक्ष, ग्राम पंचायत के प्रधान, स्वभान सहकारी समिति के अध्यक्ष तहसील बाढ़ पीड़ित समिति के मंत्री, जिला कांग्रेस के सदस्य, तहसील कांग्रेस के इंचार्ज, तहसील वैद्य सभा के अध्यक्ष, तहसील 24 सूत्रीय समिति के संयोजक आदि पदों पर रहते हुए फिरोजाबाद तहसील की जनता से आपका निकट सम्पर्क रहा है
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धार्मिक क्षेत्र मे भी उनकी सेवायें कम नहीं थीं। 1950 से जीवन पर्यन्त वे श्री दि. जैन अतिशय क्षेत्र, मरसलगंज के मंत्री रहे। सन् 1999 में वे अ.भा. पद्मावती पुरवाल महासभा के संयुक्त मंत्री, 1940 में पद्मावती सेवादल के कैप्टिन, 1988 में मंत्री कमला नेहरू हाईस्कूल व सदस्य उत्तरांचल तीर्थक्षेत्र कमेटी, मेरठ। 1991 में सदस्य प्रबन्ध समिति, श्री पी. डी. जैन कालेज, फिरोजाबाद। 1995 में अध्यक्ष दि. जैन उत्तरांचल महासमिति, संभाग फिरोजाबाद तथा 1997 में दि. जैन महासमिति, उत्तरांचल की समन्वय समिति के सदस्य मनोनीत किये गये ।
जारखी के प्रधान रहते हुए सिरसा नदी पर श्रमदान से एक विशाल पुल का निर्माण 1954 में करवाया जिस पर आज पचोपुरा - नारखी बरतरा पक्की सड़क का निर्माण सार्वजनिक निर्माण विभाग द्वारा हो चुका है। इसी क्षेत्र में 14 पुलियां, पंचायत भवन, पीने के 6 कुएं, 27 मील जनमार्गों का निर्माण आदि कार्य कराये। सिरसा व सेंगर नदियों की बाढ़ के समय सन् 58, 60, 63 में नावों में घूमकर जनता के राहत कार्यों का संचालन किया। आगरा से 'ग्राम्य जीवन' साप्ताहिक पत्र का 2 वर्ष तक संचालन व सम्पादन किया। 2 सितम्बर 98 को उनका निधन होने पर उनके पार्थिव शरीर को राष्ट्रीय ध्वज में लपेटकर राजकीय सम्मान के साथ अंतिम विदाई दी गई।
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हकीम माणिकचन्द जैन, फिरोजाबाद . 'हकीम मुन्नीलाल के पुत्र माणिक चन्द्र जैन का जन्म 23 नवम्बर 1915 को हुआ था। फिरोजाबाद नगर के समाज सेवियों में आपका अग्रगण्य स्थान हैं आप स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे और जेल यात्रा की। समय-समय पर राष्ट्रीय कार्यों में बराबर आर्थिक सहयोग प्रदान करते रहे। फिरोजाबाद की प्रमुख संस्था पी.डी. जैन इण्टर कालिज के वर्षों अध्यक्ष रहे। तहसील वैद्य सभा के माननीय सदस्य थे। जन सेवा के कार्यों में आपका सहयोग सहज ही उपलब्ध होता रहता है। 26 नवम्बर 1965 को वे अपना यशः शरीर त्यागकर परलोकवासी हो गये।
श्री रामस्वरूप जैन खैरगढ़ (मैनपुरी) ग्राम में पद्मावती पुरवाल जाति में उत्पन्न स्वतंत्रता सेनानी एवं स्वर्गीय इन्दिरा गांधी द्वारा सन् 1972 में सम्मानित श्री रामस्वरूप जैन उत्तर प्रदेश के स्वतंत्रता सेनानियों में विशिष्ट स्थान रखते हैं। आपके पिताजी का नाम श्री छोटेलाल तथा माता का नाम श्रीमती जयमाला देवी जैन है। आपका जन्म 11 अक्टूबर 1917 को हुआ। उर्दू-हिन्दी मिडिल एवं साहित्य विशारद पास किया। खेती एवं कपड़े का व्यवसाय करते हैं।
सन् 1930 में केवल 13 वर्ष की आयु में ही राष्ट्रीय आन्दोलन से प्रभावित हुए और सन् 1932 में मिडिल शिक्षा पास करके अपना पूरा जीवन राष्ट्र को समर्पित कर दिया। सन् 1932 से 1935 तक नशा-निवारक समिति के सेक्रेटरी रहे। सन् 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन में 18 माह की जेल यात्रा की और बड़ी आर्थिक हानि उठानी पड़ी। सन् 1944 में आपका विवाह श्रीमती किरण देवी से हो गया जिनका निधन बहुत पहले हो गया। पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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श्री रामस्वरूप जैन भारतीय .; स्व. भारतीय जी पद्मावती पुरवाल समाज के प्रसिद्ध समाज सेवी और राष्ट्रभक्त थे। आपके बचपन से ही अपनी प्रतिभा का परिचय दिया था। जब आप चतुर्थ श्रेणी के विद्यार्थी थे, उस समय श्री रघुवरदयाल जी भट्ट के साथ कानपुर जाते समय एक निन्दनीय घटना घटी। उसकी जानकारी आपने प्रताप में भेजी थी। जिसे स्व. गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपनी टिप्पणी के साथ प्रकाशित किया था। आपका पूरा जीवन पत्रकार के रूप में रहा। सामाजिक पत्रों में 'पद्मावती संदेश' लखनऊ महासभा समाचार, अग्रवाल हितैषी तथा देवेन्द्र का संपादन किया एवं वीर-भारत, ग्राम्य जीवन साप्ताहिक नवभारत, जैन मार्तण्ड, महावीर, राष्ट्रीय पत्रों का सम्पादन किया। आप प्रसिद्ध वक्ता व लेखक रहे। सन् 1942 में 3 माह आगरा सेन्ट्रल जेल में नजरबन्द रहे। अपने क्षेत्र के राजनैतिक कार्यों में आपका विशेष योगदान रहा। आज का पी.डी. जैन इण्टर कालिज प्रारम्भ में जारखी ग्राम में ही स्थापित हुआ था। जब उसका संचालन भारतीय जी द्वारा ही होता था। जैन समाज के वुद्धिजीवियों में अग्रगण्य स्थान था। लेखक, पत्रकार और राष्ट्रीय कार्यकर्ता के रूप में दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे।
श्री राजेन्द्रकुमार, अवागढ़ आप कांग्रेस के कर्मठ कार्यकर्ता सन् 1937 से रहे हैं। बीस वर्ष से ब्लाक कमेटी के मंत्री हैं। जिला कांग्रेस कमेटी, जिला अपराध निरोधक समिति, भारत सेवक समाज आदि के सदस्य रहे हैं। स्थानीय कई शिक्षा संस्थाओं के सदस्य हैं। रचनात्मक कार्यों में आपका बराबर योगदान रहता
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लाला श्रीनिवास, ककरावली (एटा)
स्व. लालाजी ने स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया और सन् 32 व 42 में जेल यात्राएं कीं। ऐसी निःस्वार्थ विभूतियों के त्याग की जितनी प्रशंसा की जाये उतनी कम है।
श्री सन्तकुमार जैन (गांधी) अवागढ़
स्वर्गीय संतकुमार का उपनाम गांधी था। आप सन् 1932 और 42 के आन्दोलनों में जेल गये और कुर्की आदि में भारी आर्थिक हानि उठानी पड़ी। आपने राष्ट्रीय आन्दोलनों में भारी कार्य किया ।
श्री राजकुमार जैन, फिरोजाबाद
श्री धनवन्त सिंह जैन के लघु भ्राता हैं। आप भी 1942 के राष्ट्रीय आन्दोलन में भागीदार रहे और 4 माह 26 दिन की जेल यात्रा की ।
लाला गोविन्दराम पोंडरी (एटा)
स्व. लाला गोविन्दराम जी सन् 1930 से लेकर जीवन पर्यन्त गांधीजी के सिद्धांतों के कट्टर अनुयायी रहे। सन् 1942 में दो बार जेल यात्रा की। आपका स्वर्गवास सन् 1972 में हुआ। तब तक बराबर राष्ट्रीय कार्यों में सहयोग देते रहे ।
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श्री ब्रजकिशोर जैन
प्रस्तुत इतिहास ग्रंथ के सम्पादक श्री ब्रजकिशोर जैन अ.भा. दि. जैन पद्मावती पुरवाल पंचायत के मुखपत्र- पद्मावती पुरवाल पत्रिका' के सम्पादक हैं। पूर्व में भी पंचायत द्वारा प्रकाशित 'पद्मावती सन्देश' मासिक का ढाई-तीन वर्ष सम्पादन कर चुके हैं।
श्री पी.डी जैन कॉलेज, फिरोजाबाद में 42 वर्ष की दीर्घकालीन सेवा के उपरान्त 30 जून 1993 को अंग्रेजी के प्रवक्ता पद से सेवा निवृत हुए हैं। अपने विषय के योग्य शिक्षक होने के साथ-साथ वे एक अच्छे लेखक, निपुण अनुवादक और कुशल सम्पादक भी हैं।
सुप्रसिद्ध पत्रकार और साहित्यकार श्रद्धेय पं. बनारसी दास चतुर्वेदी और रतन लाल बंसल जैसे ख्यातिलब्ध लोगों के निकट सम्पर्क में रहने का उन्हें वर्षों तक सौभाग्य प्राप्त रहा। गुण ग्रहण की भावना के कारण उन्होंने इन दोनों की सेवा और सान्निध्य में रहकर बहुत कुछ सीखा और समझा। लेखक और अध्ययन में तो उनकी अभिरुचि थी ही प्रतिष्ठित और स्थापित लेखकों के सजीव संसर्ग ने इसमें और अभिवृद्धि की।
अंग्रेजी के अध्यापक रहे। अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की लेकिन लिखते अधिकतर हिन्दी में ही हैं। हिन्दी लेखन में अच्छी गति है, अच्छी लिख लेते हैं। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, नवनीत, आजकल, जीवन साहित्य, सरिता और रश्मि जैसी राष्ट्र स्तरीय पत्रिकाओं और नवभारत टाइम्स, अमर उजाला, और दैनिक जागरण जैसे दैनिक पत्रों में शताधिक लेख, स्फुट निबन्ध, जीवन परिचय, रेखाचित्र और संस्मरण आदि प्रकाशित हो चुके हैं।
कालेज पत्रिका 'अमृत' के प्रथम अंक से ही उससे जुड़े रहे हैं। अब तक प्रकाशित दो दर्जन से अधिक अंकों में से सर्वाधिक और सर्वश्रेष्ठ अंकों के सम्पादक वे ही हैं। यों तो 'अमृत' .के सभी अंक पहनीय,
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संग्रहणीय और महत्वपूर्ण हैं। परन्तु । मई, 1971 में प्रकाशित 'फिरोजाबाद जनपद अंक' और 1974 का भगवान महावीर 2500वां परिनिर्वाण विशेषांक' विशेष चर्चित रहे। जनपद अंक तो फिरोजाबाद के संबंध में शोधकर्ताओं के लिए एक अमूल्य संदर्भ ग्रंथ ही बन गया। कई प्रतिष्ठित समाचार पत्र-पत्रिकाओं में इसकी समीक्षा प्रकाशित हुई। इस कारण भी इसकी मांग कई वर्षों तक बनी रही।
ब्रजकिशोर जी का जीवन एकांगी नहीं रहा। वे सामाजिक व्यक्ति हैं और सामाजिक गतिविधियों में सदैव सक्रिय सहयोग देते रहते हैं, भगवान महावीर 2500वां निर्वाणोत्सव के अवसर पर स्थानीय जैन संगठन द्वारा प्रकाशित 'फिरोजाबाद जनपद जैन डाइरेक्टरी' तथा तीन-चार अन्य स्मारिकाओं के सम्पादन में अमूल्य योगदान दिया। श्री हाकिम सिंह उपाध्याय अभिनन्दन समारोह समिति, फिरोजाबाद द्वारा श्री पी.डी. जैन कालेज के संस्थापक प्रधानाचार्य पं. हाकिम सिंह उपाध्याय को 1985 में अनेक सार्वजनिक अभिनन्दन के अवसर पर समर्पित अभिनन्दन ग्रंथ 'जीवन सौरभ' के सम्पादन में दो अन्य सहयोगियों के साथ महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वृद्धजन समिति जनपद फिरोजाबाद द्वारा षष्टम-वृद्धजन-सम्मान समारोह (1994) के अवसर पर प्रकाशित स्मारिका 'वृद्धजन सेवा' का सम्पादन आपने ही किया। हाल ही में 17 दिसम्बर 2000 को दि. जैन महासमिति उत्तराचंल सम्भाग फिरोजाबाद के तत्वावधान में सम्पन्न प्रदेशीय अधिवेशन के अवसर पर श्री शौरीपुर बटेशवर दि. जैन सिद्ध क्षेत्र कमेटी द्वारा प्रकाशित बाबू जय कुमार जैन स्मृति ग्रंथ 'प्रेरणा' के सम्पादन का मुख्य कार्य आपके द्वारा ही किया गया। कमला नेहरू चन्द्र कुमारी जैन इण्टर कालेज की पत्रिका 'आशीष' के प्रथमांक का सम्पादन अतिथि-सम्पादक के रूप में आपके हाथों द्वारा ही सम्पन्न हुआ। कालेज से अवकाश ग्रहण के उपरान्त भी कालेज प्रबन्धन के आग्रह पर 'अमृत' के 25वें रजत जयन्ती अंक का सम्पादन भी अतिथि-सम्पादक पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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के रूप में किया। 4&
श्री दि. जैन बाहुबलि संघ के मंत्री रहे। शिक्षक होने के कारण माध्यमिक शिक्षक संघ से अभिन्न रूप से जुड़े रहे। शिक्षक आन्दोलन में सत्याग्रह करते हुए तीन बार जेल यात्राएं कीं। 1964-65 में नगर माध्यमिक शिक्षक संघ के मंत्री रहे तथा पी. डी. जैन कॉलेज इकाई शाखा के बार मंत्री रहे तथा अध्यक्ष रहे। वर्तमान में अखिल भारतीय दि. जैन पद्मावती पु. पंचायत के सूचना एवं प्रसारण मंत्री हैं। श्री दि. जैन पद्मावती पुरवाल फण्ड कमेटी फिरोजाबाद के मंत्री फिरोजाबाद के सबसे प्राचीन जिनालय श्री दि. जैन बड़ा मंदिर, बड़ा मुहल्ला के 1985 से मंत्री तथा श्री रत्नत्रय दि. जैन मंदिर नसिया जी, फिरोजाबाद की प्रबन्ध समिति के सदस्य हैं। एक लम्बी अवधि से श्री अरविंद सुसाइटी, पांडिचेरी की फिरोजाबाद शाखा के सदस्य हैं।
ब्रज किशोर सिंह गोत्रीय पद्मावती पुरवाल हैं। इनके पूर्वज सैकड़ों वर्ष पूर्व चन्दवार का पतन हो जाने पर फिरोजाबाद आकर बस गए थे I बाल्यावस्था में ही मां का साया सिर से उठ जाने के कारण इनके पिता श्री जम्बू प्रसाद जैन को कभी नौकरी और कभी छोटा-मोटा व्यवसाय करना पड़ा। बालक ब्रज किशोर का जन्म 23 फरवरी 1933 को माता श्रीमती महादेवी के गर्भ से मुहल्ला शेख लतीफ स्थित पैतृक मकान में हुआ। प्रारम्भिक शिक्षा श्री पन्नालाल दि. जैन विद्यालय, गली लोहियान में तथा जूनियर हाईस्कूल, हाईस्कूल, और इण्टर की शिक्षा स्थानीय एस. आर. के. इण्टर कॉलेज में प्राप्त की। 1951 में इण्टर कामर्स की परीक्षा उत्तीर्ण करने पर उनके गुरु और श्री पी. डी. जैन कालेज के संस्थापक प्रधानाचार्य श्री हाकिम सिंह उपाध्याय के अनुग्रह और सत्परामर्श से उनके कालेज में कामर्स अध्यापक नियुक्त हो गये। बी.ए. तथा एम.ए. (अंग्रेजी साहित्य) की परीक्षाएं इसी कालेज में अध्यापन करते हुए स्वाध्यायी रूप से उत्तीर्ण की। एल.टी. परीक्षा 1965 में बी. आर. कालेज,
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आगरा से पास की। हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की मध्यमा परीक्षा उत्तीर्ण कर 'विशारद' की उपाधि तथा दि. जैन परिषद् परीक्षा बोर्ड, दिल्ली खारा संचालित ए.जे.पी.एच. (ऐसोशियेट ऑफ जैन फिलॉसफी) की डिग्री प्राप्त की। लखनऊ के लिटरैसी हाऊस स्थित स्कूल ऑफ सोशल राइटिंग एण्ड मास कम्यूनिकेशन से आपने नवसाक्षरों के लिये साहित्य लेखन और पत्रकारिता का प्रशिक्षण भी प्राप्त किया।
'1959 में कुछ माह तक प्रदेश शासन के जेल विभाग में सहायक जेलर, सेंट्रल जेल, बरेली के पद पर कार्य किया किन्तु कार्यक्षेत्र रुचि के अनुकूल न होने के कारण पद त्याग कर पुनः अध्यापन कार्य में प्रवृत हो गए।
जीविकोपार्जन शुरू होने के साथ ही अठारह वर्ष की आयु में 7 जुलाई 1951 को एटा जैन समाज में 'चमकरी वालों के नाम से प्रसिद्ध परिवार के लाला गुरुदयाल जैन की सुपुत्री शकुन्तला देवी के साथ आपका विवाह हो गया। कालान्तर में नवनीत, मनमोहन और आशीष तीन पुत्र तथा सरिता व कल्पना दो पुत्रियां उत्पन्न हुई जिन्हें उन्होंने स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर तक की शिक्षा दिलाई। तीनों पुत्रों और दोनों पुत्रियों के सुयोग्य परिवारों में विवाह कर और स्वयं 30 जून 1993 को कॉलेज से सेवानिवृत हो सुखी पारिवारिक जीवन व्यतीत कर रहे थे कि विधाता से उनका यह सुख देखा न गया। कर्म गति की महिमा 11 नवम्बर 1995 को सहधर्मिणी सात माह हृदय रोग से ग्रस्त रह कर साथ छोड़ गईं। मानों यह आघात पर्याप्त नहीं था सो कर-काल ने एक के बाद एक दो और ऐसे जबरदस्त बज्रपात किए कि ब्रजकिशोर जी मानसिक और शारीरिक रूप से बिल्कुल टूट गए। 6 जनवरी 1999 को मात्र 12 घंटे की बीमारी में उनके युवा ज्येष्ठ पुत्र नवनीत जैन का पटना में निधन और लगभग इसी भांति 29 अप्रैल 2000 को छोटे दामाद श्री आशुतोष जैन की एटा में मृत्यु ऐसी हृदय विदारक घटनाएं हैं जिन्हें जिसने भी सुना सुनकर सन्न रह गया। 68 वर्षीय भाई ब्रजकिशोर पुस्तकों और समाचारपत्र-पत्रिकाओं पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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और बेल के सहारे जीवन व्यतीत कर रहे थे कि एक झटका अप्रैल 2004 में और लगा जब उनके पोते गौरव जैन पुत्र स्व. श्री नवीन जैन का एक रेल दुर्घटना में 20 वर्ष की उम्र में स्वर्गवास हो गया ।
हकीम प्रेमचन्द जैन
राजनीति के क्षेत्र में प्रारम्भ से ही समाजवादी विचारधारा के अनुयायी उर्दू शेरों-शायरी के अनन्य प्रेमी, अद्भुत जीवन के धनी हकीम प्रेमचन्द्र जैन एक जिंदा दिल इंसान थे जिनका फिरोजाबाद के नागरिक जीवन में एक विशिष्ट स्थान था । आपकी उपस्थिति किसी भी सभा सम्मेलन में एक नया जोश ताजगी और रौनक पैदा कर देती थी ।
कोटला रियासत के मूल निवासी हकीम बाबूराय जैन के सुपुत्र श्री प्रेमचन्द्र जैन ने समाज सेवा की भावना अपने पिताजी से उत्तराधिकार से प्राप्त की। उनके समान वे भी स्थानीय नगर पालिका के सभासद् तथा जैन समाज की विभिन्न संस्थाओं के प्रथम पंक्ति के नेता रहे। समाजवादी एवं प्रजा समाजवादी पार्टी के स्थानीय, जिला एवं प्रदेशीय संगठन के सदस्य तथा उत्तरदायित्वपूर्ण पदों को शुभोभित करते रहे। अपनी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व भू. पू. प्रधानमंत्री श्री चन्द्र शेखर, भू. पू. रेल मंत्री मधु दंडवते, मधुलिमये, त्रिलोकी सिंह, ब्रज राज सिंह आदि से उनके व्यक्तिगत सम्बन्ध थे और फिरोजाबाद पधारने पर ये सब उन्हें के निवास पर टिकते थे ।
श्री पी. डी. जैन इण्टर कालेज प्रबंध समिति के अध्यक्ष तथा प्रबंधक पदों पर काफी लम्बी अवधि तक आरूढ़ रहे । श्री दि. जैन पद्मावती पुरवाल पंचायत एवं श्री पद्मावती पुरवाल फण्ड कमेटी के अध्यक्ष रहे। मुंशी बंशीधर जैन धर्मशाला ट्रस्ट के भी वे अध्यक्ष थे ।
हिन्दू-मुस्लिम एकता के कट्टर समर्थक थे तथा दोनों ही वर्ग के लोगों में आपका बड़ा सम्मान था ।
आप एक सफल और योग्य संगठनकर्त्ता थे। जरूरतमन्द लोगों की
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मदद को हमेशा तैयार रहते थे। अनेक वृद्ध महिलाओं और पुरुषों को प्रयास करके आपने वृद्धावस्था पेंशन स्वीकृत कराई थी।
हकीम प्रेमचन्द्र जी हृदय रोग के मरीज थे। उन्हें अपने जीवनकाल में पत्नी तथा दो-दो युवा पुत्रों के आकस्मिक और असामयिक निधन की त्रासद घटनाओं का दुःख झेलना पड़ा।
17 मई 1997 को आपने अन्तिम सांस लेकर इस संसार से विदा ली ।
पं. सेजमलजी जैन अकोदिया मण्डी जिला (शाजापुर) म. प्र.
मधुर स्वभावी, खुशमिजाज, धार्मिक, कार्यों में एवं गायन में लगनशीलता के धनी पं. सेजमल जी का जन्म लगभग सन् 1925 में मालवा प्रांत की शस्य श्यामला काली सिंध सरिता के तट पर ग्राम तिंगजपुर में हुआ ।
ये दिगम्बर जैन पद्मावती पुरवालों के ज्ञानाबाद कुरराबाद शहर में ग्राम तिंगजपुर (सुनेरा) में 700 छकड़ों द्वारा आकर के कई परिवार के पड़ाव (बसने ) व निकासी स्थली वाला ग्राम है। इनके पिता श्री सेठ घासीराम थे। आपके ज्येष्ठ भ्राता स्व. श्री मुन्नुलाल जी साहब थे।
पैतृक कृषि किराना व्यवसाय के साथ देश व प्रदेश के श्रेष्ठ नगर बड़नगर में पं. विष्णु कुमार जी वैद्य एवं सगे काका श्री सुन्दर लाल जैन से धार्मिक, सामाजिक शिक्षा पाई। आपको महाउपदेशक स्व. श्री पं. कस्तूरचंद जी भोपाल का आशीर्वाद प्राप्त है।
आपके बड़ नगर में लगभग 20 वर्षों तक मन्दिर, पाठशाला में जैन धर्म की शिक्षा दी एवं प्रक्षाल पूजन करते रहे। बड़नगर में छात्रावास, गुरुकुल एवं औषधालय हेतु भारत देश में वर्षा भ्रमण कर प्रचार-प्रसार किया एवं संस्थाओं हेतु दान राशि एकत्रित की।
आपने श्री महावीरजी के कृष्णाबाई आश्रम में पांच वर्ष तक प्रचारक
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के पद पर रहकर पूर्णरूपेण संचालन किया। श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र जामनेर में पांच वर्षों तक क्षेत्र के प्रचार के पद से जीर्णोद्धार हेतु दान राशि एकत्रित करवाई। आपने वर्षों कांच मंदिर जी अकोदिया ग्राम में प्रचारक के रूप में पूर्णरूपेण योगदान दिया ।
आपने श्री तीर्थराज श्री सम्मेद शिखरजी की 11 बार यात्राएं की लगभग 51 पैदल वंदनायें की और सभी तीर्थों की यात्राएं कर चुके हैं। वृद्धावस्था एवं अस्वस्थता होने पर भी तीर्थ वंदना के भाव संजोय रहते हैं। मुनिश्री 108 श्री विवेकसागर जी के संघ सहित बड़नगर से सोनागिर तक पैदल साथ-साथ यात्राएं की। 108 श्री शांतिसागर जी छाणी बड़नगर से सिद्धवरकूट तक के बिहार में साथ रहे। आचार्य विमलसागर जी के संघ को महेश्वर से सिद्धवरकूट तक पैदल विहार कराया ।
पूज्य माताजी 105 सुपार्श्वमतीजी अर्यिकाजी के 11 पिच्छिका के संघ को राजस्थान के रुणिजा से बड़नगर तक पैदल चलकर साथ आये। 108 मुनिश्री नमीसागर जी श्री नेमीसागर जी के विहार में बड़नगर से दिल्ली तक साथ-साथ पैदल चले।
आपको कई संस्थाओं के प्रमाण पत्र प्राप्त हैं। अपने जीवन को सादा सरल अल्पग्रहि व अल्प आरंभी ढाल रखा है। संतों के साथ वर्षों रहकर धर्म एवं पुण्य अर्जित करना आपके निर्मल स्वभाव में निहित है।
स्व. पं. नन्नूमलजी जैन, कालापीपल मण्डी (जिला शाजापुर)
मृदुभाषी, मधुर स्वभावी एवं मिलनसार स्व. पं. नन्नूमलजी जैन का जन्म सन् 1901 में ग्वालियर राज्य के शाजापुर जिले के शुजालपुर नगर के प्रतिष्ठित परिवार में श्री मातीलाल जी जैन के यहां हुआ था ।
बचपन में ही पिता का साया सिर से उठ जाने के कारण आपका पद्मावतीपुस्वाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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पालन पोषण मामाजी आलमचंद हरकचंद्र दि. जैन के घर पर शुजालपुर नगर में हुआ। आप बचपन से ही विलक्षण बुद्धि के धनी थे। बचपन से ही आपकी रुचि धार्मिक ग्रंथों में रही। आपने जैन धर्म के चारों अनुयोगों का अध्ययन बचपन से ही कर लिया था।
आप प्रातः पूजन-प्रक्षाल नियमित रूप से करने के साथ रात्रि में शास्त्र प्रवचन करते रहे। तत्वार्थ सूत्र, रत्न काण्ड श्रावकाचार पुरुषार्थ, सिच्छुपाय, तथा प्रथमानुयोग के अनेक ग्रंथों का आपको अच्छा ज्ञान था। जब आप जीव के भेद विज्ञान की दृष्टि से बहिरात्मा अंतर आत्मा व परमात्मा पर प्रवचन करते थे तो लोग मंत्र मुग्ध होकर सुनते थे। आपने कालापीपल, मैना, तिलावद व इन्दौर में तीन सिद्ध चक्र-विधान करवाये। किन्तु आपने इसके लिए कोई राशि स्वीकार नहीं की।
आपने स्व. श्री मगनलालजी सिरमौर के साथ कई धार्मिक शिविरों में अध्ययन किया। श्री शिखरजी, गिरनार जी, श्रवणबेलगोला आदि सभी तीर्थों की कई बार यात्राएं वन्दनायें की। आपके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही है कि सांसारिक जीवन में सब प्रकार से समर्थ होते हुए भी आप जीवन पर्यन्त अल्प आरंभी अल्प परिग्रही रहे।
आप मध्य प्रदेशीय पद्मावती पोरवाल महासभा के जीवन पर्यन्त उपसंरक्षक व बाद में सन् 1986 से 1990 तक संरक्षक पद पर रहे। __ आदरणीय नन्नूमल जी एक श्रेष्ठ पंडित और वक्ता थे। सामाजिकता, धार्मिकता, वैदिकता व राजनैतिकता में पूर्णरूपेण निपुण थे। आप 1952 से 1957 तक कालापीपल मण्डी ग्राम पंचायत के सरपंच व मण्डी समिति के चेयरमेन रहे। आपका बाद का पचास वर्ष का जीवन अपने परिवार के साथ कालापीपल मण्डी में बीता।
आपका संपूर्ण जीवन आदर्श बनकर हमें व समाज को प्रेरणा देता रहेगा। अन्त समय में समस्त परिग्रहों का त्याग कर दिनांक 30 जनवरी 1990 को देवलोक सिधारे। पद्यावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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संघाधिष नेमिदास तीर्थेशगोत्र । चौहानवंशी नरेश राजा रुद्रप्रताप अथवा प्रतापरुद्र (वि.सं. 1468-1510 के मध्य) था जो कि चन्द्रवाड़पट्ठन (चन्द्रवार) कालिन्दी नदी के तौर पर बसी थी। यहीं पर श्रावक नेमिदास जो कि प्रसिद्ध जौहरी थे तथा जिन्होंने चन्द्रवाड़ में एक विशाल एवं भव्य जिनालय बनाकर उसमें विद्रूम रत्नों एवं पाषाण की कई सुन्दर मूर्तियों का निर्माण कराकर वहां प्रतिष्ठित कराई थीं। साहू नेमिदास पद्भावती पुरवाल जाति के थे। इन्हीं के आश्रम में रइधू ने 'पुण्णसवकहा' का प्रणयन किया था। आश्रयदाता साहू नेमिदास के पुत्र एवं भतीजे को पुत्र रत्न प्राप्त होने के उपलक्ष में साहित्य एवं साहित्यकारों का जैसा सार्वजनिक सम्मान किया गया, उससे चन्द्रवाड पट्ठन के समाज एवं राष्ट्र की साहित्य-रसिकता का पूर्ण परिचय मिलता
है।
___ साहू नेमिदास के पूर्वज योगिनीपुर छोड़कर कालिन्दी के तीर पर बसे हुए चन्द्रवाड नगर में आकर बस गए। यह वंश साहित्य एवं जिनवाणी सेवा को अपना महान धर्म एवं समाज सेवा को अपना पुनीत कर्तव्य समझता रहा है। साहू नेमिदास अपने समकालीन राजा रुद्रप्रताप चौहान द्वारा सम्मानित थे तथा व्यापक कार्यों में अग्रसर। उसने हीरा, मोती, विद्रप आदि की कई जिन प्रतिमाओं का निर्माण कराकर तथा उनकी प्रतिष्ठा कराकर 'तीर्थेशगोत्र' का बन्ध किया था। पुण्य कार्यों से अपनी ऐसी महिमा बनाई थी कि उसके सम्मुख पूर्णमासी के चन्द्रमा की ज्योति भी मलिन होती हुई प्रतीत होती थी। उसने अनेक जिन भवन बनवाए। बुधजनों के लिए वह चिन्तामणि रत्न थे। उसने अपने व्यवहार से शत्रुओं को भी मित्र बना लिया था।
साहू नेमिदास के पिता का नाम तोसउ था तथा वंस सोमवंश के नाम से प्रसिद्ध था। नेमिदास के दो पत्नियां मीखा एवं माणिकी थी। इनके छोटे
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चतुर्थ भाई ने गिरनार की यात्रा की। नेमिदास ने ग्वालियर में भी मूर्तियों का निर्माण एवं मंदिर बनवाया। रइधू का आशीर्वाद उन्हें प्राप्त था अतः धार्मिक एवं साहित्यिक कार्यों में वे सदा इनके साथ रहते थे। ___ रइधू ने कई महत्वपूर्ण सूचनाएं नेमिदास के संबंध में दी हैं। इनमें से दो सूचनाएं बड़ी रोचक हैं। प्रथम तो यह है कि नेमिदास के पुत्र ऋविराम को उस समय पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जब वे स्वयं निर्मित जिन-बिम्व-प्रतिष्ठा के अवसर पर जिन प्रतिमा पर तिलक लगा रहे थे। अतः उसी उपलक्ष में साहू ने अपने उस नवोत्पन्न पोते का नाम 'तिलक' रख दिया था।
दूसरी मनोरंजक घटना यह है कि साहू नेमिदास के दूसरे भाई साधारण को जब वीरदास नामक द्वितीय पुत्ररत्न की उपलब्धि हुई तब उन्होंने प्रसन्नता पूर्वक रइधू द्वारा विरचित 'पुण्णासवुद्धा' को हाथी पर प्रतिष्ठित करके बड़े ही समारोह के साथ नगर में घुमाया था।
श्रमणभूषण श्री कुन्थदासजी 'जिमन्धर चरित्र' की रचना महाकवि रइधू श्रावक कुन्थदास पद्मावती पुरवाल के निमित्त लिखा था। कुन्थदास महाकवि रइधू का अनन्य भक्त था। वह यद्यपि लक्षाधिपति था फिर भी उसने भौतिक सम्पत्ति को सदा तुच्छ समझा था। जिन वाणी को वह सदा सर्वोपरि समझता रहा, इसलिए उसने अपने बाएं स्वर्ण कुण्डल न पहिनकर 'कौमुदी कथा प्रबन्ध' रूपी कुण्डल और माथे पर ‘महापुराण' रूपी मुकुट धारण किया था। तात्पर्य श्री कुन्थदास ने 'कौमुदी कथा प्रबन्ध' और 'महापुराण' महाकवि रइधू से अपने लिये लिखवाया था। तत्पश्चात् उसने 'जिमन्धर चरित्र' लिखकर दायां कान जो सूना-सूना था, उसके लिये 'जिमन्धर चरित्र' रूपी कुण्डल अपने दाएं कान में धारण कर अपना जीवन कृतार्थ माना। उसने कवि को हर प्रकार का आश्रय देकर उसकी साहित्य-साधना में महान योगदान दिया था।
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साहू कुन्थदास भी कम साहित्य-रसिक न थे। वे बड़े भारी श्रीमन्त थे। उन्हें शेखर (मुकुट), रत्नकुण्डल आदि अलंकार अत्यंत प्रिय थे लेकिन स्वर्ण निर्मित अलंकार नहीं, ग्रन्थ रूपी अलंकार । कवि स्वयं उनक बारे में कहता है
‘साहू कुन्थदास के सिर पर समस्त दुःखों के अपहरण करने वाले महापुराण रूपी मुकुट को बांध दिया। उसके दाएं कर्ण में सुवर्णसिद्ध सम्यग्दर्शन रूपी रत्न से निवद्ध तथा रवि मण्डल की प्रभा के समान विस्तृत कौमुदी-कक्षा रूपी श्रेष्ठ कुण्डल पहिना दिया। सोलह-भावना रूपी मणियों से जड़ित जीमन्धर के गुणरूपी स्वर्ण से घटित अद्वितीय दूसरा कर्ण कुण्डल उसके बाएं कर्ण में सुशोभितकर दिया।'
जिनन्धर चरित्र 93/27/1-5
जीवन यों ही जाता है। बालपने में ज्ञान न पायो, खेलि खेलि सुख पाया है समय निकलता है प्रतिक्षण ही, मूरख मद में सोया है। धूप-चांदनी झिलमिल करती, ले आशाओं का घेरा है। धनि चेतन तू जाग आज रे मूरख रैन बसेरा है।
-चानतराय
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पद्मावतीपुरवाल समाज का योगदान
(मंदिर, मूर्ति, यंत्र निर्माण एवं विकास कार्य) सम्पूर्ण मानव समाज जिससे प्रेरणा ले, जिससे कल्याण मार्ग प्रशस्त हो, ऐसा योगदान ही सच्चा योगदान है, वही वैभव है, वही विकास पथ है। वास्तव में समाज के वैभव का आकलन इसी से होता है कि उसने मानव समाज के हित के लिए प्राणी मात्र के सुख के लिए समाज के लोगों के हित के लिए किन-किन आयतनों को बनाया, निर्माण किया। यही आयतन वास्तविक योगदान व वैभव के प्रतीक हैं। मंदिर निर्माण, मूर्ति एवं वेदी प्रतिष्ठायें, यंत्र प्रतिष्ठापना, पथ निर्माण, धर्मशालायें आदि निर्माण किये गये, जिनसे धार्मिक भावना प्रस्फुटित हो, धार्मिकता के अंकुर उपजे-पल्लवित हों, धर्म का प्रचार-प्रसार हो एवं स्थायित्व मिले। साथ ही समाज को प्रेरणा भी मिले और वह ऐसे कार्यों की ओर अग्रसर होवे। 1. पार्श्वप्रभु बड़ा मंदिर नागपुर में 'सम्यग्दर्शन यंत्र'
"शके 1601 फाल्गुन सुदी 11 श्रीमूलसंधे बलात्कारगणे भ. श्री पग्रमकीर्ति सदुपदेशात् श्रीपद्मावती पल्लीवाल ज्ञातौ अडनाव कुस्तानी पानसी मार्या मंगनाई..." (भट्टारक सम्प्रदाय लेखांक 207)
विशालकीर्ति के दूसरे शिष्य पद्मकीर्ति हुए। आपने यह सम्यग्दर्शन यंत्र स्थापित किया। (नोट-पद्मावती पल्लीवाल नाम से कोई जाति नहीं है।) फतेपुर-अनेकान्त 11 पृ. 408 एवं भट्टारकं सम्प्रदाय लेखांक 595
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: "सं. 1639 बैसाख वदि चन्द्रवासरे श्री काष्ठासंघ ......
माथुर गच्छे पुष्कर मणे भ. श्री कमलकीर्ति देवाः तत्पड़े .... श्री शुभचन्द्र देवाः तत्पट्टे भ. यासेन देवाः तदाम्नाये . ... . पद्मावती पुरवालान्वये साव होरम्...॥" . . . . . . .
(कमलकीर्ति के शुभचन्द्र और कुमारसेन दो पट्ट शिष्य हुए। हरिवंश पुराण से पता चलता है कि भ. शुभन्द्र का मठ सोनागिर में था। उनके शिष्य यशःसेन ने सं. 1639 में उपरोक्त यंत्र स्थापित किया।)
चर्चा सोनागिर की आ गई तो प्रथमतः ही सोनागिर सिद्धक्षेत्र पर पद्मावती पुरवाल समाज के योगदान की चर्चा करेंगे।
सोनागिर मान्यता है कि पद्मावती नगर में आजीविका के साधन कम होने के कारण समाज ने सर्वप्रथम आगरा की ओर प्रस्थान किया। आगरा से ही उत्तर प्रदेश के अनेक नगरों तथा ग्रामों मे व्यापार, व्यवसाय हेतु फैल गई। इस पद्मावती पुरवाल समाज की अधिकतर संख्या उत्तर प्रदेश में विद्यमान है। सोनागिर सिद्धक्षेत्र उत्तर प्रदेश की सीमा से लगा बुन्देलखण्ड क्षेत्र में स्थित है। वर्तमान में मध्यप्रदेश के दतिया जिले में अवस्थित है। .
स्थिति-आगरा-बम्बई मार्ग पर सैन्ट्रल रेलवे का दतिया स्टेशन है। दतिया के उत्तर-पश्चिम में 9 कि.मी की दूरी पर सोनागिर पर्वत है। झांसी-देहली सैक्सन पर सोनागिर रेलवे स्टेशन है जहां से सड़क मार्ग से पर्वत 5 किलोमीटर है।
महात्म्य-वैसे तो यह क्षेत्र भगवान आदिनाथ के समय से ही श्रमणांचल के रूप में प्रसिद्ध रहा है. परन्तु इसका महत्व व वैभव उस समय अधिक बढ़ गया जब आठवें तीर्थंकर भगवान चन्द्रप्रभु का समवशरण कई बार
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आया और उनके समवशरण में ही योधेय नरेश अरिंजय के राजपुत्र नंगकुमार और अनंगकुमार ने दीक्षा ली और घोर तप करके इसी पर्वतराज से मोक्ष पद प्राप्त किया। नंग-अनंग, चिन्तागति, पूर्णचन्द्र, अशोक सेन, श्रीदत्त, स्वर्णभद्र आदि मुनियों सहित यहां से साढ़े पांच कोटि मुनि मुक्ति पधारे। इस कारण यह क्षेत्र निर्वाण क्षेत्र है, सिद्ध क्षेत्र है । "
पद्मावतीपुरवाल समाज का योगदान- जिस समय सिद्धक्षेत्र सोनागिर कमेंटी ने क्षेत्र का प्रबन्ध लिया उस समय पर्वतराज के मंदिरों की वन्दना के लिए जाने का मार्ग बड़ा कंटकाकीर्ण था। पैरों में कंकड़ एवं कांटे चुभते थे। यात्रियों को बड़ी असुविधा होती थी। कमेटी ने इस मार्ग को सही कराया, मार्बल चिप्स लगवाये, कहीं सीमेन्ट का सुगम रास्ता बनाया। इस मार्ग में योगदान निम्न प्रकार है
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पर्वतराज पर जाने वाले राजद्वार पर मुख्य गेट में प्रवेश करने पर - 50 नम्बर प्लेट - स्वर्गीय पूज्य पिता श्री मथुराप्रसाद जी की पुण्य स्मृति में रघुवंशी लालजी पद्मावती पुरवाल पिलुआ (एटा) निवासी हाल टूंडला (आगरा) ने बनवाया वी. सं. 2491
54 नम्बर की प्लेट - श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र सोनागिर की राजद्वार के फर्श का यह भाग कलकत्ता निवासी श्री जुगमंदिरदास पद्मावती पुरवाल ने अपने स्वर्गीय पिताश्री मुन्नीलाल जी की पुण्य स्मृति में बनवाया वि. सं. 2491
आगे चलकर पर्वतराज की वन्दना के मार्ग में मंदिर नंबर 25 व 26 के बीच सीढ़ी - स्व. लाला बाबूलाल जी की पुण्य स्मृति में सुपुत्र श्री ला. चरणलाल कालीचरण रामस्वरूप जी पद्मावती पुरवाल टूडला ने बनवाई वि. सं. 2495
पर्वतराज पर मंदिर नं. 58 के सामने चबूतरा पर - यह भाग चक्र चूरामणि पं. नरसिंहदास जी चावली की सुपुत्री शांतिदेवी ध.प. कालीचरण पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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जारखी वाले, टूंडला चौराहा ने बनवाया वि.नि.सं. 2501
पर्वतराज पर मंदिर नं. 69 व 70 के बीच के मार्ग में-यह भाग श्री मगनमल लाममल जी पद्मावती पुरवाल शुजालपुर सिटी ने बनवाया वि. नि.सं. 2513
पर्वतराज के मुख्य मंदिर नं. 57 चन्द्रप्रभ जिनालय के गर्भग्रह के बगल में मंदिर जी के परिक्रमा पथ में भगवान नेमिनाथ की वेदी के पीछे दायीं तरफ
महावीर स्तुति रचयिता स्व. श्री भगवत जैन एत्मादपुर (आगरा)
जय वीर कहो, जय वीर कहो त्रिशलानंदन अतिवीर कहो।। हर सांस यही झनकार उठे। धरती नभ सब गुंजार उठे। प्रेमी का प्राण पुकार उठे। जयवीर कहो, जयवीर कहो॥1॥ यह दुनियां एक कहानी है। दरिया का बहता पानी है। बस दो दिन की जिंदगानी है। जयवीर कहो, जयवीर कहो॥2॥ नरजीवन का है सार यही। सुख के पक्ष का आधार यही। बस लगातार तू तार यही जयवीर कहो, जयवीर कहो॥3॥ यह संकट भंजन हारा है।
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भक्तों को सबसे प्यारा है। "भगवन' यह नाम सहारा है।
जयवीर कहो, जयवीर कहो॥4॥ श्रीमती सौ. प्रेमवती धर्मपत्नी श्री नेमीचन्द जी 'सिरमौर' बांसरिसाल (आगरा) ने बनवाई वी.नि.सं. 2499 उपरोक्त कविता के बायीं ओर ऋषभ स्तुति है श्री भगवत जी की है तथा इसके नीचे स्व. पं. जिनेश्वरदास जी सरैना (एटा) का नेमिनाथ अर्घ लिखा हुआ है।
यहीं पर भगवान नेमिनाथ की वेदी के सामने दीवार पर एवं दायी बायीं ओर पं. लालबहादुर शास्त्री की रचना दशधर्म पर लिखी हुई हैसामनेमुक्ति पथ शिवसोपान
मुक्तिपथ आकिंचन
क्षमादि दश धर्मों के ब्रह्मचर्य
प्रत्येक धर्म पर छन्द दायीं ओरमुक्ति पथ मुक्ति पथ मुक्ति पथ मुक्ति पथ निर्लोभता इन्द्रिय निग्रह आत्म प्रखरता निर्मलता
(आत्म संयम) बायीं ओरमुक्ति पथ मुक्ति पथ मुक्ति पथ मुक्ति पथ क्षमा धर्म निरभिमानिता
सत्यता इन पर छन्द लिखे हुए हैं। पर्वतराज के मंदिर नं. 19 नेमिनाथ की वेदी के नीचे गर्भगृह का फर्श-- 'स्वर्गवासी पूज्यमाता बतासो बाई जी के स्मरणार्थ सेठ मगनलालजी पद्यावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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पद्मावती पुरवाल मालिक फर्म आलमचंद हरकचंद जी शुजालपुर ने बनवायी । वी. सं. 2478
यह उपरोक्त कार्य पर्वतराज के जिनालयों की वन्दना का है। अब आपको ले चलते हैं पवर्तराज के परिक्रमा पथ पर
परिक्रमा पथ भी पहले ठीक नहीं था। इस पर ईंटों का एक फुट ऊंचा खरंजा लगवाया गया
योगदान - 1. परिक्रमा का 84 फुट का यह भाग श्रीमती पोलारानी ध. प. श्री लाला सोनपाल जी पद्मावती पुरवाल एटा वालों ने बनवाया वी.सं.
2489
2. 51 फुट का यह भाग श्रीमती धर्मपत्नी श्री लाला राजकुमार जी जैन पद्मावती पुरवाल सीमेन्ट एटा वालों ने बनवाया वी. सं. 2489
3. परिक्रमा का यह भाग (95) दौलतराम सुनहरी लाल जी पद्मावती पुरवाल, आगरा ने निर्माण कराया वी. सं. 2473
4. परिक्रमा का यह भाग (209) बाबू राजबहादुर सुपुत्र लाला खूबचन्द पद्मावती 'पुरवाल फिरोजाबाद ने निर्माण कराया वी. सं. 2473
5. परिक्रमा का यह भाग (214) श्रीमती कपूरी देवी मातेश्वरी मुंशी कामता प्रसाद जी पद्मावती पुरवाल धूलियागंज आगरा ने निर्माण कराया वी. सं. 2473
6. परिक्रमा का यह भाग (247) मोतीलाल मौजीलाल पद्मावती पुरवाल बड़ा गांव (एटा) ने निर्माण कराया वी.सं.
2473
7. परिक्रमा का यह भाग (275) श्रीमती मनका देवी ध.प. लाला बुद्धराम जी पद्मावती पुरवाल सकरौली (एटा) ने निर्माण कराया वी. सं. 2473
8. परिक्रमा का यह भाग (276) श्रीमती अंगूरी देवी ध.प. श्री मुंशीलाल पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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पद्यावती पुरवाल सकरौली (एटा) ने निर्माण कराया वी.सं. 2473 (नोट-जहां स्पष्ट पद्मावती पुरवाल लिखा है उनका ही उल्लेख है।)
पर्वतराज पर समवशरण मंदिर के ढलान पर श्री 108 चैत्यसागर महाराज की प्रेरणा से आचार्य श्री 108 विमलसागर महाराज की छतरी का नवनिर्माण हुआ है।
अब पर्वतराज की तलहटी में पद्मावती पुरवाल समाज का योगदानतलहटी में 26 जिनालय हैं। इनमें मंदिर नं. 5 सेठ हीरालाल जी एटा वालों का (पद्मावती पुरवाल) है। इसका प्रबंध दि. जैन पद्मावती पुरवाल पंचायत करती है। यह मंदिर श्री नेमिनाथ जिनालय नाम से प्रसिद्ध है। वर्तमान में कमेटी के अध्यक्ष श्री छोटेलाल जी एडवोकेट झांसी हैं तथा मंत्री श्री रामबाबू जैन, जारखी वाले हैं।
विवरण मंदिर-तलहटी के जिनालय नं. 3 (खरौआ समाज) एवं जिनालय नं. 4 (गोल शृंगार) की श्रृंखला में मंदिर क्रमांक 5 नेमिनाथ जिनालय पद्मावती पुरवाल समाज का है। यह मंदिर नं. 5 जमीन से 25 सीढ़ियां ऊपर चढ़ने पर एक विशाल चबूतरे पर बना है। चबूतरे के बाद एक बालिश्त ऊंची सीढ़ी जो लगभग 3 x 3 की है। इस पर विद्यादेवी धर्मपत्नी लाला रामबाबू जैन जारखी वाले मंत्री श्री दि. जैन पद्मावती पुरवाल नं. 5 सं. 2044 वि. का पाटिया लगा है। इस पाटिये के आजू-बाजू नौबतखाने बने हैं।
सन् 1988 से 1991 के काल में आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज संघ सहित श्री सोनागिरि जी में विराजमान रहे। इस काल में उनकी प्रेरणा से लगभग 300 वर्ष पुराने इस मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ। सब जगह संगमरमर का कार्य हुआ।
नौबत खानों के बीच में मंदिर जी का प्रवेश द्वार है जिसमें बहुत सुन्दर एवं मजबूत (किवाड़) जोड़ी लगी है। दरवाजे में प्रवेश करते ही एक पद्यावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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दालान आता है। दालान के बायीं तरफ एक कमरा बना है जिसमें ऊपर जाने का रास्ता है। दालान के बाद चौक है। चौक के दायें-बायें दालन हैं।
दाईं ओर के दालान में आचार्य श्री महावीर कीर्ति जी एवं आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज की मार्बल की प्रतिमायें हैं तथा उनके बगल में पद्मावती देवी की वेदी है जिसमें दो देवियां शृंगार सहित विराजमान हैं। पद्मावती देवी के फण पर भगवान पार्श्वनाथ विराजमान हैं ।
चौक के बाद फिर एक दालान है। इस दालन में दायीं ओर वेदी मार्बल की 5 पद्मासन प्रतिमायें सफेद पाषाण की तथा दो खड्गासन प्रतिमाएं सफेद पाषाण की विराजमान हैं। मूलनायक श्री आदिनाथ भगवान हैं वृषभ चिन्ह है ।
इस दालान के बायीं ओर वेदी में सात प्रतिमाएं सफेद पाषाण की पद्मासन विराजमान हैं। मूलनायक श्री पार्श्वनाथ की कृष्ण वर्ण पाषाण की प्रतिमा है ।
इस दालान के बाद गर्भ गृह में एक वेदी है जिसमें मूलनायक श्री नेमिनाथ भगवान की कृष्ण वर्ण पाषाण की प्रतिमा विराजमान है। 8 प्रतिमाएं धातु की पद्मासन 2 सिद्ध भगवान की धातु की तथा आगे की ओर धातु में उत्कीर्ण चौबीसी बनी है एवं बीच में पार्श्वनाथ भगवान हैं। इसी की बगल में धातु में 6 प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं। यह वेदी मूल वेदी है।
इस मूल वेदी की परिक्रमा में बाएं एक वेदी नंगकुमार महाराज की है। यह प्रतिमा पाषाण की खड्गासन है एवं इसमें धातु की पद्मासन 10 प्रतिमाएं, 2 प्रतिमाएं धातु की खड्गासन, चतुर्मुखी धातु की प्रतिमाजी विराजमान हैं।
परिक्रमा में ही दायीं ओर की वेदी में अनंगकुमार जी की सफेद पाषाण की खड्गासन प्रतिमा तथा 14 प्रतिमाएं धातु की पद्मासन विराजमान हैं। इस वेदी के फ्रेम के ऊपर भूतपूर्व अध्यक्ष मंदिर नं. 5 श्री फूलचन्द का
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पाटिया लगा है।
मंदिर शिखरबन्द है।
धर्मशाला-सोनागिर सिद्धक्षेत्र पर तलहटी में यात्रियों के लिए 29 धर्मशालाएं व शासकीय रेस्ट हाउस है। इनमें पद्मावती पुरवाल मंदिर नं. 5 की धर्मशाला मंदिर नं. 11 आमोल वाली धर्मशाला के पीछे दो धर्मशालाएं आमने-सामने हैं। इन दोनों धर्मशालाओं एवं मंदिर नं. 5 का प्रबन्ध एक ही कमेटी के अंतर्गत है।
स्मरण रहे तीर्थराज सम्मेदशिखर जी की वन्दना का जो फल होता है वही फल श्री सोनागिर सिद्ध क्षेत्र की तीन वन्दना करने से होता है।
चर्चा आ गई तीर्थराज सम्मेद शिखर जी की। तो आइये आपको ले चलते हैं तीर्थराज शिखरजी की ओर।
श्री सम्मेदशिखरजी सम्मेदशिखर संसार के संपूर्ण तीर्थक्षेत्रों में सबसे महत्वपूर्ण तीर्थ है। इसलिए इसे तीर्थराज कहा जाता है। सम्मेदशिखर की वंदना का वास्तविक फल यह है कि उसकी एक बार वन्दना और यात्रा करने से परम्परा से संसार के जन्म मरण से छुटकारा मिल जाता है। यहां अभव्य और दूरान्दूर भव्य के भाव वन्दना करने के हो ही नहीं सकते। इसे तीर्थराज कहने का विशेष कारण है। शास्त्रों में कथन है कि सम्मेदशिखर और अयोध्या अनादि निधन तीर्थ हैं। अयोध्या में सभी तीर्थंकरों का जन्म होता है और सम्मेदशिखर में सभी तीर्थंकरों का निर्वाण होता है। किन्तु इस हुन्डासर्पिणी काल में काल-दोष से इस शाश्वत नियम का व्यतिक्रम हो गया। अयोध्या में केवल पांच तीर्थंकरों का ही जन्म हुआ और सम्मेदशिखर से बीस तीर्थंकरों का निर्वाण हुआ। इसके अतिरिक्त असंख्य मुनियों ने भी यहां से मुक्ति प्राप्त की। पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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शास्त्रीय मान्यता है कि जहां से तीर्थंकरों ने मुक्ति प्राप्त की उस मान पर सौधर्मेन्द्र ने स्वस्तिक बना दिया जिससे उस स्थान की पहचान हो सके । यतिवर मदनकीर्ति ने 'शासन चतुस्त्रिशिका' नामक ग्रन्थ में यहां तक लिखा है कि सम्मेदशिखर पर सौधर्मेन्द्र ने बीस तीर्थंकरों की प्रतिमाएं स्थापित कीं । वे प्रतिमाएं अद्भुत थीं। उनका प्रभामण्डल प्रतिमाओं के आकार का था। श्रद्धालु भव्यजन ही इन प्रतिमाओं का दर्शन कर सकते थे ।
अनुश्रुति यह भी है कि महाराज श्रेणिक बिम्बसार ने सम्मेदशिखर पर बी मंदिर बनवाये थे । इसके पश्चात् सत्रहवीं सदी में महाराज मानसिंह के मंत्री तथा प्रसिद्ध व्यापारी गोधा गोत्रीय रूपचन्द्र खण्डेलवाल के पुत्र नानू ने बीस तीर्थंकरों के मंदिर बनवाए। नानू के बनवाये हुए वे ही मंदिर या टोंके अब तक वहां विद्यमान हैं। मंत्रिवर नानू ने इन मंदिरों (टोंकों) में चरण विराजमान किये थे। 28
तीर्थराज सम्मेद शिखर जी पर पद्मावती पुरवाल समाज का योगदान
1. श्री सम्मेदशिखर जी में स्थित तेरापंथी कोठी में कमरा नं. 37 'स्व. श्री मद्दामल जी के सुपुत्र स्व. बाबू सूरजभान जी की धर्मपत्नी ब्र. चिन्तामणि बाई पद्मावती पोरवाल जैन, कलकत्ता ने बनवाया वीराब्द
2487'
2. श्री सुनहरीलाल जी, आगरा ने रेलिंग लगवाई। सम्मेदशिखर जी तेरा पंथी कोठी जिनालय मेंध्रौव्य कोष
1. सुजालपुर निवासी (म.प्र.) स्व. लाजमल जी मगनमल जी पद्मावती पोरवाल की स्मृति में पत्नी श्रीमती रेशम पुत्र अतुल कुमार, राजकुमार, पौत्र अंशुलकुमार सिरमौर द्वारा ध्रुव फंड में 5001/- भेंट |
2. स्व. पिता श्री निवास शास्त्री स्व. माताजी की स्मृति में श्री पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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बसंतकुमार रतनचंद जैन कलकत्ता ने यह पाटिया लगवाया। वि.सं. 2498
(जीव तू भ्रमत सदैव अकेला) विश्व का पहला तीस चौबीसी मंदिर-सम्पूर्ण मध्य लोक के दसों कर्मभूमि क्षेत्रों (5 भरत व 5 एरावत क्षेत्रों) में विगत उत्सर्पिणी व वर्तमान अवसर्पिणी काल मे जन्मे तथा आगत उत्सर्पिणी काल में जन्मने वाले (इस प्रकार तीस कोड़ा-कोड़ी सागर वर्षों की कालावधि के) तीस चौबीसी तीर्थंकरों का विशाल मंदिर स्व. आचार्य श्री विमलसागर म. की कल्पना का प्रसून है जिसका निर्माण उन्हीं के पट्टधर शिष्य आ. श्री भरतसागर म. के सक्रिय मार्गदर्शन में हुआ है। इसे विश्व का पहला तीस चौबीसी मंदिर घोषित किया गया है।
कामदेव मंदिर-विश्व में प्रथम बार निर्मित उपरोक्त तीस चौबीसी मंदिर के परिसर में एक कामदेव मंदिर का भी निर्माण किया गया है जिसकी प्रतिष्ठा श्री बीस चौबीसी मंदिर के साथ की गई है। इस कामदेव मंदिर को भी जैन समाज में प्रथम बार निर्मित होने का गौरव प्राप्त है।”
विमल समाधि मंदिर-साधु मंदिर-आचार्य श्री विमलसागर म. के समाधि-स्थल पर आचार्य श्री के समाधि मंदिर का भी निर्माण किया गया है जिसके एक कक्ष में आचार्य श्री का आशीर्वाद की मुद्रा युक्त वात्सल्यमयी प्रतिमा तथा दूसरे कक्ष में उनके चरण स्थापित किये गये
उदयगिरि-खण्डगिरि वर्तमान उड़ीसा प्रान्त (पूर्व का कलिंग देश) की राजधानी भुवनेश्वर के निकट जैन तीर्थ उदयगिरि-खण्डगिरि। पहले यह पर्वत कुमारी पर्वत नाम से प्रसिद्ध था और अत्यन्त पवित्र माना जाता था। कुमारी पर्वत के खण्ड होने से दो भाग हो गये-1. खण्डगिरि (खण्ड होने से) 2. उदयगिरि (सूर्योदय की किरण पड़ने से) खण्डगिर पर्वत पर जिनालय है तथा पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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उदयगिर पर गुफायें। यहां से कलिंग देश के 500 मुनिराज मोक्ष गये तो निर्वाण क्षेत्र है सिद्ध क्षेत्र है।
अब से 22 सौ वर्ष पूर्व उड़ीसा में एक प्रतापी राजा खारवेल हुआ था। उसने पश्चिम, दक्षिण तथा उत्तर में विजय यात्रायें करके चक्रवर्ती राजा का पद प्राप्त किया था। उसने मुक्तेश्वर के निकट उदयगीर की एक विशाल प्राकृतिक गुफा के मुख एवं छत पर 17 पंक्तियों का एक लेख प्राकृत भाषा तथा ब्राह्मी लिपि से खुदवाया था। यह गुफा स्थानीय भाषा में 'हाथी गुफा' के नाम से प्रसिद्ध है।
शिलालेख में कलिंगराज खारवेल ने अपने 13 वर्ष के राज्यकाल का वृतान्त दिया है। राजा खारवेल ने चतुर्दिक विजय की उपरान्त अपने 13वें राज्य वर्ष में कुमारी पर्वत पर अरहंतों की पूजा के लिए काय-निषिद्या का निर्माण कराया तथा प्रियदर्शी राजा अशोक ने जिस रीति से बुद्ध-वचनों के संरक्षण के लिए बौद्ध श्रमणों की तृतीय संगीति बुलायी थी उसी रीति से वर्ष 165 से व्यच्छिन्न होती हुई महावीर वाणी के संरक्षण के लिए एक श्रमण सम्मेलन बुलाया। इस सम्मेलन में सभी दिशाओं से आए निर्ग्रन्थ श्रमण, ज्ञानी, तपस्वी, ऋषि तथा संघों के नायक कुमारी पर्वत पर हाथी गुफा वाले पर्वत शिखर पर रानी सिधुला की निसिया के समीप शिला पर एकत्र हुए। श्रमण भगवान महावीर की शांतिदायी वाणी को उनके प्रधान शिष्यों ने, जो उनके 11 गणों अथवा संघों के नायक होने के कारण गणधर कहलाते थे, शब्द रूप देकर 12 अंगों में बांट दिया था और क्योंकि इसे श्रुत रूप में स्मृतिवृद्ध रखा गया था, इसलिए वह 'द्वादशांग श्रुत' कहलाता था। इस सम्मेलन में इसी द्वादशांग श्रुत का पाठ हुआ।
हमारे देश का नाम भारत वर्ष था, इसका प्रथम पुरातात्विक प्रमाण खारवेल के इसी शिलालेख से मिलता है। हमारे देश का विंध्य पर्वत से उत्तर का भाग उत्तरापथ कहलाता था, इसका प्रमाण भी इसमें मिलता है।
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प्राचीन काल में राजकुमारों को किन-किन विषयों की शिक्षा दी जाती थी, इसका वर्णन इसमें है।
खारवेल ने कुमारी पर्वत पर निर्वाण प्राप्त अरहंतों की पूजा के लिए काय-निषिधा बनवाई थी। उसी के समीप उसकी रानी सिधुला ने भ्रमणशील श्रमणों (तपस्वियों) के निवास के लिए एक निसियां का निर्माण कराया था। शायद इसे ही अभिलेख में 'अरहन्त प्रासाद' भी कहा गया है। खारवेल की बनवायी काय-निषिद्या तथा सिधुला की बनवाई निसियां दोनों अब सुरक्षित नहीं है। किन्तु दोनों की संरचना स्तूपाकार होती थी। स्तूप पूज्य व्यक्तियों के स्मारक के रूप में बनाये जाते थे और उनकी पूजा की जाती थी। मूर्ति पूजा प्रचलन होने से पहले स्तूप पूजा प्रचलित थी।" इस तीर्थ क्षेत्र पर खण्डगिर पर्वत पर पार्श्वनाथ मंदिर में श्री पार्श्वनाथ की वेदी प्रतिष्ठा
में
'श्री पार्श्वनाथ प्रतिमा दिगम्बर जैन मूल संघाम्नायानुसारेण प्रतिष्ठापित, प्रतिष्ठाचार्य लम्बुकांचक श्रीमान पण्डित तर्कतीर्थ झम्मनलाल, पद्मावती पुरवाल जातीय श्री निवास शास्त्री तथा परवार नन्हेलाल। शुभ मिती बैशाख सुदि 3 गुरुवार वि.सं. 2007 श्री वीर निर्वाण 2476 दि. 20/4/50
जिसका प्रबन्ध पद्मावती पुरवाल समाज करती है
श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र मरसलगंज श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र ऋषभनगर मरसलगंज उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद नगर से 22 किलोमीटर दूर है। यहां अब जैनों का कोई घर नहीं है। पहले मरसलगंज में जैनों की अच्छी आबादी थी। उस समय नगर धन-धान्य से पूर्ण था और यहां एक छोटा जैन मंदिर बना हुआ था। पद्यावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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पन्द्रहवीं शताब्दी में बाबा ऋषभदास नामक एक क्षुल्लक पधारे। ये दक्षिण के रहने वाले ब्राह्मण थे, किन्तु जैन धर्म के कट्टर अनुयायी थे। ये मंत्र-तंत्र के भी अच्छे जानकार थे। उनकी प्रेरणा और प्रयत्न से उस छोटे से मंदिर के स्थान पर वर्तमान विशाल मंदिर का निर्माण किया गया और बड़े समारोह पूर्वक उसकी प्रतिष्ठा भी उन्हीं बाबूजी द्वारा की गई। उन्होंने स्वयं कहीं से भगवान ऋषभदेव की एक मनोज्ञ और सातिशय प्रतिमा लाकर मुख्यवेदी में विराजमान कराई । उस प्रतिमा के दर्शन के लिए दूर-दूर से लोग आने लगे। धीरे-धीरे उस प्रतिमा के चमत्कारों और अतिशयों की चारों ओर चर्चा फैलने लगी । इस प्रकार मरसलगंज एक अतिशयक्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध हो गया ।
क्षेत्र पर केवल एक ही मंदिर है। मुख्य वेदी में भगवान ऋषभदेव की श्वेत पाषाण की पद्मासन प्रतिमा है। इसकी प्रतिष्ठा वि. सं. 1545 में हुई । मूलनायक प्रतिमा के अतिरिक्त पांच पाषाण प्रतिमाएं और ग्यारह धातु प्रतिमाएं हैं। धातु प्रतिमाओं में एक चौबीसी भी है।
दो वेदियां और हैं बायीं वेदी में मूलनायक शांतिनाथ भगवान के अतिरिक्त आठ पाषाण प्रतिमाएं तथा वेदी के दोनों ओर पांच फुट अवगाहना वाली दो खड़गासन प्रतिमाएं हैं।
दायीं ओर वेदी में भगवान नेमिनाथ की कृष्णवर्ण मूलनायक प्रतिमा हैं तथा इसके अतिरिक्त सात प्रतिमाएं और हैं ।
इन अरहन्त प्रतिमाओं के अलावा आचार्य सुधर्मसागर जी आचार्य महावीर कीर्ति जी और आचार्य विमलसागर जी की भी पाषाण प्रतिमाएं ध्यान मुद्रा में विराजमान हैं ।
इस मंदिर से सटा हुआ एक हाल है जिसमें खुली वेदी में भगवान ऋषभदेव की श्वेत पाषाण की सात फुट अवगाहनावाली भव्य पद्मासन प्रतिमा है। इसका भार 350 मन है ।
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प्राचीन मंदिर के नीचे बाबा ऋषभदास की ध्यान मुद्रा है। यहां प्रति तीसरे वर्ष मेला लगता है।
मार्ग-यहां पहुंचने के लिए समीप का रेलवे स्टेशन फिरोजाबाद है। यहां से क्षेत्र 22 कि.मी. दूर है। फरिहा कोटला-फिरोजाबाद रोड, टूण्डला-एटा रोड, फरिहा-मैनपुरी रोड से बस द्वारा फरिहा पहुंचा जा सकता है। फरिहा से यह क्षेत्र 4 फलांग है।
समाज का योगदान-श्री भगवत स्वरूप जी भगवत' ने अपने जीवन की सेवाएं अर्पित की।
लाला केशव देव जी इस क्षेत्र की कमेटी के अध्यक्ष रहे और कमेटी के माध्यम से वृक्षारोपण जैसे राष्ट्रीय कार्य किये।
श्री जगरूप सहाय जी के ताऊ श्री बनारसीदास जी ने कई कमरे बनवाये।
सन् 1963 में ऋषभ भगवान की विशाल प्रतिमा पंच कल्याण मेला कराकर क्षेत्र पर विराजमान कराने का श्रेय श्री भगवत स्वरूप जी 'भगवत' को है।
श्री सुनहरीलाल जी आगरा ने प्रवेश द्वार बनवाया। श्री प्रेमकुमार जी तथा सुनहरीलाल जी क्षेत्र कमेटी के ट्रस्टी भी रहे।
शौरीपुर-बटेश्वर शौरीपुर उत्तर प्रदेश के आगरा जिले में स्थित है। उत्तर रेलवे की आगरा-कानपुर लाइन पर शिकोहाबाद जंक्शन है। यहां से 25 कि.मी. दूर शौरीपुर है। आगरा से दक्षिण-पूर्व की ओर बाह तहसील में 7 कि.मी. दूरी पर बटेश्वर उपनगर है। यहां 5 कि.मी. दूर यमुना नदी के खारो में फैले हुए खण्डहरों में शौरीपुर क्षेत्र स्थित है। आगरा से बटेश्वर तक पक्की सड़क है और बस सेवा उपलब्ध है। यह क्षेत्र मूलतः दि. जैन तीर्थ है। पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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जैन हरिवंशपुराण तथा महापुराण के अनुसार कर्मभूमि के प्रारम्भ काल में तीर्थंकर ऋषभदेव ने अपने राज्यकाल में सुव्यवस्था की दृष्टि से 52 जनपदों की स्थापना की थी। उनमें एक शूरसेन जनपद था। राम के छोटे भाई शत्रुघ्न मथुरा के राजा थे। उनके प्रतापी पुत्र शूरसेन के कारण यह नाम और भी प्रसिद्ध हो गया। कृष्णा साहित्य में भी 84 वनों का उल्लेख आया है। उनमें एक अग्रवन था जो यमुना तट पर दूर तक फैला हुआ था। इसमें एक ओर मथुरा नगरी थी और दूसरी ओर शौरीपुर। महाभारत काल में इन दोनों पर यदुवंशियों का आधिपत्य था। मथुरा श्रीकृष्ण की लीलाभूमि तथा शौरीपुर उनके चचेरे भाई जैन तीर्थंकर नेमिनाथ की जन्मभूमि थी। मथुरा और शौरीपुर दोनों ही उत्तर भारत के पावन सिद्धक्षेत्र हैं।
महाकवि जिनसेन के हरिवंश पुराण के अनुसार तीर्थंकर नेमनाथ के पूर्वजों में राजा यदु थे। उनके शूरसेन नामक पुत्र ने शौर्यपुर अथवा शूरसेन देश की स्थापना की थी। जिनसेन द्वारा वर्णित ही शौर्यपुर आजकल शौरीपुर-बटेश्वर नाम से जाना जाता है।
शौरीपुर में तीर्थंकर नेमिनाथ के गर्भ और जन्म कल्याणक हुए। इसके साथ ही यह निर्वाण भूमि है, सिद्धक्षेत्र है। यहां से मुनि धन्यकुमार और अनसकुमार मुक्ति पद को प्राप्त हुए। यहां पर भगवान ऋषभदेव, पार्श्वनाथ व महावीर स्वामी का समवशरण आया था। सुप्रतिष्ठित मुनिराज को यहां केवलज्ञान प्राप्त हुआ था। यम नामक अन्तकुल केवली और विमलसुत यहीं से मुक्त हुए। यह स्थान दानी कर्ण की जन्मभूमि हैं
प्राचीनता के स्मारक के रूप में दिगम्बर जैन मंदिर शेष हैं। इसके 3 कि.मी. दूर पर अतिशय क्षेत्र बटेश्वर है।
श्री सुनहरीलाल जैन ने यहां प्रवेश द्वार बनवाया।
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गिरनारजी गिरनार पर्वत सुप्रसिद्ध तीथक्षेत्र हैं यह गुजरात राज्य के सौराष्ट्र प्रांत में स्थित है। गिरनार क्षेत्र पर जैन धर्म के बाइसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) के तीन कल्याणक-दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण हुए थे। यहां पर भगवान की दिव्य ध्वनि खिरी थी। यहीं उनका धर्मचक्र प्रवर्तन हुआ था। वे यहां अनेक बार पधारे और उनकी कल्याणमयी देशना से अनेक भव्य जीवों का कल्याण हुआ और निर्वाण भी हुआ। इनके अतिरिक्त यहां से प्रद्युम्न कुमार, शम्बुकुमार, अनिरुद्ध कुमार, वरदत्तादि, बहत्तर करोड़ सात सौ मुनियों ने मुक्ति प्राप्त की। अतः यह क्षेत्र वस्तुतः अत्यधिक पवित्र बन गया।
राजुलमती ने भी संयम धारण कर दीक्षा लेकर इसी पर्वत पर तप किया।
पढ़ें इसी पुस्तक में आचार्य श्री निर्मलसागरजी का जीवन वृत्त।
राजगृही जैन धर्म में राजगृही नगरी का एक विशिष्ट स्थान है। वह कल्याणक नगरी है, निर्वाण भूमि है और भगवान महावीर के धर्म चक्र प्रवर्तन की भूमि है। धर्म भूमि होने के साथ-साथ वह युगों तक राजनीति का केन्द्र भी रही है और भारत के अधिकांश भाग पर उसने प्रभावशाली शासन भी किया है। इसलिए इस नगरी ने इतिहास में निर्णायक भूमिका अदा की है।
इस नगरी में भगवान मुनिसुव्रतनाथ के गर्भ, जन्म, तप और केवलज्ञान चार कल्याणक हुए थे।
इस नगर में पांच पर्वत हैं। इसलिए इसे 'पंच पहाड़ी' भी कहा जाता है। इन पांच पर्वतों में बेभार, त्रटाषिगिरि, विपुलगिरि और बलाहक ये चार पर्वत सिद्धक्षेत्र रहे हैं। यहां से अनेक मुनियों ने निर्वाण प्राप्त किया है पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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जैसा कि पूज्यपाद ने संस्कृत निर्वाणभक्ति में बताया है। राजगृही को गिरिब्रज और कुशाग्रपुर भी कहते हैं यह मगध की राजधानी थी।
आजकल राजगृह राजगीर नाम से एक साधारण कस्बा है। उसका महत्व तीर्थ रूप में है। जैन लोग राजगृह के विपुलाचल, रत्नागिरि, उदयगिरि, श्रवणगिरि और वैभारगिरि को अपना तीर्थ मानते हैं । बौद्ध लोग गृद्धकूट पर्वत को अपना तीर्थ मानते हैं तथा सपृपर्णी गुफा में प्रथम बौद्ध संगीति हुई थी, ऐसा माना जाता है।
यहां सोनभण्डार गुफा, मनिचारमठ, बिम्बसार, बन्दीगृह, जरासन्ध का अखाड़ा और प्राचीन किले के अवशेष दर्शनीय है। यहां गर्म जल के स्तोत्र हैं, जिनका जल स्वास्थ्यकर है। "
श्री सुनहरी लाल जैन (आगरा) ने यहां पहाड़ पर सीढ़ियां बनवाईं।
श्री महावीरजी
श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र महावीरजी, राजस्थान के सवाई माधोपुर जिले में अवस्थित है। पश्चिमी रेलवे की दिल्ली - बम्बई मुख्य लाइन पर भरतपुर और गंगापुर रेलवे स्टेशनों के बीच 'श्री महावीरजी ' नाम का रेलवे स्टेशन है जहां प्रायः सभी रेल गाड़ियां ठहरती हैं। रेलवे स्टेशन से मंदिर 6 कि.मी. दूर है। मंदिर तक आने जाने हेतु क्षेत्र की ओर से बस सेवा उपलब्ध है ।
इतिहास - मंदिर चांदगांव के निकट है। इस क्षेत्र पर भगवान महावीर की जिस मूर्ति की अतिश्य की ख्याति प्राप्त है, भूगर्भ से उसकी प्राप्ति के संबंध में अदभुत किंवदन्ती प्रचलित है। कहा जाता है कि एक ग्वाले की, जो जाति से चमार था, गाय जंगल से चरकर जब घर लौटती तो उसके स्तन के दूध से खाली मिलते। एक दिन ग्वाले ने जब गाय का पीछा किया तो उसको यह देखकर विस्मय हुआ कि एक टीले पर गाय खड़ी है और पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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इसके स्तनों से स्वतः दूध झर रहा है। दूसरे दिन गाय को उसने उस टीले पर जाने से रोकना चाहा पर गाय रूकी नहीं। दूध का झरना वह कैसे रोक सकता। उसके लिए यह अनबूझ पहेली बन गई।
अनेक ताने-बाने बुनते हुए उसे उस स्थान को खोदने का विचार आया और फावड़ा लेकर खोदने लगा। उसे आवाज सुनाई. दी-'जरा सावधानी से खोद' । आवाज सुनकर वह सावधान हो गया और फावड़ा धीरे-धीरे चलाने लगा। तभी फावड़ा किसी कठोर वस्तु से टकराया। वह धीरे-धीरे मिट्टी हटाने लगा। मिट्टी हटाते-हटाते उसे मूर्ति का सिर दिखाई दिया। सिर देखते ही उसका उत्साह दुगुना हो गया। वह मूर्ति के चारों ओर की मिट्टी हटाने में जुट गया। अब उसे मूर्ति दिखाई देने लगी। उसने सावधानी से मूर्ति बाहर निकालकर रखी और खड़ा होकर एकटक निहारने लगा। आनन्दविभोर हो गया, नेत्र भर गये। सहज सरलता से प्लवित अश्रुधारा से सभी कल्मष विरोहित हो गए।
भूगर्भ से भगवान प्रकट हुए हैं यह बात चारों ओर फैल गई। दूर-दूर से दर्शनार्थी खिचकर आने लगे। मेला जुटने लगा। इस मनोहारी प्रतिमा के अतिशयों की चर्चा सर्वत्र फैलने लगी।
बसवा गांव (जयपुर) निवासी दिगम्बर जैन खण्डेलवाल श्री अमरचन्द बिलाला भी दर्शनार्थ आये। भगवान के दर्शनों से बड़ी शान्ति अनुभव हुई। उनकी भावना हुई कि जिनालय बनाकर भगवान को विराजमान किया जाये। मंदिर का निर्माण हुआ। भगवान की इस मनोहारी प्रतिमा को उसमें विराजमान करने का अवसर आया, पर मूर्ति अचल हो गई। अपने स्थान से न हट सकी। तभी उस गवाले का सहयोग चाहा गया और प्रतिमा समारोह पूर्वक श्री मंदिरजी में विराजमान कर दी गई।
अतिशयों से आकर्षित होकर अनेक लोग मनोकामनाएं लेकर आने लगी। उनकी मनोकामनाएं पूर्ण होने के समाचार परिचित जनों तक पद्यावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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पहुंचते रहे। इस प्रकार थोड़े ही काल में चांदनपुर वाले महावीर के अतिशय का यश-सौरभ चारों दिशाओं में फैल गया। यात्रियों की संख्या निरन्तर बढ़ती गई। यात्रियों की सुविधा के लिए धर्मप्रेमी दिगम्बर जैन बन्धुओं ने यहां धर्मशालाएं बनवायी और मंदिर में भी धीरे-धीरे परिवर्तन परिवर्धन होते रहे।
योगदान-यहीं शान्तिवीर नगर नदी के दूसरी और पूर्वी किनारे पर स्थित है। इसकी स्थापना स्व. आचार्य शिवसागर जी की प्ररेणा से आचार्य शान्तिसागरजी और आचार्य वीरसागरजी के नाम पर की गई है। यहां अट्ठाइस फीट ऊंची शांतिनाथ स्वामी की विशाल मूर्ति के अतिरिक्त 24 तीर्थंकरों और उनके देवताओं की मूर्तियां विराजमान है।
शान्तिवीर नगर में श्री सुनहरी लाल जैन (आगरा) ने एक कक्ष का निर्माण कराया।
श्री ऋषभदेव (केशरिया जी) श्री ऋषभदेव जी तीर्थ राजस्थान प्रदेश के उदयपुर जिले में उदयपुर शहर से 64 कि.मी. दूर खेरवाड़ा तहसील में कोथल नामक छोटी-सी नदी के किनारे अवस्थित है। ग्राम का नाम धुलेब है। यह गांव ऋषभदेव मूलनायक प्रतिमा के प्रकट होने के पश्चात बसा है, ऐसा लगता है। भगवान के नाम पर गांव का नाम श्री ऋषभदेव तथा केशर चढ़ाने की प्रथा के कारण केशरिया जी प्रचलित है। यहां पहुंचने के लिए पश्चिमी रेलवे के उदयपुर रेलवे स्टेशन पर उतरना पड़ता है। वहां से ऋषभदेव जी तक पक्की सड़क है तथा नियमित बस सेवा है।
श्री ऋषभदेव (केशरिया जी) क्षेत्र अतिशय क्षेत्र के रूप में विख्यात है। यहां की मूलनायक प्रतिमा भगवान ऋषभदेव की है। प्रतिमा श्याम वर्ण की होने से भील लोग इसे कालाजी और कारिया बाबा कहते हैं। कुछ लोग
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धूलेवाथणी या 'केशरियालाल' भी कहते हैं। यह पाषाण निर्मित पद्मासन प्रतिमा श्याम वर्ण साढ़े तीन फुट अवगाहना वाली है। इस प्रतिमा के नानाविध चमत्कारों की किवदंतियां जनता में बहुप्रचलित हैं इसके चमत्कारों से आकर्षित होकर न केवल दिगम्बर जैन, अपितु श्वेताम्बर जैन, हिन्दू, मीन आदि सभी लोग यहां आकर मनौती मनाते हैं। अनेक लोग यहां केशर चढ़ाते हैं, जिससे इस क्षेत्र का नाम 'केशरियाजी' पड़ गया है।
श्री सुनहरी लाल जैन द्वारा यहां एक कक्ष का निर्माण कराया गया। प्रतिमाजी विराजमान कराई1. ब्र. श्री अरविन्द कुमार जी ने नया बाजार लश्कर (ग्वालियर)
मंदिरजी में भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमाजी। 2. डॉ. एस.के. जैन गनेश कॉलोनी, नया बाजार वालों ने श्री सोनागिरजी
के तलहरी के मंदिर नं. 5 में पार्श्वनाथ जी की प्रतिमा जी। 3. आचार्य श्री सुधर्मसागरजी के गृहस्थ भाई पं. मक्खनलाला,
लालारामजी आदि ने एक प्रतिमा जी गजपंथा में। 4. उन्होंने ही धर्मपुरा दिल्ली मंदिरजी में 3 फीट अवगाहना की अष्ट
भ्रातिहार्य युक्त प्रतिमाजी। ब्र. पांडे श्री निवासजी ने फीरोजाबाद के नसियाजी के मंदिर में शीतलनाथ जी की प्रतिष्ठा कराई तथा इंदौर, उज्जैन, रतलाम के
मंदिरों में प्रतिष्ठा कराई। 6. श्री हीरालाल जी जारखी वालों ने कुतुकपुर में जिनालय बनवाया। 7. श्री भगवतस्वरूप जी 'भगवत' ने मरसलगंज में प्रतिभाजी विराजमान
कराई। पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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पद्यावतीपुरवाल-बहुल ग्राम-नगरों का परिचय
(40 वर्ष पूर्व प्राप्त जानकारी के अनुसार) फिरोजाबाद __ भारतवर्ष का एक प्रमुख प्रदेश-उत्तर प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश का एक प्रसिद्ध जनपद फीरोजाबाद चूड़ियों के लिए प्रसिद्ध सुहागनगर उत्तर भारत का प्रमुख जैन केन्द्र हैं। यह नगर दिगम्बर जैन संत ब्रह्मगुलाल (जीवन वृत्त इसी इतिहास) की साधना भूमि है। उनके चरण यहां नसियाजी में विराजमान है। समाधि सम्राट् आचार्य श्री महावीरकीर्तिजी महाराज की जन्म भूमि होने का श्रेय इसी नगर को प्राप्त है। यहां के जैन विद्वानों ने अपने अमूल्य अपदान से जैन भारती के भण्डार को समृद्ध किया है।
फीरोजाबाद में भगवान चन्द्रप्रभ की स्फटिक मूर्ति चन्द्रवाड़ नगर से यहां लाई गई है। इसका विस्तृत विवरण आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी के जीवन परिचय में दिया गया है। ___ फीरोजाबाद नगर का निर्माण फीरोजशाह तुगलक (1351-88 ई.) ने किया है। मुहम्मद बिन तुगलक (1325-1351 ई.) की मृत्यु के पश्चात् उसका चचेरा भाई फीरोजशाह तुगलक दिल्ली की गद्दी पर बैठा। फीरोजशाह ने चन्द्रवाड़ तथा उसके निकटस्थ इतिकान्त और रपूरी पर अधिकार कर लिया। फीरोजशाह तुगलक को नगरों और इमारतें बनाने का बड़ा शौक था। जौनपुर, हिसार और फीरोजाबाद आदि नगरों का निर्माण उसी के द्वारा किया गया।
फीरोजाबाद में पल्लीवाल दिगम्बर जैन समाज के ख्याति प्राप्ति 189
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उदारमना सेठ छदामीलाल का जैन जगत में प्रसिद्ध संगमरमर का दिगम्बर जैन मंदिर है। यहां भगवान गोम्मटेश्वर बाहुबली की 37 फुट अवगाहना की मूर्ति स्थापित है, जो उत्तर भारत की सबसे बड़ी मूर्ति है। मंदिर में खुली हुई वेदी पर श्वेत पाषाण की सात फुट ऊंची भगवान महावीर की पद्मासन प्रतिमा है। इससे ये महावीर जिनालय के नाम से जाना जाता है। जैन म्यूजिम बना है। मंदिर के आगे विशाल मानस्तम्भ है।
प्रसिद्ध अतिशय क्षेत्र चन्द्रवाड़ यहां से 4 मील दूर है। इसके अलावा ऋषभनगर (मरसलगंज) राजमल, पाण्डुपुर (पाढम) आदि भी निकट ही है ।
अपने कांच और चूड़ी उद्योग के कारण यह नगर पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। यहां पर तीन हजार जैन परिवार रहते हैं। जिसमें लगभग एक हजार परिवार पद्मवती पुरवाल दिगम्बर जैन समाज के हैं जिनकी जनसंख्या पन्द्रह हजार से अधिक है। पद्ममावती पुरवाल समाज के जिनालय1. बड़ा मंदिर, कटरा पठानान, फीरोजाबाद
2. छोटा मंदिर, कटरा पठानान, फीरोजाबाद
3. जैन मंदिर, घेर खोखल मोहल्ला, फीरोजाबाद 4. बाहुबली मंदिर, नई बस्ती, फीरोजाबाद
5. छोटा मंदिर, नई बस्ती, फीरोजाबाद
6. द्वारकी मंदिर, जैन कटरा, फीरोजाबाद
7. श्री शीतलनाथ दिगम्बर जैन मंदिर, नसियाजी, फीरोजाबाद
8. नसियांजी में ही श्री नेमिनाथ मंदिर
9. श्री दि. जैन मंदिर, गांधी नगर, फिरोजाबाद
10. श्री दि. जैन मंदिर, हनुमान गंज, फिरोजाबाद फीरोजाबाद के पद्मावती पुरवाल समाज के जैन मंदिर
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1. श्री नेमीनाथ जिनालय, महावीर नगर, वेदी 1 2. श्री महावीर जिनालय, देवनगर वेदी 1 3. श्री पार्श्वनाथ जिनालय देवनगर वेदी 4 4. श्री बाहुबली स्वामी जिनालय, नई बस्ती वेदी 3 5. श्री वासपूज्य जिनालय, नई बस्ती वेदी 1 6. श्री महावीर जिनालय कटरा वेदी 5 7. श्री नेमिनाथ जिनालय कटरा वेदी 1 8. श्री चन्द्राप्रभु जिनालय, कटरा वेदी 1 9. श्री पार्श्वनाथ जिनालय, सिनेमा चौराहा वेदी 1 10. श्री पार्श्वनाथ जिनालय बफखाना चौराहा वेदी 1 11. श्री महावीर जिनालय बर्फखाना चौराहा वेदी 1 12. श्री पार्श्वनाथ जिनालय, गांधीनगर वेदी 3 13. श्री पार्श्वनाथ जिनालय जलेसर रोड वेदी 1 14. श्री महावीर जिनालय, इंदिरा कालोनी वेदी 1 15. श्री शीतलनाथ जिनालय, नसिया जी वेदी 3 16. श्री नेमिनाथ जिनालय नसिया जी वेदी 1 17. श्री शांतिनाथ जिनालय, विभव नगर वेदी 1 18. श्री पार्श्वनाथ जिनालय, गंज पं. सुमतिचन्द्र वेदी 1 19. श्री पार्श्वनाथ जिनालय, गली लेटियान वेदी 2 20. श्री चौबीसी जिनालय गली लोहियान नवनिर्मित कालोनी वैभवनगर में जैनियों की पर्याप्त संख्या होने के कारण जिन मंदिर की आवश्यकशा थी। मंदिर बना और सुन्दर बना। चार फुट की अवगाहना की शांतिनाथ की मनोज्ञ प्रतिमा आई जिसकी 191
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पंचकल्याणक प्रतिष्ठा 2 अप्रैल 2000 से 15 अप्रैल तक पूज्य श्री 108 मुनि निर्णयसागर जी के ससंघ सान्निध्य में एवं प्रतिष्ठाचार्य पं. विमल कुमार सौरया के निर्देशन में हुई 123
पद्मावती पुरवाल समाज द्वारा संचालित संस्थाएं
1. श्री पी. डी. जैन इण्टर कालिज, फिरोजाबाद ।
2. शिशु बाल मंदिर - यह विद्यालय पी. डी. जैन इण्टर कालिज के प्रांगण में ही संचालित होता है।
3. विमलसागर जैन विद्यालय, नई बस्ती, फिरोजाबाद
4. श्री विमलसागर औषधालय, नई बस्ती, फिरोजाबाद
5. श्री विमलसागर औषधालय, गांधीनगर, फिरोजाबाद
6. पद्मावती पुरवाल फंड कमेटी, फिरोजाबाद ( विधवाओं, विद्यार्थियों की सहायतार्थ)
7. श्री वंशीधर की धर्मशाला, गली लोहियान, सदर बाजार, फिरोजाबाद जिला फिरोजाबाद के ग्राम
स्थान
परिवार जनसंख्या समाज के विशिष्ट जिनालय विवरण
संख्या
10
1
20
10
2
5. पाढम
20
6. शिकोहाबाद (तहसील) 200 औषधालय
पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
1. कोसना
2. फरिहा
3. राजा का ताल
4. सिरसागंज
100
200
100
10
100
1500
2
1
1
2
5 1
192
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200
1000
धर्मशाला
7.टूंडला 8. जारखी . 9. मोहमदाबाद
15
. 150 50
2 1
5
एटा
यहां पर रहने वाले लगभग सभी जैन परिवार पद्मावतीपुरवाल जाति के हैं इनकी जनसंख्या लगभग 5,000 है।
एटा में पद्मावती पुरवाल समाज के जिनालय1. पंचायती बड़ा मंदिर, पुरानी छत्री 2. श्री नेमिनाथ जिनालय, ठंडी सड़क 3. श्री नसिया जी, प्रेमनगर चैत्यालय 1. ब्र. सुमन का चैत्यालय 2. जानकी मंदिर 3. शीतलनाथ 4. देवस्वरूप मंदिर पद्मावतीपुरवाल पंचायत मरथरा (एटा) 5. गोटा वालों का चैत्यालय 6. अत्तारों का मंदिर 7. जैन नगर बस स्टेन्ड के पास 8. मझराऊ वालों का
यहां समाज की एक धर्मशाला जी.टी. रोड पर है। पहले इसको शोभाराम जी की धर्मशाला के नाम से जाना जाता थी।
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जिला एटा के ग्राम
स्थान
1. अवागढ़
2. जलेसर
3. वसुन्धरा
4. फफोतू
5. राजमल
6. वापसा
7. चमकरी
8. पिलुआ
9. जिरसमी
परिवार जनसंख्या मंदिर
संख्या
200
200
5
2
2
3
1
5
800 5
1000
50
10
1
10 1
20
6
50
5
120
1
1
1
1
1
विशिष्ट
विवरण
श्री सुनहरीलाल
सरपंच रहे
यह नेमिनाथ दि. जैन
अतिशय क्षेत्र / पद्मावती पुरवाल
समाज प्रबंध करती है ।
आगरा
आगरा एक ऐतिहासिक नगर है। जैन साहित्य में संस्कृत में अर्गलार और प्राकृत भाषा में 'अग्गलपुर' नाम मिलता है। हिन्दी भाषी कवियों ने अर्गलपुर और आगरा नामों का व्यवहार किया है। शिलालेखों और ग्रन्थ प्रशस्तियों में इसका नाम उग्रसेनपुर भी आता है। किन्तु सर्वसाधारण में इसका नाम आगरा प्रचलित हो गया है। यहां की मिट्टी आगरयुक्त ( लवणसार वाली) होती है। इसलिए इसका नाम आगरा पड़ गया। पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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आगरा के कलैक्टर मि. नेविल ने आगरा गजेटियर (सन् 1905) में लिखा है-आगरा से इटावा तक का प्रदेश यमुना, चम्बल और क्वारी नदी के त्रिकोण मे बसा हुआ क्षेत्र पूर्णतया अहिंसक हैं इस क्षेत्र में कोई शिकार नहीं खेलता, न मांस खाता है। इससे जैन व वैष्णव प्रभाव प्रगट होता है।
मुगलकाल से पूर्व और उस काल में भी इस नगर में शासन और प्रजा पर जैनों का बड़ा प्रभाव रहा। पं. भगवती दास ने 'अर्गलपुर जिनवन्दना' में 48 जिन मंदिरों का वर्णन है। इसमें शाहजहां बादशाह के काल मे आगरा के जैन मंदिरों, मंदिर निर्माताओं, प्रमुख विद्वानों और विदुषी स्त्रियों का वर्णन है। उन्होंने जिन 48 मंदिरों के दर्शन किये थे उनमें एक पद्मावती पुरवाल मंदिर भी है। यह मंदिर कहां पर था इसकी जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी है। परन्तु इस समय एक मंदिर पद्मावती पुरवाल समाज का धूलियागंज आगरा में है।
इससे एक बात स्पष्ट है कि मुगल काल में भी इस समाज की संख्या आगरा में अच्छी थी। वर्तमान में भी समाज के लगभग 100 घर हैं तथा जनसंख्या लगभग एक हजार होगी। जिला आगरा के ग्रामस्थान परिवार जनसंख्या मंदिर विशिष्ट
विवरण 1. पुरगवा 3 30 1 2. बरहन 20 3. सराय जयराम 10 4. एत्मादपुर 200 1600
धर्मशाला व स्कूल
संख्या
200
100
इटावाउत्तर प्रदेश की एक नगरी इटावा है। यमुना नदी के किनारे पर बसा
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हैं यहां तथा इसके आस पास समय-समय पर त्यागी-व्रती मुनियों का दर्शन समागम आगमन बना ही रहता है। जहां त्यागी-व्रती मुनियों का दर्शन हो भला उसके पुण्य बंध का वर्णन कैसे किया जा सकता है। कवि के शब्दों में
वे गुरु चरण जहां पड़ें, जग में तीरथ सोय।
यहां पर पद्मावती पुरवाल समाज के 2 घर हैं तथा जनसंख्या 20 होगी एक जिनालय है। जिला इटावास्थान परिवार जनसंख्या मंदिर विशिष्ट संख्या
विवरण 1. इसौली 2 20 1
अहिच्छत्र
अहिच्छत्र उत्तर प्रदेश के बरेली जिले की आंवला तहसील में स्थित है अलीगढ़ से बरेली लाइन पर आंवला स्टेशन है। आंवला स्टेशन से अहिच्छत्र द्वारा 18 कि.मी. है। इसका पोस्ट आफिस रामनगर है।
अहिच्छत्र आजकल रामनगर का एक भाग है। इसको प्राचीन काल में संख्यावती नगरी कहा जाता था। यहां पर भगवान पार्श्वनाथ का केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था। इन्द्रों और देवों ने आकर भगवान के ज्ञान कल्याणक की पूजा की थी।
संवर नामक देव ने पार्श्वनाथ के ऊपर उपसर्ग किया तब नागेन्द्र द्वारा भगवान के ऊपर छत्र लगाया गया था, इस कारण इस स्थान का नाम संख्यावती के स्थान पर अहिच्छत्र हो गया। साथ ही भगवान के केवलज्ञान कल्याणक की भूमि होने के कारण यह पवित्र तीर्थक्षेत्र हो गया।
अहिच्छत्र में वर्तमान मंदिर के पहले इस मंदिर के स्थान पर पद्मावती पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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पुरवाल पंचायत की ओर से ला. हीरालाल जी सर्राफ एटा तथा पं. चम्पालाल जी पेंठतं निवासी का बनवाया हुआ मंदिर था। बाद में उसके स्थान पर समस्त दिगम्बर समाज की ओर से यह मंदिर बनाया गया।
देहली-दिल्ली दिल्ली या देहली भारत की राजधानी है। साहित्य में इसका सर्वप्रथम उल्लेख इन्द्रप्रस्थ के रूप में महाभारत काल में मिलता है। बाद में समय-समय पर इसके नामों मे परिवर्तन होता रहा। इसलिए साहित्य में इसके कई नाम मिलते हैं जैसे-ढिल्ली, ढिल्लिका, योगिनीपुर, जोइणीपुर, जहानाबाद, दिल्ली, देहली। अपभ्रंश में दिल्ली और जोइणीपुर ये दो नाम मिलते हैं।
दिल्ली की स्थापना के संबंध में वि.सं. 1388 का शिलालेख है, जो दिल्ली म्यूजियम में विद्यमान है। उसमें लिखा है
'देशोङस्ति हरियानाख्यो पृथिव्यां स्वर्गसन्निभः।
ढिल्लिकाख्या पुरी तत्र तोमरेरस्ति निर्मिता॥ इसमें बताया है कि हरियाना देश में दिल्लिका नगरी को तोमरों ने बसाया। ढिल्लिका (दिल्ली) हरियाणा की राजधानी थी। इतिहासकारों के मतानुसार इस नगरी की स्थापना अनंगपाल प्रथम ने की। इसका राज्याभिषेक सन् 736 में हुआ था। इसके बाद द्वितीय अनंगपाल दिल्ली में आया। उसका राज्याभिषेक सन् 1051 में हुआ। इसके सौ वर्ष बाद अनंगपाल (तृतीय) हुआ। इसकी पुष्टि कविवर बुध श्रीधर द्वारा रचित पार्श्वनाथ चरित (रचना काल सं. 1189) से होती है।
वि.सं. 1207 के लगभग चाहमान वंशी (चौहन) राजा आना के पुत्र विग्रहराज (बीसलदेव चतुथ) ने अनंगपाल को उखाड़ फेंका और दिल्ली को छीनकर अजमेर का सूबा बना दिया।
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- इसके बाद तो दिल्ली पर अधिकार के लिए संघर्ष होते रहे। और इस पर चौहान, गुलाम, खिलजी, तुगलक और मुगलवंशों ने तथा अंग्रेजों ने आठ शताब्दी तक राज्य किया। यह दिल्ली ही नहीं देश के इतिहास में अंधकारपूर्ण युग कहलाता है। जिसमें कला, साहित्य और संस्कृति का कोई उल्लेखनीय विकास नहीं हो पाया। नवसृजन की बात जाने दें, इस काल में कला और संस्कृति को भीषण क्षति पहुंची। इस काल में मंदिरों और मूर्तियों का भयंकर विनाश किया गया। विनाश के चक्र से जैन मंदिर भी न बच पाये। कला की विनाशलीला के इस काल में कितने जैन मंदिरों और मूर्तियों का विध्वंस हुआ यह जानने का प्रामाणिक साधन नहीं है।
वर्तमान में जहां चारों ओर विकास की गतिविधियां बढ़ रही हैं वहीं दिल्ली भी कला, साहित्य, संस्कृति आदि के विकास में अग्रसर है। यहां अनेक धार्मिक गतिविधियों एवं संस्कृति समारोह काफी उत्साह एवं उमंग के साथ बाहुल्यता में हो रहे हैं। यहां पर पद्मावती पुरवाल समाज के लगभग 1000 घर हैं तथा जनसंख्या लगभग 6,000 होगी।
यहां धर्मपुरा दिल्ली-6 में समाज का एक शिखरबन्द मन्दिर और धर्मशाला है। एक 3 मंजिली धर्मशाला गांधी नगर दिल्ली-31 में भी है।
कोड़ा जहानाबाद (फतेपुर) परिवार 10 जनसंख्या 100 जिनालय 1 बांदा (उ.प्र.) परिवार संख्या 5 जनसंख्या 50 जिनालय 1 कलकत्ता स्व. धन्यकुमार के पूर्वज फफोतू के रहने वाले थे। इनके बाबा शाह धनपतराम व्यापार के लिए कलकत्ता गये और वहीं उत्तरपाड़ा में बस गये।
उत्तरपाड़ा का दिगम्बर जैन मंदिर लाला धनपतराय जी ने बनवाया था। पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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पद्मावतीपुरवाल जनसंख्या पर एक दृष्टि
यद्यपि प्रामाणिक एवं एकत्रित संकलन साधन उपलब्ध नहीं हैं फिर भिन्न-भिन्न साक्ष्यों के आधार पर विचार किया जा रहा है। इससे पहले जहां मंदिरों का विवरण है वहां पर परिवार संख्या एवं जनसंख्या लिखी गई है। अब उससे आगे
दिगम्बर जैन डायरेक्टरी सन् 1914 में इस जाति की आबादी 11591 दर्शायी गई है। भिन्न-भिन्न प्रान्तों में डायरेक्टरी के आंकड़े इस प्रकार हैं - (Jain Community A Social survey vilas A : Saugave) पृ. 119 उत्तर प्रदेश
124, 125, 127, 128, 130
8744
2297
353
146
12
30
9
राजपूताना मालवा
पंजाब
सेन्ट्रल प्राविन्स (म.प्र.)
बम्बई
बंगाल-बिहार
मद्रास - मैसूर
11591
श्री रामेश्वरदयाल गुप्त, हरिद्वार ने 'वैश्य समाज का इतिहास' लिखकर प्रकाशित द्वितीय संस्करण 1990 में कराया है। इसके अध्याय 28 / 7 पर निम्न प्रकार लिखा है
" दिगम्बर जैन पद्मावती पोरवाल ( आबादी 50,000) स्थान एटा, अलीगंज, ब्रज क्षेत्र ।
श्री पुष्पेन्द्र जैन 13 / 60 हवेली गंगाधर नहर मोहल्ला अजमेर का पोस्ट कार्ड दिनांक 21/3/2000 के अनुसार- अजमेर, ब्यावर, किशनगढ़ पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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(राजस्थान) में 11 घर हैं जनसंख्या 70 है।
अजमेर में 8 घर, ब्यावर में 2 घर एवं किशनगढ़ 1 घर। . लेखक एवं सम्पादक-डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल-'जैन समाज का वृहद इतिहास' प्रकाशन वर्ष अगस्त 1992 के अनुसार
सन् 1986 में मालवा की जनसंख्या 443 गिरडीह
2 परिवार हजारीबाग
3 परिवार रांची
5 परिवार पूर्वांचल गोहाटी
650 घर में अग्रवाल, परवार,
पद्मावती पुरवाल इम्फाल
3 घर आन्ध्र प्रदेश हैदराबाद
4 घर सन् 2000 में लश्कर ग्वालियर मुरार 28 घर जनसंख्या 150
आम्नाय गोत्र तथा वैवाहिक रीति रिवाज पूज्यपाद देवनन्दि मूलसंघान्तर्गत नन्दिसंघ के प्रधान आचार्य प्रभाचन्द्र
मूलसंघ देशीयगण पुस्तक गच्छ ब्रह्मगुलाल
भट्टारक जगभूषण के शिष्य आचार्य सुधर्मसागर जी आचार्य शांतिसागर (दक्षिण) गुरु थे। आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी आचार्यकल्प चन्द्रसागर जी, आचार्यश्री
वीरसागर जी, आचार्य श्री आदिसागर
जी दीक्षा गुरु पद्मावतीपुरयाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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आचार्य श्री विमलसागर जी दीक्षा गुरु आचार्य श्री महावीर कीर्ति जी आचार्य श्री सन्मतिसागर जी दीक्षा गुरु-आचार्य श्री विमलसागर जी आचार्य श्री पार्श्वसागर जी दीक्षा गुरु-आचार्य श्री विमलसागर जी आचार्य श्री निर्मलसागर जी दीक्षा गुरु-आचार्य श्री विमलसागर जी उपाध्याय श्री अजितसागर जी आचार्य श्री शांतिसागर जी की परम्परा
में
मुनिश्री अजितसागर जी
दीक्षा गुरु आचार्य श्री शिवसागर जी
मुनिश्री अनन्तसागर जी
दीक्षा गुरु - आचार्य श्री विमलसागर जी
भट्टारकों को अपना गुरु मानते थे ।
कविवर रइधू अनेकान्त जून 1969 पृ. 28 में पं. परमानन्द शास्त्री लिखते हैं“पद्मावती पुरवाल सभी दिगम्बर जैन आम्नाय के पोषक हैं और आगम पंथ के प्रबल समर्थक हैं ।
परवार जैन समाज का इतिहास पृ. 548 पर सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द जी सिद्धान्त शास्त्री लिखते हैं
“पद्मावती पोरवाल : यह जाति प्रत्येक प्रान्त में तेरह पंथी दिगम्बर जैन धर्मावलम्बी है । तथा उ.प्र. म.प्र. और महाराष्ट्र में अधिकतर पाई जाती है ।"
डा. रामेश्वरदयाल गुप्त - वैश्य समाज का इतिहास में पृ. अध्याय 28/7 पर लिखते हैं
'ब - दिगम्बर जैन पद्मावती पोरवाल ( पुरवाल ) - यह शाखा पूरी तरह तेरहपंथी धर्मावलम्बी है । इसके प्रमुख गोत्रों में पांडे, केडिया, पादमी, अजमेरा या सिरमोर आदि हैं।"
इस जाति में अन्य जातियों की तरह दस्सा बीसा का भेद था । आपस में रोटी-बेटी का व्यवहार नहीं था। वर्तमान में कुछ लोग इस बंधन को पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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स्वीकार नहीं करते फिर भी आम तौर पर इसे अच्छा नहीं माना जाता। यह जाति दिगम्बर जैन आम्नाय वाली है।
मोत्र क्विार-गोत्र शब्द अनादि है। आठ कर्मों में भी गोत्र नाम का कर्म है। इसे आगम में जीवविपाकी कहा गया है। इस पर से यह अर्थ फलित किया है कि परम्परा से आये हुए आचार का नाम गोत्र है। उच्च आचार की उच्च गोत्र संज्ञा है और नीच आचार की नीच गोत्र संज्ञा ।
आगमानुसार कोई नीच गोत्री मनुष्य हो और वह उच्च आचार वालों की संगति करके अपने जीवन को बदल दे तो वह मुनिधर्म को स्वीकार करते समय उच्च गोत्री हो जाता है। लेकिन उच्च गोत्री आचार की दृष्टि से कितना भी गिर जाय फिर भी वह शक्ति की अपेक्षा पर्याय में उच्च गोत्री ही बना रहता है।
गोत्र कर्म का यह सैद्धांतिक अर्थ है। इसका एक सामाजिक रूप भी है। किसी भी समाज के निर्माण में इसका विशेष ध्यान रखा जाता है।
कहा जाता है कि जैन समाज में जितनी भी उपजातियां बनी हैं वे सब उन्हीं कुटुम्बों को लेकर बनी हैं, जो आचार की दृष्टि से लोक प्रसिद्ध रहे हैं। इसका कारण है जैन आचार। क्योंकि कोई भी कुटुम्ब जैनाचार की दीक्षा में दीक्षित हो और वह हीन आचार वाला हो, यह नहीं हो सकता।
शब्द कल्पद्रुम में गोत्र का अर्थ है कि वह जिससे पूर्वजों का ज्ञान हो। लौकिक गोत्र बने जिनका आधार आख्यानों के पूर्वजों के उपनाम के आधार पर।
गोत्रों की मान्यता निम्न आधार पर है1. किसी व्यक्ति के वंश का विस्तार होने पर उसी के नाम पर गोत्र 2. प्रवजन का पूर्व निवास स्थान-खंडेला से खंडेलवाल
3. किसी प्रभावी महापुरुष की कीर्ति अमर रखने के लिए पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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4. किसी व्यापार व्यवसाय के नाम पर। गोत्र भेद विवाह के समय कितने गोत्रों पर विचार किया जाय इस पर आधारित थे।
अनेकान्त जून 1969 में पं. परमानन्द शास्त्री ने लिखा था कि पद्मावती पुरवाल समाज में 33 गोत्र हैं। हमने पद्मावती पुरवाल समाज के लोगों से चर्चा की तो वे गोत्र शब्द सुनकर आश्चर्यचकित हुए। वे गोत्र शब्द को ही भूल गये हैं। उनका कहना है कि हमारे गोत्र नहीं होते। पत्र व्यवहार से मालूम करने का प्रयत्न किया तो अनभिज्ञता ही के समाचार मिले। इस बात की पुष्टि भी उस समय हुई जब श्री नरेन्द्रप्रकाश जी जैन का लेख पद्मावती पुरवाल पत्रिका नवम्बर 1999 में 'गौरवास्पद पद्मावती पुरवाल समाज' पढ़ा। पृष्ठ 5 पैरा 3- .
"प्राचीन साहित्य में इस जाति के सिंह और धार दो गोत्रों की चर्चा मिलती है। इस सदी के पूर्वार्ध में सिरमोर, पाण्य और सिंघई गोत्र प्रचलन में थे। अब इतनी जानकारी भी आम लोगों को नहीं है। हां, परम्परा से गृहस्थाचार्य का दायित्व अद्यावधि निभाते रहने से पाण्डे गोत्र का अस्तित्व आज भी यथावत है।"
लेकिन अन्य स्त्रोतों से इस प्रकार जानकारी प्राप्त हुई1. पुरवार जैन समाज का इतिहास-पृ. 550 'उ.प्र. में जो गोत्र प्रचलित हैं उनके नाम-1. सिरमौर, 2. पांडे, 3. सिंघई, 4. कोड़िया, 5. कड़सरिया, 6. सिन्ध, 7. धार, 8. पाढ़मी।' 2. वैश्य समुदाय का इतिहास-अध्याय 28/7'इनके प्रमुख गोत्रों में 1. पांडे, 2. केड़िया, 3. पादमी, 4. अजमेरा या श्रीमोर आदि हैं।
प्रतिष्ठाचार्य पं. कन्हैयालाल जी अपने गोत्र 'नारे' से ही 'नारेजी नाम 203
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से प्रसिद्ध थे। स्व. नरसिंहदास जी 'नरसिंहदास कौन्देय' नाम से जाने जाते थे।
इस प्रकार अप्रचलित होने पर भ्ज्ञी निम्न गोत्रों की जानकारी मिली
1. सिंह, 2. उत्तम, 3. सरावगी, 4. सेठ, 5. नारे, 6. तिलक, 7. धार, 8. सिरमौर (श्रीमोर या अजमेरा), 9. पांडे, 10. कौन्देय, 11. चौधरी, 12. केड़िया, 13. पाढ़मी, 14. कड़ेसरिया, 15 सिंघ, 16. सिंघई
क्योंकि समाज के लोग गोत्रों के बारे में अनभिज्ञ हैं इसलिए अभी गोत्र निर्माण के बारे में कुछ नहीं लिखा जा सका। परन्तु गोत्र 'सिरमौर, पाण्डे, सिंघई' के बारे में कुछ संकेत मिला है इसी इतिहास में 'पुरवाल समाज उत्पत्ति की किंवदन्तियों में उसे उद्धृत कर रहे हैं।
“इन्हीं निष्कासित लोगों ने कन्या के नाम पर पद्मावती नगरी बसाई और स्वयं पद्मावती पुरवाल कहने लगे। उन्होंने अपनी सामाजिक व्यवस्था का नवीनीकरण किया। अपने प्रधान को 'सिरमौर' पंडित जो पुरोहित का कार्य करता था वह ‘पांडे' और प्रबंधक को 'सिंघई' शब्दों से संबोधित किया।"
पद्मावतीपुरवाल समाज की मान्यताएं एवं वैवाहिक रीतिरिवाज पद्मावती पुरवाल अपने को सोमवंशीय क्षत्री मानते हैं।
भेद-पद्मावती पुरवाल समाज दो भागों में बंटी हुई है-दस्सा और बीसा । धार्मिक मंच पर ये दोनों एक, किन्तु सामाजिक मंच पर अलग-अलग। आपस में रोटी-बेटी व्यवहार संबंध नहीं। वर्तमान में इस बंधन में शिथिलता आ गई है।
धर्म-सम्पूर्ण जाति अविच्छिन्न रूप से शुद्ध दिगम्बर जैन आम्नाय को मानती है। लेकिन बीस पंथ एवं तेरह पंथ भेद से इसमें दोनों मान्यताएं वाले हैं। पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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सामाजिक स्थिति-समाज की सदस्यता का आधार जन्म होता है। पितृ प्रधान परिवार पाए जाते हैं। संयुक्त परिवार में विश्वास है । दाया भाग में पुत्री को सम्मिलित नहीं करते। स्त्रियों की दशा सामान्य है तथा स्वयं को पराश्रिता मानती है । दैनिक पूजा पाठ, चौके की शुद्धता एवं खानपान में त्याग की भावना विशेष रहती है। लोग अधिकांश में देवदर्शन के बाद ही दिन में भोजन का कार्य सम्पन्न करते हैं । यह जाति पूर्ण शाकाहारी है। विवाह रीति रिवाज
यह लोग अन्तः समूह विवाह पद्धति में विश्वास करते हैं। एक बार किए हुए अन्तर्जातीय विवाह से उत्पन्न संतान को पद्मावतीपुरवाल जाति में सम्मिलित नहीं हो सकती। जाति मां से चलती है। विवाह निम्नलिखित सोपान में सम्पन्न होता है
वर की खोज- यह विवाह की प्रस्तुति है । वर कन्या से 4 वर्ष बड़ा होना अच्छा समझा जाता है । कन्या और वर में बारह वर्ष से अधिक अंतर निम्न स्तर का माना जाता है ।
वाग्दान - वर के पिता द्वारा दिया गया शादी का वचन वाग्दान कहा जाता है। वंश, गोत्र, परिवार में पाया जाने वाला दोष अथवा वर का कोढ़ी, पागल, अपराधी अथवा कन्या के दुराचारिणी पाए जाने पर यह वचन भंग किया जा सकता है।
गोद भरना - गोद एक स्नेह युक्त आत्मीयता प्रकट करने की रस्म थी जो मध्ययुगीन देन है। इसमें अधिकतम भेंट इक्कीस रुपये की निर्धारित थी। आज यह सुरसा का मुंह बनी हुई है। इस जाति का विकृत रूप जिन कारणों से हुआ, उनमें गोद की रस्म सर्वोपरि है। इसी गोद ने दहेज को जन्म देकर आज इस जाति के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।
इसके पश्चात अनेक छोटे-छोटे सोपान पूर्ण किये जाते हैं। इन सबके लिए नाई, नौकर, पाण्डे, मंदिर, माली की भेंटें एवं वर पक्ष के घरवालों पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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को भेटों के लिए दक्षिणा निर्धारित है। 17, 31, 51 रुपयों की सीमाएं थीं। अब एकमुश्त राशि का प्रचलन है।
नाम उतरवाना-वर के वंश के पूरे नाम कन्या पक्ष द्वारा मंगाने का रिवाज है। संभवतया इसका यह कारण प्रतीत होता है कि वर पक्ष की पारिवारिक दशा के संबंध में ज्ञान कन्या पक्ष को हो जाता है।
पीत पत्रिका-लग्न से पहले पीली चिट्ठी विवाह की प्रथम सूचना के रूप में भेजी जाती है।
लग्न भेजना-लग्न में जातीय पंचों के समक्ष चार आने, आठ आने या फिर एक रुपया विवाह का स्तर निर्धारित करने के उद्देश्य से कन्या पक्ष के यहां भेजा जाता है। यहीं से समस्त कार्य प्रारम्भ हो जाते हैं।
बारात का जाना-दूल्हा गाजे बाजे के साथ मंदिर में दर्शन करने के बाद पाणिग्रहण तिथि से एक दिन पूर्व कन्या पक्ष के यहां जाता है। प्राचीन काल में वर पक्ष स्वयं बारातियों को कच्चा खाना खिलाता था। इसे 'रूख रोटी' कहते थे। लेकिन आजकल यह प्रथा बन्द है। दूल्हा का कन्या पक्ष के दरवाजे पर पहुंचना बारात का चढ़ना कहा जाता है। यहां कन्या पक्ष से बर्तन, दूल्हे के कपड़े एवं 51/- रुपये से अधिक रुपया न देने का रिवाज है। आज भौतिक चकाचौंध एवं प्रदर्शन की भावना ने इसका रूप विकृत कर दिया है।
दूल्हे का पहनावा 'जामा' (क्षत्रिय पोशाक), फैंटाकटारी का बांधना, बारात का कन्या पक्ष के घर पहुंचने की विधि 'चढ़ाई करना', तीर चलाना आदि क्रियाएं होती हैं।
देवदर्शन-वर पक्ष सर्वप्रथम देवदर्शन के लिए जाता है और मंदिर में यथाशक्ति (विवाह के सार देखकर) दान की घोषणा करता है। पहले बिना देवदर्शन किए कन्या पक्ष का समस्त खानपान वर्जित था। पद्यावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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सजन मिलाप-दोपहर को दोनों पक्ष आपस में बड़े स्नेह और आदर के साथ एक दूसरे का परिचय देते हुए गले मिलते हैं। इसी शुभ लग्न में विवाह होने की लग्न छांटी जाती है।
विवाह-शुभ लग्न में पाण्डे महोदय के द्वारा पूजन के बाद सप्त पदी का कार्य होता है। इसी समय वर और कन्या दोनों को सात-सात वचन दिलाये जाते हैं जिन्हें स्वीकार कर लेने के बाद ही कन्या बाएं अंग आती
है।
लग्न संस्कार चार बांसों पर एक सफेद चादर बांधकर उसे आम के पत्तों से ढके मण्डप के नीचे कराया जाता है। पहले विवाह ब्राह्मणों द्वारा कराया जाता था पर अब जैन पाण्डे ही विवाह कराते हैं।
इस प्रकार सम्पूर्ण विवाह आगे होने वाले कार्यक्रमों के संकेतों से पूर्ण होता है।
वर्तमान स्थिति यों तो देश काल के द्वारा आए परिवर्तनों का प्रभाव प्रत्येक जाति पर पड़ता है और पड़ा भी है फिर भी पद्मावती पुरवाल अपनी मूल बातों को अभी तक नहीं भुला पाए हैं। दक्षिणी भारत उत्तरी भारत से कई बातों में भिन्न है। यह भिन्नता दक्षिण के नागपुर भाग में बसे हुए लगभग सात सौ पद्मावती पुरवाल परिवारों पर भी लागू होता है। चौके की मर्यादा प्रायः टूट चुकी है। भक्ष्य पदार्थों की भी उतनी मर्यादा अब नहीं रही। विवाहादि कार्य 8 घंटों में ही होते थे वे भी अब समाप्त होने लगे हैं। धीरे-धीरे अब रात्रि भोजन भी प्रायः चालू होता जा रहा है। व्यवसाय में भी यह जाति अन्य लोगों के साथ चल रही है। उत्तरी भारत में भी यह बातें धीरे-धीरे घुस रही हैं। जहां दक्षिण भारत की पद्मावती पुरवाल समाज वैवाहिक कार्यों, खान-पान एवं क्रिया काण्डों में शिथिल है, वहीं उत्तरी भारत के पद्मावती पुरवाल अपनी कट्टरता पर आज भी अधिकांश में दृढ़ दिखाई
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पड़ते हैं। नवीन पीढ़ी अवश्य ही मूलधारा से कटती जा रही है। दहेज और प्रदर्शन की भावना ने इस सदृढ़ किले में दसर डाल दी है। पैसों के लालच में दूसरी जातियों में विवाह होने लगे हैं।
विविध संस्थाओं की स्थापना एवं स्थापना में सहायक पद्मावती पुरवालब्र. गोरीलाल जी शास्त्री द्वारा1. 'पद्मावती पुरवाल' पत्र प्रकाशन 2. शास्त्रीय परिषद की स्थापना 3. जैन सिद्धान्त पत्र 4. 'पद्मावती संदेश' अ. श्रीलाल काव्यतीर्थ1. जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था 2. 'विनोद' मासिक पत्र 3. टेहू ग्राम में पार्श्वनाथ दि. जैन संस्कृत विद्यालय श्री अजितकीर्य जी1. टेहू में संस्कृत विद्यालय हाईस्कूल पं. अजितकुमार जी शास्त्री1. जैन प्रमादर्श मासिकी के संपादक 2. खण्डेलवाल जैन हितेच्छु (बिना नाम के संपादन किया) 3. महावीर के श्रेय मार्ग
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श्री जगरूप सहाय जी1. 'पद्मावती संदेश' के प्रकाशन, स्थापन में सहयोग के साथ सहायक संपादक रहे। प्राचार्य नरेन्द्र प्रकाश जी1. आचार्य विमलसागर जैन विद्यालय 2. सम्पादन
1. पद्मावती संदेश
2. अमृत 3. जैन संस्कृति 4. युग परिवर्तन श्री भगवतस्वरूप जी1. हाईस्कूल की स्थापना की जो अब कालिज के रूप में श्री अनूपचन्द जैन एडवोकेट1. मासिक विधि-पत्रिका का सम्पादन पंडित कंचनलाल जी1. दि. जैन सन्मार्ग समिति 2. महिला मंडल 3. पी.डी. जैन विद्यालय की जारखी ग्राम में स्थापना में सहयोग। पं. कुंजीलाल जी1. हस्तलिखित पत्रिका 'चन्द्रिका' का सम्पादन 2. 'मार्तण्ड' तथा 'बालकेशरी' का प्रकाशन 3. 'जैन गजट' (सम्पादन) 209
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पं. बनवारी लाल जी स्यावादी1. 'नवभारत टाइम्स' में व्यापार संपादक 2. 'वीर' के संपादक श्री राजकुमार जी शास्त्री1. 'अहिंसा वाणी' के संपादक 2. “ग्राम सुधार' पत्रिका का संपादन श्री पन्नालाल जैन सरल1. 'ग्राम्य जीवन' साप्ताहिक पं. लाल बहादुर जी शास्त्री1. 'जैन संदेश' के संपादक 2. 'जैन दर्शन' (साप्ताहिक) श्री शिवमुखराय शास्त्री1. मारोठ में हाईस्कूल की स्थापना 2. श्री ऋषभचंद जैन गोधा उच्चतर माध्यमिक विद्यालय श्री धनपतराय जैन 1. कलकत्ता के उत्तरपाड़ा में जिन मंदिर बनवाया। श्री जुगमंदिर दास जैन1. पद्मावती पुरवाल जैन डायरेक्टरी का कलकत्ता से प्रकाशन कराया। 2. 'पद्मावती संदेश' का प्रकाशन पं. हेमचन्द्र जी कौन्देय
1. सहारनपुर में रात्रि विद्यालय की स्थापना पपावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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श्री रामस्वरूप जैन भारतीय
1. पद्यावती संदेश के संपादक
2. लखनऊ महासभा समाचार 3. अग्रवाल हितैषी
4. देवेन्द्र
5. वीर भारत
6. ग्राम्य जीवन साप्ताहिकी
7. नवभारत
8. जैन मार्तण्ड
9. महावीर
उपरोक्त सभी का सम्पादन
प्रमुख जैन पत्र 'जैन गजट' ( जो 100 वर्ष से प्रकाशित है ।) के
पद्मावती पुरवाल सम्पादक
पं. अजितकुमार जी शास्त्री
पं. लालाराम जी शास्त्री (साप्ताहिकी)
पं. रघुनाथ प्रसाद जी
श्री धन्यकुमार जैन
पं. मक्खनलाल जी 'न्यायालंकार'
पं. लाल बहादुर जी शास्त्री
पं. कुन्जीलाल जी शास्त्री
पं. श्यामसुन्दर लाल जी शास्त्री
प्राचार्य नरेन्द्र प्रकाश जैन ( वर्तमान सम्पादक)
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ग्राम पंचायत एवं टाऊन एरिया में पदाधिकारी1. ग्राम पंचायत के प्रधान-पांडे कंचनलाल 2. ग्राम पंचायत के प्रधान-श्री धन्यकुमार जैन, अवागढ़ 3. अवागढ़ ग्राम पंचायत के सरपंच-श्री सुनहरीलाल जैन 4. ग्राम सभा मुहमदी के प्रधान-श्री हुन्डीलाल जैन 5. टाउन एरिया के चेयरमैन-श्री धन्यकुमार जैन 6. टाउन एरिया के चेयरमैन-श्री भगवान स्वरूप जैन नगरपालिकाओं में1. नगरपालिका अध्यक्ष-रायबहादुर नेमीचंद जी 2. नगरपालिका (निवाइ) चेयरमैन-पं. राजकुमार जी शास्त्री ग्वालियर राज्य में औकाफ कमेटी के सदस्य स्व. पं. मक्खनलाल जी शास्त्री मोरेना में आनरेरी मजिस्ट्रेट स्व. पं. मक्खनलाल जी शास्त्री
आंखें
एक बालक भीख मांग रहा था। वह अन्धा था। किसी ने कहा- 'तुम पैसा क्यों मांगते हो, आंखें मांग लो'। बालक ने कहा-जिसके पास जो है वही मांगता हूं। लोगों के पास पैसा तो है, पर आंखें नहीं हैं।
तीर्थंकर का एक विशेषण है-'चक्खुदयाणं' अर्थात् चक्षुदाता। दृष्टिकोण का बदलना ही आंख वाला होना है। आवश्यकता है कि हम भी इस वास्तविकता को समझें।
-जैन गजट, 26 मार्च, 2001 पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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पार्गशष्ट -
एक झरोखा दिल्ली पद्मावतीपुरवाल पंचायत का
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TANANAS
卐卐卐 IANANAS
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श्री पद्मावतीपुरखाल दिगम्बर जैन पंचायत (पंजी.),
. मस्जिद खजूर, धर्मपुरा, दिल्ली-6
प्रस्तुति-प्रताप जैन
सतीश जैन (गुड्डू भाई) मंत्री पंचायत पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन पंचायत धर्मपुरा, दिल्ली-6, दिल्ली प्रदेश में रहने वाले पद्मावतीपुरवाल जाति के प्रत्येक व्यक्ति की सामाजिक दृष्टि से जननी है। समय की आवश्यकता और बदलते संदर्भो में नवगठित संस्थाओं और दिल्ली के दूर दराज क्षेत्रों में रहने वाले परिवारों की भी पंचायत संरक्षिका है। हमें इस बात के लिए संकल्पबद्ध होना चाहिए कि पंचायत की गरिमा की रक्षा करते हुए पद्मावतीपुरवाल जाति के उत्थान के लिए कार्य करें ताकि पद्मावतीपुरवाल जाति एवं पंचायत का गौरव सुरक्षित रह सके।
सन् 1880 से 1910/11 तक उत्तर प्रदेश के विभिन्न गांवों, कस्बों और शहरों से पद्मावतीपुरवाल जाति के कई परिवार दिल्ली में आकर दिगम्बर जैन मंदिरों के आसपास बस गये। इन लोगों का आपस में सम्पर्क तो रहता था पर कोई संगठन नहीं था। सन् 1911 में जार्ज पंचम के राज दरबार के बाद दिल्ली में रहने वाले प.पु. जाति के लोगों ने अपना अलग जातीय संगठन, अपनी एक धर्मशाला और मंदिर बनाने की आवश्यकता अनुभव की। पुरानी कहावत है कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है। इस प्रकार दिल्ली में प.पु. जाति के संगठन/पंचायत की नींव पड़ी।
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जातीय संगठन की भावनाओं के बीजारोपण को चिंतन-मनन और सहयोग की हवा, पानी और खाद मिलने पर उसमें अंकुर निकलना और उसका फलीभूत होना स्वाभाविक परिणति है । यही हुआ दिल्ली की पद्मावतीपुरवाल पंचायत के साथ |
1924-25 तक उक्त संगठन ने मस्जिद खजूर धर्मपुरा में अपने लिये एक मकान की व्यवस्था कर ली। उसके उपयोग (धर्मशाला बने या मंदिर) को लेकर संगठन में मतभेद हो गए। एक पक्ष के कुछ लोगों ने मकान में सफेदी कराके सफाई करायी और मकान में पहले से ही बने अल्मारी नुमा आले में जिन प्रतिबिम्ब लाकर विराजमान कर दिये 1 परिणाम स्वरूप बिखराव और विवाद सीमा से आगे बढ़ा पर निमित्त कारण जुटने और काललब्धि आने पर समाज पुनः एकजुट होने लगा । 1935-36 तक कई और परिवार यहां आकर बस गये। इससे जाति की शक्ति एवं कार्य क्षेत्र और अधिक बढ़ा । परिणामस्वरूप पंचायत में 1938-39 में अस्थायी मंदिर का जीर्णोद्धार करके स्थायी मंदिर बनाने का पंचायत ने संकल्प कर लिया। लगभग तीन-चार वर्ष में जीर्णोद्धार का कार्य पूरा हुआ। तत्पश्चात 1942-43 में वेदी प्रतिष्ठा महोत्सव बड़े उत्साह और उमंग के साथ मनाया गया। इस प्रकार आत्म कल्याण की ज्योति जलाने वाले मंदिर जी और बाद में तत्कालीन परिस्थितियों में जातीय गौरव की अनुभूति कराने वाली पंचायती धर्मशाला का निर्माण हुआ । पंचायत का विधान बनाकर उसे पंजीकृत कराया।
भारत के विभिन्न अंचलों से पद्मावती पुरवाल जाति के परिवारों के दिल्ली आकर बसने वाले महापुरुषों के जीवन की यह सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि रही। एक विशेष बात और कि इन लोगों ने अपनी गौरवगाथा लिखने के लिये कहीं प्रमाण नहीं छोड़े। उनका इतिहास अथवा कीर्ति स्तम्भ तो मंदिरजी और धर्मशाला ही है। बाद में विभिन्न अध्यक्षों के नेतृत्व में बनी नई कार्यकारिणियों ने अपने जातीय गौरव की रक्षा करके पद्मावतीपुरवाल
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जाति की सतत् सेवा की, आओ हम भी उन प्रेरक प्रसंगों को दोहराएं
'अगस्त 2004, में वर्तमान कार्यकारिणी के चुनाव से पूर्व 2001 में हुए चुनाव में कार्यकारिणी के लिए श्री पदमचन्द जैन दरीबां कला, अध्यक्ष श्री अतुल जैन, मंत्री और श्री शुक्लचन्द जैन चौधरी निर्वाचित हुए थे। इस कार्यकारिणी के कार्यकाल में ही लगभग 60 वर्ष पूर्व निर्मित पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन पंचायती मंदिर धर्मपुरा दिल्ली के जीर्णोद्धार का ऐतिहासिक एवं अति मंगलकारी कार्य सम्पन्न हुआ।
प्रचार और प्रसार से दूर रहने वाले हम अपने उन पुरखों के जीवन चरित्र को उपलब्ध जानकारियों के आधार पर तथ्यों के एकीकरण के रूप में स्वीकार करें। कहीं त्रुटि लगे तो क्षमा करें। हमारा एक मात्र उद्देश्य उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना है। साथ ही हम उन्नतशील समाज की कल्पना करें और उसी के अनुरूप संगठित होकर समर्पण से कार्य करें तभी प्रगति संभव है, केवल बैठे-बैठे एक दूसरे की आलोचना करने से कुछ नहीं होगा।
वर्तमान कार्यकारिणी सर्वश्री रमेशचन्द जैन कागजी अध्यक्ष, पदमचन्द जैन-(एक्स आफीसियो चेयरमैन), देवसेन जैन-उपाध्यक्ष, सतीश जैन (गुड्ड भाई)-मंत्री, अतुल जैन-कोषाध्यक्ष, संतोषचन्द जैन कागजी-मंदिर प्रबंधक, अनिल कुमार जैन-धर्मशाला प्रबन्धक, मनोज जैन-सहमंत्री, शुक्लचंद जैन-चौधरी, प्रमोदकुमार जैन-लेखा निरीक्षक, सदस्य-सर्वश्री राकेश जैन, अनिलकुमार जैन, ललित जैन, पंकज जैन, प्रताप जैन, सुशीलकुमार जैन, जैन प्रकाश जैन, आनन्द जैन, विजयकुमार जैन, बादल जैन, मुकेश जैन, वृजमोहन जैन, पवन जैन, जितेन्द्र जैन।
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जीवंत समाज अपने इतिहास के महापुरुषों अर्थात पूर्वजों में अच्छी और प्रेरणादायी बातें खोज कर उन्हें रेखांकित करता है और विकृत समाज उनके दुर्बल पक्ष को । आओ हम सब मिलकर उन महापुरुषों की इस उपलब्धि को नमन कर अपने धार्मिक और सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रति अधिक जागरूक और निष्ठावान बनने का संकल्प करें।
स्व. श्री जमनादास चूहालाल, दिल्ली गेट
सन् 1880 के आसपास एटा जिले में पैड़त जनपद के प्रमुख जमींदार श्री बिहारीलाल जैन के दो पुत्र श्री जमनादास और चूहालाल दिल्ली आये और मुगलकालीन श्री दिगम्बर जैन मंदिर दिल्ली गेट के पास रहने लगे। यहां पर दोनों भाइयों ने अनाज की आड़त और भुने चने का व्यवसाय किया। प्रभु कृपा से व्यवसाय में अच्छी आय होने पर इन्होंने मंदिरजी के सामने फूटा गड्ढे में एक कच्चा मकान खरीद लिया। इसके बाद तिराहे बैराम खां में सोने-चांदी का काम किया। सुरक्षा की दृष्टि से अपने कच्चे मकान की पक्की हवेली बनवा ही रहे थे कि उनके घर डाका पड़ गया। माल की रक्षा में चूहेलाल को काफी चोट आई। समुचित उपचार के बाद भी वे स्वस्थ नहीं हो सके और 1940 में उनका स्वर्गवास हो गया। श्री चूहेलाल के कोई संतान नहीं थी ।
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श्री जमनादासजी श्री चूहेलालजी के बड़े भाई थे। वे कुशल व्यवसायी, दूरदृष्टि और धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। सन 1911 में दिल्ली में रहने वाले पद्मावती पुरवाल जाति के लोगों को संगठित करने में आपका बड़ा योगदान था । संगठन को आगे बढ़ाने और आपसी विवाद निबटाने में उनकी भूमिका पंच जैसी रहती थी। पद्मावती पुरवाल जाति द्वारा स्थापित अस्थायी मंदिर को स्थायी बनाने और समाज को पुनर्गठित करने में पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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आपकी भी प्रमुख भूमिका रही। मंदिर जी का निर्माण पूर्णता की ओर था, साथ ही वेदी प्रतिष्ठा महोत्सव की योजना बन रही थी इसी बीच 1941 में श्री जमनादासजी का स्वर्गवास हो गया।
श्री जमनादासजी के दो पुत्र श्री राजकिशोर एवं श्री जगतकिशोर हुए। श्री जगतकिशोर जी की पत्नी अपने पिताजी के यहां अवागढ़ गईं थीं वहीं उनका स्वर्गवास हो गया। उनके बच्चे अपनी मां के स्वर्गवास के बाद नानी के पास ही रहे। श्री जगतकिशोर जी का दिल्ली में 1976 में स्वर्गवास हो गया।
पारिवारिक विवाद के कारण श्री राजकिशोर जी 1950 में अपना घर छोड़कर अज्ञातवास के लिये चले गये। घर छोड़कर जाने के 9 वर्ष बाद उनकी दूसरी पुत्री कु. मित्रा की जब शादी हो रही थी, उस समय श्री राजकिशोर जी घर वापस आ गये। परिवार और समाज में खुशी छा गई। पर इस खुशी के आने से लगभग 15 दिन पूर्व उनकी चाची का स्वर्गवास हो गया। श्री राजकिशोर जी की अनुपस्थिति में उनकी मां और चाची ने कुशलतापूर्वक घर संभाला था। __ श्री राजकिशोर जी के सर्वश्री मित्रसेन, देवसेन, नरेन्द्रकुमार और श्री सुरेन्द्रकुमार चार पुत्र हुए। श्री राजकिशोर जी का 1982 में स्वर्गवास हो गया। श्री मित्रसेन का भी 1999 में स्वर्गवास हो गया। उनके दो पुत्र हैं। श्री देवसैन के तीन और श्री नरेन्द्रकुमार के एक पुत्र है। श्री सुरेन्द्रकुमार निःसंतान हैं। श्री देवसेन जी वर्तमान में टेंट का व्यवसाय करते हैं। पिछले लगभग 5 वर्ष से वे पद्मावती पुरवाल पंचायत के उपाध्यक्ष हैं। राजनीति में कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता और मंडल में पदाधिकारी हैं। श्री नरेन्द्रकुमार जैन दवाइयों का थोक व्यापार करते हैं। धार्मिक और सामाजिक कार्यों में उनकी रुचि है। सभी धर्मिक और सामाजिक कार्यों में अपना योगदान देते हैं।
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स्व. श्री बनारसीदासजी बर्तन वाले एटा जिले के रामगढ़ ग्राम के श्री ठाकुरदास जी के दो पुत्र श्री गुलजारीलालजी और श्री बनारसीदासजी व्यवसाय की तलाश में दिल्ली आये। यहां आकर उन्होंने अनाज और हलवाई की दुकान की। गांव में मां के स्वर्गवास के बाद उनके छोटे भाई श्री बाबूलालजी भी दिल्ली आ गये। तीनों भाइयों की शादियां यहीं पर हुई। दिल्ली आने पर बाबूलाल जी ने सी.पी.डब्ल्यू.डी. में ठेकेदारी और सेना में माल सप्लाई करने का काम शुरू किया। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान अनेक युवाओं को उन्होंने सेना में भर्ती कराया। युद्ध समाप्ति पर वायसराय हिन्द ने इनकी सेवाओं से प्रसन्न होकर एक प्रशस्ति पत्र उन्हें प्रदान किया। 'इंडिया गेट' पर लिखित नामों में इनका भी नाम लिखा हुआ है ऐसा बताया जाता है। श्री बाबूलाल जी की पत्नी एम.ए. पास थीं। वह एक कन्या विद्यालय की प्रधान अध्यापिका थीं.। इनके कोई पुत्र नहीं था, केवल पुत्रियां ही थीं। उन्होंने उन पुत्रियों को भी उच्च शिक्षा दिलाई। 1937 में बाबूलाल जी की . पत्नी का स्वर्गवास हो गया। श्री बाबूलाल जी 1942 के स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ गये। 1955 में श्री बाबूलाल जी का स्वर्गवास हो गया।
श्री बनारसीदास जी के बड़े भाई श्री गुलजारीलालजी धार्मिक प्रवृत्ति के समाज सेवी थे। इनके कोई संतान नहीं थी। श्री गुलजारीलालजी ने श्री बनारसीदास जी के बच्चों को ही अपना बच्चा माना। पत्नी के स्वर्गवास के बाद उन्होंने पुनर्विवाह न करके पहले ब्रह्मचर्य व्रत और बाद में 7 प्रतिमाएं धारण कर लीं। 1950 में उनका स्वर्गवास हो गया। ___ श्री बनारसीदास जी ने चांदनी चौक में सुनहरी मस्जिद के पास बर्तनों की दुकान की। व्यवसाय में उन्होंने अच्छी प्रगति की और कई मकान खरीदे। सन् 1923 में धर्मपुरा मस्जिद खजूर में एक बहुत बड़ा मकान खरीदा। उनके उत्तराधिकारी उसी मकान में उसी समय से रहते चले आ रहे हैं। पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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दिल्ली में रहने वाले पद्मावती पुरवाल जाति के लोगों में एक जातीय संगठन बनाने का जो भाव 1911 में बना, उसे मूर्तरूप देने में अन्य प्रमुख लोगों के साथ-साथ श्री बनारसीदास जी की भी अहम् भूमिका रही। पंचायत में उनकी पंच जैसी स्थिति रही। 1935 में श्री बनारसीदास जी का स्वर्गवास हो गया। ___ श्री बनारसीदास के श्री पद्मचन्द जी और शुकलचन्द जी दो पुत्र हैं। श्री पदमचन्द जी के तीन पुत्र हैं। इनमें एक पुत्र श्री मनोज पंचायत की वर्तमान कार्यकारिणी में सहमंत्री हैं। श्री शुकलचन्द जी स्वयं पिछले लगभग 20 वर्षों से पंचायत के चौधरी हैं। उनके इकलौते पुत्र श्री अनिल जैन काफी समय से धर्मशाला का प्रबंधक के रूप में कार्य देख रहे हैं। लगभग पूरा परिवार प्रतिदिन भगवान का अभिषेक और पूजन पाठ करता है। सभी धार्मिक आयोजनों में गहरी रुचि लेते हैं। मंदिरजी के सामने ही निवास और व्यवसाय होने के कारण पंचायत के कार्य निष्पादन में इस परिवार का बड़ा योगदान है।
स्व. श्री वृन्दावनदास जैन सन् 1888 के आसपास एटा जिले के गांव होच्ची में रहने वाले धर्मनिष्ठ श्री चुन्नीलाल जी के 12 वर्षीय पुत्र श्री वृन्दावनदास जी दिल्ली में आकर जैन परिवारों के गढ़ धर्मपुरा में रहे और यहीं उन्होंने पंसारी की दुकान से अपनी रोजी-रोटी की व्यवस्था की। यथासमय उनका विवाह हुआ और कई संतानों की बाल मृत्यु के पश्चात् उन्हें क्रमशः तीन पुत्रों के सुख की अनुभूति हुई। ____1911 में पद्मावती पुरवाल पंचायत की स्थापना की प्रारम्भिक भूमिका से अपने जीवन के अंत समय तक वे पूरी तरह सक्रिय (जुड़े) रहे। धार्मिक भावना से ओत-प्रोत, स्वभाव से विनम्र और मिलनसार श्री
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वृन्दावनदासजी ने क्षेत्र में अपनी अच्छी धाक जमाई। 1924-25 में पंचायत के लिए एक मकान की व्यवस्था हो जाने के बाद उसके उपयोग को लेकर उठे विवाद से उनका मन बड़ा खिन्न रहा । अस्थायी रूप से उसमें मंदिर बन जाने के बाद उनके मन में उस मन्दिर जी को स्थायी और भव्य रूप में देखने की तीव्र आकांक्षा रही, पर 1937 में ही स्वर्गवास हो जाने के कारण उनकी वह इच्छा पूरी नहीं हो सकी। बाद में उनके परिवारजनों ने पंचायत और मंदिरजी को पूरा सहयोग दे कर अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह किया ।
श्री वृन्दावनदास जी के बड़े पुत्र श्री फकीरचन्द जी मिलनसार, खुशमिजाज और सामाजिक व्यक्ति थे। वे पंचायत के सह-सचिव थे । यकायक हृदय गति रुक जाने से 1955 में उनका स्वर्गवास हो गया। उस समय उनके तीनों पुत्र बहुत छोटे थे। घर की एकजुटता ने परिवार की शान को बनाये रखा। उनके बड़े पुत्र श्री रमेशचन्द जी ने परिवार के साथ-साथ पंचायत की जिम्मेदारी भी सफलतापूर्वक निभाई। लगभग 12 वर्ष तक वे धर्मशाला के प्रबन्धक रहे। इसी बीच श्री फकीरचन्द जी के दूसरे पुत्र श्री सुरेशचन्द जी की एक दुर्घटना में 1973 में मृत्यु हो गई । उनका पुत्र राजेश जैन उत्साही लड़का है। लगभग 11 वर्ष बाद 1984 में श्री रमेशचन्द जी के इकलौते पुत्र राजीव जैन का एक दुर्घटना में स्वर्गवास हो गया। पूरा परिवार शोक में डूब गया। पर धर्म में आस्था रखने वाला विपदाओं से शीघ्र उभर जाता है। समय के साथ-साथ परिवारजन संभले । वैसे वह अभाव कभी भर नहीं सका। 29-8-94 को पंचायत ने श्री रमेश जी को सर्वसम्मति से अपना अध्यक्ष चुना। पंचायत ने श्री रमेश चन्दजी को अगस्त 2004 में पुनः अध्यक्ष चुना। पिछले कार्यकाल में अनेक उपलब्धियां रहीं। श्री फकीरचन्द जी के तृतीय पुत्र श्री नरेश चन्द जैन कागज के ख्यातिप्राप्त व्यापारी हैं। वे खरे और स्पष्टवादी होने के कारण संस्थाओं में पदों से दूर रहते हैं पर सभी आयोजनों में यथोचित अपना योगदान देते हैं। पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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श्री वृन्दावनदास जी के दूसरे पुत्र श्री महावीर प्रसाद जी ने अपने पुश्तैनी कार्य को आगे बढ़ाते हुए राशन की दुकान कस्ली। काफी समय तक वे पंचायत के कोषाध्यक्ष रहे। उनके इकलौते पुत्र श्री आशू जैन कुंचा महाजनी में चांदी का व्यवसाय करते हैं। 2001 में श्री महावीर प्रसाद जी का स्वर्गवास हो गया। श्री आशु जैन सामाजिक गतिविधियों की ओर सक्रिय हो रहे हैं।
श्री वृन्दावनदास जी के तृतीय पुत्र श्री विमल किशोर जी पिताजी द्वारा स्थापित दुकान पर रहे। अपनी मेहनत और मिलनसारिता से काम को आगे बढ़ाया साथ ही अपने तीनों पुत्रों को कपड़े के व्यापार की ओर प्रेरित किया। कपड़े व्यापार में आज उनकी अच्छी साख है। श्री विमलकिशोर जी अनेक धार्मिक और सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। पंचायत के कार्यों में उनका योगदान निरंतर बना रहता है। उनके पुत्र श्री एस. कान्त जैन, पद्मावती पुरवाल पंचायत की पिछली कार्यकारिणी में सदस्य भी रहे हैं। पूरा परिवार धार्मिक और खुशहाल है।
स्व. पंडित बनवारी लाल जैन स्याद्वादी एटा जिले में मरथरा जनपद के श्री सेवती लाल जैन 'सिरमोर' परिवार के पुत्र श्री बनवारीलाल जी विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। गांव मरथरा से शिक्षा के लिए मुरैना गये। 1918-19 में वहां से दिल्ली आकर उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से इंगलिश में स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण करते ही दिल्ली से प्रकाशित होने वाले पत्र 'जैन गजट' में मैनेजर के पद पर कार्य करना शुरू कर दिया। धर्म और जाति के प्रति उन्हें बड़ा लगाव था। धर्मपुरा की भूत वाली गली में वे रहते थे। उनकी योग्यता से प्रभावित होकर कूचा सेठ के जैन कामर्शियल स्कूल में अध्यापक के पद पर उनकी नियुक्ति तत्कालीन प्रबंध समिति ने की। वहां उन्होंने लगभग 20 वर्ष अध्यापन का कार्य किया।
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पुनर्गठित पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन पंचायत के प्रथम मंत्री चुने गये। लगभग 32 वर्षों तक इस पद पर रहकर उन्होंने पंचायत की सेवा की। उनके इस कार्यकाल में ही मंदिरजी का जीर्णोद्धार और वेदी प्रतिष्ठा साथ ही धर्मशाला के निर्माण की भूमिका बनी। संविधान बना और पंचायत पंजीकृत कराने के प्रयास हुए।
कामर्शियल स्कूल कूचा सेठ में अध्यापक रहते हुए ही उनकी नियुक्ति 'नवभारत टाइम्स' में व्यापार सम्पादक के रूप में हुई। वहां लगभग 15 वर्ष उन्होंने सेवा की। वहां से सेवा निवृत्ति के पूर्व उन्होंने 'ब्रह्मगुलाल मुनि' नामक शोध ग्रंथ लिखकर डाक्टर की पदवी प्राप्त की। इस पुस्तक के माध्यम से उन्होंने पद्मावती पुरवाल जाति की अतुलनीय सेवा की। 5 नवम्बर 1988 को उनका स्वर्गवास हो गया।
इंजीनियर देवेन्द्रकुमार जैन (इंगलैंड) कमलकुमार जैन, ( इंगलैंड) और जगदीशचन्द्र जैन आपके तीन योग्य पुत्र हैं। जगदीशचन्द जैन (नवभारत टाइम्स) साहित्यिक, सामाजिक और धार्मिक गतिविधियों में भाग लेते और सहयोग देते है । पूरा परिवार शिक्षित और मिलनसार है।
स्व. श्री अमृतलालजी रोगन वाले
पुत्र
आगरा जिले के नगला स्वरूप के एक युवक श्री अमृतलाल जी श्री फूलचन्द 'जी ने 1910-11 के आस-पास दिल्ली आकर रोजगार का साधन जुटाया। तत्पश्चात् जारखी के एक संभ्रात परिवार की कन्या से आपका विवाह हो गया। कई वर्षों के बाद एक बालक के जन्म के साथ परिवार में खुशहाली आई। इस होनहार बालक का नाम महावीर प्रसाद रखा गया। श्री महावीर प्रसाद जी जब 8-9 वर्ष के ही थे तभी उनकी मां यानी श्री अमृतलाल जी की पत्नी का स्वर्गवास हो गया। श्री अमृत लाल पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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जी ने श्री महावीर प्रसाद जी को मां और बाप दोनों का प्यार दिया। पुनर्विवाह नहीं किया। श्री महावीरप्रसाद जी की प्राइमरी शिक्षा पूरी होते ही उन्हें मथुरा के गुरुकुल में पढ़ने के लिए भेज दिया। शिक्षा प्राप्त कर वापस आने के बाद भी उन्होंने और शिक्षा प्राप्त की। साथ ही पिताजी के साथ उस कार्य को आगे बढ़ाया। 1949 में श्री महावीर प्रसाद जी का चमकरी के एक प्रतिष्ठित परिवार की कन्या के साथ विवाह हो गया। थोड़े ही दिनों में परिवार में एक फूल खिला। यह थी उस परिवार की खुशियों की शुरुआत।
श्री महावीरप्रसाद जी अपने क्षेत्र में और श्री अमृतलाल जी अपने क्षेत्र में निरंतर जागरुक और सक्रिय रहे। दिल्ली में पद्मावती पुरवाल दिगम्बर जैन पंचायत के गठन, मंदिर के निर्माण, जीर्णोद्धार और वेदी प्रतिष्ठा महोत्सव तक श्री अमृतलालजी पूरी तरह सक्रिय रहे। 1981 में श्री अमृतलालजी का स्वर्गवास हो गया। उनके पुत्र श्री महावीरप्रसाद जी पंचायत के कोषाध्यक्ष और बाद में अध्यक्ष निर्वाचित हुए। उनके नेतृत्व में बनी कार्यकारिणी के कार्य काल में दिल्ली की पद्मावतीपुरवाल जाति में पारस्परिक सहयोग और समाव का वातावरण बना। श्री महावीरप्रसाद जी के पुत्र श्री राजेन्द्रकुमार पंचायत की पिछली कार्यकारिणी में और दूसरे पुत्र श्री पवनकुमार वर्तमान कार्यकारिणी के सदस्य हैं। परिवार में सम्पन्नता, एकता और धर्म के प्रति समर्पण है।
स्व. श्री मुंशीलाल जैन कागजी आगरा जिले के खैरगढ़ जनपद के श्री मुंशीलाल जी 1917-18 में दिल्ली आये। धर्मपुरा में अपना निवास बनाकर चावड़ी बाजार में कागज का काम शुरू किया। 1924 में श्री सुखनन्दलाल जी की कन्या से इनका
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विवाह हुआ। कुछ समय बाद इस परिवार में एक बालक का जन्म हआ। पद्मावती पुरवाल पंचायत के अस्थायी मंदिर को स्थायी और भव्य बनाने में उनका पर्याप्त योगदान रहा। श्री बनारसीदास जी के स्वर्गवास के पश्चात पंचायत का सारा काम श्री मुंशीलाल जी की देख रेख में ही होता था। 1942-43 में मंदिरजी की वेदी प्रतिष्ठा महोत्सव बड़ी शान और उत्साह से मनाया गया। पंचायत का विधान बना और पंजीकरण हुआ। (1948 में हुए चुनाव में आप पंचायत के अध्यक्ष चुने गये और मृत्यु होने तक (1951) उसके अध्यक्ष रहे।
श्री मुंशीलाल जी स्वभाव से विनम्र, मिलनसार और धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। कागज के कुशल व्यापारी के रूप में बाजार में आपकी साख थी। श्री मुंशीलाल जी के साथ उनके प्रथम और द्वितीय पुत्र श्री प्रकाशचन्द जैन और श्री सुमेरचन्द जैन भी इसी दुकान पर बैठते थे। श्री मुंशी लाल जी का 1951 में स्वर्गवास हुआ। उनके तीसरे पुत्र श्री संतोषचन्द जी ने भी यही व्यवसाय अपनाया। बाद में सदर बाजार में एक दुकान और ली गई। श्री सुमेरचन्द जी पूरे परिवार की कुशलतापूर्वक देखभाल करते और परिवार को आगे बढ़ाते रहे हैं। श्री प्रकाशचन्द जी का 1984 में स्वर्गवास हो गया। विकास जैन उनका पुत्र है। श्री मुंशी लाल जी के दूसरे पुत्र श्री सुमेरचन्द जी पंचायत के कोषाध्यक्ष रहे हैं। इनके 4 पुत्र हैं। इनमें से श्री राकेश जैन पंचायत की पिछली कार्यकारिणी में सदस्य रहे हैं। श्री मुंशीलाल जी के तीसरे पुत्र श्री संतोषचन्द जी वर्तमान में कागज की पुरानी दुकान पर ही बैठते हैं। मंदिर जी में नितप्रति अभिषेक और पूजन करते हैं। श्री संतोषचंद जी इससे पहले भी काफी समय तक मंदिर जी के प्रबंधक रहे हैं। वर्तमान कार्यकारिणी में भी मंदिर प्रबंधक हैं। आप स्वभाव से विनम्र और मिलनसार हैं। आपके पांच पुत्र हैं।
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स्व. श्री श्रीलाल बिजली वाले पुत्र पं. कंचनलालजी
आगरा जिले के आलम्पुर जनपद के पं. कंचनलालजी के ज्येष्ठ पुत्र श्री श्रीलाल जी 1906 के आसपास दिल्ली आये। चाँदनी चौक दिल्ली में बिजली की दुकान पर उन्होंने काम किया। जीवन निर्वाह की समुचित व्यवस्था होने से उन्होंने अपने पिताजी को सपरिवार दिल्ली बुला लिया। पं. कंचनलाल जी उच्च कोटि के शिक्षक और जैन आगम के अच्छे विद्वान थे। धर्मपुरा में उस समय रहने वाले अधिकांश बच्चों को उन्होंने भौतिक और आध्यात्मिक शिक्षा दी। वे आत्म विश्वासी और उत्साही व्यक्ति थे। पद्मावती पुरवाल पंचायत के गठन से लेकर अपने जीवन के अंतिम समय 1929-30 तक पं. कंचनलाल जी उससे निरंतर जुड़े रहे।
श्री श्रीलाल जी दृढ़ संकल्पी, अनुशासन प्रिय और कुशल व्यापारी थे। वे पंचायत की कार्यकारिणी के सदस्य, कोषाध्यक्ष, और अध्यक्ष भी रहे। उनके दो पुत्र श्री जैन प्रकाश और श्री अमर कुमार हैं। दोनों ही बिजली का सामान बनाते और बेचते हैं। श्री अमरकुमार जी धार्मिक और सामाजिक कार्यकर्ता थे। लगभग तीन वर्ष पूर्व उनका स्वर्गवास हो गया। श्री अमरकुमार जी के दो पुत्र सर्वश्री अजय जैन और संजय जैन हैं। श्रीलाल जी के बड़े पुत्र श्री जैन प्रकाश उत्साही और धर्मनिष्ठ हैं। वर्तमान में वे पंचायत की कार्यकारिणी के सदस्य हैं। आपके दो पुत्र हैं।
पंडित जी के दूसरे पुत्र श्री श्रीचन्द जी ने दिल्ली में आकर कपड़े के प्रसिद्ध व्यापारी सर्वश्री मुंशीलाल अजित प्रसाद जैन की कोठी में काम किया और जीवन पर्यन्त (1968) तक वहीं कार्य करते रहे। श्री श्रीचन्द जी के सर्वश्री प्रभाशचन्द, वीरेन्द्र कुमार और देवेन्द्र कुमार पुत्र हैं। सर्वश्री प्रभाशचन्द जी प्राइवेट ठेकेदार के यहां काम करते थे। 1985 में इनका स्वर्गवास हो गया। सर्वश्री सतीशकुमार, प्रदीपकुमार और अरुणकुमार इनके तीन पुत्र हैं। तीनों ही पुत्र शिक्षा प्राप्त हैं। श्री श्रीचन्दजी के दूसरे
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पुत्र श्री वीरेन्द्रकुमार भारत सरकार के ए. जी. सी. आर. विभाग में कार्यरत थे। श्री वीरेन्द्र जी प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी थे। 1972 में पंचायत द्वारा प्रकाशित जनगणना डाइरेक्ट्री के सम्पादक मंडल में वे सदस्य थे । बाद में वह पंचायत के कोषाध्यक्ष भी रहे। सेवा निवृत्त के बाद 1996 में उनका स्वर्गवास हो गया। श्री आलोक जैन उनके पुत्र हैं। श्री श्रीचन्द जी के तृतीय पुत्र श्री देवेन्द्र कुमार भी धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक कार्यकर्ता थे। श्री देवेन्द्र कुमार बैंक में सर्विस करते थे । 1991 में उनका स्वर्गवास हो गया। उनका एक पुत्र है।
पंडित जी के तीसरे पुत्र श्री प्रेमचन्द ने धर्मपुरा में फाइल का काम किया । जीवन पर्यन्त (1995) तक वह वहीं कार्य करते रहे। उनके निधन के बाद उनके दो पुत्रों का स्वर्गवास हो गया। श्री प्रेमचन्द जी सरल स्वभावी और मिलनसार थे। वर्तमान में सुशील और दीपक आदि उनके पुत्र है ।
पूरा परिवार धार्मिक और मिलनसार है।
स्व. श्री छदामीलाल मनोहरलाल जैन
आगरा जिले के अहारन जनपद के युवक श्री छदामीलाल दिल्ली में पहले से ही रह रहे अपने एक रिश्तेदार श्री हुब्बलाल जी के पास 1905 में आये। यहां उन्होंने एक भोजनालय खोला। अच्छे भोजन के लिए ख्यातिप्राप्त करने पर उन्होंने केवल परांठे बनाने का ही काम चालू रखा। इसी बीच उन्होंने अपने छोटे भाई श्री मनोहरलाल जी को दिल्ली बुला लिया। दोनों भाइयों का विवाह यहीं हुआ। दुकान के पास उन्होंने अपना निवास रखा। परिवार धर्मिक भावनाओं से ओतप्रोत है। बच्चे संस्कारित हैं। पद्मावती पुरवाल दिगम्बर जैन पंचायती मंदिर धर्मपुरा की वेदी प्रतिष्ठा महोत्सव पर सौधर्म इन्द्र की बोली भी इसी परिवार ने ली थी ।
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श्री छदामीलाल और श्री मनोहरलाल जी दोनों भाइयों का स्वर्गवास हो चुका है। श्री छदामीलाल के पुत्र हैं- सर्वश्री रमेशचन्द, महेशचन्द, सुरेशकुमार, दिनेश कुमार, मुकेश कुमार और श्री मनोहरलाल जी के पुत्र हैं-- श्री प्रदीप कुमार, श्री राकेश कुमार और श्री राजेश कुमार।
पंचायत के प्रति पूरे परिवार की निष्ठा है साथ ही परिवार में खुशहाली है। अधिक शिक्षित होने के कारण स्व. मनोहरलाल जी के पुत्रों ने अधिक प्रगति की है। स्व. मनोहरलाल जी के पुत्र श्री राजेश कुमार पंचायत की पिछली कार्यकारिणी के सदस्य रहे हैं। वर्तमान में भी सभी कार्यों में वे सहयोग देते और दिलाते हैं।
पं. मनीरामजी एवं पं. गोरेलालजी सिद्धान्तशास्त्री
एटा जिले में बेरनी जनपद के श्री मनीरामजी और सिद्धान्तशास्त्री .. गोरेलाल जी 1911 मे दिल्ली आये। श्री मनीराम जी के नेत्रों में ज्योति होना न होना बराबर था, पर उनमें संकल्प शक्ति और ज्ञान पिपासा अद्भुत थी। उनके छोटे भाई श्री गोरे लालजी शास्त्री ने धर्म का उन्हें अच्छा ज्ञान कराया। बाद में मनीराम जी पं. मनीराम जी हो गये और धारा प्रवाह प्रवचन करने लगे। सिद्धान्त शास्त्री पं. गोरीलाल जी की विद्वता की चर्चा सब ओर होती थी। पं. गोरीलाल जी अविवाहित थे। पं. गोरीलाल जी का 1941 में और पं. मनीराम जी का 1944 में स्वर्गवास हो गया।
श्री मनीराम जी के तीन पुत्र थे। बड़े पुत्र श्री जिनवरदास जी बड़े सरल स्वभावी और धर्मात्मा थे। उनकी गिनती अच्छे विद्वानों में की जाती थी। पर वे ग्रहस्थाचार्य के रूप में अधिक लोकप्रिय थे। पहाड़ी धीरज के एक मंदिर जी से धार्मिक अनुष्ठान की तैयारी करते समय हृदयगति रुकने से उनका 1961 में स्वर्गवास हो गया। श्री जिनवरदास जी के बड़े पुत्र श्री
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कमलकुमार जी 1941-42 में दिल्ली के अशान्त वातावरण से शांति पाने अपनी रिश्तेदारी में महाराजपुर गांव अपने परिवार के साथ चले गये। थोड़े समय बाद 1948 में हैजे की बीमारी में उनका वहीं पर स्वर्गवास हो गया। उनके इकलौते पुत्र श्री अतरचन्द जैन अपनी मां और बहन के साथ वहीं रहे। शिक्षा पूरी करके विवाह उपरान्त पूरे परिवार के साथ वह दिल्ली आये और गांधीनगर को अपना निवास और कार्यक्षेत्र बनाया। गांधीनगर की पदमावती पुरवाल समाज के वे चौधरी हैं। पं. जिनवरदास जी के दूसरे पुत्र श्री भूपेन्द्र कुमार जी भी दिल्ली से गांधी नगर चले गये। वे ग्रहस्थाचार्य के कार्य के साथ कपड़े का व्यवसाय भी करते हैं।
श्री मनीराम जी के दूसरे पुत्र श्री नन्नूमल जी अविवाहित थे। तीसरे पुत्र श्रीलाल जी के कोई पुत्र नहीं था। श्री नन्नूमल जी और श्रीलाल जी धर्मपुरा में पुस्तकों की दुकान करते थे। उनका वर्द्धमान प्रिंटिंग प्रैस भी था। श्री नन्नूमल जी में कार्य करने का अद्भुत उत्साह था। अपनी बात कहकर दूसरे को प्रभावित करने की भी उनमें क्षमता थी पर शरीर से अपाहिज थे। इतना होने पर भी उन्हें धर्म, संगठन और लोक व्यवहार का अच्छा ज्ञान था। उनकी सतत् प्रेरणा से युवकों को पंचायत के काम करने की रुचि बनी रहती थी। भगवान आदिनाथ के निर्वाण महोत्सव पर मंदिरजी में लड्डू चढ़ाने और बाद में रथ यात्रा के माध्यम से धर्म प्रभावना का निर्णय कराके कार्य रूप में परिणत करने में उनका भी योगदान रहा। श्री नन्नूमल जी 1965 और श्री श्रीलाल जी का 1964 को स्वर्गवास हो गया।
आचार्य श्री सन्मतिसागरजी महाराज का जब गांधीनगर दिल्ली-31 में वर्षा योग हुआ, उस समय श्री अतरचन्द जी वहां की समाज के चौधरी थे। आचार्य श्री की प्रेरणा और आशीर्वाद से श्री पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन पंचायत धर्मपुरा दिल्ली-6 और श्री पद्मावतीपुरवाल समाज पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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शाहदरा क्षेत्र गांधीनगर, ने एक जुट होकर गांधीनगर में पद्मावतीपुरवाल जाति की धर्मशाला का निर्माण कराया। पद्मावतीपुरवाल जाति के लिए ये गौरव के क्षण थे। श्री पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन पंचायत धर्मपुरा दिल्ली-6 और उसके अध्यक्ष श्री रमेशचन्द जैन कागजी के साथ-साथ समस्त पंचायत के इस अनुकरणीय कार्य के लिए सभी ने सराहना की।
पं. श्री मथुरादासजी एटा जिले के बेरनी जनपद के होनहार व्यक्तित्व पंडित मथुरादास जी पुत्र श्री रामलाल जी मथुरा चौरासी, मुरैना और बनारस विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने के बाद शांतिनिकेतन में अध्यापन कार्य करके गुजरांवाला (लाहौर) स्थिति जैन गुरुकुल के अधिष्ठाता के रूप में ख्याति अर्जित करने के बाद 1933-34 में दिल्ली आये। उनकी क्षमताओं से प्रभावित होकर तत्कालीन जैन समाज में अग्रणीय श्री राजेन्द्रकुमार जैन ने उन्हें भारत बैंक में नियुक्त कर लिया। आंशिक रूप से वे दरियागंज के समंतभद्र संस्कृत विद्यालय में भी अध्यापन का कार्य करते थे। परिवार के पालन पोषण के साथ-साथ वे शास्त्र सभाओं के माध्यम से जिनवाणी मां का प्रचार और प्रसार भी करते थे। दिल्ली की पद्मावती पुरवाल दिगम्बर जैन पंचायत के वे 1951 से 1963 तक अध्यक्ष रहे। कई अखिल भारतीय संस्थाओं के उच्च पदाधिकारी भी रहे। वे बड़े सरल स्वभावी, स्वाभिमानी और मितभाषी थे। लगभग 90 वर्ष की उम्र में उनका स्वर्गवास हो गया। उनके पुत्र श्री अभयकुमार जैन वर्तमान में माडल टाउन रह रहे हैं।
वैद्य श्री द्वारिका दासजी। पं. मथुरादासजी के ही बड़े भाई वैद्य श्री द्वारिका दास जी लगभग 1933-34 में दिल्ली आये। उनके पुत्र सर्वश्री महावीरप्रसाद, पारसदास
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और नेमीचन्द शिक्षारत थे। वैद्य जी बड़े सरलस्वभावी और धर्मात्मा थे। बच्चों की उच्च शिक्षा की ओर उनका विशेष ध्यान था। आयुर्वेदिक आदि पद्धतियों से उपचार करने में वे सिद्धहस्त थे। दिल्ली आने पर दिल्ली की पंचायत की सभी गतिविधियों से वे जुड़े रहे। काफी समय पूर्व उनका स्वर्गवास हो चुका है। इनके एक पुत्र श्री पारसदास जैन गुलमोहर पार्क, दिल्ली में रहते हैं।
स्व. श्री महावीरप्रसाद सर्राफ/मोतीलाल सर्राफ एटा जिले के बेरनी जनपद के श्री नैनसुखदास जी अपने परिवार के साथ 1920-21 में दिल्ली आये। चांदनी चौक में उन्होंने पराठों और खानेपीने की सामान की दुकान की। किसी अपरिचित मित्र की सलाह और विश्वास पर उन्होंने 1925-26 में तिराहा बैरामखां दरियागंज में सर्राफे का काम किया। इनके दोनों पुत्र सर्वश्री महावीरप्रसादजी और श्री मोतीलालजी इस एक दुकान पर बैठते थे। बाद में दोनों पुत्रों का विवाह हो गया। श्री महावीर प्रसादजी को उन्होंने अलग दुकान करा दी। पुरानी दुकान पर श्री मोतीलालजी बैठे। श्री महावीर प्रसाद जी, धार्मिक और उदार प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। नित-प्रति अभिषेक और पूजन का उनका नियम था। वे पद्मावती-पुरवाल जाति के महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। अपने समय की सभी स्थानीय और अखिल भारतीय स्तर की संस्थाओं में वे उच्च पदाधिकारी थे। दिल्ली पंचायत के वे अध्यक्ष, कोषाध्यक्ष, मंदिर प्रबंधक आदि पदों पर कई बार रहे। 1989 में उनका स्वर्गवास हो गया। सर्वश्री सुखबीर प्रसाद, स्वराज जैन और निर्मल कुमार जैन पुत्र हैं। उनके द्वितीय पुत्र श्री स्वराज जैन पंचायत की पिछली कार्यकारिणी में कोषाध्यक्ष रहे हैं।
श्री मोतीलाल जी, सरल स्वभावी और खरे आदमी थे। अपने पिताश्री पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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और बड़े भाई श्री महावीर प्रसादजी की आज्ञा का हमेशा पालन करते थे। मेले दशहरे में इष्ट-मित्रों एवं परिवार के सभी सदस्यों के साथ जाकर खाना पीना और आनन्द लेना उनका स्वभाव था। अपने और पराए का वे भेद नहीं करते थे। श्री जवाहरलाल और श्री चन्द्रशेखर उनके दो पुत्र हैं। श्री चंद्रशेखर जी पंचायत के 5-6 वर्ष कार्यकारिणी के सदस्य और बाद में 4 वर्ष सह-सचिव रहे हैं। श्री जवाहरलाल जी और उनके पुत्र भी अब पंचायत की गतिविधियों से निकट से जुड़े हैं और सहयोग देते हैं।
पूरा परिवार धार्मिक और मिलनसार है।
स्व. श्री नेमीचन्द डालचन्द जैन जलेबी वाले आगरा जिले के ग्राम हर्रा की गढ़ी के लाला फूलचन्द जी अपने परिवार के साथ 1922-23 में दिल्ली आये। यहां अपने दो पुत्रों के साथ उन्होंने खाने-पीने के खोमचे लगाने का काम किया। तीसरे पुत्र श्री अटलचन्द जी घर, बाजार और परिवार के कामकाज देखते थे। चौथे और पांचवें पुत्र क्रमशः सर्वश्री मोतीराम और गुलजारीलाल कुँचा सेठ के जैन स्कूल में पढ़ते थे। उस समय इनका निवास भी मस्जिद खजूर धर्मपुरा में था। 1929 में लाला फूलचंद जी का स्वर्गवास हो गया।
काम से पर्याप्त आय होने पर इन्होंने कुछ जायदाद खरीदी। काम को और अधिक गति दी। 1940 में उन्होंने दरीबे की दुकानें किराये पर ली और जलेबी की दुकान की। बाद में उन दुकानों को खरीदा भी। खाने पीने की चीजें और होटल आदि के रूप में व्यापार बढ़ता गया। जैसे-जैसे परिवार की सदस्य संख्या बढ़ी व्यवसाय में भी विविधता आई। इसी बीच श्री मोतीराम जी और श्री गुलजारीलाल जी भी व्यापार में आ गये।
1958 में श्री डालचन्द जी का और श्री नेमीचन्द जी का 1971 में स्वर्गवास हो गया। श्री नेमीचन्द के बड़े पुत्र श्री ज्ञानचन्द का 1980 में 238
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स्वर्गवास हो गया। उनके सर्वश्री नगीनचन्द, प्रवीनकुमार, सुनीलकमार आदि पुत्र हैं। श्री नेमीचन्द जी के दूसरे. पुत्र श्री कैलाशचन्द जैन (राजा) हैं। इनके एक पुत्र का कुछ दिन पहले स्वर्गवास हो गया है। एक पुत्र ही उनकी आशाओं का केन्द्र है।
श्री डालचन्द जी के बड़े पुत्र श्री सतीशचन्द जी का 1963 में स्वर्गवास हो गया। उनके पुत्र का नाम श्री अनीश (आशु) है। श्री डालचन्द जी के दूसरे पुत्र श्री देवेन्द्रकुमार जैन के प्रारंभिक जीवन में समाजसेवा की लगन रही है। श्री डालचन्द जी के तीसरे पुत्र श्री राजेन्द्रकुमार जी का 1984 में स्वर्गवास हो गया। इनके सुमित और पुनीत पुत्र हैं। श्री डालचन्दजी के चौथे पुत्र श्री वीरेन्द्र कुमार हैं। श्री वीरेन्द्र जी और उनके पुत्र गली खजांची के चैत्यालय में नित प्रति भगवान का अभिषेक और पूजन करते हैं। इनक पांचवे पुत्र डा. प्रमोदकुमार जैन हैं। डॉ. प्रमोद अपने व्यवसाय के प्रति ईमानदार, समर्पित और ख्याति प्राप्त शल्य चिकित्सक (सर्जन) हैं। उनके मानवीय व्यवहार और उदार समाज सेवा के लिए कई संस्थाओं ने उनको सम्मानित किया है। पद्मावती पुरवाल दिगम्बर जैन पंचायत ने भी दो बार फिक्की सभागार में इनको सम्मानित कर प्रसन्नता अनुभव की है।
श्री अटलचन्द जी का 1974 में स्वर्गवास हो गया । सर्वश्री पदमचन्द और अरुणकुमार इनके दो पुत्र हैं। श्री पदमचन्द जी पद्मावती पुरवाल पंचायत के अध्यक्ष रहे हैं। इनके कार्यकाल में लगभग 60 वर्ष पूर्व निर्मित मंदिरजी का प्रथम जीर्णोद्धार हुआ है।
श्री मोतीरामजी का 1976 में स्वर्गवास हुआ। सर्वश्री प्रकाशचन्द और रमेशचन्द, मुकेशचन्द और महेन्द्रकुमार इनके पुत्र हैं। श्री प्रकाशचन्द जी पंचायत के लगभग 10 वर्ष तक कार्यकारिणी के सदस्य रहे हैं।
श्री गुलजारीलाल जी का 1995 में स्वर्गवास हुआ। अपने व्यवसाय को पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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आगे बढ़ाने के साथ-साथ अपने जीवनकाल में उन्होंने यथासम्भव दान देकर कई जगहों पर निर्माण कार्य कराये ।
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पद्मावती पुरवाल दिगम्बर जैन पंचायत के वे लगभग 10-12 वर्ष उपाध्यक्ष रहे। गुरुभक्त श्री गुलजारीलाल जी मुनि श्री विद्यानन्दजी महाराज के परम भक्त थे । कुन्दकुन्द भारती के मंदिर में भगवान भरत की मूर्ति आपकी ओर से ही विराजमान की गई है। श्री गुलजारीलाल जी के बड़े पुत्र श्री बसंतलाल जी का 1994 में स्वर्गवास हो गया । सर्वश्री राजेश, ब्रिजेश और स्वदेश श्री बसंतलाल जी के तीन पुत्र हैं। श्री गुलजारीलाल जी के दूसरे पुत्र श्री प्रभाचन्द जी का 1983 में और उनके युवा पुत्र श्री प्राणेश का 1994 में स्वर्गवास हो गया। इनके तीसरे बेटे डॉ. मुनीन्द्रकुमार जी का 1990 में स्वर्गवास हुआ। श्री प्रथमेश जैन उनके पुत्र हैं। इनके चौथे पुत्र श्री सुरेन्द्र बाबू हैं। ये बड़े उत्साही, समर्पित और निष्ठावान कार्यकर्ता हैं। 1972 में पद्मावतीपुरवाल दि. जैन पंचायत द्वारा प्रकाशित डायरेक्ट्री के सम्पादक मंडल के वे सदस्य रहे । वे अनेक स्थानीय और अखिल भारतीय संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। पद्मावतीपुरवाल पंचायत के लिए वे हमेशा समर्पित हैं। श्री गुलजारीलाल जी के पांचवें पुत्र का नाम श्री रवीन्द्र कुमार जैन है
।
पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन पंचायती मंदिर और धर्मशाला के निर्माण में इस पूरे परिवार का पर्याप्त आर्थिक योगदान रहा है। इस परिवार की महिलाएं बड़ी धार्मिक और क्रियावान हैं। सामाजिक सुख-दुख• अथवा धार्मिक अनुष्ठानों में एक साथ जाने पर परिवार की एकता और मिलनसारिता का अच्छा प्रभाव पड़ता था। अब सभी अलग-अलग और दूर-दूर रहते हैं। पुरानी हवेली सूनी हो गई है। श्री दिगम्बर जैन लाल मंदिर और पद्मावती पुरवाल पंचायती मंदिर के प्रति सभी का लगाव है। परिवार की प्रत्येक इकाई का लगभग स्वतंत्र और अलग व्यवसाय व आवास है ।
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स्व. श्री मटरूमल जैन (श्रीमानजी) श्री मटरूमल जी पुत्र श्री लालाराम जी का श्री नेमीचंद और डालचंद जी की बहन के साथ विवाह हुआ। इस परिवार की देखरेख में ही वे अपना व्यवसाय करते थे। बाद में उन्होंने पुराने दरियागंज में एक मकान खरीदा उनका पूरा परिवार उसी मकान में उनके साथ रहा। यह मकान खरीदने से पूर्व यहीं पर उन्होंने जनरल मर्चेन्ट्स की एक दुकान कर ली थी। इस क्षेत्र में उन्होंने कुछ और दुकानें भी ली। श्री मटरूमल जी धार्मिक प्रवृति के व्यक्ति और शुद्रजल के त्यागी थे। पद्मावती-पुरवाल पंचायत से उनको लगाव था। 1975 में उनका स्वर्गवास हो गया। सर्वश्री किशोरीलाल, महावीरप्रसाद, चन्द्रप्रकाश और अजितकुमार इनके पुत्र हैं।
श्री किशोरीलालजी का 2004 में स्वर्गवास हो गया। सर्वश्री राकेशकुमार, दिनेशकुमार, संजयकुमार इनके पुत्र हैं। श्री मटरूमल जी के द्वितीय पुत्र श्री महावीर प्रसादजी का मार्च 2005 में स्वर्गवास हो गया। सर्वश्री राजीव, संजीव, अशोक और राजेश इनके पुत्र हैं। श्री चन्द्रप्रकाश का 1998 में स्वर्गवास हो गया। इनका कोई पुत्र नहीं है। श्री अजितकुमार जी के तीन पुत्र हैं।
स्व. श्री महावीरप्रसाद जैन कचहरी वाले आगरा जिले के फरिया जनपद के श्री मुंशीलाल जी 1910 के आसपास दिल्ली आये। तत्कालीन कचहरी में उन्होंने हलवाई की दुकान की। 1918 में उनका विवाह हुआ और 1920 में एक पुत्र ने जन्म लिया जिसका नाम महावीरप्रसाद रखा गया। श्री महावीर प्रसादजी उसी व्यवसाय में जुट गये और काम को आगे बढ़ाया। श्री मुंशीलाल जी
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धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। पंचायती मंदिर के निर्माण में उनका भी योगदान रहा। उसी मंदिरजी में वे अभिषेक और पूजन पाठ भी करते थे। 1956 में उनका स्वर्गवास हो गया। श्री महावीर प्रसाद जी भी अपने इसी पंचायती मंदिर में पूजा पाठ करते थे। 1993 मे उनका स्वर्गवास हो गया। सर्वश्री अशोक कुमार, निर्मलकुमार, राकेश कुमार, मुकेशकुमार और अजय कुमार इनके पुत्र हैं। श्री मुकेश कुमार पंचायत की वर्तमान कार्यकारिणी के सदस्य हैं और अपने इस पंचायती मंदिर में नियमित रूप से भगवान का अभिषेक और पूजन पाठ करते हैं। परिवार में एकता और धार्मिकता है।
स्व. श्री सुन्दरसिंहजी एटा जिले के उड़ेसर जनपद के धर्मनिष्ठ श्री महीपाल जी अपने परिवार के साथ 1930-31 में दिल्ली आए। छत्ता प्रतापसिंह में अपना निवास बनाया। प्राप्त सूचनाओं के अनुसार उन्होंने मिठाई बनाने और बेचने का काम किया। बाद में उनके इकलौते पुत्र सुन्दरसिंह अपनी शिक्षा पूरी करके सरकारी सेवा में आ गये। श्री सुन्दरसिंहजी होनहार, उत्साही मृदुभाषी और कर्तव्यनिष्ठ थे। पद्मावती पुरवाल पंचायत के प्रति उनका समर्पण था। विभिन्न कार्यकालों को मिलाकर लगभग 25 वर्ष तक वे पंचायत के मंत्री रहे। साहित्यिक और राजनैतिक गतिविधियों के प्रति भी उनका रुझान रहता था। कई संस्थाओं के उच्च पदों पर रहकर उन्होंने जनसाधारण की सेवा की। 2003 को उनका स्वर्गवास हो गया। श्री ललितकुमार, राकेश कुमार, संजय कुमार व राजीव कुमार उनके पुत्र हैं। श्री ललितकुमार पिछली कार्यकारिणी में धर्मशाला प्रबंधक और वर्तमान कार्यकारिणी के सदस्य हैं।
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स्व. लाला चन्दूलाल/खेमचन्द जैन . एटा जिले के बेरनी जनपद के श्री लालाराम और श्री बंगालीमल दो भाई अपने परिवार के साथ 1926-27 में दिल्ली आये। यहां आकर चावड़ी बाजार में सर्वश्री लालाराम बंगालीमल के नाम से कागज की दुकान की। श्री लालाराम जी के पुत्र का नाम श्री बाबूराम और श्री बंगालीलाल जी के पुत्र श्री खेमचन्द और श्री रामचन्द्र थे। श्री बाबूराम जी के पुत्र का नाम श्री चन्दूलाल था।
जब यह परिवार दिल्ली आया उस समय पंचायत प्रारम्भिक स्थिति में थी। सभी भाइयों में पारिवारिक प्रेम तो था ही, साथ ही पंचायत के प्रति भी गहरा लगाव था। मंदिरजी के निर्माण और विकास में भी श्री खेमचन्द जी और श्री चन्दूलाल जी का पर्याप्त योगदान है। श्री चन्दूलाल जी हर समय कार्य करने के लिए तैयार रहते थे। श्री चन्दूलालजी पंचायत के पहले चौधरी थे। 1984 में उनका स्वर्गवास हो गया। वे फाइलें बनवाने का काम करते थे। उनके पुत्र श्री सुरेन्द्र कुमार जैन भी उसी काम को करते हैं।
श्री खेमचन्द जी के बड़े पुत्र श्री प्रेमचन्द का 1993 में और उनके पुत्र श्री संजय जैन का 1996 में निधन हो गया। श्री प्रेमचन्द जी के छोटे पुत्र का नाम अजय है। श्री खेमचंद जी बड़े सरल स्वभावी और धार्मिक प्रवृत्ति के श्रावक थे। श्री खेमचन्द जी के दूसरे पुत्र श्री सतीशचन्द जी ने अपने व्यवसाय को काफी आगे बढ़ाया। वह भी मिलनसार, विनम्र और स्पष्टवादी हैं। इनमें सेवाभाव भी है। श्री खेमचन्द के तीसरे पुत्र श्री रमेशचन्द जी है। श्री खेमचन्द जी पंचायत के विशिष्ट पदों पर रहे। 1983 में उनका स्वर्गवास हो गया।
श्री रामचन्दजी भी पंचायत से जुड़े रहे। इनके कोई पुत्र नहीं है। 1997 में इनका स्वर्गवास हो गया। पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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स्व. श्री नेमीचन्दजी रेलवे वाले
आगरा जिले के हिम्मतपुर गांव के धर्मनिष्ठ श्री बाबूलाल जी के पुत्र श्री नेमीचन्द 1993 में दिल्ली आये। दिल्ली आकर उन्होंने पुस्तकों का व्यवसाय किया। बाद में उन्होंने पुरानी दिल्ली, नई दिल्ली और अनेक प्रमुख रेलवे स्टेशनों पर किताबों के स्टाल ले लिए। प्रथम पत्नी के स्वर्गवास के बाद द्वितीय पत्नी से श्री नेमीचन्दजी को श्री अनिल कुमार और श्री विनोद कुमार दो पुत्र मिले जो अपने पुश्तैनी काम को आगे बढ़ा रहे हैं। श्री नेमीचन्द जी का 1986 में स्वर्गवास हो गया। श्री नेमीचन्द जी ने पद्मावती पुरवाल पंचायत के विभिन्न पदों पर रहकर समाज की सेवा की है। इनके बड़े पुत्र श्री अनिल कुमार जी का 2004 में स्वर्गवास हो गया। सर्वश्री नवीन कुमार, प्रवीन कुमार, अजय कुमार और पवन कुमार जैन उनके पुत्र हैं। श्री अनिल जी संकोची स्वभाव के अच्छे इंसान थे । इनके पुत्र मिलनसार और सभी के प्रति सद्भावना रखने वाले हैं। सभी आयोजनों में अपना योगदान देते हैं। श्री नेमिचन्द जी के दूसरे पुत्र श्री विनोदकुमार जी अपनी धार्मिक प्रवृत्ति के लिए ख्याति प्राप्त हैं। दूरदृष्टि और विनम्रता आप में कूटकूट कर भरी हुई है। सभी आयोजनों में उपस्थिति और आर्थिक योगदान उनका निरंतर मिलता है। पद कोई नहीं
ते पर काम बिना पद के भी बहुत करते हैं। इनके बड़े पुत्र श्री पंकज जैन पंचायत की कार्यकारिणी के पिछले 6 वर्ष से सदस्य हैं और छोटे पुत्र श्री मनोज जैन, सभी आयोजनों की संयोजक समिति के सदस्य अथवा संयोजक रहते हैं । पूरा परिवार विनम्र, धार्मिक और कर्तव्यनिष्ठ है ।
स्व. श्री राम स्वरूप कालीचरण जैन, दिल्ली गेट
सन् 1930 के आसपास एटा जिले के ख्याति प्राप्त जनपद चिरौली चावली से श्री छेदीलाल जी सपरिवार दिल्ली आकर दिल्ली गेट रहने लगे।
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श्री मदन गोपाल जी और रामस्वरूप जी आपके दो पुत्र हैं। श्री रामस्वरूप जी की क्लाथ मार्केट, फतेहपुरी पर बिजली के सामान की दुकान थी। 1952 में श्री रामस्वरूपजी का निधन हो गया। राम स्वरूप जी के सर्वश्री लालचन्द, सलेकचन्द हरीचन्द, जगदीशचन्द और रमेशचन्द पुत्र हैं। श्री लालचन्दजी का 1966 में और श्री सलेकचन्दजी का 21 अप्रैल 05 को स्वर्गवास हो गया।
श्री लालचन्द जी के सर्वश्री सुरेशचन्द, सुशीलवन्द, कैलाशचन्द, सुभाषचन्द और सुनीलचंद पुत्र हैं। श्री सुरेशचन्द नई दिल्ली कमेटी में अधिकारी थे। वे दिल्ली पंचायत के उपाध्यक्ष भी रहे हैं। श्री सुरेश चन्द जी समझदार और गंभीर व्यक्ति थे। 1999 में उनका स्वर्गवास हो गया। असीम जैन उनका एक होनहार पुत्र है। श्री लालचन्द जी के सबसे छोटे पुत्र श्री सुनील जैन एक नेशनलाइज्ड बैंक की पटना (बिहार) शाखा में कार्यरत थे। बैंक जाते समय किसी ने गोली मार कर उनकी हत्या कर दी। __ श्री कालीचरण जी अपने पिता श्री मदनलाल जी के इकलौते पुत्र थे। ये कपड़े का व्यवसाय करते थे। श्री कालीचरणजी का 1966 में स्वर्गवास हो गया। आप काफी समय तक पंचायत की कार्यकारिणी से जुड़े रहे हैं। श्री कालीचरण स्पष्टवादी स्वभाव से विनम्र और धार्मिक प्रवृत्ति के इंसान थे। सर्वश्री मोहनलाल, चन्द्रकुमार, इन्द्रकुमार और अशोक कुमार उनके पुत्र हैं। पूरे परिवार में धार्मिक भावनाएं हैं। समाज के साथ सभी का आना-जाना और सम्पर्क रहता है।
स्व. श्री हुकमचन्द जैन चौधरी एटा जिले के उड़ेसर जनपद के श्री सेतीलाल जी अपने परिवार के साथ 1914 में दिल्ली आकर दिल्ली गेट रहने लगे। यहां पर उन्होंने परचून की दुकान की। श्री हुकुमचन्द जी बड़े होनहार, समाज और पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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परिवार के प्रति समर्पित और निष्ठावान थे। क्रोध तो उनको आता ही नहीं था। कठिन से कठिन समस्या का समाधान समझा-बुझाकर कर लेना उनके लिए बड़ा सरल और प्रिय कार्य था। वे पद्मावती पुरवाल पंचायत के लगभग 30 वर्ष चौधरी रहे। सर्वश्री जवाहरलाल, चुन्नी लाल, देवकुमार और रोशनलाल आपके भाई हैं। श्री जवाहरलालजी अविवाहित थे। काफी समय पहले उनका स्वर्गवास हो गया। श्री चुन्नीलाल जी के कोई पुत्र नहीं है। अब उनका भी स्वर्गवास हो चुका है। श्री चुन्नीलाल जी का भी स्वर्गवास हो चुका है। श्री देवकुमार जी राउरकेला में कार्य करते हैं। अपनी दुकान जाते समय 1984 के दंगों में श्री रोशनलाल जी की किसी दंगाई की गोली लगने से मृत्यु हो गयी। श्री पवन जैन आदि उनके
पुत्र हैं।
श्री हुकुमचंद जी का 1982 में निधन हो गया। उनके निधन के बाद परिवार की यशकीर्ति की हानि हुई है। श्री पद्मावतीपुरवाल पंचायत के संगठन में भी शिथिलता आई है।
स्व. श्री नेमीचन्द जैन दालसेव वाले एटा जिले के उड़ेसर जनपद से श्री नेमीचन्द जी पुत्र श्री प्यारेलाल जी 1914 में दिल्ली आये। धर्मपुरा की भूतवाली गली में आपने अपना निवास रखा और वहीं से नमकीन दाल सेवों का थोक व्यापार करते थे। श्री सुरेशचन्द जी आपके इकलौते पुत्र थे। श्री सुरेशचन्द जी को श्री हुकमचन्द जैन के स्वर्गवास के बाद पंचायत का चौधरी बनाया था। आप बड़े सरल और मिलनसार व्यक्ति थे। 1984 में आपका स्वर्गवास हो गया। पुत्र श्री सुरेशचंद की असमय में मृत्यु से दुःखी श्री नेमीचन्द जी भोलानाथ नगर अपने मकान में चले गये। वहां उनका 1986 में स्वर्गवास हो गया। श्री सुरेशचन्द जी के बड़े पुत्र श्री प्रमोदकुमार का 1984 में स्वर्गवास हो गया। श्री विनोद कुमार आदि उनके पुत्र हैं।
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. स्व. श्री भोलानाथजी एटा जिले की रारपट्टी जनपद के लाला अजुध्याप्रसाद जी के युवा पुत्र श्री भोलानाथ जी अपनी पत्नी और भाइयों के साथ 1929-30 में दिल्ली आये और पराठे वाली गली में पराठों की दुकान की। पद्मावती पुरवाल जाति और बच्चों की शिक्षा की ओर उनका विशेष ध्यान था। दिल्ली की पंचायत के कई पदों पर वे रहे । पंचायत में उनका पूरा रुतवा था। 1955-56 के फिरोजाबाद मेले में गठित अखिल भारतीय पद्मावती पुरवाल पंचायत के पदाधिकारियों में थे। दिल्ली की पंचायत के मंत्री के रूप में दिल्ली में रहने वाले पद्मावती पुरवाल जाति के परिवारों की जनगणना कराकर 1972 में उसे प्रकाशित कराया। यह पंचायत का प्रथम प्रकाशन था। वे स्पष्टवादी और दृढ़ निश्चयी व्यक्ति थे।
श्री भोलानाथजी के बड़े भाई श्री गया प्रसादजी अविवाहित थे। वे जीवन पर्यन्त भोला नाथ जी के साथ रहे। इनके छोटे भाई श्री गया प्रसादजी भी इनके साथ दिल्ली आये थे। 1950 के आसपास उनका निधन हो गया। श्री वीरेन्द्रकुमार, श्री महेशचन्द और श्री रवि कुमार इनके
पुत्र हैं।
__1982 में श्री भोलानाथ जी की पत्नी का स्वर्गवास हो गया। अतः कूचा सेठ का पुराना मकान छोड़कर वे अपने छोटे पुत्र श्री सुरेन्द्रकुमार के पास चले गये। 1986 में श्री भोलानाथ जी का स्वर्गवास हो गया। श्री सुरेन्द्र कुमार जी का भी 31-5-95 को स्वर्गवास हो गया। श्री सुरेन्द्र कुमार जी 6-7 वर्ष पंचायत के आडीटर रहे। वे स्पष्टवादी और स्वाभिमानी व्यक्ति होने पर भी संतुलन बनाकर चलते थे। उनके दो पुत्र श्री सुनील जैन और अनिल जैन हैं। श्री सुरेन्द्र कुमारजी भारत सरकार की सेवा में कार्यरत थे।
श्री भोलानाथ जी के बड़े पुत्र श्री धर्मेन्द्रकुमार जैन भारत सरकार से अधिकारी के रूप में सेवा निवृत्त हुए थे। मार्च 2003 में उनका भी पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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स्वर्गवास हो गया। सर्वश्री अशोक कुमार, सुभाषचन्द, प्रमोद कुमार और प्रवीन कुमार इनके पुत्र हैं। श्री अशोक कुमार का लम्बी बीमारी के बाद फरवरी 2005 में स्वर्गवास हो गया। __ श्री भोलानाथजी की उल्लेखनीय सेवाओं का स्मरण करते हुए हम उनके उत्तराधिकारियों से भी अधिक सहयोग की आकांक्षा करते हैं।
स्व. लाला श्री पातीराम जैन एटा जिले में खंजर के बुर्ज' जनपद से लाला बिहारीलाल जी के उत्साही पुत्र श्री पातीराम जी अपने परिवार और भाइयों के साथ 1910-11 के आसपास दिल्ली आये। धर्मपुरा में अपना निवास और परचून की दुकान से रोजी रोटी का साधन जुटाया। भाई धनीरामजी और भाई श्री गजाधर लाल जी इनके साथ थे।
लाला पातीरामजी, धार्मिक, मिलनसार और धुनि के धुनी व्यक्ति थे। श्री पद्मावतीपुरवाल पंचायत दिल्ली का संगठन जब आकार ले रहा था, उस समय से लेकर 1974-75 तक वे पंचायत के साथ निरंतर जुड़े रहे। वे युवाओं को कुछ न कुछ काम करने की प्रेरणा देते रहते थे। ___1924-25 में पद्मावती पुरवाल पंचायत के लिए मकान की व्यवस्था होने पर उसके उपयोग को लेकर उठे विवाद के वे केन्द्र में रहे। अस्थायी मंदिर का जीर्णोद्धार और उसकी वेदी प्रतिष्ठा महोत्सव तक आपका बड़ा योगदान रहा। बाद में भी जीवन के अंतिम प्रहर तक उन्हें लगन लगी रही। 1985 में उनका स्वर्गवास हो गया। __ श्री त्रिलोकचंद जी उनके इकलौते पुत्र हैं। बाद में लाला पातीराम जी ने अपनी फर्म श्री त्रिलोकचन्द जी के पुत्र नरेन्द्रकुमार (छोटेलाल) का नाम रखकर पातीराम नरेन्द्रकुमार के नाम से उसको सौंप दी। श्री छोटेलाल जी उनकी स्मृति में कुछ न कुछ करते रहते हैं। 243
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स्व. श्री मुन्नीलाल हलवाई
एटा जिले में उड़ेसर जनपद के लाला बैनीराम जी के होनहार पुत्र श्री मुन्नीलाल जी 1916 में दिल्ली आये। दिल्ली में पहले से ही रह रहे अपने चचेरे भाई श्री नेमिचन्द जी के यहां जो धर्मपुरा की भूतवाली गली में रहते थे, रहे। श्री नेमीचन्द जी वहीं से नमकीन दालसेव का थोक व्यापार करते थे । युवा श्री मुन्नी लाल जी ने वह सब कुछ सीखा। साथ ही दिल्ली वासियों के खाने-पीने की वस्तुओं को भी बनाना और बनवाना सीख लिया। प्रतिभावान श्री मुन्नी लाल जी की ख्याति समाज में फैली और उत्तर प्रदेश के जारखी जनपद के एक प्रतिष्ठित परिवार की कन्या के साथ 1933 में उनका विवाह हो गया। इस नये उत्तरदायित्व के निर्वाह के लिए आतुर श्री मुन्नीलाल जी ने एक दुकान दरियागंज की मुख्य रोड पर ली । उस पर मिष्ठान भंडार आदि चालू कर दिया। कुछ स्थानों पर उन्होंने कैंटीन भी चलाई ।
प्रभु कृपा और बढ़ते आत्म विश्वास से उन्होंने 1936 में एक मकान कूचा परमानंद में (दुकान के पास) किराये पर लिया । जीवन की अंतिम सांस लेते समय अर्थात 12 जनवरी 1978 तक वह वहीं रहे। श्री मुन्नीलाल जी, अधिक पढ़े लिखे नहीं थे पर आदमी को परखने और अपनी बात समझाने की उनमें अद्भुत क्षमता थी। वे मेहनती, स्पष्टवादी, धर्मात्मा और मिलनसार व्यक्ति थे । अपने बच्चों को उन्होंने शिक्षित किया। काफी समय तक वे पद्मावती पुरवाल दिगम्बर जैन पंचायत के
उपाध्यक्ष रहे ।
आपके बड़े पुत्र का नाम श्री सुशील कुमार है। वह लगभग 8 वर्ष पूर्व दिल्ली प्रशासन की डिफेंस रिसर्च लेबोरेट्री से राजपत्रित अधिकारी के पद से सेवा निवृत्त हुए हैं। आपके पुत्रों में से एक पुत्र श्री बादल जैन पंचायत की वर्तमान कार्यकारिणी के सदस्य हैं।
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श्री मुन्नीलाल जी के दूसरे पुत्र श्री सतीशचन्द (गुड्डू भाई ) पिछले लगभग 20-25 वर्ष से समाज सेवा के लिए समर्पित हैं। पहले वह पंचायत के सह मंत्री और बाद में मंत्री रहे हैं। वर्तमान में भी वह मंत्री हैं। उन्होंने खराद की मशीन लगाकर अपना व्यापार शुरू किया। छोटे स्तर से मझोले स्तर तक खराद की मशीन पर काम करने वालों में उनका नाम काफी प्रमुखता से लिया जाता है। मेहनत, ईमानदारी, स्पष्टवादिता और मिलनसारिता उनके विशेष गुण हैं। इनके कार्यकाल में कई नामी उपलब्धियां रही हैं ।
स्व. श्री नन्नूमल मनोहरलाल जैन दूध वाले एवं स्व. पं. भागचन्द जैन
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एटा जिले में ख्याति प्राप्त सरनऊ वीरपुर जनपद के श्री नन्नूमल और मनोहरलाल दोनों भाई 1911 के आसपास दिल्ली आये। दोनों ही अविवाहित थे। धर्मपुरा में उन्होंने दूध का काम किया। पद्मावती पुरवाल जैन पंचायत की स्थापना से लेकर अंत समय तक उसे सहयोग करते रहे। दिल्ली आने के थोड़े वर्ष बाद उन्होंने अपनी रिश्तेदारी में से श्री भागचन्द नामक एक बालक को गोद ले लिया। उसे शिक्षा के लिये मुरैना भेजा शिक्षा प्राप्त कर वापस आने पर श्री भागचन्द जी को परचून की दुकान करा दी। शास्त्रीय ज्ञान के कारण वह युवा बाद में पंडित भागचन्द जैन शास्त्री के नाम से विख्यात हुए। वह मंदिरों में शास्त्र सभा करते थे । एक दिन उनकी शास्त्र सभा में सेन्ट्रल बैंक के एक अधिकारी आये हुए थे । उनके प्रवचन से वे प्रभावित हुए। कामकाज की स्थिति को समझकर उन्होंने उन्हें सेन्ट्रल बैंक में सर्विस के लिए आमंत्रित किया। श्री भागचन्द्र जी उनके परिवारजनों ने यह स्वीकार कर लिया। बैंक में उन्होंने अच्छी ख्याति प्राप्त की । इधर वे पद्मावती पुरवाल पंचायत से भी जुड़े रहे । जीवन के 60 वर्ष पूर्ण करने पर बैंक से सेवा निवृत हो गये । खराब पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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स्वास्थ्य के कारण बाद में वह सक्रिय नहीं रह सके। वे धार्मिक प्रवृत्ति के मिलनसार और विन्रम व्यक्ति थे। 2004 में उनका स्वर्गवास हो गया। सर्वश्री अनिल कुमार, सुनील कुमार, प्रदीपकुमार, मुकेश कुमार और आशीष जैन आपके पुत्र हैं। बच्चों में भी धार्मिक संस्कार हैं।
स्व. श्री शीतलप्रसाद जैन हलवाई एटा जिले में जौंधरी जनपद के श्री मुंशीलाल जी 1935 के आसपास दिल्ली आए। यहां आकर उन्होंने हलवाई का काम किया। श्री मुंशीलाल जी के दो पुत्र एक श्री अभिनन्दन कुमार जो एटा गोद चले गये दूसरे श्री शीतलप्रसाद जी उनके साथ दिल्ली उनके व्यवसाय के साथ जुड़े रहे। श्री मुंशीलाल जी और श्री शीतल प्रसाद जी दोनों का स्वर्गवास हो चुका है। __ श्री शीतलप्रसादजी उसी व्यवसाय से जुड़े रहे। सादा जीवन उच्च विचार उनका आदर्श था। सर्व श्री आदीश्वर कुमार, आनन्दकुमार और अनिल कुमार उनके तीन पुत्र है। श्री आदीश्वर कुमार शीतल प्रसाद जी के साथ कार्य करते रहे। 1999 में श्री आदीश्वर कुमार का स्वर्गवास हो गया। श्री आदीश्वर कुमार जी के पुत्र श्री अतुल जैन पंचायत के पिछली कार्यकारिणी में मंत्री और वर्तमान में कोषाध्यक्ष हैं। परिवार में खुशहाली और संगठन है।
स्व. श्री श्रीलाल जैन बिटाब्रेन लगभग 100 वर्ष पूर्व एटा जिला के चुरथरा गांव के श्री भोलानाथ जी और श्री मुन्नीलाल जी दो भाई दिल्ली आए। गली पराठे वाली में दुकान की। श्री भोलानाथ जी अविवाहित थे। श्री मुन्नी लालजी के सर्वश्री अनूपचन्द, राजकुमार, श्रीलाल, जयकुमार और ओमप्रकाश लड़के थे। अनूपचन्दजी व्यापार करते थे। 1958 में उनका स्वर्गवास हो गया। उनके पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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तीन पुत्र सर्वश्री हीरालाल, विनोदकुमार और सुबोध कुमार है। तीनों का व्यापार ठीक है। पिछले 7-8 वर्ष से हीरालालजी सामाजिक और धार्मिक कार्यों में गहरी रुचि ले रहे हैं। श्री सुबोधकुमार जी भी इस ओर सक्रिय होने का प्रयास कर रहे हैं। श्री राजकुमारजी गोवा चले गये। वहीं व्यापार किया। 2002 में उनका स्वर्गवास हो गया।
श्री श्रीलालजी 'बिटाब्रेन' नामक चूर्ण की गोलियां और कई अनेक वस्तुओं के उत्पादनकर्ता और व्यापारी रहे। वे मिलनसार और धर्मनिष्ठ थे। पद्मावती पुरवाल पंचायत के प्रारम्भ से ही जुड़ गये। परिणामस्वरूप पंचायत के अनेक पदों पर रहकर उन्होंने समाज की सेवा की। इनके नाम से ही पूरे परिवार की पहचान थी। काफी समय पूर्व वे स्वर्गवासी हो गए। सर्वश्री सुरेन्द्रकुमार, वीरेन्द्र कुमार, जिनेन्द्र कुमार और ब्रिजमोहन इनके पुत्र हैं। श्री जिनेन्द्र कुमार का भी 1999 में हृदय गति रुकने से स्वर्गवास हो गया। उनका एक पुत्र है। श्री श्रीलाल जी बिटाब्रेन के स्वर्गवास के बाद परिवार ठहर-सा गया। अब श्री बृजमोहन उनके सबसे छोटे पुत्र सक्रिय हुए है। वर्तमान में वह पंचायत की कार्यकारिणी का सदस्य भी है।
श्री जयकुमार जी प्राइवेट दुकान पर नौकरी करते थे। वे भी धार्मिक और सामाजिक प्रवृत्ति के थे। सर्व श्री विजयकुमार, मदनलाल और विनोदकुमार उनके तीन पुत्र हैं। तीनों पुत्रों का रेडीमेड गारमेंट्स और हॉजरी का गांधीनगर में काम है। धार्मिक आयोजनों में भाग लेते और सहयोग देते हैं।
श्री ओम प्रकाशजी भी प्राइवेट दुकान पर काम करते थे। 1984 में उनका स्वर्गवास हो गया। सर्वश्री ज्ञानचन्द, दिलीपकुमार और राजकुमार इनके पुत्र हैं। तीनों ही रेडीमेड गारमेंट्स और हॉजरी का काम गांधीनगर में करते हैं। श्री ज्ञानचन्दजी विशेष रूप से सक्रिय और मिलनसार हैं। इस पूरे परिवार में प्रसन्नता और खुशहाली है।
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. . . स्व. श्री भागचन्दजी/दानचन्दजी चश्मे वाले
अलीगढ़ निवासी श्री धन्नालाल रिश्ते में लगने वाले अपने भाई श्री पुत्तूलाल जी जो मूल रूप से उड़ेसर के थे और दिल्ली में रह रहे थे, उनकी प्रेरणा पर अपने परिवार के साथ 1932-33 में दिल्ली आये। यहां आकर उन्होंने श्री पुत्तूलाल जी के साथ ही काम किया। श्री धन्नालाल जी की पत्नी दूसरे पुत्र (दानचन्द) को जन्म के थोड़े समय बाद स्वर्ग सिधार गई। श्री धन्नालाल जी के बड़े पुत्र श्री भागचंद और छोटे पुत्र श्री दानचन्द जी व श्री धन्नालाल जी की देखभाल और पालन पोषण रिश्ते में लगने वाली उनकी विधवा बहन श्रीमती चमेली देवी ने की। भागचन्द ने बिना पूरी पढ़ाई के ही छोटा मोटा व्यवसाय करना शुरू कर दिया। 42-43 में उनका विवाह हो गया। श्री दानचन्द जी ने शिक्षा पूरी करने के बाद अध्यापक के रूप में आजीविका प्रारम्भ की। इसी बीच श्री भागचन्द जी ने चांदनी चौक में चश्मे बनाने वाली एक दुकान पर नौकरी कर ली। 1954 में उन्होंने नौकरी छोड़कर चश्मे बनाने का अपना ही काम प्रारम्भ कर दिया। इधर श्री दानचन्द जी भी स्कूल के बाद अपना सारा समय भाई के साथ काम में लगाने लगे। परिणामस्वरूप व्यापार काफी आगे बढ़ा। इसी बीच श्री दानचन्द जी का विवाह हो गया। श्री दानचन्द जी कर्त्तव्य परायण और शालीन व्यक्ति थे। 1987 में एक दुर्घटना मे उनका स्वर्गवास हो गया। उनके पुत्र श्री अनिल जैन जो शाहदरा में रहते और तार बनाने का वहीं काम करते हैं।
श्री भागचन्द जी शारीरिक रूप से शिथिल होने पर भी बड़े मेहनती और खरे स्वभाव के आदमी थे। मंदिर जी में नितप्रति जिनेन्द्रदेव का प्रक्षालन और पूजन करते थे। चश्मे बनाने का व्यवसाय करने वालों के बीच उनकी अच्छी धाक थी। काफी समय तक वे पंचायती मंदिर के प्रबंधक और कोषाध्यक्ष रहे। उनके बड़े पुत्र श्री वीरेन्द्र कुमार जी विवाह पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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के पश्चात् घर में जगह की कमी के कारण शिवाजी पार्क, शाहदरा रहने लगे और वहीं पर उन्होंने बिजली के तार बनाने का काम किया। बाकी तीनों पुत्र चश्मे के अपने पुश्तैनी काम को करते हैं। श्री अजयकुमार जी जैन ने धर्मपुरा में अलग मकान और दुकान कर ली। पुराने मकान और दुकान पर उनके छोटे पुत्र सर्वश्री हरिश्चन्द्र और श्री विजयकुमार हैं। 2003 में श्री भागचन्द जी का स्वर्गवास हो गया। 2004 में श्री भागचन्द जी के दूसरे पुत्र श्री अजयकुमार का भी स्वर्गवास हो गया। उनके कार्य को उनके पुत्र आदित्य जैन आदि करते हैं। श्री विजय कुमार जी प्रतिदिन मंदिर जी जाते हैं। पिछली कार्यकारिणी में वह मंदिर प्रबंधक रहे हैं। पूरे परिवार में संगठन, सम्पन्नता और धर्मिक आस्था है।
स्व. पंडित गुणधरलालजी एटा जिले के उड़ेसर जनपद के गुणधर नामक एक पढ़े लिखे युवक 1925-26 में दिल्ली आये। यहां आकर स्वतंत्र शिक्षक के रूप में उन्होंने बच्चों को भौतिक और धार्मिक शिक्षा दी। आय का समुचित साधन हो जाने पर यथासमय विवाह हुआ। वे धार्मिक प्रवृत्ति के सरल स्वभावी व्यक्ति थे। पंचायत के प्रति भी उनका लगाव था। 1959 में उनका स्वर्गवास हो गया।
पं. गुणधरलाल जी के बड़े पुत्र श्री जय प्रकाश जी रेलवे बोर्ड से 1990 में सेवानिवृत्त हुए और 2000 में उनका स्वर्गवास हो गया। श्री जयप्रकाशजी. के सर्वश्री सत्येन्द्र कुमार और अचल कुमार पुत्र हैं। पंडितजी के दूसरे पुत्र श्री वीरेन्द्र कुमार अविवाहित थे और वह किसी साधु संघ में चले गये। उनके तृतीय पुत्र श्री जितेन्द्र कुमार ने गिरिडीह में जाकर एक स्कूल स्थापित किया और वहां शिक्षक के रूप में और बाद में स्वतंत्र पत्रकार के रूप में काम किया। 1988 में उनका स्वर्गवास हो गया। उनके पुत्र
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सर्वश्री आकाश, अमल और अखिलेश हैं। पंडितजी के चतुर्थ पुत्र श्री सुरेन्द्र कुमार दिल्ली के आयकर विभाग में उच्च पद पर सेवारत हैं। पंचायत की पिछली कार्यकारिणी में वे सह मंत्री थे।
स्व. श्री किरोड़ीमल ओमप्रकाश जैन, सब्जीमंडी 19वीं शताब्दी के अंतिम दशक 1890 में एटा जिले के फफोतू जनपद के श्री दरबारीलाल जी दिल्ली आये। सब्जी मंडी बर्फ के कारखाने में फफोतू के ही रहने वाले श्री योगनारायण शर्मा वहां कार्य करते थे। उन्होंने ही श्री दरबारीलाल जी को एक मकान किराये पर दिला दिया, जो बाद में उन्होने खरीद लिया। श्री दरबारी लाल जी के दो पुत्र हैं। श्री किरोड़ीमल जी और श्री ओमप्रकाश जी। प्रारम्भ में श्री दरबारीलाल जी ने कोई विशेष काम नहीं किया पर उनके पुत्र श्री किरोड़ीमल जी ने मंडी में आड़त का काम किया। श्री ओमप्रकाश जी को नेशनल ग्रेडलेज बैंक में सर्विस मिल गई।
पद्मावती पुरवाल पंचायत के प्रति उनका लगाव था। दोनों ही भाई मिलनसार धार्मिक प्रवृत्ति के थे। श्री किरोड़ीमल जी के सर्वश्री सुमतप्रकाश, अजितप्रकाश, धनकुमार, सुधीर कुमार, और श्री सुरेन्द्रकुमार पुत्र हैं। श्री
ओम प्रकाश जी के सर्वश्री आदीश कुमार विनय कुमार और राकेश कुमार पुत्र हैं। दोनो परिवारों के सदस्यों के पास अपने निजी निवास हैं और उच्च कोटि का व्यवसाय है। परिवार में खुशहाली और सम्पन्नता है।
स्व. श्री इन्द्रपाल जैन चूड़ीवाले/श्री महेन्द्रकुमार जैन
दिल्ली गेट एटा जिले में होच्ची जनपद के श्री श्रीनिवास जी के दो पुत्र श्री पद्यावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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इन्द्रपाल और श्री महेन्द्रकुमार 1940-41 में दिल्ली आये। श्री इन्द्रपालजी ने चूड़ी का काम किया और श्री महेन्द्रकुमार जी ने छोटे-छोटे एक दो काम करने के बाद कपड़े का काम किया। इसी बीच दिल्ली गेट निवासी श्री सेतीलाल जी की पुत्री से उनका विवाह हो गया। - श्री.इन्द्रपाल जी उत्साही कार्यकर्ता रहे हैं। पंचायत की कार्यकारिणी के धार्मिक आयोजनों में भी भाग लेते थे। 1989 में उनका स्वर्गवास हो गया है। सर्वश्री कमल जैन और संजय जैन उनके दो पुत्र हैं।
श्री महेन्द्र कुमार जी दिल्ली गेट बड़े सरल और सुहृदय व्यक्ति हैं। धार्मिक आयोजनों में पूरी तरह भाग लेते हैं और भजन आदि बोलते हैं। पंचायत के प्रति उनके मन में गहरा लगाव है। 2003 में पंचायत ने फिक्की सभागार में उन्हें सम्मानित भी किया। इनके पुत्र श्री राकेश जैन का नाम पंचायत के अच्छे कार्यकर्ताओं की सूची में है। वे लगभग पिछले 15 वर्ष से कार्यकारिणी के सदस्य और आयोजनों के संयोजक अथवा सह संयोजक रहते हैं।
स्व. श्री जयन्ती प्रसाद जैन गोटेवाले एटा जिले के पुनहरे जनपद के श्री जयन्तीप्रसादजी 1942-43 में दिल्ली आये और किनारीबाजार में एक प्राइवेट दुकान पर काम शुरू किया। अपने सौम्य व्यक्तित्व और विनम्र स्वभाव से वहां उन्होंने अपने लिए महत्वपूर्ण जगह बना ली। सेवा-भावी श्री जयन्तीप्रसाद जी को पद
की आकांक्षा नहीं रही, फिर भी पद्मावती पुरवाल पंचायत से निरंतर जुड़े रहे। काफी समय पूर्व उनका स्वर्गवास हो चुका है। श्री जिनेन्द्रकुमार जी
और विजय कुमार जी आदि उनके पुत्र हैं। श्री विजय कुमार जी पंचायत की पिछली कार्यकारिणी में कोषाध्यक्ष और वर्तमान में कार्यकारिणी के सदस्य हैं।
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स्व. श्री हरीशचन्द जैन
बचपन में मां बाप की मृत्यु के कारण नानी की गोद में पले श्री हरीश्चंद जी अहारन से यहां आकर दिल्ली में रह रहे स्व. श्री वृन्दावनदासजी के परिवार के साथ, जो उनके रिश्तेदार थे, साथ रहे। बाद में वह दिल्ली के बनकर ही रह गये। यहां उन्होंने बिस्तागीरी की दुकान की । वे अनुशासन प्रिय और खरे व्यक्ति थे। पंचायत के सभी आयोजनों में भाग ते थे । रथोत्सव आदि की बोलियां बोलने में सिद्धहस्त थे। लगभग 15 वर्ष पूर्व उनका स्वर्गवास हो गया ।
श्री हरीशचन्द जी के कोई पुत्र नहीं था अतः उन्होंने अपने रिश्तेदार की एक कन्या रीना को गोद लेकर उसके हाथ पीले कर दिये । श्री हरीशचन्द जी की धर्म पत्नी श्रीमती शांतिदेवी के स्वर्गवास के बाद उनके दामाद और पुत्री ने श्री हरीशचंद और श्रीमती शांति देवी की स्मृति में काफी कुछ दान देकर विभिन्न स्थानों पर निर्माण कार्य कराये हैं ।
स्व. श्री छोटेलाल जैन दिल्ली गेट / गांधी नगर
आगरा जिले के पानी गांव देवा के श्री बाबू राम जी का होनहार बालक छोटेलाल छोटी उम्र में ही शिक्षा प्राप्त करने 1934-35 में दिल्ली आया । जैन स्कूल दरियागंज में 10 वीं कक्षा पास करने के बाद पंजाब विश्वविद्यालय से हिन्दी प्रभाकर की परीक्षा पास कर 1948 में पोस्ट आफिस में सर्विस करली। सरकारी नौकरी के माध्यम से रोजी-रोटी का साधन हो जाने पर श्री छोटे लाल जी का एटा के प्रसिद्ध परिवार की कन्या से विवाह कर दिया गया ।
बचपन से ही अभाव ग्रस्त जीवन के आदी श्री छोटेलालजी अभिमान और प्रदर्शन से दूर रहकर अपनी जिम्मेदारियों को निवाहने के लिए कृत पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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संकल्प रहे। सहयोग और सद्भाव के अपने विशेष गुणों के कारण वह लोकप्रिय थे। धर्म के प्रति निष्ठा और समर्पण उनका लक्ष्य था। दिल्ली की पंचायत की श्री छोटेलाल जी पर निगाह पड़ी पर अपना लिया। लगभग 15-20 वर्ष तक वह पंचायत की कार्यकारिणी से जुड़े रहे। 1985 में उनका स्वर्गवास हो गया। सर्वश्री अशोक कुमार, आनन्दकुमार और प्रमोदकुमार जैन आदि उनके योग्य पुत्र है। परिवार का संगठन, पारस्परिक प्रेम और सहयोग अनुकरणीय है। प्रभु कृपा से खुशहाल है और उदारता पूर्वक दान भी देते है।
स्व. श्री सनतकुमार जैन, मोरी गेट एटा जिले के सकरौली जनपद के श्री सनत कुमार 1925-26 के आस-पास दिल्ली आये। यहां आकर व्यवसाय किया। दोनों पुत्रों को शिक्षा दिलायी। बाद में वे सेन्ट्रल बैंक में सर्विस करने लगे। इनके बड़े पुत्र श्री नेमकुमार का 1976 में स्वर्गवास हो गया। श्री सुरेन्द्र कुमार उनके इकलौते पुत्र हैं। श्री नेमकुमार जी सरल स्वभावी और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति थे। पंचायत में काफी समय तक वे लेखा निरीक्षक रहे। श्री सनतकुमार जी का 1978 में स्वर्गवास हो गया।
श्री सनतकुमार जी के दूसरे पुत्र श्री नरेन्द्र कुमारजी 1993 में बैंक से सेवानिवृत्त हुए। श्री नरेन्द्र कुमार जी पंचायत के काफी समय तक लेखा निरीक्षक रहे हैं।
आचार्य श्री सन्मतिसागर महाराज जी का जब गांधीनगर दिल्ली-31 में वर्षायोग हुआ उस समय श्री नरेन्द्र कुमार जी वहां की समाज के अध्यक्ष थे। आचार्य श्री की प्रेरणा और आशीर्वाद से दिल्ली की पद्मावती पुरवाल दिगम्बर जैन पंचायत और पद्मावती पुरवाल दिगम्बर जैन समाज शाहदरा
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क्षेत्र ने एक जुट होकर गांधी नगर में पद्मावतीपुरवाल जाति की धर्मशाल का निर्माण कराया। दिल्ली की पद्मावती पुरवाल जाति के लिए ये स्वर्णिम क्षण गौरव और समर्पण के थे। समस्त पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन पंचायत, धर्मपुरा, दिल्ली-6 के इस अनूठे प्रयास और योगदान की सभी ने सराहना की ।
स्व. श्री देवसेन, पद्मसेन, इन्द्रसेन
आगरा जिले के जारखी जनपद के श्री मोतीलाल जी के तीन पुत्र सर्वश्री देवसेन, पदमसेन और इन्द्र सेन 1925-26 के आसपास दिल्ली आये और यहां आकर फलों के रस, पान और साड़ियों की दुकान की । श्री देवसेन जी का विवाह नहीं हुआ। श्री इन्द्रसेन जी का कोई पुत्र नहीं है । पद्मसेन जी का एक पुत्र है। उक्त तीनों भाइयों का स्वर्गवास हो चुका है।
स्व. श्री कालीचरण जी, गली गुलियान
आगरा जिले जारखी जनपद के स्व. अमृतलालजी के पुत्र श्री कालीचरण बाल्य अवस्था में ही दिल्ली में रह रहे अपने ताऊ के पास 1929-30 मे आ गये। जीवनयापन की व्यवस्था होने पर यथासमय उनका विवाह हो गया। कई संतानों की मृत्यु के बाद श्री रामबाबू नामक बालक से उन्हे पुत्र का सुख मिला। श्री कालीचरण जी सरलस्वभावी और धर्मनिष्ठ थे । काफी समय पूर्व उनका स्वर्गवास हो चुका है। श्री रामबाबू जैन, श्री रवि कुमार जैन एवं श्री नीरज जैन आदि उनके पुत्र हैं ।
स्व. श्री चन्द्रसेन जैन
एटा जिले के पुनहरे जनपद के श्री चन्द्रसैन जैन पुत्र श्री भगवानदास
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1941-42 में दिल्ली आये और श्री भोलानाथजी के पास कूचा सेठ में रहे। बाद में उनकी बैंक में सर्विस लग गई और कूचा लटू शाह में रहने लगे। श्री चन्द्रसेन सरल स्वभावी और विनम्र थे। बच्चों की उच्च शिक्षा पर उनका ध्यान केन्द्रित था। 1978 में बैंक से सेवा निवृत्त हुए और 1985 में उनका स्वर्गवास हो गया। बच्चों की शिक्षा पर उनका ध्यान केन्द्रित था।। सर्वश्री प्रदीप कुमार, प्रभात कुमार और प्रसन्नकुमार उनके पुत्र हैं। पूरा परिवार शिक्षित है।
मास्टर श्री चन्द्रपाल जैन पुनहरे के श्री चन्द्रसेन जैन के छोटे भाई श्री चन्द्रपाल जी ने दिल्ली आकर 1942 में दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.ए., बी.एड. और बाद में हिमाचल से एम.ए. इंगलिश में पास किया। 1953 में हीरालाल जैन हा. सै. स्कूल से अपनी जीवन यात्रा प्रारम्भ की। 1992 में सेवा निवृत होने से पूर्व कई स्कूलों में उन्होंने अध्यापन का काम किया। सर्वश्री सुशीलकुमार
और श्री सुधीर कुमार आपके दो पुत्र हैं। __ श्री चन्द्रपाल जी की धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में रुझान है। वे खरे स्वभाव के हैं। पद्मावती पुरवाल दिगम्बर जैन पंचायत की कार्यकारिणी के सदस्य, उपाध्यक्ष और अध्यक्ष रहे हैं। विषम परिस्थितियों में चुनाव अधिकारी की सराहनीय भूमिका का निर्वाह करते हैं।
स्व. श्री लक्ष्मीचन्द जैन, तिमारपुर एटा जिले के मरथरा जनपद के जमींदार परिवार के श्री लक्ष्मीचन्द जी पुत्र श्री हजारीलाल जी पं. बनवारीलाल स्याद्वादी की प्रेरणा पर 1930 के
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आसपास दिल्ली आये। शिक्षा पूरी करते ही उत्तर रेलवे में उनकी नौकरी लग गई। सादा जीवन उच्च विचार उनके जीवन का आदर्श था। वे सरल स्वभावी और धर्मात्मा थे। 1977 में 54 वर्ष की अवस्था में उनका स्वर्गवास हो गया। वे पंचायत के अच्छे कार्यकर्ता थे। सर्वश्री रमेशचन्द, महेशचन्द, दिनेशकुमार, निर्मल कुमार और पवन कुमार उनके पुत्र हैं। सभी पुत्र शिक्षित हैं। सबके अपने निवास हैं। परिवार में खुशहाली है। श्री लक्ष्मीचंद जी के दूसरे पुत्र श्री महेशचन्द का 44 वर्ष की उम्र में 1995 में हृदय गति रुक जाने से स्वर्गवास हो गया। सर्वश्री अमित और अंकित इनके दो पुत्र हैं।
श्री इन्द्रनारायण जैन, ग्रीन पार्क एटा जिले के मरथरा जनपद के स्व. श्री सुनहरीलाल जी के पुत्र श्री इन्द्रनारायण जी पं. बनवारीलाल स्याद्वादी की प्रेरणा पर दिल्ली आये। बाद में उनकी विधवा मां भी आ गई और स्कूल में अध्यापिका लग गईं। शिक्षा पूरी करते ही श्री इन्द्रनारायण जी की सेन्ट्रल बैंक में सर्विस लग गई। थोड़े समय बाद उनका विवाह हो गया। बनारसी भवन, मस्जिद खजूर में उनका निवास था और वहां सभी ओर मंदिरजी होने के कारण धार्मिक संस्कार उनमें भरपूर थे। पंचायत के उत्साही कार्यकर्ता थे। लगभग 15 वर्ष पूर्व वे बैंक सेवा से निवृत हुए। इससे काफी वर्ष पूर्व उन्होंने अपना निवास ग्रीन पार्क की अपनी कोठी में कर लिया था। ग्रीन पार्क पहुंचने के बाद वहां की समाज ने उनके धार्मिक विचार और आचरण को देखते हुए उचित सम्मान दिया। आज भी वे वहां के प्रमुख व्यक्ति हैं। श्री इन्द्रनारायणजी देव शास्त्र और गुरु के प्रति अपार श्रद्धा रखते हैं।
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स्व. श्री प्रेमसागर जैन . एटा जिले के मरथरा जनपद के जमींदार श्री हरमुखराय जैन 'सिरमोर' परिवार के ज्येष्ठ पुत्र श्री प्रेमसागर जी 1944 में शिक्षा ग्रहण करने के लिए दिल्ली आये। शिक्षा प्राप्त करने के बाद गांधीवादी प्रकाशन संस्था 'सस्ता साहित्य मंडल' में हिन्दी टाइपिस्ट के रूप में कार्य करने लगे। यहां हिन्दी के अनेक वरिष्ठ लेखकों, कवियों और राजनेताओं से उनका सम्पर्क हुआ। इन लोगों की प्रेरणा पर उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण कर राज्य सभा में सेवारत हो गये। बाद में उन्होंने अपने छोटे भाई श्री सतीश जैन और श्री प्रताप जैन को भी दिल्ली बुला लिया। इसके कुछ वर्षों बाद पूरा परिवार ही दिल्ली आ गया। श्री राहुल जैन इनके इकलौते पुत्र हैं। बवासीर का उपचार कराने के लिए नर्सिंग होम में दाखिल हुए। अगले दिन सुबह श्री प्रेमसागर जी का वहीं पर हृदय गति रुक जाने से स्वर्गवास हो गया।
श्री प्रेमसागर जी सरल स्वभावी, मिलनसार, दूसरों के काम आने वाले व्यक्ति थे। पद्मावती पुरवाल दिगम्बर जैन पंचायत के कार्य को नियमित
और व्यवस्थित कराने में उनका बड़ा योगदान रहा है। लाला पातीराम जी, श्री नेमीचन्द जी रेलवे वाले, श्री हरी चन्द विस्तागी दिल्ली, चौधरी हुकमचन्द जी और महावीर प्रसाद जी रोगन वालों के वे परम मित्र थे।
बुद्धिमानी जब कोई दूसरा क्रोध करे तो स्वयं शान्त बने रहो। किसी के गन्दे वस्त्रों को देखकर कोई अपने स्वच्छ वस्त्रों पर धूल नहीं डालता।
दूसरा जब हमारी ओर अंगारे फेंके तो उसके सामने से हट जाने में ही बुद्धिमानी है।
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श्री पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन समाज, शाहदरा क्षेत्र (पं.)
रघुबरपुरा, गांधीनगर, दिल्ली श्री पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति समस्त भारत वर्ष में धार्मिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में उन्नतिशील है तथा सम्पूर्ण दिम्बर जैन जाति में अपनी अनूठी पहिचान बनाये हुए हैं। चौथी सदी के परम पूज्य आचार्य श्री 'पूज्यबाद' एवं बीसवी सदी के प.पू.आ. 108, श्री महावीर कीर्ति एवं प.पू.आ. 108 श्री विमल सागर जी महाराज आदि ने इसी जाति को गौरवान्वित किया है। वर्तमान में महान तपस्वी प.पू. आचार्य 108 श्री सन्मतिसागरजी महाराज, गिरनार गौरव आचार्यश्री निर्मलसागरजी महाराज
और आचार्यश्री निर्भयसागरजी महाराज ने इसी जाति के धार्मिक परिवारों में जन्म लिया। पद्मवातीपुरवाल जाति में धार्मिक कट्टरता के साथ-साथ अच्छे श्रावक के गुण, आत्मविश्वास एवं जैनत्व की भावना प्रत्येक परिवार में विद्यमान है। विगत लगभग 90 वर्ष से पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन पंचायत धर्मपुरा दिल्ली-6 इस जाति को संगठित तथा उन्नतिशील बनाने के लिए पूर्ण रुपेण समर्पित है।
विगत लगभग चार दशकों में जमुनापार, गांधीनगर, शाहदरा आदि क्षेत्रों में पद्मावतीपुरवाल जाति के भाई बहिनों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है, जो समाज की प्रगति एवं जातीय भाईयों का पारस्परिक भ्रातृत्व भाव का प्रतिफल है। इस सद्भाव को कायम रखने के लिए तथा जाति के उत्थान एवं संगठन को मजबूत करने के लिए क्षेत्रीय संगठन की
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आवश्यकता महसूस की जाने लगी। अतः इस कार्य को मूर्तरूप देने के लिए सभी ने एक नया संगठन शाहदरा क्षेत्र हेतु गठित करने की राय प्रकट की। बाद में यह संगठन प.पु.दि. जैन समाज शाहदरा क्षेत्र (रजि) गांधी नगर दिल्ली के नाम से जून 1986 में पंजीकृत कराया गया। पंजीकरण के बाद इस संस्थान ने कई परम्परागत कार्यक्रम आयोजित किये। __ अगस्त 1990 में पद्मावती पुरवाल दि. जैन पचायत धर्मपुरा दिल्ली-5 की कार्यकारिणी के चुनाव में श्री महावीर प्रसाद जी रोगन वाले अध्यक्ष, श्री प्रथमेश जैन मंत्री और श्री शुकलचन्द जैन चौधरी निर्वाचित हुए। नत्र निर्वाचित कार्यकारिणी और पूरी पंचायत की यह भावना और प्रयास हुआ कि पद्मावती पुरवाल दि. जैन पंचायत धर्मपुरा, दिल्ली और पद्मावती पुरवाल दि. जैन समाज गांधीनगर द्वारा क्षमावाणी पर्व अलग-अलग न मनाकर एक जगह ही मनाये जाए। उस समय गांधीनगर जैन समाज के अध्यक्ष श्री अतरचन्द जैन, मंत्री श्री अशोक कुमार जैन रीवा वाले, और चौधरी श्री प्रमोद कुमार जैन मामा बिजली वाले थे। दोनों संस्थाओं के निरंतर प्रयत्नशील रहने पर यह सफलता अगस्त 1992 में मिली। परिणामस्वरूप 1992 की क्षमावाणी पर्व और आचार्य श्री विमल सागरजी महाराज की जन्म जयन्ती संयुक्त रूप से प्रथम बार ए-वाने-गालिब हाल, राउज एवेन्यू में मनाई गई। श्री सतीश जैन (गुड्डू भाई) इस समारोह के संयोजक थे। निर्णय यह हुआ था कि दोनों संस्थाएं संयुक्त रूप से एक बार पंचायत की इच्छाअनुसार उसके निर्देशित स्थान पर और अगली वर्ष गांधी नगर की समाज की इच्छानुसार उसके निर्देशित स्थान पर मनायी जाय। तद्नुसार 1993, का क्षमावाणी रघुवरपुरा गांधीनगर में संयुक्त रूप से मनाया गया।
अगस्त 1994 में पंचायत के चुनाव हुए। उसमें श्री रमेशचन्द जैन कागजी, अध्यक्ष, श्री सतीश जैन (गुड्डू भाई) मंत्री और श्री शुकलचन्द 259
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जैन चौधरी निर्वाचित हुए। दिल्ली की पंचायत और गांधी नगर की समाज के संयुक्त निर्णय के अनुसार 1994 का क्षमावाणी पर्व संयुक्त रूप से पंचायत की इच्छानुसार फिक्की सभागार में मनाया गया। 26 जनवरी 1995 की गांधी नगर की जैन समाज का चुनाव हुआ। उसमें श्री नरेन्द्रकुमार जैन कृष्णानगर, अध्यक्ष, श्री महेशचन्द जैन (अवागढ़ वाले) मंत्री और श्री अतरचन्द जैन (चौधरी) निर्वाचित हुए।
जमुनापार में साधर्मी परिवारों की बढ़ती संख्या को देखते हुए दिल्ली में रहने वाले पदमावती पुरवाल जाति के प्रत्येक व्यक्ति के मन में यह भावना थी कि गांधीनगर क्षेत्र में पद्मावतीपुरवाल जाति की एक धर्मशाला होनी चाहिए। इसी संदर्भ में 1972 में श्री प.पु.दि. जैन पंचायत धर्मपुरा दिल्ली-6 की आम सभा में पूर्ण सहमति से प्रस्ताव पास भी किया गया। पर कुछ परिस्थितियों के कारण यह कार्य उस समय सम्पन्न नहीं हो पाया। परम सौभाग्य से जुलाई 1995 में प.पू.आ. 108 श्री सन्मतिसागरजी महाराज का ससंघ चातुर्मास गांधी नगर क्षेत्र में हुआ। उस समय कुछ सामाजिक व्यवधान एवं चातुर्मासिक परेशानियों के कारण पद्मावतीपुरवाल जाति की धर्मशाला की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। उसी समय समस्त कार्यारिणी ने आचार्य श्री से आशीर्वाद प्राप्त कर इस कार्य को पूर्ण करने का निश्चय किया तथा उसी समय समस्त दिल्ली समाज के प्रबुद्ध व्यक्तियों से विचार विमर्श कर श्री प.पु.दि. जैन पंचायत रजि. धर्मपुरा दिल्ली-6 एवं श्री प.पु. दि. जैन समाज शाहदरा क्षेत्र रजि. गांधी नगर के सदस्यों की एक सभा दिनांक 3 सितम्बर 95 का बुलाई गई, जिसमें यह प्रस्ताव पूर्ण सहमति एवं उत्साह के साथ पारित हुआ कि धर्मशाला अवश्य बननी चाहिए तथा सभी ने पूर्ण रूप से आर्थिक एवं अन्य सभी प्रकार के सहयोग का आश्वासन भी दिया।
पू. महाराजजी के पावन सानिध्य और दोनों संस्थाओं संयुक्त तत्वावधान में श्री विनोद कुमार जैन रेलवे वालों की अध्यक्षता में 1995 का क्षमावाणी पद्माव पेपरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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पर्व गांधीनगर में मनाया गया। कार्यक्रम का झंडारोहण श्री पारसदास अनिलकुमार जैन गुलमोहर पार्क ने किया। इस आयोजन की पूर्व संन्ध्या पर धर्मशाला के लिए निश्चित किये गये मकान की खरीद का व्याना दे दिया गया। समारोह में इसकी विधिवत घोषणा की गई।
1 जुलाई 1996 को धर्मशाला की जगह की रजिस्ट्री श्री प.पु. दि. जैन समाज शाहदरा क्षेत्र रजि. के नाम करादी गई। इसके उपरांत मुनि श्री 108 अरुण सागरजी महाराज एवं मुनि श्री 108 पुलकसागर जी महाराज के पावन सान्निध्य एवं दिल्ली की पद्मावती पुरवाल दिगम्बर जैन जाति के अपार श्रद्धालुओं की उपस्थिति में शांति विधान एवं णमोकार मंत्र पाठ सम्पन्न हुआ। उसी समय धर्मशाला में शुद्धि के साथ प्रवेश कर मंगल कलश की दिनांक 12/7/96 को स्थापना की गई। इस अनूठे कार्य में प. पु. दि. जैन जाति ने जो सहयोग दे कर आर्थिक उदारता और पारस्परिक एकता का परिचय दिया है, उसके लिए सभी बधाई के पात्र हैं । इस प्रकार श्री पद्मवातीपुरवाल दिगम्बर जैन धर्मशाला का लोकार्पण करके जनसाधरण के उपयोग के लिए खोल दी गई । कुछ समय बाद धर्मशाला में निर्माण कार्य प्रारम्भ हो गया जो लगभग डेढ़ वर्ष की अल्प अवधि में ही पूर्णतः की ओर पहुंच गया।
गांधीनगर में धर्मशाला के निर्माण के संकल्प को मूर्तरूप देने में पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन पंचायत, धर्मपुरा दिल्ली - 6, उसके अध्यक्ष श्री रमेशचन्द जैन कागजी और श्री विनोदकुमार जैन रेलवे वालों के साथ-साथ श्री पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन समाज शाहदरा क्षेत्र गांधीनगर के अध्यक्ष श्री नरेन्द्र कुमार जैन, मंत्री श्री महेशचन्द जैन, चौधरी श्री अतरचन्द जैन, श्री सुगनचन्द जैन इम्फाल वाले, श्री नवीन जैन रोहिणी, श्री सुमतप्रकाश जैन अवागढ़ वालों आदि का उल्लेखनीय योगदान रहा। सर्वाधिक योगदान रहा दोनों संस्थाओं के एकजुट समस्त पदाधिकारियों, सदस्यों और कार्यकर्ताओं से प्रभावित उदार दानदाताओं का, जिन्होंने खुले
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दिल और पूर्ण विश्वास के साथ दान देकर पद्मावतीपुरवाल जाति को आगे बढ़ाने का मार्ग प्रशस्त किया। धर्मशाला की भूमिका बनने से लेकर धर्मशाला का निर्माण कार्य पूर्णता की ओर पहुंचने तक पू. आचार्य श्री सन्मतिसागरजी महाराज का भरपूर आशीर्वाद प्राप्त रहा है। दिल्ली पंचायत और गांधीनगर की समाज पूज्य आचार्यश्री की चरण वन्दना करती है ।
श्री पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन समाज शाहदरा क्षेत्र (पंजी.) गांधीनगर के 26-1-98 को हुए त्रिवार्षिक चुनाव में निर्वाचित हुए प्रमुख पदाधिकारी इस प्रकार हैं। श्री अतरचन्द्र जैन (चौधरी), डॉ. विजय कुमार जैन (अध्यक्ष), श्री सुमित प्रकाश जैन (वरिष्ठ उपाध्यक्ष), श्री महेशचन्द जैन (उपाध्यक्ष) श्री पुष्पेन्द्र कुमार जैन (मंत्री), श्री जगदीशप्रसाद जैन (उपमंत्री) श्री हरिबाबू जैन (कोषाध्यक्ष), श्री नवीन जैन रोहिणी ( प्रचारमंत्री), श्री इन्द्ररतन जैन (धर्मशाला प्रबन्धक), श्री एस. पी. जैन (लेखा निरीक्षक) ।
वर्तमान में यही कार्यकारिणी कार्य कर रही है ।
मूर्ति कहाँ
सिकन्दर की राजधानी में एक सुन्दर बगीचा था। उसमें प्राचीन और वर्तमान पराक्रमी पुरुषों की मूर्तियां खड़ी की गई थी। एक बार सिकन्दर की राजधानी देखने कोई विदेशी अतिथि आया । सिकन्दर उसे अपना शाही बगीचा दिखाने के लिए अपने साथ ले गया। वहां रखी हुई मूर्तियों को देख कर अतिथि को काफी कौतूहल हुआ । उसने सिकन्दर से पूछा- 'ये किनकी मूर्तियां हैं?' सिकन्दर ने उनके बारे में बताया। सारी मूर्तियां देखने के बाद अतिथि ने कहा - 'महाराज ! आप की मूर्ति कहीं भी दिखाई नहीं दी ?"
सिकन्दर ने जबाव दिया- 'मेरी मूर्ति यहां रखी जाए और अगली पीढ़ी यह प्रश्न करे कि ये मूर्ति किसकी है इसकी अपेक्षा मुझे यह अधिक अच्छा लगेगा कि मेरी मूर्ति रखी ही न जाए और लोग पूछें कि सिकन्दर की मूर्ति क्यों नहीं है?'
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प्रगतिशील पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन संगठन' (पं.)
प्रस्तुति-सतीश जैन (गुड्डू भाई)
मंत्री, प्रगतिशील प.पु.दि. जैन संगठन आज हम संकट की दहलीज पर खड़े हैं। अगर अभी से पूरी तैयारी नहीं की तो स्थिति भयावह हो सकती है। वर्तमान जितना चिंतनीय है, भविष्य उतना ही अस्पष्ट है। आगे बढ़ने में बहुत-सी व्यवहारिक उलझनें हैं। अतः हमें वर्तमान की समीक्षा करते समय भविष्य दृष्टा भी बनना होगा।
यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि पद्मावतीपुरवाल जाति की किसी भी स्थानीय अथवा अखिल भारतीय संस्था के स्वतंत्र अस्तित्व में प्रत्यक्ष । अथवा परोक्ष रूप से हस्तक्षेप करना इस संगठन का उद्देश्य नहीं है। पद्मावतीपुरवाल जाति का प्रत्येक व्यक्ति, उनका संगठन और उनका सामूहिक नेतृत्व हमारी जातीय प्रगति का आधार है। इसलिए हमारी यह भावना और कामना है कि हमारी सभी जातीय संस्थाएं सुसंगठित, सुव्यवस्थित और एकजुट हों। इसके लिए हमारा विनम्र सुझाव यह है कि स्थानीय संस्थाएं/संगठन अपने अपने क्षेत्र में रहने वाले पद्मावती पुरवाल जाति के प्रमुख विद्वानों, श्रेष्ठियों, उच्च शिक्षा प्राप्त युवक युवतियों और कार्यकर्ताओं के साथ-साथ सामान्य श्रावक श्राविकाओं के नाम पते और फोन नम्बर संकलित करके अपने संगठनों को उपयोगी और मजबूत
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बनाएं। यह एक सच्चाई है कि आज के व्यस्त जीवन में व्यक्तिगत सम्पर्क (नियमित बैठकें) बहुत नहीं हो पाती। बिना सम्पर्क के एकजुटता और विचारधारा अथवा आयोजनों में एक रसता भी नहीं आ पाती। फोन अथवा पत्राचार से सम्पर्क फिर भी हो जाता है। अतः इस सम्पर्क के माध यम से भी संगठन को मजबूती और क्रियाशीलता प्राप्त हो सकती है। इस * संदर्भ में हमारे योग्य कोई सेवा हो तो पाठक हमें सूचित कर सकते हैं।
पारस्परिक सहयोग और सद्भाव के वातावरण में पद्मावतीपुरवाल जाति के उत्थान के लिए सोच विचार कर किये गये संकल्प कल्पवृक्ष के समान हो सकते हैं। अतः उपरोक्त सभी बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुए लगभग तीन वर्ष पूर्व निम्न उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए 'प्रगतिशील पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन संगठन' की स्थापना की गई :1. जातीय गौरव की रक्षा और भावी पीढ़ी के भविष्य निर्माण में
सहायक बनने के लिए कुछ स्थायी महत्व के रचनात्मक कार्य
करना। 2. उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले मेधावी छात्र-छात्राओं को छात्र-वृत्ति ___ अथवा प्रोत्साहन पुरस्कार देना। 3. विधवाओं, परितिक्त महिलाओं, पिछड़े एवं पीड़ित वृद्धों एवं उन पर
आश्रितों के पालन पोषण में गोपनीय आधार पर आर्थिक सहायता
देना अथवा अन्य माध्यमों से स्वावलम्बी बनाने का प्रयास करना। 4. उच्च शिक्षा प्राप्त और कार्यरत युवाओं और युवतियों के माध्यम से
उच्च शिक्षा प्राप्त युवक युवतियों को समुचित स्थान पर सर्विस दिलाने अथवा उच्च शिक्षा के लिए मार्ग दर्शन हेतु अपनी निष्ठापूर्ण
सेवाएं समर्पित करना। 5. अन्य कोई जनकल्याणकारी कार्य जो अधिक ग्राह्य और उपयोगी
हो।
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आप और आपका संगठन पद्मावतीपुरवाल जाति की महत्वपूर्ण इकाई है। अतः आपका व्यक्तिगत, संस्थागत और सामूहिक सहयोग और मार्गदर्शन अपेक्षित है। प्रगतिशील पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन संगठन
वर्तमान कार्यकारिणी श्री रमेशचन्द जैन कागजी, (अध्यक्ष), श्री पदमचन्द जैन (चैयरमेन सं. समिति), श्री सुरेन्द्र बाबू जैन, (उपाध्यक्ष), श्री प्रताप जैन, महामंत्री, श्री सतीश जैन (गुड्डू भाई) मंत्री, श्री स्वराज जैन, (कोषाध्यक्ष), श्री अनिल कुमार जैन (लेखा निरीक्षक), श्री ए.पी. जैन, सदस्य, श्री . आनन्द कुमार जैन, सदस्य, श्री एस. कान्त जैन, सदस्य, श्री संजीव जैन, सदस्य।
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पोशाक एक साधु ने गांधी जी से कहा-'महात्माजी मैं आपके आश्रम में रह कर जीवन बिताना चाहता हूं। मेरे जीवन का उपयोग राष्ट्र हित में हो तो मेरा अहोभाग्य होगा।'
गांधीजी ने कहा-'आपको गेरुए वस्त्रों का त्याग करना होगा।' साधु ने कहा-'महात्माजी ऐसा कैसे हो सकता है। मैं तो संन्यासी हूं।'
गांधीजी बोले-'आप अपने संन्यास को नहीं छोड़ें। गेरुए वस्त्र देखकर हमारे देशवासी पूजा अर्चना शुरू कर देते हैं। इन वस्त्रों के कारण लोग आपसे सेवा लेना स्वीकार नहीं करेंगे। जो सतु सेवा के काम में बाधा डाले उसे छोड़ देना चाहिए। फिर संन्यास तो मानसिक वस्तु है। पोशाक के छोड़ने से संन्यास नहीं छूटता।'
साधु ने गेरुए वस्त्र तत्काल त्याग दिए और आश्रम में रहने लगा।
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ऐतिहासिक ग्रंथ का लोकार्पण समारोह
प्रस्तुति- चंदन जैन, संयोजक
जैन जातियों के प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता श्री रामजीत जैन एडवोकेट, ग्वालियर द्वारा रचित, प्राचार्य श्री नरेन्द्र प्रकाश जैन और श्री बृजकिशोर जैन द्वारा संपादित 'प्रगतिशील पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन संगठन' (पं.) द्वारा प्रकाशित ग्रंथ 'पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास' का लोकार्पण समारोह रविवार 19 जून, प्रातः 8. 15 हिन्दी भवन, राउज एवेन्यू, नई दिल्ली - 2 पर डॉ. रमेशचन्द जैन, निबाई ( राजस्थान) की अध्यक्षता में आयोजित समारोह में ग्रंथ का लोकार्पण सुप्रसिद्ध समाजसेवी श्री आनन्दप्रकाश जैन, आगरा ने किया।
अखिल भारतीय स्तर के इस भव्य और एतिहासिक समारोह में दिल्ली, राजस्थान, गुजरात, इन्दौर, सिहोर, सुजालपुर, भोपाल, झांसी, एटा, एत्मादपुर, फिरोजाबाद, आगरा, टूण्डला आदि अनेक स्थानों के सैकड़ों वरिष्ठ समाज सेवियों एवं प्रतिनिधियों ने भाग लिया । उदार और वरिष्ठ समाज सेवी श्री विनोदकुमार जैन, नई सड़क, दिल्ली ने स्वागताध्यक्ष के रूप में मंचासीन सभी अतिथियों का स्वागत किया ।
समारोह के प्रारम्भ में बाल कलाकारों के भजनों के बाद श्रीमती प्रमिला जैन द्वारा प्रस्तुत मंगल गान 'वीर वन्दना करूं मैं तेरी, तेरे ही गुण पाने को, तू ही है सर्वज्ञ जगत में सच्चा मार्ग बताने को ' के पश्चात् दिल्ली के प्रसिद्ध विद्वान श्री अशोक जैन ने मंगलाचरण किया। झंडारोहण जैन
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समाज में अग्रणीय और प्रसिद्ध समाज सेवी श्री चक्रेश जैन बिजली वाले, सुप्रसिद्ध समाज सेवी श्री श्रीकमल जैन एडवोकेट भोपाल, श्री विनयकुमार जैन 'अन्ना' एत्मादपुर और श्री रमेशचन्द जैन कागजी ने किया। दीप प्रज्ज्वलन प्राचार्य श्री नरेन्द्रप्रकाश जैन, श्री रामजीत जैन एडवोकेट, श्री पारसदास जैन एवं श्री विनोद कुमार जैन ने किया। साथ में रहीं श्री संतकुमार जैन बैंकर्स टूण्डला वालों की पुत्री श्रीमती ममता जैन।
परमपूज्य आचार्य 108 श्री महावीर कीर्तिजी महाराज, आचार्य श्री विमलसागरजी महाराज, आचार्य श्री अजितसागरजी महाराज, आचार्य श्री सन्मतिसागरजी महाराज, आचार्य श्री निर्मलसागरजी महाराज, आचार्य श्री निर्भय सागरजी महाराज के सामूहिक चित्र से बने प्रतीक चिन्ह का अनावरण समारोह के मुख्य अतिथि श्री जैनेन्द्रकुमार जैन, (तहसीलदार) खुर्जा तहसील ने किया।
समारोह के मुख्य वक्ता के रूप में प्रसिद्ध समाज सेवी श्री आदीश जैन (भोपाल) ने अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा कि धार्मिक आयोजनों का अपना महत्व होता है, पर उसकी अनावश्यक साज-सज्जा पर जो राशि व्यय होती है, उसका उपयोग यदि अन्य जनकल्याणकारी कार्यों पर करें तो आयोजन अधिक फलदायी और प्रभावी हो सकते हैं। इस अवसर पर प.पु. दि. जैन पंचायत आगरा के अध्यक्ष श्री सी.पी.जैन, भोपाल के प्रसिद्ध अधिवक्ता श्री श्रीकमल जैन एवं जयपुर से पधारे प्रसिद्ध समाजसेवी श्री राजेन्द्रपाल जैन ने भी अपने उद्गार व्यक्त किये।
श्री चक्रेश जैन बिजली वाले ने अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा कि जनमानस में देव-शास्त्र और गुरु के प्रति श्रद्धा की अलख जगाने और धर्मप्रभावना में पद्मावतीपुरवाल जाति के पूज्य साधुसंतों, विद्वानों एवं कार्यकर्ताओं का उल्लेखनीय योगदान है। ग्रंथ के लेखक श्री रामजीत जैन एडवोकेट ने कहा कि इतिहास की
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जानकारी के बिना हमारा जीवन अधूरा है।
प्राचार्य श्री नरेन्द्रप्रकाश जैन ने कहा कि अतीत के अवलोकन का नाम इतिहास है और अतीत की छाया से वर्तमान प्रभावित होता है। इतिहास का धनात्मक पक्ष ( प्लस पाइंट) यह है कि उसे पढ़कर सकारात्मक दिशा में कदम उठाए जा सकते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि आज के वैज्ञानिक और प्रतियोगी युग में हम संगठित होकर रचनात्मक कार्यों के माध्यम से जातीय गौरव / अस्तित्व की रक्षा कर सकते हैं। यह समाज और राष्ट्र सेवा में हमारा बहुमूल्य अवदान होगा।
कार्यक्रम के प्रारम्भ में संगठन के मंत्री श्री सतीश जैन (गुड्डूभाई) ने संगठन की गतिविधियों, और उसकी भावी योजनाओं और उसके उद्देश्यों पर प्रकाश डाला। संगठन के महामंत्री मंच संचालक श्री प्रताप जैन ने प. पु. दि. जैन पंचायत, दिल्ली के चौधरी श्री शुल्कचंद जैन एवं उनके साथियों प. पु. दि. जैन समाज शाहदरा क्षेत्र, गांधी नगर के चौधरी श्री अतरचंद जैन, अध्यक्ष श्री डा. विजयकुमार जैन, एवं उनके साथियों के साथ-साथ भोलानाथनगर जैन समाज के अध्यक्ष श्री राजबहादुर जैन, जैन समाज रोहिणी सैक्टर-8 के अध्यक्ष श्री नवीन जैन और यमुना विहार के समाजसेवी श्री उमेशचन्द जैन की उपस्थिति पर प्रसन्नता व्यक्ति की ।
प्रगतिशील पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन संगठन की संस्थापक समिति के चैअरमेन श्री पदमचन्द जैन दरीबां, संगठन के उपाध्यक्ष श्री सुरेन्द्रबाबू जैन, कोषाध्यक्ष श्री स्वराज जैन, लेखा निरीक्षक श्री अनिलकुमार जैन (गुलमोहर पार्क) कार्यकारिणी के सदस्य सर्व श्री ए. पी. जैन प्रीत विहार, श्री आनन्द जैन गांधी नगर, श्री एस. कान्त जैन ग्रेटर कैलाश पार्ट-2, श्री संजीव जैन डिप्टीगंज ने समारोह में पधारे अतिथियों एवं विशिष्ट सहयोगियों को प्रतीक चिन्ह भेंट कर सम्मानित किया। प. पु. दि. जैन महासंघ इन्दौर के अध्यक्ष श्री हेमचन्द जैन के सहयोग की मुक्तकंठ से पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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प्रशंसा की गई। साथ ही उन्हें सम्मानित भी किया गया। इस अवसर पर : बाहर से पधारे सभी प्रतिनिधियों में कुछ उल्लेखनीय नाम इस प्रकार हैं-सर्वश्री सुरेशचन्द जैन एडवोकेट, टूण्डला, संजय जैन; पी.आर.ओ. फिरोजाबाद श्री राजेन्द्रपाल जैन जयपुर, श्री छोटेलाल जैन झांसी श्री प्रदीप जैन (पत्रकार) एटा, आदि को प्रतीक चिन्ह भेंट कर सम्मानित किया गया। भजनों के माध्यम से धर्म प्रभावना और रस परिवर्तन करने वाली बहनों श्रीमती इन्द्राणी जैन, श्रीमती ममता जैन, श्रीमती प्रमिला जैन को भी इस अवसर पर सम्मानित किया गया। बाल कलाकार तनमय जैन
और तरुण जैन को आशीर्वाद देते हुए उनके उज्जवल भविष्य की कामना 'की गई। ।
संगठन के अध्यक्ष श्री रमेशचन्द जैन कागजी ने सभी अतिथियों का आभार व्यक्त करते हुए भविष्य में भी सहयोग बनाये रखने का अनुरोध किया। ग्रंथ लेखक 83 वर्षीय श्री रामजीत जैन एडवोकेट, ग्वालियर और प्राचार्य श्री नरेन्द्रप्रकाश जैन के प्रति आभार व्यक्त करते हुए श्री रमेश चन्दजी बहुत भावुक हो गये। अस्वस्थता के कारण न आ सके श्री ब्रजकिशोर जैन के प्रति भी उन्होंने आभार व्यक्त किये। साथ ही पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन पंचायत धर्मपुरा दिल्ली-6 और पद्मावती पुरवाल दि. जैन समाज शाहदरा क्षेत्र गांधीनगर के सभी पदाधिकारियों एवं सदस्यों के साथ-साथ अन्य संस्थाओं के पदाधिकारियों एवं सदस्यों का भी आभार व्यक्त किया। प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से सहायक सभी महानुभावों और बहनों के साथ-साथ कार्यक्रम के संयोजक श्री चन्दन
जैन, संयोजक समिति के सदस्यों और उनके साथियों को भी धन्यवाद देते हुए उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना की।
आचार्य श्री विमलसागरजी महाराज के जयघोष के साथ कार्यक्रम पूर्ण हुआ।
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मंगलगान प्रस्तुत करते हुए श्रीमती प्रमिला जैन।
जैन बज के नीचे की कोजन, श्री रमेशचन्द जैन, श्री विनय कुमार जैन 'अम्माजी, पत्मादपुर और बैठे हुए है श्री अतरवंद जैन, श्री सी.पी. जैन अमत मागस, श्री श्रीकमल जैन भोपाल,
श्री नरेशचन्द्र जैन कागजी और श्री मायाका जैन आगरा।
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दीप प्रज्ज्वलन करते हुए प्राचार्य श्री नरेन्द्रप्रकाश जी, उनके आगे हैं श्री विनोद कुमार जैन, पीछे खड़े हुए है श्री रामजीत जैन एडवोकेट और सामने की ओर श्री सुरेन्द्र बाबू उपाध्यक्ष,
श्री पारस दास जैन एवं श्रीमती ममता जैन।
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सभागार में बैठे हुए सर्वश्री राजबहादुर, उमेशचन्द, पारसदास, सतीश जैन, राजेन्द्र पाल जैन,
आनन्द प्रकाश, सी.पी. जैन पीछे हैं श्रीमती एवं श्री हीरालाल जैन जाली वाले।
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श्री आदिनाथाय नमः प्रपिक पदकमाएका हिम्म त आपका हार्दिक स्वागत करता है
मंचासीन श्री आदीश जैन भोपाल, डॉ. रमेश चंद जैन निवाई, श्री रमेशचन्द, श्री रामजीत जैन,
प्राचार्य श्री नरेन्द्रप्रकाशजी, डॉ. विजय कुमार जैन, श्री पदमचन्द जैन।
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परमपूज्य आचार्यश्री महावीर कीर्तिजी, श्री विमलसागरजी, श्री अजीतसागरजी, श्री सन्मतिसागरजी, श्री निर्मलसागरजी और श्री निर्भयसागरजी महाराज के संयुक्त चित्र का अनावरण करके
मुख्य अतिथि श्री जे.के. जैन, प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाशजी को चित्र भेंट करते हुए।
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ग्रन्थ के लेखक श्री रामजीत जैन एडवोकेट ग्वालियर को शाल समर्पित करते हुए श्री रमेशचंद जेन कागजी (अध्यक्ष) और श्री पदमचन्द जेन (चेयरमेन सस्थापक समिति)।
ग्रन्थ के सपादक प्राचार्य श्री नरेन्द्रप्रकाशजी को शाल समर्पित करते हुए श्री पारसदासजी
और उनके साथ हे श्री महावीर प्रसादजी रोगन वाले।
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ग्रन्थ के लेखक श्री रामजीत जैन एव सम्पादक श्री नरेन्द्रप्रकाश जी के मध्य प्रबन्ध सपादक
श्री प्रताप जैन का अभिवादन करते हुए श्री पदमचन्द जैन दरीबा।
करकपुरबाल विकार जैन समान दाहक स्वागत करताह
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मचासीन डॉ रमेशचद जैन निवाई, श्री रमेशचद, श्री नरेशचद, श्री हेमचन्द अध्यक्ष इन्दौर,
श्री विमल किशोरजी और श्री महावीरप्रसादजी।
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सभाध्यक्ष डॉ. रमेशचंद जैन निवाई (राज.) को प्रतीक चिन्ह भेंट करते हुए
संयोजक समिति के सदस्य श्री उपेन्द्र जैन।
मुख्य अतिथि श्री जैनेन्द्र कुमार जैन (तहसीलदार खुर्जा) को प्रतीक चिन्ह भेंट करते हुए
श्री सतीश जैन (आकाशवाणी)।
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मुख्य वक्ता श्री आदीश जैन भोपाल को सम्मानित करते हुए
कार्यकारिणी के सदस्य श्री संजीव जैन डिप्टीगंज।
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विशिष्ट अतिथि श्री विनय कुमार अन्ना जी, एत्मादपुर को प्रतीक चिन्ह भेंट करते हुए
प्रगतिशील प.पु.दि. जैन संगठन के मंत्री श्री सतीश जैन (गुड्डू भाई)।
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श्री सी. पी. जैन अध्यक्ष प.पु. दि. जैन समाज आगरा का सम्मान करते हुए आयोजन के संयोजक श्री चंदन जैन ।
सभागार में बैठे हुए हैं श्री छोटेलाल जैन झांसी, सुरेशचंद जैन एडवोकेट टूण्डला, पीछे बैठी हैं श्रीमती सुशीला जैन, स्नेह जैन, मृदुला जैन और विमलेश जैन । बराबर में हैं श्री प्रदीप जैन ।
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ग्रन्थ का लोकार्पण करते हुए श्री आनन्दप्रकाश जैन आगरा। उनके एक ओर खड़े हैं श्री अनिल कुमार जैन (लेखा निरीक्षक), श्री स्वराज जैन (कोषाध्यक्ष), श्री संजीव जैन,
दूसरी ओर खड़े हैं कार्यकारिणी के सदस्य श्री आनन्द जैन।
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श्री आनन्द प्रकाश जैन के साथ हैं श्री रमेश चन्द, सतीश जैन, संजीव जैन, और दूसरी ओर है.
श्री अनिल कुमार, श्री विनोद कुमार, श्री सुरेन्द्र बाबू और श्री आनन्द कुमार जैन।
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श्री उमेशचंद जैन (मुखियाजी) और श्री महावीर प्रसाद जी का सम्मान करने के लिए आगे बढ़ते हुए कार्यकारिणी के सदस्य श्री एस कान्त जेन ग्रेटर कैलाश पार्ट-2 1
संगठन के प्रमुख कार्यकर्त्ता श्री प्रमोद जैन गांधी नगर का स्वागत करते हुए श्री ए. पी. जैन प्रीतविहार सदस्य कार्यकारिणी ।
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मंदिर प्रबन्धक श्री संतोषचन्द जैन कागजी और श्री शुक्लचन्द जैन चौधरी को मंदिरजी के लिए प्रतीक चिन्ह भेट करते हुए प्राचार्य श्री नरेन्द्रप्रकाश जी ।
प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्त्ता श्री अवनी जैन आगरा का सम्मान करते हुए " उदार समाज सेवी श्री कमल कान्त जैन ग्रेटर कैलाश पार्ट
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धर्मशाला प्रबन्धक श्री अनिल कुमार जैन को धर्मशाला के लिए प्रतीक चिन्ह भेंट करते हुए उदार समाजसेवी श्री नरेशचंद जैन कागजी प्रीतविहार ।
सभागार में बैठे हैं समाजसेवी श्री सजय जैन (पी आर.ओ.) फिरोजाबाद, श्री पदमचंद धर्मपुरा,
श्री सुरेन्द्र कुमार जैन धर्मपुरा, श्री महेशचन्द जैन, श्री हरीबाबू जैन, श्री सुमतप्रकाश जैन (सभी गांधी नगर),
अगली पंक्ति में हैं श्री संजय जैन, श्री अंकुर जैन, श्री सुनील जैन, (सभी दिल्ली गेट)
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विविधा (सम्पादक मण्डल द्वारा संगृहीत)
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श्री पद्मावती पुरवाल दि. जैन, फिरोजाबाद,
प्रस्तुति :- पंडित उमेशचंद जैन
फिरोजाबाद नगर की भारत में ही नहीं अपितु विश्व के हर हिस्से में कांच के उत्पाद के लिए अपनी एक विशिष्ट पहचान है। जैन जगत में यह 1008 श्री चन्द्रप्रभु भगवान की स्फटिकरत्न की अतिशयकारी प्रतिमा जो यमुना नदी से प्राप्त हुई थी के कारण भी जाना जाता है। यह नगर परम पूज्य आचार्य 108 श्री महावीर कीर्ति महाराज के जन्म स्थान के कारण भी जैन जगत में अपनी पहचान रखता है। इस नगर ने कई संयम साधक श्रमणों को दिया है। जैन दर्शन के अनेक धुरंधर विद्वानों का यह कार्य क्षेत्र रहा है। इनमें प्रमुख नाम है, श्रद्धेय पं. माणिकचन्द्र कोन्देय, पं. पन्नालाल न्यायाचार्य पं. राजेन्द्र कुमार, पं. श्याम सुन्दर लाल शास्त्री, पं. कुंजीलाल शास्त्री, वर्तमान में प्राचार्य नरेन्द्र प्रकाश आदि अनेक ऐसे नाम हैं जिनके सुभाषित कृतित्व और व्यक्तित्व से पूरे देश का जैन समाज भलिभांति परिचित है। यह भी एक सुखद संयोग ही है कि यह आचार्य महावीर कीर्ति महाराज तथा यह सभी जिनवाणी के वरदपुत्र विद्वान पद्मावती पुरवाल जाति के नररत्न थे या हैं ।
आजादी से पूर्व इस नगर का तब इतना विस्तार नहीं हुआ था। किन्तु उस समय भी नगर की जैन समाज में इस जाति (पद्मावती पुरवाल) की पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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अपनी सम्पूर्ण पहचान थी। फिरोजाबाद नगर कांच के उत्पाद के कारण उत्तर भारत में एक प्रमुख व्यावसायिक केन्द्र था। यह भी एक संयोग ही है कि फिरोजाबाद और उसके आसपास के करीब 80-100 किलोमीटर की परधि में बसे ग्राम देहातों में स्वतंत्रता पूर्व जैन आवादी में पद्मावती पुरवाल जाति का ही बाहुल्य था। इन्हीं ग्राम देहातों से आकर इस जाति के लोग फिरोजाबाद को अपना कर्मक्षेत्र बना कर यहां स्थाई तौर पर बस गये हैं। आज नगर में जैन समाज की आबादी में पदमावती पुरवाल जाति की बहुलता हैं आजादी से पूर्व इस जाति के लोगों का अधिकांश भाग उस समय के आगरा, एटा, मैनपुरी जनपदों के धुर देहातों में रहते हुए भी अपनी विद्वता के कारण पूरे देश के जैन समाज में जाना पहाना जाता है।
जैन गजट में प्रकाशित ‘आगरा मण्डल के जैन रत्न' आलेख में इस पूरे मण्डल के प्राचीन इतिहास पर एक सामान्य दृष्टि डालने का प्रयास इस लेखक ने किया था। उक्त लेख भी इस ग्रन्थ में प्रकाशित है। किन्तु इस क्षेत्र या इस जाति के प्राचीन इतिहास को पूर्णता प्रदान नहीं करता। इस विषय पर आगे और सार्थक प्रयास करने की महती आवश्यकता है।
फिरोजाबाद नगर में बीसवीं सदी के तीसरे-चौथे दशक में पद्मावती पुरवाल समाज का सामाजिक संगठन ढांचा अपना रूप ग्रहण कर चुका था। उस समय समाज की अपनी विधिवत पंचायत और उसकी गतिविधियां सामाजिक संरचना को एक मजबूत आधार प्रदान कर चुके थे। यह समय ऐसा था जब ग्राम देहातों से इस जाति के लोग नगरों में आकर अपने व्यवसाय आदि की स्थाई व्यवस्था के साधन खोजने लगे थे। समाज के दूर दृष्टा लोगों को लगा कि समाज के आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्ग के लिए एक ऐसी व्यवस्था बनाई जानी चाहिए जिससे लोगों को व्यवसाय आदि के लिए आर्थिक आधार बन सके। इस अवधारणा को मूर्तिरूप देने के लिए पद्मावती पुरवाल पंचायत ने 'पद्मावती पुरवाल फण्ड कमेटी'. के नाम से एक आर्थिक आधारवाली संस्था की स्थापना की। फण्ड कमेटी पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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ने प्रारम्भ के कुछ वर्षों तक अपनी एक बैंक की स्थापना करके उसका संचालन किया। इस संस्था का मूल लक्ष्य समाज के लोगों को व्यापारिक कार्य हेतु धन की व्यवस्था करना, विधवा और असहाय महिलाओं को आर्थिक सहायता करना, कमजोर व साधनहीन छात्रों को पढ़ने के लिए छात्रवृत्ति के रूप में धन की व्यवस्था करना था। व्यवसायिक धन की वापसी कुछ न्यूनतम ब्याज के साथ साल के एक निश्चित दिन करना अनिवार्य होता था। कमोवेस आज भी यह संस्था अपने सीमित साधनों के साथ कुछ असहाय महिलाओं की सहायता करते हुए जीवन्त है।
इन सामाजिक गतिविधियों को मूर्तरूप देने के सूत्रधारों में से कुछ प्रमुख नाम हैं बाबू ज्योति प्रसाद, श्री खूबचन्द्र, श्री हरमुखराय, बाबू हजारीलाल, एडवोकेट, बाबू सुनहरी लाल मुख्तार, मास्टर संतलाल, श्री रघुवरदयाल गोटेवाले, लाला रामशरण लाल, पाण्डे श्रीनिवास, पं. श्यामसुन्दर लाल शास्त्री, हकीम प्रेमचन्द्र आदि कितने ही ऐसे नाम हैं जो उस समय के संगठन पुरोधा पुरुष के रूप में आज भी याद किए जाते हैं।
स्वतंत्रता के बाद आस-पास के देहात ग्रामों से तेजी के साथ बड़ी संख्या में इस जाति के लोगों का नगर में स्थाई रूप से रहने के लिए आना प्रारम्भ हो गया। बढ़ती भीड़ ने लोगों को प्रायः एक दूसरे से थोड़ा दूर किया, कारण था सभी के सामने अपने काम धन्धे को जमाने की समस्या। इस समस्या के चलते सामाजिक क्रिया कलापों में ठहराव सा आने लगा। सन् 1984 में एक बार लोगों ने प्रयास करके पंचायत का पुनः गठन किया श्री सुनहरी लाल इसोली वालों को अध्यक्ष तथा श्री देवेन्द्र कुमार एडवोकेट को उसका मंत्री बनाया गया, किन्तु सत्यार्थ यह है कि पंचायत की गतिविधियां फिर भी मृतप्राय ही रहीं और वह अपनी पूर्व गरिमा को प्राप्त नहीं कर सकी। इस बीच में पंचायत भले ही गतिशील नहीं रही हो किन्तु नगर में
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पद्मावती पुरवाल जाति की बढ़ती जनसंख्या ने नगर में अपनी पहचान हर क्षेत्र में बढ़ाई। इस बड़ी पहचान की प्रमाणिकता है नगर के करीब 36 दिगम्बर जैन मन्दिरों में करीब आधे मन्दिर इसी जाति के द्वारा निर्मित कराए गए हैं। इसको इस क्रम से विधिवत समझा जा सकता है।
1. श्री रत्नत्रय दि. जैन मन्दिर नशियाजी कोटला रोड (श्री पी.डी. जैन इन्टर कॉलेज परिसर) 2. श्री दि. जैन मन्दिर जलेसर रोड (विभव नगर) 3. श्री दिगम्बर जैन मन्दिर विभव नगर 4. श्री दि. जैन मन्दिर (उम्मरगढ़) गांधीनगर, 5. श्री दि. जैन मन्दिर कटरा 6. श्री दि. जैन मन्दिर कटरा (श्री द्वारिका प्रसाद द्वारा निर्मित) 7. श्री दि. जैन मंदिर कटरा 8. श्री बाहुबली दि. जैन मन्दिर नई वस्ती 9. भगवान बासपूज्य दि. जैन. मन्दिर नई वस्ती 10. भगवान श्री पार्श्वनाथ चौबीसी दि. जैन मन्दिर गली लोहियान सदर बाजार, 11. श्री दि. जैन मन्दिर हनुमान गंज, 12. श्री दि. जैन मंदिर करवला 13. श्री दि. जैन मन्दिर देवनगर 14. श्री दि. जैन चैत्यालय मन्दिर मुहल्ला गंज, 15. श्री दि. जैन मन्दिर इन्द्रानगर, 16. श्री दि. जैन मन्दिर खेड़ा (नवनिर्मत) 17. श्री दि. जैन मन्दिर महावीर नगर ग.ज. 18. श्री दि. जैन मन्दिर रीकॅवाला नशिया परिसर कोटला रोड, 19. श्री पार्श्वनाथ दि. जैन मन्दिर सेन्ट्रल चौराहा इन मन्दिरों में आस-पास के ग्रामों के मन्दिरों की कितनी ही प्राचीन और भव्य मूर्तियां भी विराजमान है।
श्री पन्नालाल दि. जैन माध्यमिक विद्यालय जो नगर का ही नहीं प्रदेश के माध्यमिक विद्यालयों में अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है, पद्मावती पुरवाल समाज के प्रख्यात विद्वान पं. पन्नालाल न्याय दिवाकर के नाम से स्थापित हैं एक व्यक्तिगत जूनियर हाईस्कूल श्री एम.डी. जैन जूनियर विद्यालय के नाम से है जिसकी संचालिका श्रीमती आशा जैन हैं।
मुन्शी वंशीधर पद्मावती पुरवाल दि. जैन धर्मशाला गली लोहियान पावतीपुरवोल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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नगर, की प्राचीन धर्मशालाओं में से एक है। गांधी नगर दि. जैन मन्दिर के साथ ही एक नवनिर्मित धर्मशाला इसी जाति की है ।,,
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फिरोजाबाद जनपद के प्रमुख नगर व कस्बो में शिकोहाबाद, टूण्डला, फरिहा आदि में प्मावती पुस्वाल जाति का बाहुल्य है। ग्राम देहातों में अब यह जाति बहुत सीमित मात्रा में ही रह गई है। जनपद के कितने ही ग्राम अभी भी ऐसे हैं जहां प्राचीन कलात्मक दि. जैन मन्दिर हैं। जारखी, पाढ़म, आदि गांव ऐसे हैं जहां के लोग प्राय बड़े नगरों में पलायन कर गये हैं। वहां बहुत कम गिने-चुने परिवार ही निवास करते हैं। किन्तु वहां अब भी पुरातन भव्य मन्दिर हैं। आगरा, एटा और फिरोजाबाद यह तीन जनपद ऐसे हैं जिनक ग्रामों में पद्मावती पुरवाल बन्धु निवास करते थे । दोशभर में उत्तर प्रदेश के पद्मावती पुरवाल जहां भी आज रह रहे हैं उनकी जड़े' इन्हीं ग्रामों से जुड़ी हुई हैं ।
यहां मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं हो रहा है कि पूरे देश में दि. जैन समाज में पद्मावती पुरवाल जाति ने पूर्व और वर्तमान में अनेक उच्चकोटि के विद्वान, समाज सेवी, लेखक, वक्ता दिए हैं। इतना होने पर भी इस जाति का कोई प्राचीन इतिहास विधिवत उपलब्ध नहीं है। क्या यह हमारी सामाजिक चेतना का अभाव नहीं है। देर ही सही दुरस्त आए के कथन के अनुसार हम अब सचेत हुए यह भी अच्छा संकेत हैं अभी कुछ समय पूर्व खण्डेलवाल दि. जैन समाज में अपने पूरे देश में निवास कर रहे समाज की प्रान्तवार डायरेक्टरी प्रकाशित कराके समाज की देशभर में एक पहचान भविष्य के लिए सुरक्षित की है। पद्मावती पुरवाल समाज के इस उत्तर प्रदेश के क्षेत्र से ही बाहर जाकर बसे जातिय बन्धुओं की एक अच्छी खासी संख्या है दिल्ली, जयपुर, अजमेर, इन्दौर, कोलकत्ता, मुम्बई आदि नगरों में जातिय समाज की अच्छी संख्या है। हमारी अखिल भारतवर्षीय पद्मावती पुरवाल पंचायत का यह प्रथम दायित्व है कि वह
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पूरे देश में फैले अपने समाज की पहचान चिन्हित करे। प्रथम चरण में यह कार्य इस क्षेत्र के जुड़े परिवारों से प्रारंभ हो और बाद में यह मालवा व महाराष्ट्र के समाज से भी जुड़े।
हम अतीत के पृष्ठों को सुरक्षित तो नहीं रख सके, अगर प्रयास करके वर्तमान को सहेज कर सुरक्षित रखने में भी सफल हो सकें तो हम भविष्य के साथ न्याय कर सकेंगे। महाकवि रइधू से लेकर मुनि ब्रह्मगुलाल तक जाने कितनी अनमोल निधियां हमारी- हमारे खजाने में थी जिन्हें आज की पीढ़ी भूल रही है। यह भूल पीढ़ी की भी नहीं है जानने का साधन उनके पास नहीं है। इस जाति के वर्तमान को पूरी तरह से जानने के लिए हमें
और ज्यादा प्रयास करना पड़ेगा। और इस दायित्व का निर्वाह हम सभी को करना भी चाहिए।
नैतिक आचरण आचरण यदि नैतिकता से ओतप्रोत होगा तो व्यक्ति सुखी और निराकुल जीवन जी सकेगा। नैतिक आचरण का अर्थ है मन को पवित्र
और स्वस्थ बनाना। मन की पवित्रता या अपवित्रता निर्भर है अच्छे या बुरे विचारों पर। मन के विचार ही आचरण की आधारशिला है। __ आचरण की पवित्रता या अपवित्रता दोनों ही संक्रामक होती हैं। दूसरे भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। जिस प्रकार पवन के साथ उठने वाली एक छोटी सी चिनगारी पूरे गांव को जलाकर भस्म कर देती है, उसी प्रकार आचारण की अपवित्रता भी कोठे पर बैठी गणिका के समान रास्ता चलते हुओं को भरमाती और भटकाती रहती हैं इस भटकाव से व्यक्ति को उसका नैतिक आचरण ही बचा सकता ,
है।
-निहालचन्द्र जैन
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श्री दि. जैन पद्मावती पुरवाल फंड कमेटी
फिरोजाबाद (उ. प्र.) श्री दि. जैन पद्मावती पुरवाल फण्ड कमेटी, स्थानीय पद्मावती पुरवाल जैन समाज की लगभग सत्तर साल पुरानी हितकारिणी रजिस्टर्ड संस्था है।
इसकी स्थापना रविवार 31 दिसम्बर, 1933 को स्थानीय पद्मावती पुरवाल पंचायत द्वारा प्रदत्त चार हजार पांच सौ तीस रुपये पौने पांच आना के मूलधन से प्रारम्भ हुयी थी। सभा के संयोजक स्व. बाबू हजारी लाल जैन थे। उनके अनुसार फण्ड कमेटी की स्थापना का मुख्य उद्देश्य समाज द्वारा एकत्रित धनराशि को सुव्यवस्थित रूप से सुरक्षित रखना और उसका उचित प्रबन्ध करना था। प्रथम कार्यकारिणी का सर्वसम्मत चुनाव निम्न प्रकार हुआ-लाला ज्योति प्रसाद, सभापति; हकीम बाबू राम, उपसभापति; बाबू सुनहरी लाल 'मुख्तार', मंत्री; लाला रामशरण जैन, उपमंत्री; लाला हरमुखराय, कोषाध्यक्ष । अन्य सदस्य थे-सर्वश्री लाला खूब चन्द्र, मुनीम जयंतीप्रसाद, पाण्डे श्रीनिवास, लाला भागचन्द्र, बाबू चन्द्रभान 'मुख्तार' और बाबू हजारीलाल जैन। फण्ड एण्ड कमेटी का त्रिसूत्रीय उद्देश्य था1. पद्मावती-पुरवाल समाज को हर प्रकार से समुन्नत और संगठित करना। 2. फण्ड की राशि को स्थायी रूप से बढ़ाना और हर प्रकार सुरक्षित रखना। 3. स्वजातीय असहाय विधवाओं तथा निर्धन विद्यार्थियों को सहायता देना।
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संस्था लगभग 70 वर्ष की अवधि में यथाशक्ति और यथा संभव इन तीनों उद्देश्य की प्राप्ति तथा उन्हें कार्यरूप में परणित करने को प्रयत्नशील रही है।
सर्व प्रथम जैन मेला भूमि के निकट जमीन खरीदी जिस पर कालक्रम से बाहुबलि पार्क, शीतलनाथ जिनालय और पन्नालाल दिगम्बर जैन इण्टर कालेज की स्थापना हुई।
लगभग साढ़े चार हजार की प्रारम्भिक धन राशि, सहायता आदि के कर्तव्यों का निर्वहन, आवश्यक खर्चों का भुगतान तथा ब्याज पर उठी रकम बट्टे खाते में सहन करते हुए भी आज 2 लाख 30 हजार से ऊपर फण्ड कमेटी के बैंक एवं पोस्ट आफिस के खातों में जमा है।
वर्तमान में 18 छात्र/छात्राओं तथा विधवाओं को करीब बारह सौ रु. प्रति माह सहायता दी जा रही है। आत्मनिर्भर बनाने की दृष्टि से पांच महिलाओं को एक-एक सिलाई मशीन भेंट की गई है।
दो छात्राओं को परीक्षा शुल्क भुगतान हेतु तीन सौ तथा आठ सौ सोलह कुल (1116/- रु.) की एकमुश्त सहायता दी गई।
आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि विगत वर्षों में समाज के कई छात्रों ने फण्ड कमेटी से आर्थिक सहयोग प्राप्त कर मेडिकल, इन्जीनियरिंग, चाटर्ड एकाउण्टेन्सी, शिक्षक प्रशिक्षण तथा स्नातक एवं स्नातकोत्तर स्तर की परीक्षायें उत्तीर्ण कर अपना जीवन सफल बनाया है। इनमें से कई युवाओं ने समर्थ और आत्मनिर्भर हो जाने पर छात्रावस्था में प्राप्त धनराशि स्वेच्छा से सधन्यवाद फण्ड कमेटी को वापस भी की है। __यह सच है कि विगत काल की अपेक्षा सहायता प्राप्त करने वालों की संख्या और सहायतार्थ प्रदत्त राशि में समयानुकूल वृद्धि हुई है तथापि वर्तमान महंगाई को देखें तो पचास-सौ रुपया प्रतिमाह की सहायता का काई विशेष महत्व नहीं है। पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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समाज की युवा पीढ़ी और फण्ड कमेटी के युवा उत्साही कार्यकर्ताओं को कमेटी की वर्तमान स्थिति और प्रगति की गति पर सन्तोष नहीं है। वे चाहते हैं कि इसका स्थाई फण्ड ज्यादा से ज्यादा बढ़े और सहायतार्थ दी जाने वाली राशि में भी वक्त के हिसाब से बढ़ोतरी कर समाज के निर्बल, असहाय और जरूरतमंद वर्ग की उचित और पर्याप्त सहायता की जाये ।
युवावर्ग की यह बेचैनी और असन्तोष की भावना समाज के लिए शुभ संकेत और जागरूकता का प्रतीक माना जाना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि अधिक से अधिक लोग इसके आजीवन और वार्षिक सदस्य बने । साधन-सम्पन्न लोग वार्षिक / मासिक सहायता अथवा इकमुश्त राशि प्रदान कर चंचला लक्ष्मी का परोपकार में सदुपयोग कर धर्मलाभ उठायें। शादी-विवाह तथा जन्म-दिवस आदि के शुभ अवसरों पर धर्मार्थ दान के समय फण्ड कमेटी के लिए भी समुचित राशि अवश्य निकालें/निकलवाने में सहयोग करें। इस प्रकार आप समाज को समृद्ध समुन्नत और शिक्षित बनाकर समाज सेवा का श्रेय पा सकते हैं।
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संयम का महत्व
जैसे जल के बिना कुंए का, सुगंध के बिना पुष्प का, और मूर्ति के बिना मन्दिर का कोई महत्व नहीं है, उसी प्रकार संयम सदाचार के बिना मानव जीवन निरर्थक है। ये मानव शरीर एक ऐसे रथ के समान है, जिसमें इन्द्रियरूपी पांच घोड़े जुते हुए हैं। मन उसका सारथी है। यदि वह संयमित और संतुलित हैं तो रथ को सही मार्ग पर ले जाएगा, अन्यथा विषयासक्त चित्त तो हमेशा कुमार्गगामी ही होता है।
- दैनिक भास्कर, ललितपुर : 4-9-95 पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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उम्मरगढ़ रियासत की प्राचीनता से जुड़ा
गांधीनगर फिरोजाबाद का जैन मंदिर श्री दिगम्बर जैन आमनाय के 35 जैन मंदिरों की श्रृंखला में नगर के मोहल्ला गांधी नगर में स्थिति दिगम्बर जैन मंदिर उम्मरगढ़ रियासत की प्राचीनता से जुड़ा हुआ भव्य मंदिर है। जैसा कि लगभग छः दशक से जैन बंधु फिरोजाबाद, आगरा, एटा, मैनपुरी जनपद के ग्रामीण आंचलों से
अपने व्यावसायिक व बच्चों की शैक्षिक योग्यता का स्तर ऊंचा करने हेत फिरोजाबाद नगर में आकर बस गए। नगर का गांधी नगर में स्थापित जिनालय 'श्री दिगम्बर जैन मंदिर उम्मरगढ़' के नाम से जाना जाता है।
यहां लगभग 250 परिवार गांधीनगर हरीनगर, आर्यनगर जलेसररोड, श्रीनगर एवं गोपाल नगर आदि मोहल्लों से प्रति दिन पूजा अर्चना, अभिषेक हेतु मंदिर जी में आते हैं।
प्राचीनता की दृष्टि से वर्तमान उम्मरगढ़ ब्लॉक जलेसर जिला एटा के अंतर्गत आता है। तीन वड़ी रियासतों उम्मरगढ़, कोटला, अवागढ में बड़ी रियासत थी। लगभग 5 शतक पूर्व यहां एक सौ पचास परिवार थे इनकी 52 सर्राफा की दुकानें थीं। उम्मरगढ़ समृद्ध एवं वैभवशाली रियासत थी जहां एक प्राचीन जैन मंदिर था। उम्मरगढ़ में किले के भग्नावशेष आज भी मौजूद हैं। उम्मरगढ़ में 500 वर्ष से पुराना मंदिर ऊंचे पर आज भी अपने स्वरूप में विद्यमान है जिसमें आज भी एक प्राचीन पार्श्व प्रभु की प्रतिमा जी विराजमान है। मंदिरजी की मजबूत शिखर प्राचीनता की छठा पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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का एहसास कराती है। मंदिर के मेट ठोस पीतल के बने हुए हैं। उम्मरगढ़ के प्रमुख जैन घरानों में महामहा पितामह सर्वश्री दिलसुखरामजी, तोतारामजी, अजुध्या प्रसाद जी, आलम चन्द्र जी, मुन्नी लाल जी, प्यारेलाल जी, बाबू लाल जी, बनारसीदास जी, हुण्डीलाल जी, मुंशीलालजी, बौहरेलालनी, साहूलाल जी, लक्ष्मण प्रसाद जी आदि थे। लगभग 7-8 दशक पूर्व से पूर्वज इसौली (एटा) में बस गए। उम्मरगढ़ के जैन बंधु यहां गांधीनगर, मुहल्ला दुली, मुहल्ला गंज, नई बस्ती, जैन कटरा में व्यावसायिक एवं शैक्षिक दृष्टिकोण से आकर बस गए। सन् 1955 में उम्मरगढ़ जैन पंचायत में जैन मंदिर हेतु जमीन खरीदकर निर्माण प्रारंभ किया गया तथा 1960 में मंदिर पूर्ण बनकर तैयार होने पर उम्मरगढ़ से प्रतिमाजी लाकर प्रतिष्ठा व शुद्धि करके वेदियों में स्थापित की। धीरे-धीरे मंदिर जी का विकास कार्य जारी रहा। दो मंजिला मंदिर जी में 3 वेदी तथा वेदियों के चारों ओर नक्काशी एवं कांच का अनूठा कार्य किया गया है। बीच की वेद में मूलनायक प्रतिमा श्वेत पाषाढ भगवान पार्श्वनाथ जी की है जो पदमासन अवस्था में है। अष्ट धातु की भगवान वासपूज्य जी की प्रतिमा भी स्थापित है । अन्य मंदिरजी में 31 प्रतिमाएं प्राचीन एवं वर्तमान में प्रतिष्ठित की गई मूर्तियां हैं। ये मूर्तियां तीनों वेदी पर स्थापित हैं।
मंदिरजी में उम्मरगढ़ के अलावा दौही, पचवान, कुरगमां, इसौली ग्राम के मंदिरों की मूर्तियां भी स्थापित हैं। इन ग्रामों के मूल निवासी एवं वर्तमान के गांधी नगर निवासी इसी मंदिर में अभिषेक, पूजन पाठ को निशदिन आते हैं। मंदिर जी प्रबंधन हेतु एक पंजीकृत ट्रस्ट भी हैं। जिसमें 5, ट्रस्टी उम्मरगढ़ इसौली परिवार से तथा 5 ट्रस्टी स्थानीय मुहल्ला से एवं एक संयोजक हैं। ट्रस्ट के अंतर्गत अन्य संस्थाएं भी हैं। 1. श्री दिगम्बर जैन मंदिर उम्मरगढ़, गांधी नगर: 2. पूजन विधि; 3. श्री पार्श्वनाथ बर्तन भण्डार; 4. जैन धर्मशाला आदि। जैन धर्मशाला मंदिर जी के ठीक सामने हैं तथा दो मंजिली बनकर तैयार है। गांधीनगर के लिए
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अत्यधिक उपयोगी धर्मशाला है। यहां पर धार्मिक कार्यक्रम जैसे सिद्धचक्र विधान, णमोकार मंत्र विधान, भक्तामर पाठ आदि होते रहते हैं। पर्दूषण पर्व पर जलधारा का कार्यक्रम भी प्रतिवर्ष मनाया जाता है।
वर्तमान में ट्रस्ट कमेटी अध्यक्ष श्री सुनहरी लाल जी जैन हैं। सुभाषचन्द जैन, जय प्रकाश जैन, सुरेशचन्द्र जैन, महेशचन्द्र जैन कार्यकारिणी सदस्य हैं। मंदिर जी की शिखर बनाने की योजना चल रही है। जो शीघ्र ही कार्यान्वित होने को है।
एटा नगर के जिन मंदिर और इतिहास दिगम्बर जैन पदमावती पुरवाल (बड़ा मन्दिर) एटा उ.प्र. मौहल्ला सरावज्ञान, पुरानी वस्ती में लगभग 250 वर्ष पुराना स्थित है, बताया जाता है कि यह मंदिर श्री मोहन लाल जी जैन सर्राफ ने अपनी धन-सम्पत्ति से बनवाकर पद्मावती पुरवाल जैन समाज को सौंप दिया था, तब से आज तक अनेक बार समय-समय पर मंदिर की कार्यकारिणी समिति द्वारा जीर्णोद्वार होता रहा है। बताया जाता है कि बड़े मंदिर जी के भूभाग (गुफा) में लाला श्री पाल जी सर्राफ किसी अमूल्य मूर्ति के दर्शन एवं पूजा-पाठ एकान्त में अकेले ही किया करते थे, जिसको वह अपने उत्तराधिकारियों को अवगत नहीं करा पाये, इसको ढूंढ़ने का कई बार प्रयास किया गया, किन्तु सफलता नहीं मिली, जिसे ढूंढ़ने का समय-समय पर प्रयास किया गया है, और आगे भी किया जावेगा।
इस समय पुरानी बस्ती एटा में 13 जैन घर सर्राफ लोगों के थे, 7 घर सत् भैय्या लोगों के थे जिनमें एक श्री शीना राम जी जैन बजाज थे, 20 घर पुराने बाजार में थे, जो कि वर्तमान में भी उसे उसी नाम से जाना जाता है, इनमें अन्य पदमावती-पुरवाल समाज के घर थे।
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उस समय विवाह शादी के अवसर पर गीतों में बुलावे का चलन इन सभी 40 घरों में था, जिसे आज भी चालीसों के गीतों के नाम से बुलावा दिया जाता है। ..
.. बड़े जैन मन्दिर के ही भाग में अतिथि भवन जिसमें मुनियों और साधुगण के रुकने की अच्छी व्यवस्था है, इससे पूर्व इस भवन में प्राइमरी पाठशाला चलती थी जो अब नेमिनाथ जिनालय ठण्डी सड़क एटा पर वर्ष 1985 में स्थापित हो गयी है, अब यह पाठशाला हाईस्कूल स्तर तक लड़कियों का शिक्षा केन्द्र है। इसी में नेमिनाथ जिनालय स्थित है जिसमें 1008 भगवान नेमिनाथ की खड्गासन (काली) प्रतिमा स्थापित है तथा एक मान स्तम्भ भी बना हुआ है। इसकी व्यवस्था भी पंचायती जैन बड़ा मंदिर के द्वारा सम्पन्न होती है। इसी पंचायती मन्दिर की देख-रेख में मौ. सरावज्ञान में ही एक होम्यो-औषधालय भी संचालित है। इसी समाज की व्यवस्था के अन्तर्गत दिगम्बर जैन अतिथि भवन (जैन धर्मशाला) जी.टी. रोड एटा पर स्थित है।
बड़ा जैन मंदिर में सबसे पुरानी 1008 भगवान पार्श्वनाथे की प्रतिमा जी पुराने कक्ष में आज भी स्थित है। इसके अलावा भी कई वेदी हैं। पुराने समय में श्री झब्बू लाल जी जैन सर्राफ तथा शोभाराम जी बजाज तथा अन्य 20-25 लोग नित्य प्रति पूजा पाठ किया करते थे। आज भी अच्छी संख्या में लोग प्रातःकाल पूजा-प्रक्षाल करते हैं। तत्कालीन समय में इन्हीं कुछ लोगों के प्रयास से यहां मेला निकलने की शुरुआत की गई यह बात भी लगभग एक शताब्दी पुरानी होगी। उस समय घण्टाघर पर मण्डप बनाकर एक दिन के मेले का आयोजन होता था, प्रतिमाजी एक पेठी में रखकर पण्डाल स्थल पर ले जायी जाती थी। वर्तमान में घण्टाघर चौक पर वर्ष में 2 बार मेले का आयोजन श्री महावीर जयंती एवं पर्युषण पर्व के उपरान्त क्रमशः तीन-दिन व दो दिन का आयोजन होता है। जिसमें
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विभिन्न प्रकार के आयोजन, सांस्कृतिक कार्यक्रम सम्पन्न होते हैं, मझवीर जयंती के अवसर पर होनहार बालक-बालिकाओं को पुरुस्कार आदि से सम्मानित किया जाता है। मेला के अवसर पर बाहर से आने वाले यात्रियों को रुकने खाने-पीने की व्यवस्था जैन समाज द्वारा अतिथि-भवन, जी.टी. रोड, एटा पर होती है। वर्तमान में मेले की शोभायात्रा बड़े भव्य तरीके से गाजे-बाजे के साथ सम्भव होती थी।
इन सब कार्यक्रमों की सुरक्षा व्यवस्था हेतु यहां पर एक दि. जैन. वीर मण्डल है, जिसकी की स्थापना स्व. श्री लक्ष्मीशंकर जी अतार द्वारा आजादी से पूर्व में की गयी थी। इस मण्डल की अपनी एक विशेष ख्याति है जिसे समय-समय पर पड़ोसी जनपदों में मेला कार्यक्रम आदि के अवसर पर सुरक्षा व्यवस्था की जिम्मेदारी सोंपी जाती रही है, जिसे इस मण्डल द्वारा बखूबी सम्पन्न किया जाता रहा है।
समय-समय पर यहां आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज, आचार्य श्री महावीर कीर्ति महाराज, आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज, आचार्य श्री निर्मलसागर जी महाराज, आचार्य श्री सन्मतिसागर जी महाराज (फफोतू) एवं आचार्य श्री कल्याणसागर जी महाराज एवं अनेक साधु एवं साध्वीगण ससंघ पधार कर चातुर्मास कर चुके हैं, वर्तमान में 105 विशुद्धमती माताजी ससंघ विराजमान हैं।
इसी जनपद एवं इसी पद्मावती पुरवाल समाज से आचार्य विमलसागर एवं आचार्य सन्मतिसागर जी (फफोतू वाले) हैं, जिनकी अपनी विश्व ख्याति रही है।
क्षुल्लक गणेश प्रसाद जी वर्णी का भी कई बार इस एटा नगर में प्रवास हो चुका है। उन्हीं की प्रेरणा पर सन् 1951-52 में सेठ भूदरदास भामण्डल दास तथा समग्र जैन समाज (पद्मावती पुरवाल) के सहयोग से एक
शैक्षिक संस्थान जोकि वर्णी जैन इण्टर कालेज के नाम से आज भी पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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संचालित है, तथा इसी के एक भाग में नशिया जी स्थापित है। इसकी स्थापना भी साथ-साथ हुई है। मुख्य वेदी पर.1008 चिंतामणि पार्श्वनाथ की भव्य मूर्ति स्थापित है अन्य दो वेदियां और हैं। वर्तमान में इसे बड़ा भव्य रूप प्रदान करने की योजना है इसी योजना में मानस्तम्भ बनकर तैयार है। तथा मां पद्मावती तथा धरणेन्द्र का मन्दिर स्थापित हो चुका है, सामने एक छोटा पार्क है काफी मात्रा में लोग प्रातः काल एवं सायं काल मन्दिर के दर्शनार्थ आते हैं।
इस नगर में अन्य जैन मंदिर एवं चैत्यालय हैं जिनका विवरण निम्न है इसकी स्थापना भी पद्मावती पुरवाल जैन समाज द्वारा की गई है
1. जी.टी. रोड स्थित जैन कम्पाउण्ड में एक प्राचीन चैत्यालय श्री शान्तिनाथ दि. जैन गोटावाला के नाम से जाना जाता है। इसकी स्थापना वर्ष 1899 में लाला श्री पालजी जैन गोटे वालों द्वारा की गयी, इस चैत्यालय का जीर्णोद्वार वर्ष 1987 में लाल महेन्द्र दास जैन गोटा वालों के द्वारा सम्पन्न करायी गयी। मन्दिर जी में मूल वेदी पर 1008 भगवान शान्तिनाथ जी की प्रतिमा स्थापित है। यह चैत्यालय प्रथम तल पर स्थित
2. ठण्डी सड़क एटा पर सैयद वाली गली में प्रथम तल पर श्री पार्श्वनाथ चैत्यालय की स्थापना वर्ष 1970 में श्री देव स्वरूप जी जैन मरथरा वालों के द्वारा की गयी, मूल वेदी पर 1008 भगवान पार्श्वनाथ जी की प्रतिमा जी स्थापित है।
3. ठण्डी सड़क एटा पर ही आदिनाथ दि. जैन चैत्यालय का स्थापना वर्ष 1981-82 में था साहूकार जी जैन मझराऊ वालों द्वारा की गयी, मन्दिरजी की मूल वेदी पर 1008 भगवान आदिनाथ जी की प्रतिमा स्थापित है। इसी कक्ष के एक कोने में मां पद्मावती की मूर्ति स्थापित है। मंदिर जी में स्थापित भगवान आदिनाथ एवं पार्श्वनाथ की मूर्तियां काफी 287
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प्राचीन है जो कि मझराऊ ग्राम से यहां लाकर स्थापित की गयी हैं।
4. लाला मोरध्वज सर्राफ मंदिर मेहता पार्क वर्तमान में तीर्थंकर महावीर पार्क के निकट स्थित है इसकी स्थापना लगभग वर्ष 1958 में लाला मोरध्वज अजित प्रसाद जी सर्राफ द्वारा की गयी थी, यह मंदिर द्वितीय तल पर स्थित है, इसमें भगवान महावीर की चतुर्मुखी प्रतिमा जी स्थापित है। मंदिर जी की स्थापना के समय एक मेला पंच कल्याणक सैनिक पड़ाव एटा में सम्पन्न हुआ था। जिसे पुरानी पीढ़ी के लोग आज भी याद करते हैं। इस मंदिर की स्थापना में एक रोचक कहानी है लालाजी इस जगह पर एक मिनी सिनेमा हाल स्थापित करना चाहते थे और उसी के नक्शे के अनुरूप इसकी नींव भरवा दी गयी। इस सिनेमा हाल का विरोध इसी के सामने स्थित आर्य समाज मंदिर की कार्यकारिणी के द्वारा किये जाने से सिनेमा हाल रुक गया, घर-परिवार की मंत्रणा एवं दादी मां श्रीमती नेमीवाई की प्रेरणा से इसे मंदिर का रूप मिल गया।
5. श्री शीतलनाथ दि. जैन मंदिर कैलाशगंज की स्थापना वर्ष 1983-84 में लाला इन्द्ररतन जी सर्राफ एवं अदेपुड़ा वैद्य यतीन्द्र नाथ जैन उनके अनुज श्री विजेन्द्र नाथ जी जैन द्वारा की गयी, यह मन्दिर द्वितीय तल पर स्थित है। इसकी मूल वेदी पर 1008 भगवान शीतल नाथ की मूर्ति स्थापित है।
6. श्री ऋषभ चैत्यालय बांस मंडी एटा की स्थापना लगभग वर्ष 1935-36 में श्री दरवारी लाल जी जैन अत्तर तथा श्री महीपाल जैन अत्तर के द्वारा की गयी थी। यह चैत्यालय प्रथम तल पर स्थित है इसकी मूल वेदी पर 1008 भगवान आदिनाथ जी की प्रतिमा जी स्थापित है।
7. श्री शान्तिनाथ चैत्यालय वैरूनगंज, गली जिटोली लाल घण्टाघर एटा की स्थापना लगभग वर्ष 1935 में लाला जानकी प्रसाद जी जैन द्वारा की गयी थी, तदोपरान्त इसका जीर्णोद्वार इनके सुपुत्र एवं पौत्र लाला पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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राजेन्द्र प्रसाद जी जैन एवं रतन प्रसाद जी जैन द्वारा करवाया गया। मूलवेदी पर 1008 भगवान शन्तिनाथ जी की प्रतिमा विद्यमान है ।
इस एटा नगर में जैनियों की संख्या में अधिकांश पद्मावती पुस्वाल जैन ही हैं, बाकी कुछ अन्य जैन समाज के लोग हैं जिनकी संख्या नगण्य सी ही है ।
वर्तमान में यहां पर 500 से ज्यादा घर हैं लगभग जिनकी आवादी 3000-4000 के आस-पास होगी। यहां श्री उमेशचंद जैन अध्यक्ष और श्री प्रदीप जैन (गुड्डू) मंत्री हैं ।
एत्मादपुर (आगरा)
आगरा तथा फिरोजाबाद के मध्य नेशनल हाईवे नं. 2 पर एक ऐतिहासिक कस्बा स्थित है। मुगल बादशाह शाहजहां के एक साले एत्मादौला ने अपनी छावनी के रूप में इसे स्थापित किया था। समय और परिस्थिति के अनुसार छावनी हटी और कस्बा बन गया। इस स्थान के आसपास के गांवों के विभिन्न जातियों और धर्मों के लोग यहां आकर बसने लगे ।
पद्मावती पुरवाल जाति के लोग जो अधिकांशतः छोटे-छोटे गांवों में ही रहते थे। यहां पर कुछ लोग वहां से आकर रहने लगे। रहने वालों की संख्या बढ़ने से व्यवसाय बढ़ा। क्षेत्र का विकास हुआ और तहसील के रूप में मान्यता मिली। पद्मावती पुरवाल दिगम्बर जैन जाति के यहां लगभग 100 परिवार रहते हैं। यहां का प्राचीन पंचायती मंदिर लगभग 300 वर्ष पुराना है। साधनों के जुटने के साथ-साथ मंदिरजी में जीर्णोद्धार और नव-निर्माण के कार्य भी होते रहे। 1953, 1965 और 1970 में यहां विशाल धार्मिक आयोजन हुए। इस प्राचीन शिखरबंद मंदिरजी में 5 बेदियां हैं।
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इसके अतिरिक्त यहां पर दिगम्बर जैन नेमिनाथ मंदिर है। यह भी शिखरबंद मंदिर है। 1988 में मंदिरजी में कांच का काम हो जाने से इसका भव्य रूप सामने आया है। अतः इसे कांच वाला मंदिरजी भी कहते हैं। यहां पर चिरौली गांव के परिवारजनों का भी एक मन्दिर है, जिसकी स्थापना 1986 में हुई।
नेशनल हाईवे पर जैन बगीची में पूज्य आचार्य श्री विमलसागरजी महाराज की प्रेरणा से स्थानीय समाज ने 1984-85 में एक मंदिर यहां बनाने का संकल्प किया। बगीची के एक हिस्से में बाद में आचार्यश्री के संघस्थ साधु की समाधि बनी। आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज के एक शिष्य के ही सानिध्य में यहां पंचकल्याणक, प्रतिष्ठा महोत्सव हुआ।
यहां पर एक पंचायती धर्मशाला है। जैन जूनियर हाई स्कूल है, दिगम्बर जैन प्राचीन पाठशाला आदि संस्थाएं स्थानीय निवासियों की सेवा में समर्पित है। स्व. कवि श्री भगवतस्वरूप की जन्म स्थली होने के कारण साहित्यिक जगत में एत्मादपुर को बड़ी ख्याति मिली है।
वर्तमान में यहां लगभग 80 परिवार रहते हैं। श्री रामबाबू जैन यहां के अध्यक्ष हैं।
अवागढ़ (एटा, उ.प्र.) एटा टूंडला मार्ग पर अवागढ़ एक प्राचीन रियासत है जिसका अस्तित्व मुगल शासन और ब्रिटिश शासन में भी था। पद्मावती पुरवाल जाति के लगभग 500 वर्ष पूर्व हुए गौरव पुरुष मुनि श्री ब्रह्मगुलाल का जीवन चरित्र के रचियता कवि छत्रपति का जन्म भी यहीं हुआ था। वर्तमान में पद्मावतीपुरवाल जाति के लगभग 125 परिवार यहां रहते हैं। काफी परिवार यहां से बाहर भी जा चुके हैं। जैन जातियों में से और किसी जाति अथवा गौत्र के परिवार यहां नहीं रहते। पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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यहां का बड़ा पंचायती मंदिर लगभग 450 वर्ष पुराना है। यहां विराजमान मूर्तियों के दर्शन करने से चमत्कारिक पुण्य फल मिलता है। मंदिरजी के बाहर एक विशाल मानस्तम्भ भी है। इसी मंदिरजी के बराबर में आचार्य श्री महावीर कीर्ति जी महाराज के परम शिष्य क्षुल्लकमणि श्री शीतलसागरजी महाराज ने अपने गुरु की स्मृति में दिगम्बर जैन धर्म प्रचारिणीसभा की लगभग 35-40 वर्ष पूर्व स्थापना की थी। इस संस्थान द्वारा निर्मित विशाल भवन के एक बड़े हाल में और ऊपर की मंजिल में भी जिन प्रतिविम्ब विराजमान है। यह संस्था असहाय बहनों को आर्थिक सहायता भी देती है।
अवागढ़ में श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन अटारी मंदिर भी है। इसके अलावा यहां पर लगभग 30 वर्ष पूर्व अवागढ़ टाउन एरिया कमेटी के तत्कालीन चेयरमैन श्री धन्यकुमार जैन ने निशियांजी में एक भव्य मन्दिर का निर्माण कराया है। मंदिरजी को और अधिक भव्यता प्रदान करने के लिए यहां निर्माण कार्य निरंतर चलता रहता है।
अवागढ़ की पद्मावती पुरवाल पंचायत/समाज बड़ी धार्मिक और संगठित रही है। परिणाम स्वरूप आचार्य श्री शांतिसागरजी, महावीर कीर्ति जी महाराज एवं श्री विमलसागरजी महाराज आदि एवं अनेक मुनिराज व आर्यिका माताओं के यहां पदार्पण से यहां की धरती उपकृत हुई है। वर्तमान प्रबन्धकारिणी समिति निम्न प्रकार है
अध्यक्ष श्री महावीर प्रसाद जैन, उपाध्यक्ष-श्री श्रवणकुमार जैन सिवन', महामंत्री-श्री प्रमोदकुमार जैन बजाज, मंत्री-श्री हर्षकुमार जैन, कोषाध्यक्ष-श्री सुधीर जैन कैमिस्ट, लेखानिरीक्षक श्री अनिल कुमार जैन एडवोकेट, सदस्यगण- सर्वश्री गुलाबचन्द्र जैन, पं. पदमचन्द्र जैन, सुभाषचन्द्र जैन, पवनकुमार जैन (सरानी), हरेशकुमार जैन ।
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आगरा प्राप्त सूचनाओं के अनुसार कहा जा सकता है कि आगरा में 1920 के लगभग पद्मावती पुरवाल जाति के सर्वश्री अमृतलाल, मूल निवासी बांस रिसाल (खंदौली) का आगमन हुआ। इसी परिवार के बाबू हजारीलाल वकील, भीष्पचन्द, राज महेन्द्र जैन वकील आदि आये। इसी समय एक
और परिवार श्री धनपतिराय का नाई की मंडी में आया। अवागढ़ से सर्वश्री कम्पिलदास, बनारसीदास, मथुरादास, अमृतलाल प्यारेलाल, सराय जैराम (बरहन) से श्री मुन्नीलाल आदि के आगरा आगमन की जानकारी मिलती है। पद्मावती पुरवाल जैन समाज की आगरा में जिन महानुभावों ने अपने तन, मन और धन से यथाशक्ति सेवा की है, उनमें सर्वश्री भीष्मचन्द, बाबू हजारीलाल, वकील (1964) समाज के मंत्री थे। मुंशी गेंदालाल जी, श्री कामता प्रसादजी, सेठ श्री सुनहरीलालजी, श्री पूरनचन्दजी, श्री आनन्द स्वरूपजी, श्री नरेशचन्द जैन एडवोकेट, मास्टर हजारीलाल, श्री मुन्नीलाल, श्री शांतिप्रसाद आढ़ती, श्री शांतकुमार एवं श्री जयंती प्रसाद प्रमुख रूप से रहे हैं।
25-5-82 को श्री पद्मावती पुरवाल दिगम्बर जैन मंदिर के लिये पार्श्वपुरी धूलियागंज, आगरा में एक भूखंड खरीदने के बाद एक टीन शेड में जिन प्रतिविम्ब विराजमान कराकर अस्थायी मंदिरजी का रूप दे दिया गया। थोड़े समय बाद आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज, आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज का इस मंदिर में आगमन हुआ। मार्च 1983 में
आगरा में हुए पंचकल्याणक महोत्सव में पार्श्वनाथ भगवान की भव्य प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा कराकर यहां विराजमान किया गया। आज यह मंदिर भव्य रूप में हमारे सामने है। इस मंदिरजी के एक हाल में नंदीश्वर द्वीप की रचना से मंदिरजी को अधिक भव्यता प्राप्त हो गई है।
सेठ श्री सुनहरी लाल (दौलतराम सुनहरीलाल, बेलनगंज, आगरा) ने पचायतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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आगरा की दिगम्बर जैन समाज में विशेष ख्याति अर्जित की। वह मूल रूप से लतीपुर, हिरनगांव (फिरोजाबाद) के निवासी थे तथा 1930 के लगभग आगरा आए । आपने आगरा दिगम्बर जैन समाज की सर्वोच्च संस्थाएं, श्री दिगम्बर जैन शिक्षा समिति, एवं दिगम्बर जैन परिषद के कई वर्षों तक अध्यक्ष के रूप में सेवा की।
वर्तमान श्रृंखला में श्री जयन्ती प्रसाद जी ने अखिल भारतीय स्तर पर महामंत्री के रूप में समाज की सेवा की।
आगरा में एक चैत्यालय श्री सुरेन्द्रकुमार जैन बी-36, ट्रांस यमुना में नारखी वालों का है। एक श्री चन्द्रप्रभु चैत्यालय देवनगर बाई पास पर भगवान टाकीज से सिकन्दरा साइड में सीधे हाथ की ओर गली में है। यह चैत्यालय श्री विजयचन्द जैन एवं उनकी धर्मपत्नी श्रीमती जिनेन्द्रप्रभा के विशेष प्रयासों से बना है। इसके बाद सीतानगर में एक मंदिर नेमिनाथ उद्यान से आगे सखावतपुरिया परिवार वालों का भी है। यह मंदिर भी अच्छा बना है। इसका प्रयास श्री छुट्टनबाबू एवं जवाहरलाल सखाक्तपुरिया का है। एक चैत्यालय गांधीनगर आगरा में है।
वर्तमान में आगरा की पद्मावती पुरवाल समाज के अध्यक्ष श्री चन्द्रप्रकाश जैन, उपाध्यक्ष श्री कैलाशचन्द, महामंत्री श्री सत्येन्द्र जैन, संगठन मंत्री श्री छूट्टनबाबू, प्रचार मंत्री श्री शांत कुमार और लेखा निरीक्षक श्री श्यामबाबू के साथ-साथ लगभग 15 अन्य महानुभाव कार्यकारिणी के सदस्य हैं। समाज संगठित और क्रियाशील है। आगरा की दिगम्बर जैन समाज में पद्मावती पुरवाल समाज का अस्तित्व ना के बराबर था, पर आज वह गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त कर चुकी है। यह प्रसन्नता की बात है।
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टूण्डला जनपद · टूण्डला (जिला-फिरोजाबाद) उत्तर मध्य रेलवे का एक प्रमुख स्टेशन है। यहां सात जिनालय हैं जिनमें प्राचीनतम श्री 1008 आदिनाथ दि. जैन पद्मावती पुरवाल पंचायती मन्दिर है जो शहर के मध्य में स्थित है। अन्य छः जिनालयों में एक जिनालय स्व. लाला श्री भक्वान स्वरूप चेयरमैन के परिवार द्वारा निर्मित कराया गया है जो शहर में ही स्थित है। एक अन्य जिनालय टूण्डली ग्राम में स्थित है। शेष चार जिनालय टूण्डला चतुष्पद पर स्थित हैं। इसमें से एक जिनालय प्रथम देव श्री 1008 ऋषभनाथ दि. जैन मन्दिर है जिसका निर्माण स्व. लाला सेठलाल जैन द्वारा कराया गया है। यह जिनालय टूण्डला रेलवे स्टेशन मुख्य मार्ग पर टूण्डला बस स्टैण्ड से मात्र 100 मीटर की दूरी पर स्थित है। इस जिनालय में अन्य जिनेन्द्र प्रतिमाओं के अलावा प्रथम देव श्री 1008 आदिनाथ जिनेन्द्र देव की अति मनोज्ञ एवं मनोहारी प्रतिमा विराजमान है। उक्त प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा राष्ट्रसंत परम पूज्य 108 आचार्य श्री विद्यानन्द जी महाराज के सान्निध्य में सन् 1965 में सम्पन्न हुई। मन्दिरजी के समीप ही साधु-संतों एवं यात्रियों के ठहरने आदि की भी समुचित व्यवस्था है जिसका संचालन अन्तर्गत श्री सेठलाल जैन ट्रस्ट द्वारा किया जाता है। विधवा सहायता, मेधावी एवं गरीब विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति सहायता, छात्रावास व्यवस्था एवं मुनिगण आदि के ठहरने तथा उनके आहारादि की व्यवस्था भी इस ट्रस्ट द्वारा की जाती है। उक्त मन्दिर जी के समीप ही लॉर्ड ऋभम इण्टर कालेज है जहां लगभग 1200 छात्र-छात्राएं अध्ययनरत हैं। यहां पर जैन धर्म की परीक्षाएं भी संचालित होती हैं एवं समय-समय पर अनेक जैन धर्म प्रभावना के कार्य सम्पन्न होते रहते हैं।
शहर में श्री सेठलाल महेन्द्र कुमार, श्री साहूलाल लालता प्रसाद, भगवानस्वरूप प्रवीण कुमार, श्री श्योप्रसाद श्री जयन्ती प्रसाद, श्री
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लालाराम, श्री बनवारीलाल संतकुमार आदि के संभ्रान्त परिवार प्रमुख हैं। श्री सेउलाल महेन्द्र कुमार, श्री भगवान स्वरूप प्रवीण कुमार, श्री साहूलाल लालता प्रसाद के परिवारों द्वारा टूण्डला एवं फतेहपुर में मन्दिर निर्माण एवं अन्य मन्दिरों के जीर्णोद्धार एवं धर्मशाला आदि.के निर्माण में विशेष एवं उल्लेखनीय योगदान रहा है।
फरवरी 2005 में रेलवे स्टेशन के निकट शहर के मुख्य मार्ग पर महावीर स्तूप का भी निर्माण कराया गया है जो एटा, फिरोजाबाद, आगरा आदि एवं बाहर से आने वाले यात्रियों को सहज ही अपनी ओर आकृष्ट करता है।
टूण्डला से आसपास के तीर्थक्षेत्रों के लिए आवागमन की समुचित व्यवस्था उपलब्ध है तथा टूण्डला क्षेत्र धर्मनगरी के नाम से भी प्रसिद्ध है। यहां के जिनेन्द्र कला केन्द्र एवं ऋषभ कला केन्द्र के कलाकारों ने सम्पूर्ण भारत में जैन धर्म पर आधारित सांस्कृतिक कार्यक्रमों से टूण्डला की ख्याति को गौरवान्वित किया है। वर्तमान में यहां के श्री मनोज कुमार जैन अध्यक्ष और पांडे वीरचंद जी मंत्री हैं।
दिगम्बर जैन पद्मावती पुरवाल संघ,
इन्दौर (म.प्र.) इन्दौर के पद्मावती पुरवाल जैन भाइयों की खोज करने से ज्ञात हुआ कि यहां सबसे पहले स्व. श्री श्रीनिवास व उनकी माता आये थे। उनका निश्चित समय ज्ञात नहीं हो सका और अब उनका स्वर्गवास हो चुका है। पं. अमोलकचन्द उड़ेसरीय यहां 1913 में स्वर्गीय सर सेठ हुकुमचन्द की पारमार्थिक संस्थाओं के अन्तर्गत छात्रावास के सुप्रिंटेन्डेन्ट होकर आये थे और इस स्थान पर लगभग 40 वर्ष तक आसीन रहे।
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तत्पश्चात् बाबू सांवलदास जैन कुतुकपुर (आगरा) निवासी को लाला हजारी लाल मंत्री, पारमार्थिक संस्था पं. गौरीलाल सिद्धान्तशास्त्री द्वास हीरालाल जैन विद्यालय से संस्थाओं के मैनेजर के पद पर सन् 1917 में लाये। उक्त बाबू साहब ने मैनेजर के पद पर 12 वर्ष बड़ी योग्यता से संस्थाओं की सेवा की। इस अवधि में बाबू साहब ने पं. अमोलकचन्द जी के सहयोग से उत्तर प्रान्त के पद्मावती पुरवाल विद्यार्थियों को संस्थाओं की शिक्षा की दिशा में प्रेरणा देकर अनेक विद्यार्थियों को छात्रावास में आश्रय दिलाया जिनमें स्वर्गीय रामस्वरूपजी, श्री बाबू देवचन्दजी, श्री अशर्फीलालजी उल्लेखनीय हैं।
मास्टर रामस्वरूपजी ने कानून की परीक्षा पास करके स्वर्गीय सेठ साहब के यहां सर्विस कर ली। अपना निजी पुस्तकों और स्टेशनरी का व्यापार जमाया। अपने सब भाइयों को एटा से लाकर व्यापार में लगाया
और इन्दौर के स्थाई निवासी बन गये। इन सब भाइयों का मुख्य व्यवसाय पुस्तक विक्रय, प्रकाशन और मुद्रण है। .
बाबू देवचन्द जी ने एम.ए. तक अध्ययन के बाद कल्याणमल मिल में सर्विस की। आप मिल में लेबर आफिसर और इन्दौर निगम में काउंसिलर रहे हैं। बाबू अशर्फीलालजी ने भी मिल में महत्वपूर्ण पद पर काम किया। इनका निजी सर्राफे का व्यवसाय भी है जिसे इनके पुत्र संभाल रहे हैं।
शोलापुर निवासी (मूल निवासी बेरनी, एटा) के पं. बंशीधर शास्त्री के सुपुत्र श्री पं. श्रीधर शास्त्री ने 1944 में इन्दौर में अपना निजी प्रेस 'चिन्तामणि प्रिन्टिंग प्रेस' के नाम से चालू किया, जिसमें बहुधा मध्य प्रदेश गवर्नमेंट का ही काम छपता है। पं. जी ने अपने पांचों पुत्रों को उच्च शिक्षा दी है।
बाबू सांवलदास जी के सन् 1928 में निधन के बाद भाई जयकुमार जो
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उस समय त्रिलोकचंद जैन माई स्कूल में अध्यापक थे, स्व. बाबूजी के स्थान पर संस्थाओं में नियुक्त हुए। ...
बाबू जयकुमार के छोटे भाई श्री रामकुमार जैन रेलवे सर्विस से अवकाश प्राप्त कर स्थाई रूप से इन्दौर में ही रहने लगे।
श्री देवेन्द्रकुमार जैन स्वर्गीय पं. खूबचन्द शास्त्री की सुपुत्री के साथ विवाह होने के बाद सन् 1945 के लगभग इन्दौर में आ गये थे। शुरू में अपना निजी व्यापार किया, बाद में पारमार्थिक संस्थाओं में सर्विस कर ली, जिसका उन्होंने सुचारू रूप से निबाह किया।
पं. लालबहादुर शास्त्री को सन् 1950 के लगभग जैन सिद्धान्त के अध्यन और शास्त्र प्रवचन के लिए सर सेठ हुकुमचन्द ने नियुक्त किया। तत्पश्चात् लगभग 3 वर्ष दिल्ली में संस्कृत विद्यालय के प्रधान के स्थान पर काम कर पुनः इन्दौर में पारमार्थिक संस्थाओं के उपमंत्री नियुक्त हुए।
पं. जी का एक लड़का यहां एक स्थानीय बैंक में है। इस प्रकार और भी कुछ सज्जन हैं जो निजी व्यापार या बैंक और मिलों में सर्विस करते
इन्दौर में परिवार-संख्या लगभग 100 और जन-संख्या 400 के आस-पास है।
श्री हेमचन्द जैन (मरथरा एटा वाले) वर्तमान में अध्यक्ष और श्री वीर कुमार जी (फिरोजाबाद) संघ के मंत्री है। संघ को संगठित करने के लिए सभी इन्दौर निवासियों के नाम पते एवं फोन नम्बर वाली एक डायरेक्ट्री तैयार हो सके तो सम्पर्क सूत्र सहजता से स्थापित किए जा सकते हैं। वैसे इस दिशा में इनके कुछ प्रयास चल रहे हैं। इससे समाज को संगठित करने में सहायता मिलेगी। यह प्रशंसनीय कार्य होगा।
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श्री दिगम्बर जैन पदमावती-पोरवाल,
महासभा मध्य प्रदेश मध्य प्रदेश में समाज की स्थापित संस्थाएं-- मध्य प्रदेश में पद्मावती पोरवाल समाज की एक संस्था मित्र सभा के नाम से वर्ष 1939 में स्थापित हुई थी जो कि 1951 तक चलती रही और समाज सेवा का कार्य करती रही। इसके बाद उसमें शिथिलता आ गई। अतः वर्ष 1976 में श्री दिगम्बर जैन पद्मावती पोरवाल महासभा के नाम की संस्था स्थापित हुई जिसके प्रथम अध्यक्ष श्री डालचंद सर्राफ, भोपाल एवं महामंत्री श्री कमल जैन, एडवोकेट थे। संस्था के संरक्षक श्री बागमल सर्राफ, भोपाल थे। ये संस्था अभी भी समाज की उन्नति व सुधार के कार्यों व कुरीतियों को दूर करने के प्रयास करती रहती है और सुचारू रूप से चल रही है। वर्तमान में इसके अध्यक्ष श्री श्रीपाल जैन 'विवा' और महामंत्री श्री हुकुमचन्द जी जैन हैं। इसी संस्था के अंतर्गत पद्मावती पोरवाल समाज की जनगणना कर श्री श्रीकमल जैन, एडवोकेट ने समाज की एक डायरेक्टरी वर्ष 1979 में प्रकाशित की थी। उस समय समाज की जनसंख्या लगभग 8000 थी। वर्ष 2001 में महासभा के भोपाल के क्षेत्रीय अध्यक्ष श्री आदीशचंद जैन ने पुनः भोपाल व आसपास के उपनगरों की जनगणना कर एक डायरेक्टरी प्रकाशित की।
श्री दिगम्बर जैन पद्मावती पोरवाल महासभा की केन्द्रीय समिति के अतिरिक्त निम्न क्षेत्रीय समितियां हैं जो उन क्षेत्रों में रहने वाले समाज की उन्नति और विकास के कार्य करती रहती हैं और केन्द्रीय समिति द्वारा पारित प्रस्ताव समाज सुधार के कार्यों को क्रियान्वित करती रहती हैं
क्षेत्रीय समितियां : भोपाल, सिहोर, आष्टा, इछावर, होशंगाबाद, शुजालपुर, सारंगपुर, कालापीपल, जामनेर, आकोदिया, उज्जैन, इन्दौर खातेगांव, कन्नोद में कार्यरत हैं। पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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महासभा की प्रत्येक क्षेत्रीय समिति के अध्यक्ष, मंत्री व कार्यकारिणी अलग से रहती है जो उस क्षेत्र के गांवों व कस्बों आदि में रहने वाली समाज का मार्गदर्शन करती रहती है। मध्यप्रदेश में लगभग 185 गांवों, कस्बों व शहरों में समाज के परिवार रहते हैं जिनका पूर्ण विवरण व रिकार्ड श्री दिगम्बर जैन पद्मावती पोरवाल महासभा की केन्द्रीय समिति के पास रहता है।
मंदिर व धर्मशाला निर्माण करने वाले विशेष महानुभाव
श्री दिगम्बर जैन पद्मावती पोरवाल जाति के मध्यप्रदेश के रहने वाले अनेक समाज बंधुओं ने मंदिर, धर्मशाला आदि का निर्माण कराया है, जिनमें कुछ निम्नानुसार हैं : 1. श्री नेमीनाथ दिगम्बर जैन मंदिर, झिरनो भोपाल का, श्री
बागमल जैन सर्राफ फर्म सुखलाल छोगमल, भोपाल ने वर्ष 1948 में निर्माण कर समाज के सुपुर्द कर दिया जो दिगम्बर जैन की सभी समाजों के दर्शन-पूजन आदि हेतु खुला है और
सब समाजों के द्वारा संचालित होता है। 2. श्रीमती श्रृंगार बाई धर्मपत्नी श्री बागमल सर्राफ ने श्री
बागमल शृंगार बाई श्री दिगम्बर जैन पद्मावती पोरवाल ट्रस्ट की स्थापना कर अपना स्वयं का निवास भवन ट्रस्ट में दे दिया जिसका किराया आदि की सम्पूर्ण राशि समाज के असहाय व निर्धन विद्यार्थियों, विधवाओं व महिलाओं आदि के आर्थिक सहायता के उपयोग में आ रही है। श्रीमती ज्ञानमति बाई धर्मपत्नी श्री अजित कुमार ने वर्ष 1984 में एक पद्मावती पोरवाल जैन धर्मशाला का निर्माण कर समाज के सुपुर्द कर दिया जो अब उनके नाम के ट्रस्ट के द्वारा संचालित होती है।
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ग्राम
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. ... .. श्री डालचंद सर्राफ की धर्मपत्नी श्रीमती कमलश्री बाई ने सन् - 1995 में सीमन्धर दिग. जैन मंदिर, लालवानी प्रेस रोड,
भोपाल का निर्माण कर समाज के सुपुर्द कर दिया जो अब श्री
डालचन्द कमलश्री बाई ट्रस्ट के द्वारा संचालित हो रहा है। 5. श्रीमती जैनमति जैन ध.प. श्री मदनलाल ने वर्ष 2000 में चार
हजार वर्गफिट की भूमि पर एक बड़ी दो मंजिला धर्मशाला निर्माण कर ट्रस्ट के माध्यम से समाज के सार्वजनिक कार्यों
के लिए समर्पित कर दी। इसी प्रकार मध्यप्रदेश के अन्य गांवों, कस्बों, तहसील व जिला क्षेत्रों में समाज के कई महानुभावों ने मंदिर व धर्मशालाओं का निर्माण कराया है या उनके निर्माण में सहयोग दिया है।
नपा-तुला बोलो मनुष्य को वाणी का लाभ प्राप्त है, यह किसी अयाचित वरदान से कम नहीं है। पशु-पक्षी तो बोलना जानते ही नहीं। वे अपने मन की बात किसी से नहीं कह सकते, किन्तु मनुष्य के पास भाषा के माध्यम से अपने विचारों और अनुभवों को दूसरों तक सम्प्रेषित करने की असाधारण शक्ति है। उसे इसका सदुपयोग करना चाहिए।
मनुष्य के पास दो कान, दो आंखें और एक मुंह है। इसमें एक अद्भुत रहस्य छिपा हुआ है वह दो बार देखे और दो बार सुने, तब एक बार बोले, नपा-तुला और सुविचारित बोलना भी एक कला है। शब्द ब्रह्म है। सरकारी नल की टोंटी से निरन्तर बहते हुए पानी की तरह शब्दों को निरर्थक बर्बाद करना शब्द-ब्रह्म से खिलबाड़ करना है। यह भी एक अपराध है।
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स्व. प्रो. विमलदास जैन कौंदेय'
भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व, जैन दर्शन के अनेक प्रकाण्ड विद्वान हुए हैं। उस श्रृंखला के समकालीन विद्वानों में प्रो. विमल दास कौंदिया जैन ने अपना ही स्थान बनाया था। चावली गांव के एक साधरण से शाह राजा राम जी के परिवार में सन् 1910 में उन का जन्म हुआ था। अपने बाल्यकाल में माता-पिता का संरक्षण न होते हुए भी, उन्हें जैन धर्म के मूल- संस्कार परिवार से प्राप्त हुए। प्रांभिक व उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए वे स्याद्वाद महाविद्यालय, बनारस पहुंच गये। मेधावी छात्र होने के कारण, उन्हें शुरू से ही शिक्षा के लिये छात्र- वृत्ति मिली। इसी महाविद्यालय से उन्होंने न्यायतीर्थ व शास्त्री की उपाधियां प्राप्त कीं । यही पर वे आदरणीय क्षु. गणेश प्रसाद जी वर्णी तथा पं. कैलाश चन्द्र शास्त्री जी के सान्निध्य में रहे। साथ-साथ बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी से संस्कृत तथा दर्शन शास्त्र में उच्चतम शैक्षणिक (एम.ए.) उपाधियां प्राप्त कीं । स्याद्वाद महाविद्यालय, बनारस को वह अपनी जननी की तरह सम्मान देते थे। कुछ वर्षों के लिये इस संस्था के अधिष्ठाता के पद पर अवैतनिक सेवा प्रदान करते हुए, संस्था के कार्यकलापों से जुड़े रहे।
विषद अध्ययन के उपरान्त उन्होंने देहली तथा अम्बाला शहर (पंजाब) में अध्यापन का कार्य किया तथा बाद में बनारस से लगाव होने के कारण वे वापस बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर के पद पर नियुक्त हुए। यहां आर्ट्स कालेज बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में जैन दर्शन तथा वेदान्त बौद्ध व अन्य दर्शनों की तुलनात्मक शिक्षा दी। यहीं पर उन्होंने ने शोध
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कार्य भी किया तथा ज्ञान की सापेक्षिकता पर शोध लेख लिखा। जैन धर्म दर्शन और तत्व-ज्ञान में उन्हें अटूट आस्था थी तथा उनके शोध कार्य में इसकी झलक भी मिलती है।
सापेक्ष ज्ञान की गंभीरता को कुछ ही लोगों ने समझा। इस जगत में वस्तु व जीव अनन्त हैं। प्रत्येक वस्तु व जीव में अनन्त गुण हैं। पूर्णज्ञान होने के लिए केवल ज्ञान के प्रकट होने की आवश्यकता होती है। जो अरिहंत सिद्ध और मुक्त जीवों को ही प्राप्त होती है। शेष सब का ज्ञान सीमित तथा सापेक्ष होता है। अंतिम ज्ञान प्राप्त होने से पूर्व मनुष्य को अपने अधूरे ज्ञान पर अवलम्बित रहना पड़ता है। वैदिक तथा बौद्धिक विचार धाराओं में विरोधाभास होते हुए जैन आगमों की विचारधारा में समन्वयता दृष्टिगत होती है। सापेक्ष ज्ञान के बारे में सभी मतावलम्बी तथा विचारक अपनी व्याख्यायें देते रहे हैं लेकिन भगवान महावीर तथा उन से भी पहले हुए तीर्थंकरों की वाणी में इस का विषद विवेचन मिलता है। सापेक्ष ज्ञान को समझने के लिए उन्होंने अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, सप्तभंगी, परमाणुवाद तथा जयवाद को आधार बना कर उन की व्यापकता प्रस्तुत करते हुए विषय की गहनता को समझाया।
उनकी जीवन शैली बहुत ही सरल होते हुए उन्होंने दार्शनिक साहित्य जगत में ख्याति प्राप्त की। अपने जीवन काल में भारतीय तत्व ज्ञान की मूल-भूत समस्याएं तथा जैन दार्शनिकों के इस बारे में समाधान व उनक चिन्तन के बारे में कई लेख लिखे, जिन्हें विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित करने का गौरव प्राप्त हुआ।
यही नहीं तर्क शास्त्र विषय पर उस की विषय-सूची के अनुसार पुस्तकें हुईं जिन्हें विद्यार्थियों ने कालेज में वर्षों तक पढ़ा।
तिरक्कुरल (तमिल वेद) ग्रन्थ जो कि दक्षिण में सामाजिक ज्ञान की सूक्तियां हैं, उन का हिन्दी में अनुवाद कर के प्रकाशित हुआ। इन सब पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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कार्यों में उन की धर्मपत्नी स्वर्गीया विधा देवी जी, जो एक बहुत ही धर्म-परायण विदुषी थीं, ने उन को सदैव प्रेरणा प्रदान की। आपके परिवार में एक सुपुत्री तथा तीन सुपुत्र हैं जो अपने-अपने परिवारों के साथ समाज में अपना योगदान दे रहे हैं। समाज के इस विद्वान ने अपने छोटे से जीवन काल में, जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में अपना योगदान दिया तथा सन् 1962 में इस ऐहिक संसार से विदा ली। सर्वश्री अतिवीर कुमार, सन्मतिकुमार और अभिनन्दन कुमार आपके योग्य पुत्र हैं।
डा. रमेशचन्द जैन, निवाई (राजस्थान) 18 अगस्त 1934 श्री राजकुमार जैन शास्त्री के यहां द्वितीय पुत्र का जन्म हुआ। नाम रखा रमेशचन्द जैन। इस होनहार बालक ने चिकित्सा क्षेत्र की शिक्षा प्राप्त कर अलीगढ़, हाथरस व झासी में मेडिकल आफिसर के पद पर सेवा की। पर मन की संतुष्टि नहीं हुई। अतः 1958 में अपने पिताजी के नाम पर आर. के. जैन आंख अस्पताल की निवाई में स्थापना की। सेवाभावी डा. रमेशचन्द ने राजस्थान और उत्तर प्रदेश के जन साधारण की सेवार्थ सैकड़ों निःशुल्क चिकित्सा शिविर लगाये। इन शिविरों में दो सप्ताह की दवाएं भी निःशुल्क दी जाती हैं। रोगियों की प्रार्थना पर और पात्रता देखकर उनका पूरा इलाज भी निःशुल्क किया जाता है। इस ट्रस्ट की ओर से छात्र-वृत्ति एवं आर्थिक सहायता भी उन लोगों को दी जाती है, जिनकी पात्रता बनती है।
डॉ. रमेशचन्द अखिल भारतीय पद्मावती पुरवाल पंचायत (महासभा) के शिरोमणि सदस्य हैं। अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासमिति के संरक्षक, स्व. पं. राजकुमारजी शास्त्री एवं डा. रमेशचन्द जैन धर्मार्थ संस्थान के अध्यक्ष, व वरिष्ठ नागरिक परिषद निवाई के आप अध्यक्ष हैं। इसके अतिरिक्त अखिल भारतवर्षीय नेशनल इंटीग्रेटेड मेडीकल एसोसियेशन
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के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, सराक क्षेत्र कमेटी व अखिल भारतीय तीर्थक्षेत्र कमेटी बोम्बई के भी संरक्षक एवं परम संरक्षक हैं। लायंस क्लव इंटरनेशनल के बड़े सक्रिय पदाधिकारी हैं।
विगत लगभग 35 वर्षों से आप भारतीय जनसंघ (भारतीय जनता पार्टी) की जिला एवं स्थानीय इकाइयों के पदाधिकारी रह कर राष्ट्र सेवा में भी अपना योगदान दे रहे हैं। . __ आपकी धर्मपत्नी श्रीमती माधवीलता का 58 वर्ष की उम्र में सन् 2000 में स्वर्गवास हो गया। आपके बड़े पुत्र डॉ. राजेश कुमार एम.डी. हैं। छोटे पुत्र आपटेमेटिस्ट हैं। आपकी तीन पीढ़ियां (पिताजी, स्वयं एवं पुत्र) पद्मावती पुरवाल जाति के लिए समर्पित हैं। जातीय उत्थान के लिए ये सब कुछ करने के लिए तैयार हैं।
सुख का उपाय आज मनुष्य अपनी आवश्यकताओं से नहीं, आकांक्षाओं के कारण दुःखी है। आवश्यकताएं होती हैं शरीर के लिए और वे सीमित होती हैं, किन्तु आकांक्षाओं का जन्म होता है मन में
और उनका सिलसिला लम्बा चलता है। 'पेट' दो रोटियां से सन्तुष्ट हो जाता है किन्तु मन की तृप्ति मोहन-भोग पाकर भी नहीं होती। यदि हमारे पास स्कूटर हो, किन्तु पड़ौसी नई कार ले आए तो हमारे मन में भी नई कार खरीदने की लालसा जग जाती है। एक लालसा के बाद दूसरी और दूसरी के बाद तीसरी का क्रम चलता रहता है। तथा उनकी पूर्ति के लिए आदमी पराधीन बन जाता है। सुखी होने का एक ही उपाय है, अपनी अनन्त लालसाओं पर नियन्त्रण रखना।
-'चिन्तन प्रवाह' से साभार
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कैप्टिन श्री माणिकचन्द्र जी जैन, फिरोजाबाद श्री कैप्टिन साहेब समाज के वीर पुरुषों में से एक थे। अधिक आयु में भी आप में युवकों जैसा साहस तथा उत्साह रहता था। जिला आगरान्तर्गत 'कोटला ग्राम आपकी जन्म भूमि है। यहीं आप अपने पिता स्वर्गीय श्री बंगालीलाल जैन की मोदभरी गोद में पले। आपके इस वंश में श्री सुखनन्दनलाल, श्री बाबूराम रईस आदि विभूतियां हुईं जो समाज-सेवा तथा जाति-हितेषी कार्यों में अपना मौलिक स्थान रखती हैं।
कैप्टिन साहेब बाल्यकाल से ही तीक्ष्ण बुद्धि के थे। थोड़े ही समय में आपने आगरा विश्व विद्यालय से बी.ए. की शिक्षा समाप्त कर ली थी। विद्यार्थी जीवन में आप खेल-कूद के भी शौकीन रहे हैं। प्रायः सभी खेलों में आप उमंग के साथ भाग लिया करते थे। आपकी जोश भरी युवावस्था ने सैनिक जीवन अपनाया। फलस्वरूप आप अपनी योग्यता, चातुर्य एवं पराक्रम के कारण कैप्टिन जैसे उच्च पद पर आसीन हुए। जैनी जब जुल्म के खिलाफ संग्राम में उतरता है, तब वह विजयश्री वरण करके ही लौटता है। आपका विजयी-जीवन इसका ज्वलन्त प्रमाण है। आपने कई युद्धों में भाग लिया और हर मोर्चे पर विजय प्राप्त की। आप अपने सैनिकों एवं उच्चाधिकारियों में अत्यन्त प्रिय रहे थे। आपने सैनिक क्षेत्र में जितनी सफलता एवं लोकप्रियता प्राप्त की, उतनी ही समाज में भी आपकी प्रतिष्ठता थी। आप स्वजाति जनों की आजीविका तथा सुख समृद्धि का प्रयास बराबर करते रहे। पूर्वाचार्यों के अनुसार धर्म पर चलना तथा प्रत्येक स्थित में धर्म का पालन एवं अनुसारण करने का आप निरन्तर ध्यान रखते थे। आपके विचारानुसार धर्म आत्मा है। अतः आत्मा द्वारा
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प्रत्येक समय एवं स्थान पर धर्म साधा जा सकता है। आप वीरता, दया तथा निर्मलता की प्रतिमूर्ति थे। आप प्रत्येक व्यक्ति से अपने स्वजनों जैसा व्यवहार करते थे। आपकी भाषा अत्यन्त मधुर तथा विनोदपूर्ण थी। आप उच्च विचार युक्त आत्म-विश्वासी पुरुष थे।
आप समय समय पर खुले दिल से दान-धर्म करते थे। कोटला में श्री मन्दिरजी को आपने अपनी जमीन देकर मन्दिर जी में सौ रुपया मासिक की स्थाई आय का प्रबन्ध कर दिया। अब वहां एक धर्मशाला भी बन गई
__ आपका स्नेह एवं प्रेमपूर्ण व्यवहार अक्सर मानव को अपनी ओर आकर्षित कर लेता था। अभिमान आपको छू तक नहीं सका। आप स्पष्टवादी तथा उदारमना सुसंस्कृतज्ञ पुरुष थे। समय निकाल कर स्वधर्म-ग्रन्थों का बराबर अध्ययन करते रहते थे। आपका जीवन राष्ट्र का गौरव तथा स्वसमाज का आभूषण है। समाज के सर्वप्रिय विवेकी व्यक्तियों में आपकी गणना होती है। काफी समय पूर्व आपको स्वर्गवास हो चुका। आपके पुत्र श्री सुरेशचन्द जैन (नेमी) व श्री किशनचन्द जैन हैं। श्री सुरेश चन्द जैन का 1997 में स्वर्गवास हो गया। श्री सुरेशचन्द जी के तीन पुत्र हैं, ये पुत्र भी अपने दादा और पिता की तरह सक्रिय समाजसेवी हैं। इनके बड़े पुत्र का नाम राकेश जैन है। कैप्टिन साहब के दूसरे पुत्र श्री किशन चन्द जैन बम्बई में हैं, धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र के साथ-साथ व्यापार में भी आपकी अच्छी स्थिति है।
स्व. श्री श्योंप्रसाद जैन रईस, टूण्डला स्व. श्री श्योंप्रसाद जैन लाला तोताराम जैन के सुपुत्र थे। आपका परिवार जिला मैनपुरी के अन्तर्गत कुट्टी कटैना के मूल निवासी थे। स्व. श्री लाला तोताराम जैन अपने गांव से काफी समय पूर्व टूण्डला आ गए पद्यावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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थे। श्री श्योंप्रसादजी की जन्मभूमि टूण्डला ही है। इन्होंने 16 वर्ष की सुकुमार अवस्था में ही अपना उत्तरदायित्व सम्भाल लिया था। आपको आरम्भ काल से ही जमीन-जायदाद का बड़ा शौक रहा हैं, फलस्वरूप आपने इस दिशा में अच्छी प्रगति की है। आप इस क्षेत्र के प्रधान जमींदार माने जाते थे । धार्मिक मामलों में जहां आप उदार थे वहां पारस्परिक व्यवहार में भी निपुण थे ।
टूण्डला का 'दिगम्बर जैन महावीर विद्यालय' आपकी ही उदार वृत्ति का ज्वलन्त उदाहरण है। इस विद्यालय की विस्तृत भूमि आपकी ही दी हुई है । विद्यालय का वर्तमान भव्य स्वरूप आपकी ही कर्मठता का प्रतीक है। आप शिक्षा संस्थाओं को समाज के लिए अत्यन्त उपयोगी मानते थे । तथा आपने अपने जीवन में शिक्षा संस्थाओं का विशेष महत्व दिया है। श्री पी. डी. जैन इन्टर कालेज फिरोजाबाद के उपसभापति तथा ठा. वीर सिंह हायर सैकेण्डरी कॉलेज के आजीवन सदस्य एवं श्री दिगम्बर जैन एम.डी. कालेज आगरा के सदस्य इस प्रकार कई एक संस्थाओं के आप सम्माननीय सदस्य तथा पदाधिकारी रह चुके थे ।
आप अपने ग्रामीण स्वजाति बन्धुओं को नगरों तक ले जाना चाहते थे । अपनी इस भावना में स्वजाति जनों को उन्नत करने का विचार छिपा था । आप सदैव कहा करते थे कि स्वजातिबन्धुओं को अपनी 'अधवार' नगरों में भी बना लेनी चाहिए।
आप अदालती कार्यों में भी निपुण थे । अदालत सम्बन्धी कार्यों में आपकी राय बड़े बड़े कानूनवेत्तओं के लिए भी महत्वपूर्ण मानी जाती थी । जिन विवादों का निपटारा बड़ी-बड़ी अदालतें न कर पाती थीं उनका निपटारा आप बात की बात में कर देते थे । अतः अनेकों मामलों में आपको पंच बनाया जाता था। आपकी सूझ-बूझ भी बड़ी ही अनूठी होती थी । एक रूप में आप सच्चे भविष्य द्रष्टा थे
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* आप में गुरुश्रद्धा भी अनुकरणीय एवं प्रेरणा प्रद थी। जिस समय 108 आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज का चातुमार्स टूण्डला में होने जा रहा था, उस कार्य की जिम्मेवारी लेने के लिए जब कोई आगे नहीं आया, तो श्री श्योंप्रसाद जी ने ही इस कार्य को सम्भाला था। किन्तु काल की गति निराली है। आचार्य श्री के मंगल आवगमन से पांच दिन पूर्व ही श्री श्योंप्रसाद का एक सप्ताह की बीमारी के पश्चात् स्वर्गवास हो गया। आपके आकस्मिक निधन से समाज का एक बहुमूल्य रत्न विलुप्त हो गया।
आपके पुत्र सर्वश्री जयन्ती प्रसादजी, स्व. श्री जिनेन्द्र प्रसादजी, जितेन्द्र प्रसादजी, जसवन्त प्रसादजी और श्री जसवीर प्रसाद जी ने परिवार की प्रतिष्ठा को बनाये रखा। सभी सामाजिक व धार्मिक गतिविधियों में भाग लेते हैं। परिवार में सुख शांति व समृद्धि है।
आपके पौत्र श्री मनोज कुमार जैन पुत्र श्री जयन्ती प्रसाद जी वर्तमान में टूण्डला की पद्मावतीपुरवाल पंचायत के अध्यक्ष हैं।
स्व. श्री वासुदेवप्रसाद जैन टूण्डला आप स्व. श्री लाला भाऊमल जैन नौसेरा (मैनपुरी) के वंशधरों में से थे। आपके पिता श्री लाला शिखरप्रसाद जैन समाज के जाने-माने सज्जन थे। आप अपने भ्राताओं श्री भगवानस्वरूप जैन भू.पू. चेयरमैन टाउन ऐरिया कमेटी, श्री श्रीराम जैन और श्री सुनहरीलाल में सब से ज्येष्ठ थे।
आपका सार्वजनिक जीवन अत्यन्त सम्मानित और आदर्श रहा है। आप अनेक वर्षों तक विद्या संवर्धिनी समिति टूण्डला के प्रधान रहे। इस संस्था के अन्तर्गत धर्मशाला, पुस्तकालय एवं पाठशालाएं स्थापित हुईं। आपकी सतत् लगन एवं श्रम के कारण पाठशाला ठा. बीरीसिंह हाईस्कूल के रूप में तथा कन्या पाठशाला राजकीय कन्या विद्यालय के रूप में परिणत हो गई। इन दोनों ही संस्थाओं का शिक्षा-क्षेत्र में प्रशंसनीय योग पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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रहा है। आप द्वारा लगाए गए यह छोटे-छोटे पौधे आज विस्तृत-वृक्ष के रूप में प्रफुल्लित हैं। महावीर दिगम्बर जैन विद्यालय, जिनेन्द्र कला केन्द्र एवं अन्य अनेक जैन मन्दिरों आदि के आप संस्थापक तथा संचालक थे। आपके सहयोग से अनेक सामाजिक संस्थाएं उन्नति के शिखर पर पहुंचीं। श्री दि. जैन अतिशय क्षेत्र ऋषभनगर (मरसलगंज) कमेटी के आप सभापति रहे। इस क्षेत्र पर आपने अपने कार्यकाल में दो बार पंचकल्याणक बिम्ब प्रतिष्ठाएं कराईं। धर्म-रक्षक एवं समाज-सुधारक सम्बन्धी अनेक संस्थाएं जैसे अ. भा. दि. जैन धर्म संरक्षिणी महासभा एवं अ. विश्व जैन मिशन आदि को धर्मप्रचार में पूर्ण सहयोग प्रदान किया। आप सार्वजनिक जीवन में अत्यन्त लोकप्रिय प्रतिभा के श्रेष्ठ पुरुष सिद्ध हुए। आपका व्यक्तित्व आकर्षक और मोहक था। आपका सरल स्वभाव और मधुर-व्यवहार आपकी अपनी विशेषता थी।
आप अ. भा. पद्मावती पुरवाल महासभा के अनेक वर्षों तक सम्माननीय सभापति रहे। आपके इस सेवाकाल में सभा ने सुधार-दिशा में अच्छी प्रगति की और संगठन की दृष्टि से भी सराहनीय एवं प्रशंसनीय कार्य किया। आपका सफल एवं महत्वपूर्ण निर्णय समाज के लिए परमोपयोगी होता था। समाज को सर्वतोभावेन उन्नत करने की कामनाएं आपने अपने हृदय में संजो रखी थीं। समाज-सेवा के लिए आप प्रतिक्षण तथा प्रत्येक परिस्थिति में उद्यत रहते थे। समाज के महान् तथा अग्रसर पुरुषों में आपकी गणना की जाती थी।
श्री सेठलाल महेन्द्र कुमार जैन, टूण्डला श्री सेठलाल जैन जी का परिवार एत्मादपुर तहसील के ग्राम मोहम्मदाबाद में जहां पर एक प्राचीन जैन मंदिर है, प्रवास करता था। आपके परिवार ने व्यापार की दृष्टि से टूण्डला क्षेत्र को अपनी
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कार्यस्थली के रूप में चुना और आपका परिवार प्रारम्भ से ही रेलवे में ठेकेदारी के व्यवसाय से जुड़ा रहा है और विभिन्न कारोबारों के चलते आपके परिवार ने जैन समाज में अपने क्षेत्र में प्रतिष्ठा व ख्याति प्राप्त की है। स्व. सेठलाल जी के तीन सुयोग्य पुत्र श्री महेन्द्र कुमार जैन, श्री चिंतामणी जैन व श्री जिनेन्द्र कुमार जैन टूण्डला में ही निवास करते हैं
और अपने-अपने व्यवसाय से जुड़े हैं। श्री महेन्द्र कुमार जैन प्रारम्भ से ही धार्मिक-आध्यात्मिक एवं मुनिसेवाभावी प्रकृति के रहे हैं और उनकी प्रेरणा से आपके परिवार ने ऋषभपुरी टूण्डला चतुष्पद पर एक वृहद् जैन मन्दिर का निर्माण कराया है, जिसका संचालन श्री सेठलाल जैन ट्रस्ट के अन्तर्गत किया जाता है। इस पुनीत स्थान पर अनेक जैन मुनिसंघों ने विहार कर इस नगरी में धर्म प्रभावना का परचम लहराया है। यह स्थल धर्मस्थली के रूप में जाना जाता है। श्री महेन्द्र कुमार जैन के तीन सुयोग्य सुपुत्र हैं-श्री सुरेन्द्र कुमार जैन, श्री सतेन्द्र कुमार जैन एवं श्री अनिल कुमार जैन। श्री सुरेन्द्र कुमार जैन व अनिल कुमार जैन अपने-अपने व्यवसाय में दक्ष हैं तथा श्री सतेन्द्र कुमार जैन क्षेत्र के प्रख्यात वरिष्ठ आयकर व्यापार कर अधिवक्ता के रूप में धार्मिक, शैक्षिक व सामाजिक गतिविधियों से जुड़े हुए हैं।
आपका समस्त परिवार धर्म प्रेमी एवं शिक्षा प्रेमी हैं और जैन समाज में वे अपने क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान बनाये हुए हैं।
श्री संतकुमार जैन बैंकर्स, टूण्डला टूण्डला के निकट एलई-जटई जनपद के श्री बनवारी लालजी अपने परिवार के साथ 1945 में टूण्डला आये और यहां अनाज व घी आदि का व्यापार किया। कुछ समय बाद इनके दोनों पुत्रों श्री संतकुमारजी और श्री सुरेशचन्द जी ने सर्राफे का काम किया। आय पर्याप्त होने पर श्री पद्यावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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संतकुमारजी ने रुपये उधार देने का काम भी जोड़ लिया, इसीलिये बैंकर्स कहलाये। लगभग 70 वर्षीय श्री संतकुमारजी के दो पुत्र हैं। श्री संतकुमार जी सामाजिक और धार्मिक व्यक्ति हैं। वे स्थानीय और अखिल भारतीय स्तर की कई संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आप उदारतापूर्वक अपना सहयोग देते हैं।
स्व. श्री जिनेन्द्रप्रकाश जैन संस्थापक-'करुणादीप' हिन्दी पाक्षिक पत्र पं. पु. जैन समाज का एटा प्रमुख नगर माना जाता है। आदरणीय श्री जिनेन्द्र प्रकाश जी का जन्म एटा नगर में सन् 1937 में हुआ था। आप श्री दयाशंकर जी जैन के ज्येष्ठ पुत्र थे। श्री जिनेन्द्र प्रकाश जी प्रमुख समाज सेवी, पशुवध निरोधक समिति एवं करुणादीप पाक्षिक पत्र के संस्थापक, वरिष्ठ सम्पादक, प्रखर वक्ता, कर्मयोगी, प्रतिभा के धनी, लगनशील, सच्चे देव शास्त्र गुरु के उपासक धर्म के प्रचारक एवं समर्थक थे।
आपके पास जो भी व्यक्ति किसी भी प्रकार की समस्या लेकर आता था आप उसका पूर्णरूपेण समाधान करते थे। आप समाज को अपना घर समझते थे एवं हमेशा उसके विकास एवं संगठन की-सोचते और उसी प्रकार कार्य करते थे। 1972 में आप अखिल भारतीय पदमावती पुरवाल पंचायत के महामंत्री चुने गये। उस समय आपने अपनी कार्य पद्धति से पंचायत संगठन को मजबूती प्रदान की। विरोधियों को भी अपने पक्ष में करना आपकी विशेषता थी। आप अपने समाज पर गर्व करते थे। आप अत्यन्त परिश्रमी एवं संयमी व्यक्ति थे।
'करुणादीप' पत्र के संपादन में आपकी गहरी रुचि थी। घंटों आप पत्र का संपादन करते रहते थे। आप में समाज सेवा की अजीब लगन थी। 311
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आप अपना व्यक्तिगत कार्य छोड़कर भी समाज सेवा के लिए तत्पर रहते थे। आपके निस्वार्थ भाव से समाज के सभी व्यक्ति परिचित थे, किसी भी व्यक्ति की सेवा करके आपको बहुत शांति मिलती थी। प.पु. समाज की आपने सन 1970 से अपनी मृत्यु पर्यन्त 1992 तक सेवा की। आदरणीय जिनेन्द्र प्रकाश जी अपनी समाज को काफी आगे ले जाना चाहते थे। 1986 में आपने एटा पंचकल्याणक में भी अपना भरपूर सहयोग दिया। आज आदरणीय श्री जिनेन्द्र प्रकाश जी हमारे बीच में नहीं हैं लेकिन उनक तीनों पुत्र कुलदीप कुमार, प्रदीप कुमार एवं सुदीप कुमार एवं पुत्री आभा जैन उनके आदर्शों के अनुरूप कार्य कर रहे हैं।
श्री मोरध्वज अजितप्रसाद जैन सर्राफ, एटा यह एटा का सर्राफ परिवार लाला मोरध्वज जैन व उनके सुपुत्र श्री अजित प्रसाद जैन द्वारा एटा में भव्य तीन मंजिला जैन मन्दिर बनवाने के लिए प्रसिद्ध हुआ। मंदिरजी में स्थापित चहुंमुखी श्री महावीर स्वामी की प्रतिमा की पंच कल्याणक प्रतिष्ठा समारोह सन 1960 में उत्तर भारत का भव्य मेला इसी परिवार द्वारा मुनि श्री विमलसागर महाराज के सानिध्य में करवाया। इस मंदिरजी में श्री देशभूषण जी महाराज का भी आगमन हुआ। श्री मोरध्वज जी के पुत्र श्री अजित प्रसादजी पद्मावती पुरवाल समाज के सोनागिरडी, अहिच्छत्र जी, कम्पिलाजी, व मरसलगंज (फरिहा) आदि क्षेत्रों की कार्यकारिणी से सम्बद्ध रह कर, मंदिर-भवन धर्मशाला आदि के निर्माण में योगदान किया। उन के पुत्र श्री आदेश्वर प्रसाद जैन एटा के वीर मंडल के मुख्य कार्यकर्ता रहे हैं, उनके तीन पुत्रों में ज्येष्ठ श्री अनंत प्रकाश जैन, उत्तर प्रदेश सरकार की पी.सी.एस. सेवा में सहायक आयुक्त (स्टाम्प) के पद पर मुज्जफरनगर में कार्यरत हैं।
श्री आदेश्वर प्रसाद जैन के द्वितीय पुत्र श्री अरहंत प्रकाश जैन चार्टर्ड पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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एकाउंटेट कम्पनी सैक्रेटरी हैं और तृतीय पुत्र अकलंक प्रकाश जैन पुश्तैनी पारिवारिक सर्राफा व्यवसाय एटा में कर रहे हैं
सम्पूर्ण परिवार अपने पूर्वजों की आस्था क्रम में जैन समाज व जिन मंदिरों की पूजा अर्चना व दान आदि में समर्पित हैं।
स्व. डॉ. श्री यतीन्द्रकुमार जैन शास्त्री डॉ. यतीन्द्र कुमार जैन शास्त्री का जन्म इन्दौर के धर्मनिष्ठ स्व. श्री कुंज बिहारी लाल शास्त्री के घर में हुआ था। आप बचपन से ही कुशाग्न बुद्धि, और तेजस्वी थे। आप प्रसिद्ध वक्ता, क्रियाकाण्ड विशेषज्ञ, तत्ववेत्ता, सफल चिकित्सक यंत्र, मंत्र तथा तंत्र शास्त्र एवं ज्योतिष शास्त्र के विशेषज्ञ तथा प्रकाण्ड विद्वान थे। आपने भारतवर्ष के अनेक महाविद्यालयों,
औषधालयों आदि में अपनी अमूल्य सेवाएं अर्पित कर पर्याप्त कीर्ति अर्जित की। आपने शुद्ध शास्त्रोक्त रीति से अनेकानेक स्थानों पर पंच-कल्याणक एवं वेदी प्रतिष्ठाएं आदि संपन्न करायीं। आपने धार्मिक कार्यों के सम्पादन में विभिन्न स्थानों से समाज द्वारा सम्मान प्राप्त किया।
भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली एवं आचार्य श्री शान्ति सागर स्मारक ट्रस्ट त्रिमूर्ति (नेशनल पाक) बोरीवली, बम्बई के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित 'जैन विद्या उपलब्धियां और सम्भावनाएं जैन विद्वत् संगोष्ठी बम्बई द्वारा आयोजित सिम्बर 1982 में आपका 'जैन मन्त्र तन्त्र एवं ज्योतिषि शास्त्र' पर वैज्ञानिक एवं तथ्य परक व्याख्यान हुआ। जो काफी चर्चित व विद्त जनों द्वारा सराहा गया। तद्उपरान्त आपका जैन समाज के परम अग्रणीय एवं अनुकरणीय लब्ध प्रतिष्ठित साहू श्री श्रेयांस प्रसाद जैन द्वारा सम्मान गोष्ठी में आपका सम्मान किया गया।
आपकी लेखनी जितनी सशक्त एवं प्रौढ़ थी तदनुसार भाषण और धार्मिक क्रिया शैली भी उतनी ही प्रभावक थी। आप धार्मिक विद्वान,
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प्रतिभावान, साहित्यकार के साथ-साथ उच्चकोटि के चिकित्सक भी थे। आपने निम्नलिखित प्रमुख ग्रन्थों एवं पुस्तकों की रचना की, जो आपकी चहुंमुखी प्रतिभा के हस्ताक्षर हैं।
1. चतुर्विशति शासन देवी विधान; 2. क्या हम अहिंसक हैं ?; 3. स्याद्वाद सूर्य; 4. गन्धक कल्प; 5. मायाबीज कल्प; 6. गणधर गणेश विधान; 7. गणधर गणेश पूजन एवं दीप मालिका पूजन; 8. वृहत् जैन विवाह विधि इत्यादि आपकी रचनाएं हैं। इसके अतिरिक्त स्याद्वाद मार्तण्ड मासिक पत्रिका का आपने सम्पादन एवं प्रकाशन किया।
आप (1) दिव्यौषधि शोध खोज केन्द्र (2) योग मन्त्र यन्त्र का शोध संस्थान ( 3 ) प्रांग ऐतिहासिक ज्ञान कला केन्द्र (4) श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ दि. जैन सरस्वती भवन ( 5 ) श्री गणधर गणेश प्रकाशन आगरा के आजीवन संस्थापक संरक्षक रहे। आपके विवाहित दो पुत्र एवं विवाहित दो पुत्रियां हैं। पुत्रगण पर्यटन परिवहन एवं इलेक्ट्रोनिक्स एंड कम्युनिकेशन का व्यवसाय करते हैं। आपका हृदयगति रुकने से दिनांक 24 अक्टूबर 1985 को देहावसान हुआ ।
श्री कैलाशचंद जैन, कोलकत्ता
फीरोजाबाद जिले के फरिया जनपद के श्री नेमीचंद जी 1940 के आसपास व्यवसाय के लिए कोलकाता पहुंचे। कुछ दिनों बाद उनके 2-3 पुत्र भी वहां पहुंचे। भारत ट्रेडर्स के नाम से घी तेल और चीनी के व्यवसाय को आगे बढ़ाया। श्री नेमीचंद के स्वर्गवास के बाद कलकत्ते में पारिवारिक, व्यापारिक और सामाजिक उत्तरदायित्व श्री कैलाशचंद पर आ गया। श्री कैलाशचन्द जी श्री नेमीचन्द जी के दूसरे पुत्र हैं। बड़े पुत्र स्व. श्री प्रकाश जी पटना में रहते थे वहां से वह गाजियाबाद आ गये थे और थोड़े समय बाद यहां उनका स्वर्गवास हो गया। श्री कैलाश जी मिलनसार,
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सरल स्वभावी, धार्मिक क्रियाशील व्यक्ति हैं। सुधीर, राजीव और स्वास्तिक इनके तीन पुत्र हैं। श्री कैलाश जी के छोटे भाई स्व. श्री नरेन्द्र कुमार का परिवार भी कोलकाता में रहता है। पद्मावती पुरवाल जाति के प्रति श्री कैलाशचन्द जी के मन में विशेष लगाव है। भारत के पूर्वांचल स्थित बंगाल, बिहार, उड़ीसा, झारखंड, नागालैंड, त्रिपुरा और मणिपुर के राज्यों में रहने वाले पद्मावती पुरवाल जाति के लोगों का संगठन बनाकर वहां की डायरेक्ट्री प्रकाशित कराके प्राचार्य श्री नरेन्द्र प्रकाश से उसका लोकार्पण करवाया। पूर्वांचल और पूरे भारत के लिए ये प्रेरणा और गौरव की बात है। अपनी जाति का वहां एक मंदिर बनवाने के लिए प्रयत्नशील हैं। वैसे वे पार्श्वनाथ दि. जैन मंदिर ट्रस्ट, हावड़ा के ट्रस्टी हैं। मंदिर के 11 ट्रस्टियों में यही एकमात्र पद्मावती पुरवाल जाति के ट्रस्टी हैं। बाजार फोरम के प्रेसिडेंट हैं। बंगाल शुगर मर्चेन्ट एसोसिएशन के प्रेसिडेंट हैं। हावड़ा मंदिर के जगह लेने में भी आपका उल्लेखनीय योगदान रहा है। पूरा परिवार धार्मिक और खुशहाल है।
श्री एम.पी. जैन, गाजियाबाद आगरा जिले के अहारन जनपद में श्री बुद्धसेन जैन के परिवार में एक बालक ने 1935 में जन्म लिया। उसका नाम रखा महावीरप्रसाद । शिक्षा प्राप्त करने के लिए श्री महावीर प्रसाद जी दिल्ली आये। दिल्ली विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम.ए. करने के बाद वह रामजस कालेज में लैक्चरार के रूप में कार्य करने लगे। 1960 में उनका चयन उत्तर प्रदेश के पी.सी.ए. कैडर में हो गया। परिणाम स्वरूप उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों में उप जिला अधिकारी, अपर जिला अधिकारी और जिला अधिकारी रहे। 1981 में आपकी आई.ए.एस. केडर में पदोन्नति हो गई और उत्तर प्रदेश सरकार के सचिवालय में संयुक्त सचिव आदि पदों पर रहे।
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बाद में नोएडा प्राधिकरण में उच्च अधिकारी, दिल्ली विकास प्राधिकरण प्रति नियुक्ति, पर सचिव रहे। बाद में वहीं पर डाइरेक्टर और एडीशनल कमिश्नर (कामर्शियल लैंड) भी रहे। 1993 में आप सेवा निवृत हुए।
श्री महावीर प्रसाद जी, सकारात्मक सोच के शिक्षित, स्वस्थ और सफल अधिकारी के रूप में रहे। आप आडम्बरहीन धर्म में विश्वास करते हैं। कर्तव्य के प्रति हमेशा जागरूक रहे हैं। आप स्पष्टवादी, हाजिर जवाब और विनोदी स्वभाव के हैं।
देश की भावी पीढ़ी को उच्च शिक्षा देने वाली एक संस्था 'कृष्णा इंस्टीच्यूट ऑफ इंजीनियरिंग एवं टेक्नोलोजी, गाजियाबाद की आपने स्थापना कराई। स्थापना से लेकर अब तक वह उसके चेयरमेन हैं। यह संस्था उत्तरप्रदेश और भारत सरकार से मान्यता प्राप्त है। देश की उत्तम शिक्षा देने वाली संस्थाओं में इसका नाम है। इस इंस्टीच्यूट में बी. टैक, एम.सी.ए. और बी. फार्मा आदि की उच्च शिक्षा दी जाती है। वर्तमान में लगभग 2250 बच्चे शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं और शिक्षकों की संख्या लगभग 125 हैं। धार्मिक और सामाजिक संस्थाओं से भी आपको लगाव है।
स्व. श्री रामस्वरूप जैन, इन्दौर आप एटा निवासी स्व. श्री बाबूराम जैन के सुपुत्र थे आपका जन्म वि. सं. 1965 पोष सुदी 10 (सन् 1906) में हुआ था। आपके पूज्य पिता श्री भी समाज के श्रेष्ठ कार्यकर्ताओं में से थे। उनका समाज में अपरिमित प्रभाव था।
आप शिशु अवस्था से ही तीक्ष्ण बुद्धि थे। अतः आपने आश्चर्य पूर्ण गति से उच्च शिक्षा प्राप्त की और बी.ए. एल.एल.बी कर वकील बन गये। आपका साहित्य के प्रति लगाव बढ़ता रहा और आपने कई शैक्षणिक पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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पुस्तकों की रचना कर प्रकाशित किया। हिन्दी साहित्य के प्रति अनुराग स्तुत्य है।
भारत के प्रसिद्ध सर सेठ हुकुमचन्द जैन के परिवार में आपने गार्जियन ट्यूटर की सेवाएं प्रदान की। आप उनकी पारमार्थिक संस्थाओं के मंत्री पद पर भी रहे। आपके मूल्यवान सुझाव, सुनिश्चित योजनाएं तथा सुव्यवस्थित कार्य प्रणाली के कारण संस्था में नवीन जागृति आ गई थी। आप दि. जैन पद्मावती पुरवाल संघ इन्दौर के संस्थापक तथा सभापति थे। समाज उनके योगदान के प्रति आज भी ऋणी है। __ आपकी पत्नी श्रीमती विश्वेश्वरी देवी जैन को भी आदर्श नारियों में गिना जाता था। आपके पांच पुत्र तथा दो पुत्रियां थी। आपके दो पुत्र भी विनय कान्त व कमलाकान्त का अल्प आयु में ही निधन हो गया। श्री कमलाकान्त जैन तथा रमाकान्त जैन मेरीन इंजीनियर होकर बम्बई में ही बस गये हैं। आपके चतुर्थ पुत्र श्री रविकान्त जैन इन्दौर में रहकर सामाजिक एवं राजनैतिक गतिविधियों में सक्रिय सहयोग दे अपने परिवार का नाम रोशन कर रहे हैं। वे कई सामिजिक संस्थाओं के पदाधिकारी हैं।
श्री रामस्वरूप जी का स्वर्गवास कार्यरत रहते हुए सन 1962 में मोटर दुर्घटना से हो गया। आपके निधन से सम्पूर्ण समाज शोक संतप्त हो गया। आपके द्वारा की गई समाज सेवा चिरकाल तक स्मरणीय रहेगी।
स्व. श्री श्यामस्वरूप जैन, इन्दौर आपका जन्म सन् 1910 एटा में सुप्रसिद्ध समाज सेवी श्री बाबूराम जैन के यहां हुआ था। श्री शोभाचन्दजी, श्री चम्पारामजी आदि प्रसिद्ध विभुतियां इसी वंश की देन थी।
आपका लालन पालन बड़े ही रईसाना ढंग से हुआ। आपकी शिक्षा इन्टर मीडिएट तक हुई है। आपका मधुर स्वभाव एवं दयाभाव सभी को
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अपनी ओर आकर्षित करता था। स्वधर्म के प्रति पूर्ण आस्थावान रहते हुए आपने कई आध्यात्मिक पद कंठस्थ कर रखे थे।
पद्मावती पुरवाल समाज के पुनरुत्थान हेतु आप प्रयत्नशील रहते थे तथा इसके लिए सायंकाल पूरे शहर में सतत् जीवित सम्पर्क रखते थे। ___ आपके पुत्र श्री रमेशकान्त जैन कार्यपालन मंत्री के रूप में शासकीय सेवारत् हैं। श्री महेशकान्त जैन अपने मुद्रण व्यवसाय में कार्यरत हैं। श्री रमेशकान्त और महेशकान्त को परिवार की समाज सेवा की परम्पराओं को आगे बढ़ाने के लिए उनसे सक्रियता की अपेक्षा है।
'काका इन्दौरी' के नाम से आपकी शेरो-शायरी के लिए इन्दौर का बच्चा-बच्चा इन्हें जानता था। 86 वर्ष की अवस्था में आपका देवलोक गमन हुआ।
स्व. श्री कान्तिस्वरूप जैन, इन्दौर समाज के मौन और लगनशील कार्यकर्ताओं में आपका नाम आदर से लिया जाता है। आपके हृदय में समाज सेवा की अखण्ड ज्योति प्रतिक्षण प्रज्जवलित रहती थी।
आपका जन्म सन् 1916 में एटा (उ.प्र.) में हुआ था। स्व. श्री बाबूराम जैन के सुपुत्र थे। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा एटा में ही हुई। मैट्रिक मोक्षशास्त्र, जैन सिद्धान्त प्रवेशिका आदि की शिक्षा प्राप्त कर आपने कर्मक्षेत्र इन्दौर चुना तथा लगन से कार्य कर सफलता प्राप्त की।
साहित्य में रुचि होने से आपने पुस्तक लेखन, प्रकाशन एवं मुद्रण व्यवसाय में प्रवेश किया। इस दिशा में आपने साहित्य के साथ-साथ यश भी प्राप्त किया। मध्य प्रदेश के प्रमुख शहर इन्दौर में आपने ख्याति नाम ‘स्वरूप ब्रदर्स' तथा 'जय मुद्रण एवं प्रकाशन' की स्थापना की। भोपाल
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साहित्य सदन को स्थापित किया। आपके यहां से कई महत्वपूर्ण पुस्तकों . का प्रकाशान हो चुका है। . . . . . . . . . .".
आप राष्ट्र भाषा हिन्दी के अनन्य सेवक वे तथा हिन्दी की सतत् सेवा साधना में अहर्निश प्रयत्नशील रहे। आपके द्वारा रचित उपदेशात्मक पध तथा लेख प्रत्येक व्यक्ति के लिए जीवनोपयोगी है। ... !
अ. भा. पद्मावती-पुरवाल संघ के आप कई वर्षों तक अध्यक्ष रहें तथा समाज सेवा करते रहे। इन्दौर समाज के आप कोषाध्यक्ष थे। इन्दौर पुस्तक विक्रेता एवं प्रकाशक संघ के आप संस्थापक व सभापति थे। सीमित शब्द और महान कार्य की उक्ति को चरितार्थ करते हुए शान्त प्रकृति, गंभीर विचारक तथा भावनापूर्ण स्वच्छ हृदय के आय प्रतिकृति के। आपके पुत्र श्रीकान्त, शशिकान्त तथा चन्द्रकान्त का अल्प आयु में निधन हो गया। आपके पुत्र अनेकान्त भोपाल में तथा सूर्यकान्त व दिनेशकान्त इन्दौर में पुस्तक व्यवसाय में अग्रणी हैं। . . . .
स्व. ब्रह्मचारी श्री सूरजमल जैन प्रतिष्ठाचार्य भारतवर्ष की धर्म धरा ने अनेक मूर्धन्य विद्वानों को जन्म दिया है। इसी कड़ी में जैन समाज एवं पद्मावती पुरवाल समाज का एक और मोती जुड़ा, वह नाम था-प्रतिष्ठाचार्य ब्रह्मचारी श्री सूरजमल जैन। _पू. ब्रह्मचारी श्री सूरजमल का जन्म मंगसिर कृष्णा प्रतिपदा सं. 1978 को मध्य प्रदेश के भोपाल शहर के निकट जामुनिया ग्राम में हुआ था। आपके पिता श्री मथुरा प्रसाद एवं माता श्रीमती महताब बाई थीं। आपके 2 भाई एवं छः बहनें थीं। बाल्यकाल में माता-पिता के असामयिक स्वर्गवास से आपको अनेक संकटों से जूझना पड़ा एवं जीवन त्यागमयी रहा। । संयोगवश बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य चारित्र चक्रवर्ती अवार्य 108 श्री शान्तिसागर जी महाराज के प्रथम पट्टाचार्य 108 श्री. वीरसागर जी
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महाराज का सानिध्य एवं आशीर्वाद प्राप्त हुआ। आप यू. आचार्य श्री के प्रथम एवं प्रिय शिष्य थे। गुरुवर का आपके ऊपर वरदहस्त था। आप आर्ष परम्परा के कट्टर समर्थक थे। सफेद धोती-दुपट्टा, मस्तक पर केसर का तिलक के कारण आप समाज में 'बाबाजी' के नाम से विख्यात हुए। आप सरल स्वभावी और सादा, जीवन के धनी थे। आपने 14 वर्ष की अल्पायु में ही पूज्य आचार्य श्री 108 वीरसागरजी महाराज से अखंड ब्रह्मचर्य व्रत एवं सप्तम प्रतिमा ग्रहण की। . .. आपकी बहिन बाल ब्रह्मचारिणी कस्तूर बाई के आग्रह पर आपने टोंक जिला के निवाई शहर को कर्म क्षेत्र बनाया। अपने निवास स्थान पर एक भव्य चैत्यालय का निर्माण कराया।
आप ज्योतिष, न्याय, व्याकरण, तंत्र, मंत्रादि के ज्ञाता थे। आपका हिन्दी मराठी, संस्कृत प्राकृत जैसी भाषाओं पर सम्पूर्ण अधिकार था।
पूज्य बाबाजी पूर्वाचार्यों द्वारा प्रमाणित आगम प्रमाण विधि का पूरा पालन करते थे। यही कारण था कि आपकी पंचकल्याणक विधि को बहुमान मिलता था।'
पू. बाबाजी ने अपने जीवन काल में 159 पंचकल्याणक प्रतिष्ठाएं करायीं, वेदी प्रतिष्ठा एवं विधान तो अनगिनत हैं। आपको भारत वर्ष के वरिष्ठतम प्रतिष्ठाचार्य होने का गौरव भी प्राप्त था। विधि-विधान आगम प्रमाणित विधि से करवाने के कारण आपको समाज ने अनेक पदवियों से विभूषित किया। सर्वप्रथम मरसलगंज पंच कल्याणक प्रतिष्ठा में आपको "संहितासूरी' एवं उसके बाद प्रतिष्ठाचार्य, प्रतिष्ठा दिवाकर, प्रतिष्ठा तिलक, गुरु भक्त वाणी भूषण; श्रावक शिरोमणि, विद्या वाचस्पति जैसी पदवियों से सम्मानित किया।
आपने परम पूज्य 108 आचार्य श्री शिवसागर जी, परम पूज्य आचार्य श्री धर्मसागरजी, परम पूज्य आचार्य श्री अजित सागर जी, परम पूज्य पचायतीपुरवास दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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आचार्य श्री श्रेयांस सागर जी, परम आचार्य श्री अभिनन्दन सागर जी को आचार्य पद एवं अनेक मुनि एवं आर्यिका दीक्षायें करवायीं। ___ समाज को बाबाजी के रूप में ऐसा रत्न प्राप्त था जिसकी धार्मिक प्रतिभा एवं श्रमण संस्था की प्रभावना ने समाज में नई धारा प्रवाहित की। आपने जैन दर्शन के गहरे अध्ययन-मनन से कई स्वतंत्र रचनाएं की जिनमें शान्ति-विधान की पूजन एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। शान्ति विधान की पूजन बड़ी रोचक शैली में सरल अर्थों से परिपूर्ण है। पुरन्दर व्रत विधान इनकी अन्तिम रचना थी। __ श्री महावीरजी स्थित श्री शान्ति वीर नगर संस्था का भव्य मन्दिर एवं विद्यालय आप की ही देन है। आप शान्तिवीर नगर के अधिष्ठाता थे। आपके कुशल नेतृत्व में इस नव निर्मित मन्दिर का निर्माण चल रहा था।
1 मई सन् 1997 को जयपुर में खण्डेलवाल प्रतिष्ठा के एक दिन पूर्व महा मंत्र का स्मरण करते हुए स्वर्गस्थ हो गये। आपका अंतिम संस्कार शान्तिवीर नगर में पूज्य आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज की छत्री के पास विधि-विधानानुसार किया गया।
शांतिवीर नगर में आपका बुत (स्टेच्यूो बन चुका है जिसकी शुभ मुहूर्त में शीघ्र ही स्थापना की जाएगी।
भूल को तूल मत दो किसी भी भूल को तूल नहीं देना चाहिए। यदि हो सके तो उसे भुला देना ही श्रेष्कर है। हर आदमी से कुछ भूलें अनजाने में हो ही जाती हैं। उन्हें भुला देने में ही बुद्धिमानी है। जो भूलें जानबूझ कर की जाती हैं यदि उन्हें तूल देने से बचा जाये तो बहुत से अनावश्यक विवादों से बचा जा सकता है। प्रायः लोग छोटी-छोटी बातों को तूल देकर आपस में झगड़ने लगते हैं। ऐसे अवसर पर समझदारी से काम लेकर आपसी मनमुटाव को नहीं बढ़ने देना चाहिए।
-चिंतन-प्रवाहले सामार
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पावतीपुरकाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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' ' जातीय गौरव-रक्षा और संगठन : कुछ सुझाव
प्रस्तुति-प्रताप जैन जैन जातियों के इतिहास के अनुसार वर्तमान सामाजिक वर्ण व्यवस्था भगवान आदिनाथ के समय से ही चली आ रही है। इतिहास में जैन धर्मावलम्बियों की जिन प्रमुख 84 जातियों और 153 उप-जातियों का उल्लेख मिलता है, उनमें पद्मावती पुरवाल जाति का नाम प्रमुखता से लिया गया है। प्रारम्भ से ही इस जाति में उच्च कोटि का पांडित्य रहा है। आज भी अनेक परम तपस्वी और ज्ञानी साधु हैं। अच्छे कलाकार, वक्ता और प्रवक्ता भी इस जाति में हैं। वैसे इस जाति में गौत्र व्यवस्था भी थी, पर अब व्यापक संदर्भ में सम्पूर्ण पद्मावती पुरवाल जाति दिगम्बर जैनों
का एक गोत्र (घटक) के रूप में सिमट कर रह गई है। ___ उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र आदि के कुछ जिलों और उनके ग्रामीण आंचलों में रहने वाली पद्मावती पुरवाल जाति के लोगों की दृढ़ धार्मिक आस्था, सामाजिक समर्पण एवं चारित्रिक प्रमुखता के कारण इस जाति का अतीत अत्यन्त गौरवमयी रहा है। यह जाति सदैव से अविच्छिन्न शुद्ध दिगम्बर जैन आम्नाय की उपासक और पौषक रही है। सज्जातित्व की रक्षा के लिए यह जाति अपने बच्चों की शादी विवाह अपने जाति के परिवारों एवं अपने जाति के ग्रहस्थाचार्यों (पांडे) के माध्यम से कराती रही है। इस जाति की एक बहुत बड़ी विशेषता यह भी है कि दिगम्बर जैन पावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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आम्नाय की अन्य जातियों जैसे अग्रवाल, खंडेलवाल आदि के गौत्रों के नाम वैष्णव धर्मावलम्बियों में भी पाये जाते हैं पर 'पद्मावती पुरवाल' कहीं नहीं मिलता।
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लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व प्रारम्भ हुए स्वाधीनता आंदोलन और स्वाधीनता मिलने के बाद राष्ट्र निर्माण में आयी नयी चेतना के आधुनिक वातावरण में इतनी उज्जवल और गौरवमयी परम्परा की संवाहक पद्मावतीपुरवाल जाति वर्तमान में ना तो अपनी प्राचीन परम्पराओं पर चल पा रही है और ना ही नव जागरण की इस बेला में धार्मिक आस्थाओं में नित नये आ रहे परिवर्तनों, नैतिक मूल्यों में हो रही गिरावट और अर्थिक आपाधापी में अपने आपको समुचित स्थान दिला पा रही है। हालांकि अब से लगभग 70-80 वर्ष पूर्व गठित अखिल भारतीय पद्मावतीपुरवाल जैन परिषद, पद्मावतीपुरवाल जैन महासभा, पद्मावतीपुरवाल जैन पंचायत आदि संस्थाओं ने आने वाले इस समय की कल्पना कर अपने अधिवेशनों में कुछ समयानुकूल प्रस्ताव पास कराये, पर पारस्परिक विश्वास, सद्भाव और सहयोग के अभाव में राष्ट्रीय स्तर पर अपने लक्ष्य प्राप्त नहीं किये जा सके। जहां कहीं जो भी प्रभावशाली व्यक्तित्व हुआ उसने स्थानीय व्यक्तियों अथवा अपने समर्थकों के माध्यम से मूल लक्ष्य को गौण बना दिया । परिणाम समाज में गिरावट और बिखराव ही रहा ।
आज पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर तीव्र गति से आ रहे इस बदलाव में हम अपनी रक्षा कैसे करें, यह महत्वपूर्ण विषय हमारी चिंता का कारण बन रहा है। इस चिंता के निवारण के लिए विनम्रतापूर्वक निम्न सुझाव प्रस्तुत किये जाते हैं
1. पद्मावती पुरवाल जाति के प्रमुख विद्वानों, श्रेष्ठियों और कार्यकर्ताओं के साथ-साथ सामान्य श्रावक-श्राविकाओं के नाम, पते और फोन नम्बर आदि स्थानीय पंचायतों अथवा संगठनों द्वारा संकलित हो
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३. जाने पर उन सबसे स्थानीय और केन्द्रीय स्तर पर सम्पर्क करना
चाहिए। उनकी नियमित बैठकें और चुनाव नियत समय पर होने चाहिए ताकि पंचायत / समाज की गरिमा बनी रह सके। इस प्रकार पुरानी पीढ़ी के साथ-साथ नई प्रतिभाएं भी उभरेंगी और वही हमारा भविष्य होगा।
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2. जिस शहर में 20-25 या इससे अधिक पद्मावती पुरवाल जाति के परिवार रहते हैं, वहां बिना किसी भेदभाव के उनका एक स्थानीय संगठन होना चाहिए।
3. मेघावी छात्र-छात्राओं को छात्रवृत्ति एवं प्रोत्साहन पुरस्कार देने चाहिए।
4. विधवाओं, परित्यक्त महिलाओं, पिछड़े एवं पीड़ित वृद्धों और उन पर आश्रितों के पालन पोषण में गोपनीय आधार पर आर्थिक सहायता एवं अन्य माध्यमों से स्वावलम्बी बनाने का प्रयास करना चाहिए।
5. व्यक्तिगत अथवा पारिवारिक विवादों के साथ-साथ सामाजिक मतभेदों को भी गोपनीय आधार पर जाति के वरिष्ठतम एवं अनुभवी बन्धुओं के माध्यमों से निबटाने का प्रयास करना चाहिए।
6. पद्मावतीपुरवाल जाति द्वारा निर्मित/ स्थापित मंदिरों, धर्मशालाओं एवं अन्य संस्थाओं के भवनों पर 'पद्मावतीपुरवाल' शब्द होना चाहिए। चाहे वह भले ही किसी निजी ट्रस्ट द्वारा संचालित हो । 7. जातीय गौरव को आगे बढ़ाने के लिये स्थायी महत्व के कुछ रचनात्मक कार्य होने चाहिए।
8. स्थानीय स्तर पर अन्य साधर्मी बन्धुओं के संगठनों, 'महासभा' 'परिषद', 'महासमिति', 'भारतीय जैन मिलन' आदि के साथ सम्पर्क
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एवं समन्वय स्थापित कर अपने जातीय अस्तित्व का उन्हें बोध
कराते रहना चाहिए। 9. अपनी मूल निकासी के गांवों को छोड़कर नगरों और महानगरों में
आये लोगों को अपने मूल स्थान पर अपने पूर्वजों द्वारा बनाये मंदिरों व अन्य भवनों अथवा उनके खंडहरों पर पद्मावती पुरवाल जाति का शिलालेख होना चाहिए ताकि भविष्य में इस जाति की प्राचीनता प्रमाणित हो सके। वर्ष में किसी एक दिन वहां छोटा सा कार्यक्रम
भी स्थानीय स्तर पर होना चाहिए। 10. देश के विभिन्न अंचलों की पंचायतें, संगठन एवं इकाइयों के संगठित
हो जाने पर एक अखिल भारतीय संगठन होना चाहिए, जो संकीर्णताओं से ऊपर उठकर समाज का सही नेतृत्व कर सके और जातीय गौरव के लिए कुछ रचनात्मक कार्य कर सके। प्रगतिशील पद्मावतीपुरवाल
दिगम्बर जैन संगठन निश्चित ही इस परिधि में नहीं आ सकता। 11. पद्मावती पुरवाल जाति के समस्त विद्वानों, श्रेष्ठी वर्ग, समर्पित
कार्यकर्ताओं का एक मात्र उद्देश्य बिना किसी पद की आकांक्षा के समाज की सही मार्गदर्शन करना और सहयोग देना होना चाहिए। पद की लालसा अथवा पद पर न रहने पर समाज सेवा से विमुख हो जाना प्रशंसनीय अथवा अनुकरणीय नहीं हो सकता।
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पाराराष्ट 3
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पद्मावतीपुरवाल समाज विद्वानों की दृष्टि में
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जैन संस्कृति के विकास में पद्मावतीपुरवाल समाज का योगदान
-प्रो. (डॉ.) राजाराम जैन
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पृष्ठभूमि उद्भव - इतिहास
पद्मावती-पुरवाल जाति का इतिहास कब से प्रारम्भ हुआ, यह कहना तो कठिन है किन्तु उसके आचार-विचार, जिनवाणी सेवा एवं बहुआयामी रचनात्मक कार्य-कलाप देखकर उसके सुसंस्कृत एवं सुसमृद्ध अतीत का आभास अवश्य होता है ।
1.
कभी-कभी ऐसा भी होता रहा है, कि किन्हीं विशेष कारणों से प्राच्यकालीन इतिहास सिमटता-सिमटता सूत्रात्मक लोक-गाथाओं का रूप भी धारण कर लिया । पद्मावती-पुरवाल जाति के विषय में भी सम्भवतः ऐसा ही हुआ है। इसके उद्भव के विषय में कुछ दन्त-कथाएं उपलब्ध होती है, किन्तु उनमें कितना तथ्यांश है, यह कहना तो कठिन ही है, किन्तु इतिहास -सम्मत एक कथा ऐसी भी उपलब्ध है, जिससे पद्मावती-पुरवाल जाति के उद्भव के विषय में विचार किया जा सकता है। उस कथा का सम्बन्ध है तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ से । देश-विदेश के प्राध्य-विद्याविदों सर्वसम्मति से उन्हें (पार्श्व के लिए) एक ऐतिहासिक महापुरुष मान लिया है।
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जैनागमों के अनुसार भगवान् पार्श्व ने अपनी मुनि दीक्षा के पूर्व जलते हुए नाग-नागिनी को अत्यन्त करुणापूर्वक णमोकार-मंत्र का दान किया था, जिसके प्रभाव से वे दोनों मरकर स्वर्ग में धरणेन्द्र देव एवं पद्मावती देवी के रूप में उत्पन्न हुए थे। और यह भी सुप्रसिद्ध है कि मुनि-दीक्षा के बाद पार्श्व जब गहन-वन में घोर तपस्या में संलग्न थे। तथा उनके पूर्वजन्म के बैरी कमठ ने उन पर अग्नि-वर्षा, पत्थर-वर्षा एवं विकट जल-वर्षा कर अनेक प्रकार के भीषण उपसर्ग किये थे। विषम परिस्थितियों में पूर्वजन्म के उन्हीं चिरकृतज्ञ धरणेन्द्र-देव एवं देवी-पद्यावती ने उन्हें सुरक्षा प्रदान की थी। उपसर्ग-काल की भयानक वर्षा के समय देवी पद्मावती ने तो अथाह जल के ऊपर सहन-दल कमल की रचना कर तपस्यारत पार्श्व को उस पर विराजमान कर दिया था तथा धरणेन्द्र-देव ने उनके ऊपर आतपत्र के समान अपने सहस्रफण फैला दिये थे। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी एवं राजस्थानी का विपुल साहित्य इस कथानक से भरा पड़ा है।
नामकरण कहते हैं कि जिस स्थल पर उक्त घटना घटित हुई थी, वहां के लोगों ने पार्श्व-भक्त उसी देवी-पद्मावती को अपनी माता मानकर उसी की पावन-स्मृति को सुरक्षित करने के लिये, उसे अपनी कुलदेवी भी मान लिया था तथा उस घटना स्थल का नामकरण भी पद्मावतीपुर के रूप में कर दिया था और अपने को गौरवान्वित समझकर उन्होंने अपने को पद्मावती-पुरवाला कहना प्रारम्भ कर दिया था, जो आगे चलकर पद्मावती-पुरवाल के रूप में प्रसिद्ध हो गये। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि पद्मावती-पुरवाल समाज का उद्भव भगवान महावीर के परिनिर्वाण-काल (ई. पू. 527+250 वर्ष = 777 वष) ईसा-पूर्व 777 वर्ष के आसपास हुआ था।
समाज-शास्त्र के नियमानुसार जाति तथा गोत्रों का विकास ग्रामों, पावतीपुरबाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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नगरों तथा देश के नाम पर हुआ है। जैसे पल्ली से पालीवाल, खाईला से खण्डेलवाल, अग्रोहा से अग्रवाल, जायस से जैसवाल, चन्देरी से चन्देरया, ओसा से. ओसवाल, चन्द्रबाडा से चांदवाड, विहोली से विटोलिया, गोल्ल-देश से गोलापूर्व, गोलालबरे उसी प्रकार पगावती से पद्मावतीपुर वाले आदि । भाषा-विज्ञान का यह नियम है कि समय-समय पर व्यक्तिवाची संज्ञाओं में स्थानीय प्रभावों अथवा अन्य कारणों से दीर्धीकरण, इस्त्रीकरण, संक्षेपीकरण आध-अक्षर लोप, अन्त्याक्षर-लोप, वर्ण-व्यत्यय आदि कारणों से अथवा मुख-सौकर्य के कारण भी प्रचलित नामों से कुछ परिवर्तन होते रहते हैं। इन नियमों के आधार पर यदि विचार करें तो ऐसा भी प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में पद्मावती-पुरवाल समाज बहुसंख्यक था और वह पोरवाल, पुरवार, परवार भी पद्मावती-पुरवाल समाज के ही अंग रहे होंगे, जो परवर्ती कालों में किन्हीं कारण-विशेषों से अपनी पृथक-पृथक पहिचान बनाते गये। वस्तुतः यह समाजशास्त्रीय-विषय जितना जटिल एवं गंभीर है, उतना ही रोचक भी। अतः इसकी निष्पक्ष शोध-खोज की जानी चाहिए। __ अपभ्रंश-साहित्य में पद्मावती नगरी के लिए 'पोमावइ, पउमावइ आदि के भी उल्लेख मिलते हैं। खजुराहो में उपलब्ध वि.सं. 1052 के एक शिलालेख (द.-Epigraphica Indica, Vol. I.P. 149) के अनुसार पद्मावती पुरी भारत की विशिष्ट समृद्ध एवं सुन्दर नगरियों में से एक मानी जाती थी। विष्णु पुराण (4/24), सरस्वती कण्ठाभरण एवं मालतीमाधव (संस्कृत) नाटक में भी उसके ऐसे ही सुन्दर विस्तृत वर्णन मिलते हैं। इन वर्णनों से यह स्पष्ट होता है कि पद्मावती-पुरी भारतीय नगरियों में अपना विशेष उल्लेखनीय महत्त्व रखती थी।
चौरासी प्रकार की जैन-जातियों में से एक जाति का नाम पद्मावती-पुरवाल भी है, जो ग्वालियर, आगरा, एटा, मैनपुरी, फिरोजाबाद आदि के जनपदों में विशेष रूप से तथा सामान्यतया भारत भर में यत्र-तत्र फैली हुई है। 331
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“जैन एवं जैनेसर साहित्यकारों ने उक्त पद्यावती-पुरी की अवस्थिति मध्यप्रदेश में मानी है। और वर्ममान दिल्ली-बम्बई मार्ग पर गोषाचल (वर्तमान ग्वालियर) जनपद में स्थित पयायो नामक कस्बे को पद्मावती सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। यह भौगोलिक विषय भी कुछ जटिल है। इस दिशा में भी विशेष खोजबीन करने की आवश्यकता है।
"पूर्व-परम्पराएं-जैसा कि पूर्व में का जा चुका है, पद्मावती-पुरवाल समाज का सुदूर अतीत बतलाता है कि वह एक कर्मठ, स्वाभिमानी एवं अनुशासित समाज माना जाता रहा है। वर्तमान में उसकी विधि-व्यवस्था बहुत कुछ अपने परम्परा-प्राप्त सामाजिक-संविधान के अनुसार निर्धारित होती है। उसकी पंचायत-प्रथा में सिरमौर' (अर्थात् पंचायत का मुखिया या अध्यक्ष अर्थात् सामाजिक वाद-विवादों का निपटारा करने वाला न्यायाधीश) सिंघई (अर्थात् संघपति अथवा तीर्थयात्रा-संघ निकालने वाला), तथा पाण्डेय (अर्थात् प्रतिष्ठा-कार्य तथा शादी-विवाह संबंधी कर्मकाण्ड करने वाला) ये तीनों पद अथवा उपाधियां प्रमुख मानी जाती है, जो बाद में श्रेणियों अथवा गोत्रों में रूढ़ होती गयीं। इनका महत्त्व इसी से जाना जा सकता है कि पद्मावती-पुरवाल समाज उक्त पदाधिकारियों द्वारा बनाये गये विधि-विधानों के प्रतिकूल कार्य नहीं करता, यद्यपि पाश्चात्य-सभ्यता के आक्रमण के कारण वर्तमान में इस परम्परा में शैथिल्य भी आने लगा।
साहित्यिक इतिहास के क्षेत्र में पद्मावती-पुरवाल समाज के प्राच्यकालीन अवदानों की सूचनाएं तो अनुपलब्ध हैं किन्तु मध्यकालीन अवदानों को जैन-विद्या एवं जैन-समाज का श्रृंगार माना जा सकता है। मध्यकाल में उसने साहित्य-प्रणयन, विशाल मन्दिर तथा स्फटिक तथा हीरे जवाहरातों की कलापूर्ण बहुमूल्य सहस्रों मूर्तियों के निर्माण, तीर्थों-भूमियों के निर्माण, साहित्यकारों के लिए लेखन-प्रेरणा तथा उन्हें ससम्मान आश्रयदान, पाण्डुलिपियों के संरक्षण एवं प्रतिलिपि-कार्य, शिक्षा-प्रसार, इनके साथ-साथ राष्ट्रीय-समृद्धि के संवर्धन में सक्रिय सहयोग, राजकीय-प्रशासन में पूर्ण पावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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सहयोग और धर्ममान-काल में भी देश के स्वतंत्रता आन्दोलन में उसने निरपेक्ष भाक से खुलकर भाग लिये हैं। . . . . . . .
साहित्य के क्षेत्र में पद्मावती-पुरवाल समाज ने संस्कृत, अपश के एक से एक महान् लेखकों का वरदान दिया, जिनसे न केवल जैन-विधा का, अपितु, समग्र भारतीय प्राच्य-विधा का भी गौरव बढ़ा है, हिन्दी के क्षेत्र में तो यह भी कहा जा सकता है कि उसने न केवल हिन्दी भाषा को सशक्त बनाया, अपितु विविध विद्याओं के सफल प्रयोग कर उसे सजाया-संवारा
भी।
अतीतकालीन गौरव-पुत्र इतिहासकारों के अन्वेषणों के अनुसार पद्मावती-पुरवाल जाति के कुछ ऐसे प्राचीन जैनाचार्य भी हुए हैं जिन्होंने जैनदर्शन एवं अध्यात्म संबंधी संस्कृत के मौलिक-ग्रंथों का प्रणयन किया है। ऐसे आचार्यों में दिगम्बराचार्य महाराज (वि.स.308), आचार्य देवनन्दी पूज्यपाद (पांचवी सदी), आचार्य माघचन्द्र (वि.सं.990) आचार्य लक्ष्मीचन्द्र (वि.सं. 1035) आचार्य प्रभाचन्द (वि.सं. 1310) एवं आचार्य पद्मनन्दी (वि.सं. 1385) आदि प्रमुख हैं। यद्यपि अन्वेषकों ने उन्हें पद्मावती-पुरवाल जाति के होने सम्बन्धी सबल प्रमाणों की स्पष्ट सूचना नहीं दी है।
अपभ्रंश के क्षेत्र में कुछ ऐसे भी ग्रन्थकार हुए है, जो स्वयं तो पद्मावती-पुरवाल जाति के न थे, किन्तु इस जाति के कुछ साहित्य-रसिक उदार-हृदय श्रेष्ठियों ने उन्हें प्रेरणा एवं उदार आश्रयदान देकर उनसे बहुमूल्य रचनाओं का प्रणयन कराा है। ऐसे ग्रन्थकारों में से कुछ का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है(1) महाकवि विबुध श्रीधर (वि.सं. 1208) कृत सुकुमालचरिउ (अपभ्रंश-6
सन्धियां एवं 224 कडवको इनके प्रेरक एवं आश्रयदाता थे, पद्मावती-पुरवाल कुलोत्पन्न पीये-पुत्र साहू कुलभूषण कुमारा
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(2) पं. लक्ष्मणः (वि.सं. 1295) कृत जिणदत्तचरिउ (अप 18 सन्धिया) के आश्रयदाता थे बिलराम निवासी- पद्मावती-पुरवाल वंशी विल्म-पुत्र श्रीधर सेठ 1.
(3) महाकवि धनपाल (वि.सं. 1454) कृत बाहुबलिचरिउ - अपभ्रंश (18 संधिया) के प्रेरक एवं आश्रयदाता चन्द्रवाड (चन्दुवार) निवासी पद्मावती-पुरवाल- कुलोत्पन्न वासाहर सेठ प्रस्तुत ग्रंथ में पद्मावती-पुरवाल समाज का गढ़ माने जाने वाले चंदुवार (चन्द्रवाडपट्टन) का सुन्दर वर्णन उपलब्ध है।
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(4) कवि श्रुतकीर्ति (16 वीं सदी) कृत- अपभ्रंश - अरिवंसपुराणु के आश्रयदाता थे पद्मावती - पुरवाल - कुलोत्पन्न चंदुवार दुर्ग-निवासी रामपुत्र - पंगाराव ।
उत्तर मध्यकालीन कुछ प्रमुख कवि
1. महाकवि रइधू पद्मावती-पुरवाल समाज के ऐसे उज्ज्वल नक्षत्र हैं, जिन्होंने अपनी दैवी - प्रतिभा से न केवल जैन-विद्या को, अपितु, प्राच्य भारतीय-विद्या के भण्डार को भी समृद्ध किया है। उनकी समकालीन अपभ्रंश, प्राकृत एवं हिन्दी की विपुल साहित्यिक रचनाओं की दृष्टि से उनकी तुलना में ठहरने वाले अन्य प्रतिस्पर्धी कवि या साहित्यकार के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती। विविध रसों की अमृत- स्रोतस्विनी प्रवाहित करने के साथ-साथ श्रमण-संस्कृति के चिरन्तन आदर्शों की प्रतिष्ठा करने वाला यह महाकवि न केवल पद्मावती-पुरवाल समाज या समग्र जैन समाज का, अपितु, समग्र उत्तर-मध्कालीन साहित्यिक जगत् का ऐसा प्रथम सारस्वत है, जिसके व्यक्तित्व में एक साथ प्रबन्धकार, दार्शनिक, आचार- शास्त्र के प्रणेता एवं क्रान्ति दृष्टय का समन्वय हुआ है।
साहित्यिक समीक्षकों के अनुसार उत्तक प्रबन्धात्मक आख्यानों में पद्मावतीपुरवाल- दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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सौन्दर्य की पवित्रता एवं मादकता, प्रेम की निश्छलता एवं विवशता, प्रकृति जन्य सरलता एवं मुग्धता, श्रमण-संस्था का कठोर आचरण, माता-पिता का वात्सल्य, पाप एवं दुराचारों का निर्मम दण्ड, वासना की मांसलता का प्रक्षालन, आत्मा का सुशान्त निर्मलीकरण, रोमांस का आसव एवं संस्कृति के पीयूष का मंगलमय सम्मिलित, प्रेयस् एवं श्रेयस् का ग्रन्थिबन्ध और इन सबसे ऊपर अपार-त्याग एवं कषाय-निग्रह का निदर्शन समाहित है। .
रइधू के प्राय समस्त पात्र यद्यपि पौराणिक आदर्शों पर प्रतिष्ठित हैं, फिर भी, उनके जीवन में वैभव-विलास की रंगरलियां युग-प्रभाव से चर्चित है। उदारता, प्रेम, त्याग और अहिंसा का पानक उनके पात्रों के जीवन में अपूर्व-रस का संचार करता है। संक्षेप में कह सकते हैं कि प्रबन्धात्मक आख्यानों में महाकवि रइधू की निम्नलिखित उपलब्धियां परिलक्षित होती हैं1. पौराणिक पात्रों पर युग-प्रभाव, 2. प्रबन्ध-काव्यों में पौराणिकता रहने पर भी कवि द्वारा स्वेच्छा या प्रबंधों
का पुनर्गठन, 3. बहुमुखी कुशल-प्रतिभा, 4. पौराणिक प्रबन्धों में काव्यत्व का संयोजन, 5. प्रबन्धावयवों का संतुलन एवं उनमें मर्मस्थलों का संयोजन, 6. प्रबन्ध-काव्यों में उद्देश्य-दृष्टि की समता किन्तु आद्यन्त-अन्विति की __ दृष्टि से पात्र-चरित्रों की पृथकता, 7. सिद्धान्त-प्रस्फोटन के लिए आख्यान का प्रस्तुतिकरण तथा बहुमुखी
प्रतिभा द्वारा सिद्धान्तों की सरल रीति से प्रस्तुति, 8. विषयों का क्रम-नियोजन तथा जटिल दार्शनिक-विषयों का भी काव्य के परिवेश में प्रस्तुतिकरण,
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9. आचार-सिद्धान्त के क्षेत्र में मौलिकता का निदर्शन, 10. प्रायः प्रत्येक रचना की आदि एवं अन्त की प्रशस्तियों के माध्यम से
सकालीन राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों पर प्रकाश तथा स्वात्म-परिचय, पूर्ववर्ती एवं समकालीन साहित्य एवं साहित्यकारों, शासकों, नगर सेठों, भट्टारकों तथा अपने साहित्य-रसिक आश्रय-दाताओं का विस्तृत परिचय। महाकवि रइधू के साहित्यरसिक आश्रयदाताओं ने उन्हें पद्मावति-पुरवाल कुल रूपी कमल के लिये दिवाकर, पद्मावति-पुरवाल समाज में अग्रणी, पद्मावति-पुरवाल जाति के सुवंश रूप आकाश के लिये पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान, पद्मावति-पुरवाल-समाज के गौरव-पुत्र जैसे विशेषणों से अभिहित किया है।
उनकी जन्म-स्थली की जानकारी नहीं मिलती किन्तु यह अधिक सम्भावना है कि वे पद्मावति-नगरी (वर्तमान पवायां) के ही निवासी रहे हो? उनका कार्य-क्षेत्र तो हिसार (हिसार) मालवा तक था किन्तु प्रतीत होता है कि उनके जीवन का बहुभाग गोपाचल (ग्वालियर) में व्यतीत हुआ था। वां के तोमरवंशी राजा डूंगरसिंह, जो कि अपने शौर्य-वीर्य एवं रणकौशल से अपने राज्य को सुरक्षित रखने वाले थे, उनकी कवित्वशक्ति से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने उन्हें गोपाचल-दुर्ग में रहकर ही साहित्य-साधना करने का अनुरोध किया था। अतः उन्होंने वहीं पर रहकर अनेक ग्रन्थों की रचना की थी।
रइधू के गुरु भट्टारक गुणकीर्ति एवं उनके शिष्य यशःकीर्ति थे। उन्होंने ही इनकी साहित्यिक-प्रतिभा को उत्तेजित किया था। रइधू ने अपनी ग्रन्थ-प्रशस्तियों में इनका सादर गुणानुवाद किया है। इनके अतिरिक्त भी रइधू ने अन्य समकालीन 10 भट्टारकों के कृतित्व एवं व्यक्तित्व का सादर उल्लेख किया है। ये सभी काष्ठा-संघ, माथुर-गच्छ, पुष्कर-गण शाखा के भट्टारक थे। फ्याक्तीपुरवात दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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इन उल्लेखों से इस शाखा के समकालीन एवं पूर्ववर्ती लगभग 7 भट्टारकों के क्रियाकलापों के इतिहास को कवि ने सुरक्षित कर दिया है।
महाकवि इधू के पिता का नाम सिंघई अथवा संघपति देवराज के पुत्र हरिसिंह संघवी एवं माता का नाम विजय श्री था। रइधू अपने माता-पिता के तृतीय पुत्र थे । इनके बड़े भाइयों के नाम बाहोल एवं माहणसिंह थे ।
महाकवि रइधू लेखक होने के साथ-साथ प्रतिष्ठाचार्य भी थे । वे मूर्ति-मन्दिर के प्रतिष्ठा - कार्यों में भी निपुण थे। ग्वालियर-दुर्ग की असंख्यात जैन- मूर्तियों के निर्माण के वे प्रेरक होने के साथ-साथ उन्होंने उनकी प्रतिष्ठा के भी कार्य किये थे। मूर्त्ति लेख के अनुसार गोपाचल - दुर्ग में अवस्थित तथा उत्तर-भारत की उत्तुंगकाय लगभग 80 फीट आदिनाथ की मूर्ति की प्रतिष्ठा उन्हीं के द्वारा विशाल समारोह पूर्वक सम्पन्न हुई थी। जिसकी चर्चा कवि ने अपनी ग्रन्थ-प्रशस्तियों में की है ।
अपने गुरुजनों प्रो. (डॉ.) हीरा लाल जैन एवं प्रो. (डॉ.) एन. एन. उपाध्ये के आदेशानुसार मैंने महाकवि रइधू, जिनका कि समग्र साहित्य अप्रकाशित तथा इधर-उधर बिखरा पड़ा था, भारत भ्रमण कर उनकी पाण्डुलिपियों की खोज कर उनका कई वर्षों तक प्रतिलिपि कार्य कर समग्र साहित्य का सम्पादन- अनुवाद एवं समीक्षा - कार्य किया है।
उक्त गुरुजनों के सत्प्रयत्नों से 20 खण्डों में उनके समग्र साहित्य-प्रकाशन की योजना भी जीवराज ग्रन्थमाला शोलापुर (महाराष्ट्र) से स्वीकार कर ली थी। वहां से दो खण्डों का प्रकाशन भी हुआ किन्तु उक्त गुरुजनों के दुखद अवसान के बाद ही दुर्भाग्य से उक्त साहित्य का प्रकाशन कार्य रोक दिया गया ।
उक्त रइधू- साहित्य की प्रशस्तियों से यह स्पष्ट विदित होता है कि रइधू ने अपने जीवन काल में लगभग 30 ग्रन्थों का प्रणयन किया था, किन्तु वर्तमान में उनमें से अग्रलिखित ग्रन्थ ही ज्ञात हो सके हैं
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1. पासमाहचरिउ, 2. धण्णकुमारचरिउ, 3. सुक्कोसलचरिउ, 4. तिट्ठिमहापुराणपुरिसचरिउ, 5. पुण्णासवकहकोसु, 6. जसहरचरिउ (सचित्र), 7 कउमुइकह-पवंधु, 8. वित्तासारु, 9. जिमंधर- चरिउ, 10. सिद्धचक्क - माहप्पु अपरनाम सिरिसिरिवालचरिउ, (मूल पाण्डुलिपि फ्रांस (परिस) के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है।) 11. सम्मइजिण चरिउ, 12. मेहेसर - चरिउ, 18. रिट्ठणेमिचरिउ, 14. बलहद्दचरिउ, 15. सम्मत्तगुण पिहाण - कव्व, 16 सोलहकारण- पूजा, 17. दहलक्खण- पूजा, 18. अणथमिउ-कहा, 19. बाराभावणा, 20. संतिणाहचरिउ (त्रुटित, सचित्र), 21. अप्पसंबोहकव्वु, 22 सिद्धतत्वसारु, 23. संबोहपंचासिका, एवं 24. पज्जुण्णचरिउ ( अनुपलब्ध) 25. करकंडुचरिउ ( अनुपलब्ध), 26. भविसयत्त कहा ( अनुउपलब्ध) ।
इनमें से उक्त संख्या - क्रम संख्या 1-3 एवं 5 तथा 11वां ग्रन्थ प्रकाशित हैं। बाकी के सभी अप्रकाशित हैं।
महाकवि अपने युग का चतुर्मुखी प्रतिभा सम्पन्न विशिष्ट कोटि का कवि था । उसकी भाषा सान्ध्यकालीन होने के कारण भाषा - विज्ञान के महारथियों ने उसे भाषा - विज्ञान की दृष्टि से तो महत्वपूर्ण माना ही, उत्तर मध्यकालीन मालवा, विशेष रूप से गोपाचल के इतिहास, संस्कृति तथा - जीवन के अध्ययन की दृष्टि से भी बेजोड़ माना है। यह भी कहा जा सकता है गोपाचल एवं मालवा का उत्तर मध्यकालीन इतिहास एवं संस्कृति की विविध पक्षीय लेखन रइधू-साहित्य के बिना सम्भव नहीं ।
महाकवि ब्रह्मगुलाल
महाकवि ब्रह्मगुलाल के विस्मयकारी जीवन-चरित्र से कौन प्रभावित नहीं होगा, जो एक ओर सद्गृहस्थ थे, दूसरी ओर स्वांग रचाने में सिद्धहस्त अभिनेता । जैसा कि कहा गया है
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। ब्रह्मगुलाल कुमार ने पूर्ण उपायो पुन्य। . __ या ते बहु विद्यापुरी कह्यो जगत ने धन्य। डील-डौल एवं अप्रतिम सौन्दर्य का वरदान उन्हें प्रकृति-प्रदत्त था। उनके संगीत एवं वक्तृत्व-कला ने चन्द्रवाड-पट्टन के तत्कालीन नरेश को आकर्षित किया था और उसने उन्हें अपनी राज्य-सभा का पार्षद भी मनोनीत किया था। ब्रह्मगुलाल की लोकप्रियता तथा बढ़ते प्रभाव से राज्य के अन्य पार्षद् ईर्ष्या एवं विद्वेष से भर उठे थे जैसा कि कहा जा चुका है, वे स्वांग भरने में अतिशय रूप में निपुण थे और समय-समय पर बहुरूपियों के भेष धारण कर सभी को आश्चर्यचकित कर चुके थे। अतः एक दिन अवसर देखकर कुछ ईर्ष्यालु पार्षदों ने राजा को सलाह दी कि वे ब्रह्मगुलाल को दिगम्बर-मुनि-वेश धारण कर अपनी राज्यसभा में बुलावें। राजा ने उनकी दुर्बुद्धि पर विचार किये बिना ही ब्रह्मगुलाल को वैसा ही आदेश दे दिया। अगले दिन ब्रह्मगुलाल भी दिगम्बर-मुनि-मुद्रा में पिच्छी-कमण्डलु लेकर राज्य-सभा में आये। वहां उन्होंने सरस प्रवचन भी किया और फिर वे दिगम्बर-मुनि ही बने रहे, घर वापिस नहीं लौटे। __ जगभूषण भट्टारक के सुशिष्य कवि ब्रह्मगुलाल चन्द्रवाड पट्टम (वर्तमान में चंदुवार) के समीप स्थित टापे नामक ग्राम के निवासी थे। उस समय वहां राजा कीरतसिंह का राज्य था, जिससे कोसम (इलाहाबाद) के दुर्ग पर विजय प्राप्त की थी तथा गोहत्या पर साहसिक प्रतिबन्ध लगाया था। ब्रह्मगुलाल के पिता हल्ल भी उनकी राज्यसभा के सदस्य थे। उसी टापे में मथुरामल्ल नाम के एक ब्रह्मचारी भी निवास करते थे। उनके उपदेश से प्रभावित होकर ब्रह्मगुलाल ने वि.सं. 1671 में 'कृपण जगावन काव्य' की रचना की थी।
प्रस्तुत कथा छोटी ही है किन्तु है वह बड़ी ही सरस और रोचक। उसमें कवि ने विशेष रूप से प्रभावकारी भाषा में यह बतलाया है कि दुर्भाय की
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मारी एक श्रेष्ठि-पुत्री मुनिराज को आहारदान दिये जाने तथा भक्तिभाव से जिनेन्द्र-पूजा-अर्चना करने के कारण किस प्रकार उसका दुर्भाग्य सौभाग्य में बदल गया था।
यह कथा-काव्य वस्तुतः काव्य कम है और सामाजिक इतिहास अधिक। इसमें समकालीन सामाजिक परिस्थितियों, उसकी मानयताओं तथा धार्मिक विश्वासों पर प्रकाश डाला गया है। जब सन्त जनों एवं सूफियों को भगवान के नाम की एक निर्जीव 'माला' के आधार पर रहने मात्र से भगवान के दर्शन हो सकते हैं, तो फिर भगवान की प्रत्याकृति अर्थात् मूर्ति के साक्षात् दर्शनों से भगवान् के दर्शन क्यों नहीं हो सकते हैं? वस्तुतः ब्रह्मगुलाल के समय में मूर्ति-पूजा का विरोध भी हो रहा था और समर्थन भी। अतः ब्रह्मगुलाल को मूर्त्ति-पूजा एवं सत्पात्रों को आहार-दान के समर्थन में उक्त रचना लिखनी पड़ी।
इस रचना की हिन्दी उस काल की है, जब अपभ्रंश-भाषा विकसित होकर हिन्दी का रूप धारण कर रही थी। अतः हिन्दी के उद्भाव एवं उसके क्रमिक विकास तथा भाषा-विज्ञान की दृष्टि से भी यह रचना अपना विशेष महत्त्व रखती है।
उक्त कृपण जगावन काव्य की हस्तलिपि दिल्ली के पंचायती दिगम्बर जैन मन्दिर में सुरक्षित है। महामनीषि डॉ. कामता प्रसाद जी ने उन प्रतियों के आधार पर उसका सम्पादन कर 1950-60 के दशक में उसका प्रकाशन कर उसे प्रचारित किया था। . रचनाएं-ब्रह्मगुलाल की वर्तमान में निम्नलिखित रचनाएं ज्ञात एवं उपलब्ध हो सकी हैं1. त्रेपन-क्रिया (वि.सं. 1665) की यह रचना कवि द्वारा गोपाचल में
बैठकर उस समय लिखी गई थी, जब वहां सम्राट अकबर के पुत्र
शाहजादा सलीम अर्थात् जहांगीर का राज्य था। पद्यावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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12. कृपण जगावन चरित्र (लेखनकाल 1671),
3. विवेक- चउपइ,
4. ज़लगालन-विधि,
5. शमोशरण,
6. हिन्दी - अष्टक,
7. नित्य-नियम-पूजा के अनूठे छन्द, एवं,
8. मथुरावाद - पच्चीसी ।
उक्त सभी ग्रन्थों की भाषा समकालीन ब्रजभाषा है।
आधुनिक काल
आधुनिक काल तो पद्मावति-पुरवाल समाज का न केवल अपना, अपितु, समग्र जैन समाज के नव-जागरण, किंवा श्रमण-संस्कृति एवं जैन- विद्या के विकास की दृष्टि से उनके इतिहास का स्वर्णिम अध्याय ही सिद्ध हुआ है। क्योंकि इस काल में उसने अनेक प्रभावक, आचार्य, मुनि, ऐलक, क्षुल्लक, आर्यिकाएं, प्रकाण्ड विद्वान, सैकड़ों कवि, लेखक, समीक्षक, पत्रकार, सम्पादक, शिक्षक, प्रशासक, समाज-सुधारक एवं सामाजिक नेता, राष्ट्रभक्त, स्वतन्त्रता सेनानी एवं श्रमण-संस्कृति के प्रचारकों को जन्म दिया। यदि इन सभी का सम्रग परिचय दिया जाय, तो मेरी दृष्टि से लगभग 500-500 पृष्ठों के कई खण्ड तैयार किये जा सकते हैं । किन्तु यहां तो स्थानाभाव के कारण सूत्र - शैली में ही कुछ इतिहास - निर्माताओं का परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है।
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आचार्य-मुनि आदि की परम्परा आचार्य गण- . 1. आचार्य विमलसागर जी ___ कोसमा (एटा, यू.पी.) में वि.सं. 1873 में जन्म तथा कुचामन के जैन विद्यालय में प्रधानाध्यापकों के बाद वि. सं. 2009 में मुनि-दीक्षा तथा सं. 2018 में आचार्य पद प्राप्त किया। उपसर्ग-विजेता के रूप में प्रसिद्ध आचार्य विमलसागर जी की प्रवचन-शैली तथा मन्त्र-शक्ति के प्रभाव के कारण लाखों की संख्या में जैनाजैन उनके भक्त बन गये। उन्होंने लगभग 400 से अधिक श्रावकों को विभिन्न दीक्षाएं प्रदान की।
2. आचार्य महावीरकीर्ति जी
इनका जन्म वि.सं. 1967 में फिरोजाबाद (आगरा) में हुआ एवं स्वर्गारोहण वि.सं. 2029 में।
आचार्यश्री अपने दीक्षाकाल से ही कठोर साधक तपस्वी, विविध प्रकार के उपसर्गों के विजेता तथा चमत्कारी मन्त्र-शक्ति से सम्पन्न के रूप में विख्यात थे। मुनि-दीक्षा के पूर्व आपने इन्दौर से न्यायतीर्थ एवं आयुर्वेदाचार्य की कक्षाओं का पाठ्यक्रम पूर्ण कर 32 वर्ष की आयु में आचार्य श्री आदिसागर जी से मुनि-दीक्षा ग्रहण की थी।
आपके व्यक्तित्व एवं कृतित्व से प्रभावित होकर अनेक भव्यों ने आपसे विभिन्न दीक्षाएं ग्रहण की।
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3. आचार्य श्री निर्मलसागर जी . . . . .
पहाड़ीपुर (एटा, यू.पी.) में वि.सं. 2008 में इनका जन्म हुआ तथा वि. सं. 2024 में मुनि-दीक्षा ग्रहण की। तत्पश्चात् आपने लगभगन 10 भव्यों के लिये विविध दीक्षाएं प्रदान कर आचार्य-पद प्राप्त किया।
4. आचार्य सुधर्मसागर जी
एक ओर जहां आप संस्कृत, हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला एवं अंग्रेजी के विद्वान थे, वहीं मुनि-दीक्षा ग्रहण करने के बाद कठोर तपस्वी भी। इनका सम्रग परिवार ही विद्या-व्यसनी था। इन्होंने अनेक साधुओं को पढ़ाकर विद्वान बनाया। ये प्रौढ़ चिन्तक एवं लेखक भी थे। इनके निम्नलिखित ग्रन्थ बड़े ही लोकप्रिय सिद्ध हुए
1. सुधर्म-ध्यान-प्रदीप 2. चतुर्विशति-तीर्थंकर-स्तवन, एवं, 3. सुधर्म-श्रावकाचार।
सुविख्यात चिन्तक लेखक विद्वान पं. लालाराम जी शास्त्री एवं पं. मक्खनलाल जी शा. (मुरैना) आपके ही सगे भाई थे।
आचार्य श्री का जन्म चावली (आगरा) में वि.सं. 1942 में तथा स्वर्गारोहण वि.सं. 1995 में हुआ।
5. मुनिश्री अजितसागर जी __ आपका जन्म वि.सं. 1982 में भौंरा ग्राम (आष्टा, भोपाल) में हुआ। प्रतिष्ठा आदि कार्यों के कारण कृतज्ञ समाज ने आपको महापण्डित, विद्यावारिधि आदि उपाधियों से सम्मानित किया। वि.सं. 2018 में आपने मुनि दीक्षा ग्रहण की।
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6. मुनिश्री ऊर्जयन्तसागर जी. .
स्वस्थ, सुन्दर एंव आकर्षक व्यक्त्वि के धनी मुनि ऊर्जयन्तसागर जी ने उपलब्ध भौतिक सुखों को क्षणिक मानकर तथा उनकी अवहेलना कर जब मुनि-दीक्षा ग्रहण की, तो लोग आश्चर्यचकित रह गये।
मुनिश्री अत्यन्त जिज्ञासु, जिनवाणी के प्रचारक एवं नई पीढ़ी के लिये जागरूक बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं।
जीर्ण-शीर्ण जैन पाण्डुलिपियों के उद्धार के लिये अत्यन्त चिन्तित मुनिश्री का विद्वज्जनों के प्रति अनन्य स्नेह एवं उन्हें ठोस कार्य करने के लिये निरन्तर प्रेरणा प्रदान करते रहते हैं। बहुत कम समय में ही आपकी कठोर साधना ने बहुसंख्यक जैन समाज को अपना भक्त बना लिया है। 7. मुनिश्री अनन्तसागर जी
इनका जन्म वि.सं. 1860 में पुनहरा (एटा) में हुआ। बाल-ब्रह्मचारी रहे तथा वि.सं. 2027 में मुनि-दीक्षा ग्रहण कर स्वपरहित किया। 8. मुनिश्री पार्श्वसागर जी
इनका जन्म वि.सं. 1872 में कोटला (फिरोजाबाद) में हुआ। बाल-ब्रह्मचारी रहे तथा वि.सं. 2018 में मुनिदीक्षा ग्रहण कर अपना तथा लोक-कल्याण किया। 9. मुनिश्री सम्भवसागर जी
इनका जन्म वि.सं. 1861 रेमजा (फिरोजाबाद) में हुआ। वि.सं. 2027 में मधुबन में मुनि-दीक्षा ग्रहण कर कठोर साधना की। 10 ऐलक बाबा जानकीदास
जानकी दास जी का जन्म पाढम (मैनपुरी) में हुआ। अपनी सरलता और लोकप्रियता के कारण वे सभी के लिये 'बाबा' उपाधिकारी बन गये
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थे। ऐलक' पद की दीक्षा लेकर आम जनता के लिए वे सरस उपदेशामृत का पान कराते रहे। 11. क्षुल्लिका प्रभावती जी
इनका जन्म अहारन (आगरा) में सन् 1929 में हुआ। ये अपनी विद्वता, कठोर-साधना एवं अपने सरस प्रवचनों के लिए प्रसिद्ध रहीं। 12. ब्रह्म.वासुदेव जी (पिलुआ, वि.सं. 1852-2018)
जिन्होंने 200 बार शिखर जी की वन्दना की तथा बंगाल एवं आसाम में घूम-घूम कर गरीबों में औषधि दान दिया। 13. ब्रह्म. पाण्डेय श्री निवास जी (फिरोजाबाद)
इनका जन्म वि.सं. 1859 में फिरोजाबाद यू.पी. में हुआ। आपने पं. घूरीलाल जी शास्त्री से धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन किया। उच्च शिक्षा के ग्रहण में वे पं. माणिकचन्द्र जी न्यायाचार्य के बाद न्याय-दिवाकर पं. पन्नालाल जी के अन्यतम शिष्य रहे। आचार्य शान्तिसागर जी की दीर्घकाल तक वैय्यावृति करने का उन्हें सौभाग्य मिला था। फिरोजाबाद की नसिया स्थिति जैन-कॉलेज एवं जैन-मन्दिर के निर्माण में इनका प्रमुख हाथ था।
ब्रह्म. पं. गणेशप्रसादजी वर्णी से सप्तम प्रतिमा धारण करने के बाद उनका अधिकांश समय पं. गणेश वर्णी दिगम्ब जैन उदासीनाश्रम ईसरी बाजार (बिहार) में व्यतीत हुआ। 14. ब्रह्म. सुरेन्द्रनाथ जी (वि.सं. 1882)
कलकत्ता की जैन समाज की विशेष प्रार्थना पर वहां समाज में नव-जागरण किया। तत्पश्चात् उदासीनाश्रम ईसरी बाजार में धार्मिक जीवन व्यतीत करते रहे।
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15. ब्रह्म. पं. गौरीलाल जी शास्त्री
छद्मस्थ- वेश में ब्राह्मण विद्वानों से संस्कृत भाषा तथा जैन एवं जैनेत्तर ग्रन्थों का अध्ययन कर पाण्डित्य प्राप्त करने वाले पं. गौरीलाल जी शास्त्री ने मथुरा में दिगम्बर जैन महाविद्यालय की स्थापना कर उसे जैन- विद्या के अध्ययन का उच्च केन्द्र बनाया। अपनी शिक्षा को अपूर्ण मानकर उन्होंने मूडबिद्री (कर्नाटक) में जाकर धवल, महाधवल, जयधवल ग्रन्थों का अध्ययन - स्वाध्याय किया । सामाजिक प्रगति के लिये पद्मावती-परिषद् की स्थापना कर पद्मावती-पुरवाल नाम की पत्रिका का प्रकाशन कर उसका सम्पान किया । शास्त्री परिषद् की स्थापना कर उसकी 'जैन सिद्धान्त' नाम की पत्रिका का सुयोग्य सम्पादन किया । वि.सं. 1917 में आपका स्वर्गवास हो गया।
पं. गोपालदास बरैया के जन्म के कारण बीसवीं सदी धन्य हो गई। इस सदी की विद्वत्परम्परा के वे युग-निर्माता थे। एक ओर उन्होंने विरोधियों द्वारा किये गये जैन सिद्धान्तों पर भ्रामक प्रहारों को कलकत्ता एवं काशी जैसी महानगरी के जजों एवं विद्वानों के साथ शास्त्रार्थों में अपने तथ्यपरक तर्कों एवं सन्दर्भों को प्रस्तुत कर उन्हें पराजित किया, तो दूसरी ओर जैन विद्वानों की एक ऐसी मण्डली तैयार की, जिसने जैन दर्शन, आचार एवं अध्यात्म का गहन अध्ययन किया और और अनेक दुरुह ग्रन्थों की जीर्ण-शीर्ण पाण्डुलिपियों का उद्धार, सम्पादन एवं प्रकाशन कर उन्हें सर्व-सुलभ बनाया। ग्रामों-ग्रामों, नगरों-नगरों में विद्यालयों की स्थापना की गई और विविध पाठ्यक्रमों का निर्माण कर विद्यालयों में उनके अध्ययन एवं विधिवत् परीक्षाओं की व्यवस्था की गई।
विद्यावारिधि, स्याद्वाद - वाचस्पति एवं धर्म- दिवाकर जैसी उपाधियों से सम्मानित पं. खूबचन्द्र जी शास्त्री (बेरनी, एटा, सन् 1889 ) का नाम उक्त विद्वत्परम्परा में अग्रगण्य है। इनकी प्रतिभा, सच्चरित्रता एवं भद्रता से पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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प्रभावित होकर गुरु गोपाल दास जी बरैया ने इनके घर जाकर इनकी माता से भिक्षा स्वरूप उन्हें मांगा था। पण्डित जी की यह विशेषता थी कि वे स्वयं ही सप्तम प्रविमाधारी थे तथा उनकी पत्नी पंचम प्रतिमाधारी।
उनके द्वारा निम्नलिखित रचनाएं प्रथम बार सम्पादित, अनुदित होकर पाठकों के हाथों में आईं थीं
1. न्यायदीपिका (सन् 1913) प्रकाशित, 2. गोम्मटसार-जीवकाण्ड (सन् 1916) प्रकाशित, 3. महावीर-पुराण (असग) प्रकाशित, 4. अनगार-धर्मामृत-अनु. प्रकाशित, 5. रत्नत्रय-चन्द्रिका प्रथम भाग, मौलिक, अप्रकाशित, 6. रत्नत्रय-चन्द्रिका द्वितीय भाग, मौलिक, अपूर्ण,
ये दोनों ग्रन्थ 'रत्नकरण्ड-श्रावकाचार' के प्रथम 40 श्लोकों के भाष्य रूप में 414 पृष्ठों में लिखे गये थे। 7. सम्यग्दर्शन-स्तोत्रम् (संस्कृत के गेय छन्दों में) 8. आदिपुराण-समीक्षा (अप्रकाशित), 9. आध्यात्मिक-भजन-संग्रह (अप्रकाशित)
पण्डित जी अच्छे समीक्षक एवं पत्रकार भी थे। उनके द्वारा सम्पादित निम्नलिखित पत्रिकाएं प्रसिद्ध थीं
1. सत्यवादी, एवं, 2. श्रेयोमार्ग।
पं. गौरीलाल जी शास्त्री सिद्धान्त-शास्त्री, जाति-भूषण, धर्म-दिवाकर जैसी उपाधियों से विभूषित पं. गौरीलाल जी सिद्धान्त-शास्त्री का जन्म बेरनी (एटा) में हुआ था। 347
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जन्मकाल में ये इतने कृशकाय थे कि माता-पिता इन्हें मोटी रूई में लपेट कर रखते थे और तभी उन्हें गोद में ले पाते थे।
पण्डित जी ने जवाहरात, स्टेशनरी तथा प्रिंटिंग-प्रेस खोलकर उसे अपनी आजीविका का साधन बनाया और मानद रूप से विद्यालय में जैन-सिद्धान्त का अध्यापन-कार्य किया।
पद्मावती-पुरवाल समाज के गौरव की अभिवृद्धि में पण्डित जी का विशेष योगदान रहा। यदि इन्होंने पद्मावती-पुरवाल समाज को जागृत न किया होता, तो वह सम्भवतः अपना अतीतकालीन गौरव भी भूल जाता
और सम्भवतः वह अपने गोत्रों का भी स्मरण न कर पाता। __ पण्डित जी प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने अपने समाज की जनगणना कराई और उसे पुस्तकाकार रूप प्रकाशित कराया।
इनकी निम्न रचना विशेष रूप से प्रसिद्ध हुई।
1. रत्नकरण्ड श्रावकाचार की हिन्दी टीका तथा उस पर उन्होंने आचार्य प्रभाचन्द्र की संस्कृतक-टीका संयुक्त कर उसके विशिष्ट शब्दों की निरुक्ति लिखी।
लेखन के अतिरिक्त पण्डित जी समीक्षक एवं कुशल पत्रकार भी थे। उन्होंने दीर्घकाल तक जैन-सिद्धांत पत्रिका का सम्पादन किया।
वृद्धावस्था में पण्डित जी ने आचार्य शान्तिसागर जी महाराज से सप्तम प्रतिमा धारण की थी।
न्याय-दिवाकर पं. पन्नालाल जी प्रातः स्मरणीय न्याय-दिवाकर पं. पन्नालाल जी जारखी (एत्मादपुर, आगरा) का व्यक्तित्व एवं कृतित्व किसे मोहित न करेगा?
अपने बाल्यकाल में पण्डित जी कुछ क्रोधी एवं स्वाभिमानी प्रवृत्ति के पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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थे। घर में कुछ कहा-सुनी हो जाने के कारण के चुपके से बनारस भाग गये। वे जैनधर्म का अध्ययन करना चाहते थे किन्तु उस समय तक वहां जैन विद्यालय ने होने के कारण जैनेतर-वेश में एक ब्राह्मण-विद्यालय में भर्ती हो गये और वहां ज्योतिष आदि का गहन अध्ययन किया। ब्राह्मणों के मध्य में रहकर उन्हें धारा-प्रवाह संस्कृत में भाषण करने का अच्छा अभ्यास हो गया।
उस विद्यालय के विद्वानों का जब आर्यसमाजियों के साथ शास्त्रार्थ हुआ तब उसमें पं. पन्नालाल जी भी सम्मिलित थे। उन्होंने. शास्त्रीय संस्कृत में आर्यसमाजियों के उत्तर देकर उन्हें निरुत्तर कर दिया था।
उन्होंने संस्कृत-प्राकृत जैन ग्रन्थों का भी अच्छा अध्ययन किया और अपने कार्यकलापों से जैन समाज में अच्छी प्रतिष्ठा अर्जित की।
कहा जाता है कि उनके कार्यकाल में न्यायालयों में जैन-समाज का कोई मुकदमा चल रहा था। तब अंग्रेज जज ने जैन समाज के पक्ष में जैन-ग्रन्थों के प्रमाणों की जानकारी के लिये जैन-ग्रन्थ कोर्ट में प्रस्तुत करने हेतु आदेश दिया था। तब जैन-ग्रन्थों की अवमानना होने के कारण उन्होंने ग्रन्थों को वहां प्रस्तुत नहीं होने दिया था और स्पष्ट कहा था कि क्या प्रमाणों को जानने के लिये जैनेतर-ग्रन्थों को भी कभी कोर्ट में प्रस्तुत करने को कहा गया है? उनकी निर्भीकता से जैन-समाज अत्यन्त प्रभावित थी।
जैन-समाज में जब भी उन्हें निमन्त्रित किया जाता था तो वे वहां से पालकी आने पर ही जाते थे। एक बार जब सहारनपुर की जैन-समाज ने उन्हें निमन्त्रित किया तो बिना पालकी के वहां जाने से उन्होंने इंकार कर दिया था और जब वहां के सुप्रसिद्ध रईस लाला जम्बू प्रसाद जी पालकी लेकर वहां पधारे तब उन्हें पालकी में बैठकर तथा स्वयं कन्धा देकर अपने घर लाये थे। 349
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पं. माणिकचन्द्र जी न्यायाचार्य - (चावली-आगरा, वि.सं. 1943) पं. माणिकचन्द्र जी न केवल पद्मावती-पुरवाल समाज के, अपितु समग्र जैन समाज के शिरोमणि विद्वानों में अग्रगण्य माने जाते हैं। इनकी प्रखर-प्रतिभा का इसी से अनुमान किया जा सकता है कि लोहे के चने के रूप में माने जाने वाले श्लोकवार्तिक जैसे दुरूह ग्रन्थ का हिन्दी में सर्वप्रथम अनुवाद एवं समीक्षा लिखकर उन्होंने उसे सर्व-सुलभ बनाया।
पण्डित जी ने वि.सं. 1958 से 2018 तक पी.डी. जैन कॉलेज फिरोजाबाद (आगरा), मुरैना, सहारनपुर आदि के शिक्षण संस्थानों में अध्यापन कार्य कर लगभग 400 विद्वान तैयार किये, जिनमें से कुछ ने मुनि-दीक्षा आदि भी ग्रहण की। __ पण्डित जी का कार्यकाल शास्त्रार्थों का युग था। उस समय आर्य समाजी जैन-सिद्धान्तों की अवमानना करने के लिये निरन्तर ही जैन-समाज को शास्त्रार्थ हेतु ललकारते रहते थे। किन्तु पं. राजेन्द्र कुमार जी आदि के साथ इन्होंने भी निर्भीकता पूर्वक उनके चैलेंज को सवीकार कर दिल्ली, भिवानी, अजमेर, भोगांव, अम्बाला आदि स्थलों पर विरोधियों के छक्के छुड़ा दिए थे। जैन-समाज ने भी प्रमुदित होकर अपने इस गौरवशाली पुत्र को विभिन्न अवसरों पर न्यायभूषण, न्याय-दिवाकर, तर्क-शिरोमणि, प्रवचन-चक्रवर्ती, न्यायरत्न जैसी विशिष्ट उपाधियों से विभूषित किया था।
उक्त श्लोक वार्तिकं ग्रन्थ के अतिरिक्त पण्डित जी द्वारा लिखित अन्य ग्रन्थों में से कुछ निम्न प्रकार हैं
1. धर्मफल-सिद्धान्त, 2. षद्रव्यों की आकृतियां, 3. जैनशासन-रहस्य एवं 4. दर्शन-दिग्दर्शन आदि।
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विद्यावारिधि पं. मक्खनलाल जी शास्त्री जैन दर्शन एवं अध्यातम के प्रकाण्ड विद्वान पं. मक्खनलाल जी शास्त्री का जन्म चावली (आगरा) में सन् 1906 के आसपास हुआ। इनके भाई पं. लालाराम जी शास्त्री संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे, जिन्होंने लगभग 100 ग्रन्थों की टीकाएं लिखीं। अपनी विद्वत्ता के कारण उन्हें धर्मरत्न एवं धर्मवीर की उपाधियों से सम्मानित किया गया था।
पण्डित मक्खनलाल जी गुरुणां गुरु पं. गोपालदास जी बरैया के अन्यतम शिष्य थे तथा गुरु-दक्षिणा के रूप में गुरु जी द्वारा संस्थापित मुरैना विद्यालय को उन्होंने अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया था। उनके द्वारा पढ़ाए गये विद्वानों में पं. डॉ. लाल बहादुर शास्त्री, पं. फूलचंद्र जी सिद्धान्त शास्त्री, पं. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री (शोलापुर), पं. मल्लिनाथ शास्त्री मद्रास, पं. कुंजीलाल शास्त्री, पं. भागचन्द्र शास्त्री, पं. जिनचन्द्र शास्त्री, पं. श्रेयांस कुमार जी शास्त्री काव्यतीर्थ, पं. नागराज जी शास्त्री, पं. धर्मचक्रवर्ती शास्त्री, पं. मुन्नालाल शास्त्री, तथा अपनी-अपनी मुनि-दीक्षा के पूर्व आचार्य विमलसागर जी, मुनि पार्श्वसागर जी, मुनि प्रबोधसागर जी, भट्टारक देवेन्द्र कीर्ति, भट्टारक लक्ष्मीसेन आदि अखिल भारतीय स्तर के विद्वान प्रमुख हैं।
एक ओर पण्डित जी ने धुरन्दर विद्वानों को तैयार किया, तो दूसरी ओर उन्होंने अत्यन्त दुरूह जैन ग्रन्थों की टीकाएं लिखी, जिनमें से तत्त्वाराजवार्तिक, पंचाध्यायी, पुरुषार्थसिन्युपाय विशेष रूपेण उल्लेखनीय है।
पण्डित जी युग शास्त्रार्थ का युग था। जैनेतर लोग जैन-सिद्धान्तों की समय-समय पर अवमानना किया करते थे, अतः उनके उत्तर स्वरूप तथा आम जनता के प्रमों को दूर करने के लिए सम-सामयिक समस्याओं को लेकर वे तर्कसंगत किन्तु सीधी सादी सरल भाषा-शैली में ट्रेक्ट्स भी लिखा करते थे। जिनमें से कुछ प्रमुख अग्र प्रकार हैं
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1. सिद्धान्त-सूत्र-समन्वय, 2. सिद्धान्त-विरोध-परिहार, 3. स्पृश्यापृश्य-विचार, 4. चर्चा-सागर पर शास्त्रीय प्रमाण, 5. जैनधर्म हिन्दू धर्म से भिन्न है, 6. मुनि-विहार, 7. कानजी-मत-खण्डन एवं, 8. आर्यभ्रम-निवारण।
अम्बाला तथा दिल्ली के आर्यसमाजियों को उनके साथ शास्त्रार्थों में उन्हें निरुत्तर कर देने के कारण उन्हें वादीभगजकेशरी की उपाधि से सम्मानित किया गया था। इसी प्रकार विभिन्न अवसरों पर उन्हें विद्यावारिधि, न्यायालंकार तथा न्याय-दिवाकर की उपाधियों से सम्मानित किया गया था।
एक बार इनके ऊपर किसी ईर्ष्यालु ने कोर्ट-केश दायर कर दिया था। जब कोर्ट में जिरह हुई तो पण्डित जी के तर्क सुनकर तथा उनकी गम्भीर विद्वत्ता से प्रभावित होकर उस मुकद्दमों को खारिज करते हुए उसके न्यायाधीश श्री किणी महोदय ने उनके विषय में जो कहा था, वह उन्हीं के शब्दों में निम्न प्रकार है_ 'ये दूर देश के विद्वान अपनी निस्वार्थवृत्ति से धार्मिक सिद्धान्तों की रक्षा के लिए इतना कष्ट उठा रहे हैं। अपने सिद्धान्त से तिल-मात्र भी नहीं हट रहे हैं। दूसरी ओर, सुधारवादी फरयादी लोग समय के साथ दौड़ रहे हैं, जो कि सिद्धान्त से सुदूर हैं।' ।
पण्डित जी की विश्वसनीयता, सच्चरित्रता एवं निर्भीकता सचमुच ही अनुकरणीय थी। अपने इन्हीं गुणों के कारण ग्वालियर-नरेश ने उन्हें मुरैना पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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में आनरेरी मैजिस्ट्रेट का सम्मानित पद प्रदान किया था, जिसका निर्वाह उन्होंने निष्पक्ष रहकर 16 वर्षों तक किया था।
राजाखेड़ा में जब आचार्य शान्तिसागर जी के संघ पर कुछ विरोधी ईर्ष्यालुओं ने उपसर्ग किया, तब आपने निर्भीकता पूर्वक उसका निवारण कर विरोधियों को अच्छी सीख प्रदान की थी।
पण्डित जी एक निर्भीक पत्रकार भी रहे। उनके द्वारा संस्थापित जैनदर्शन पत्र में प्रकाशित मत-सम्मत एवं सम्पादकीय टिप्पणियां आज भी प्रेरणा प्रदान करने वाली हैं।
भी
. पं. लालाराम जी शास्त्री विद्वच्छिरोमणि, धर्मरल, सरस्वती-दिवाकर जैसी सम्मानित उपाधियों से विभूषित पं. लालाराम जी शास्त्री का जन्म वि.सं. 1919 के आसपास चावली (आगरा) में हुआ। मुरैना के सुप्रतिष्ठित विद्वान पं. मक्खनलाल जी (जिनका परिचय अन्यत्र दिया जा चुका है) एवं पण्डित श्रीनन्दनलालजी (जो कि दीक्षित होकर मुनि सुधर्मसागर जी के नाम से प्रसिद्ध हुए और इनका परिचय भी प्रारम्भ में दिया जा चुका है।) के ये सगे भाई थे।
पण्डित लालाराम जी ने अनेक विद्यालयों में अध्ययन कर संस्कृत, एवं प्राकृतभाषा तथा जैन दर्शन एवं सिद्धान्त का गम्भीर अध्ययन किया। यही कारण है कि उन्होंने अनेक दुर्लभ एवं दुरूह ग्रन्थों का सम्पादन, अनुवाद कर उन पर सहज-गम्य टीकाएं लिखी। उनके कुछ विशेष रूप से सम्पादित ग्रन्थ निम्न प्रकार हैं
1. आदिपुराण (जिनसेन), उत्तरपुराण (गुणभद्र), 3. शान्तिपुराण (सकलकीति), 4. चारित्रसार, 5. आचारसार, 6. ज्ञानामृतसार, 7. प्रश्नोत्तर-श्रावकाचार, 8. जिनशतक, 9. सुभौमचरित्र, 10. सूक्ति-मुक्तावली, 11. तत्त्वानुशासन, 12. बृहत्स्वयम्भूस्तोत्र,
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13. चतुर्विंशति- सन्धान- काव्य, 14 चतुर्विंशति- तीर्थंकर-काव्य, 15. सुधर्म श्रावकाचार, 16. बालबोध - जैनधर्म (स्वतन्त्र ग्रन्थ), 17. क्रिया- मंजरी ( स्वतन्त्र ग्रन्थ), 18 अनेकविध पूजा-अर्चना ग्रन्थ आदि ।
पं. श्यामसुन्दरलाल जी शास्त्री
गछ ( फिरोजाबाद, यू.पी.) में सन् 1919 में जन्म प्राप्त पं. श्यामसुन्दरलाल का जीवन बहुरंगी था । एक समृद्ध जमींदार कुल में जन्म लेकर भी पण्डित जी का स्वभाव अत्यंत मृदुल, उदार, एवं दानशील था। सन् 1935 में मुरैना विद्यालय में अपने गुरु पं. मक्खनलाल जी से उच्चकोटि की शिक्षा ग्रहण की किन्तु उसे उन्होंने आजिविका का साधन न बनाकर देश के प्रमुख नगरों में प्रवचनों के माध्यम से जन-जागरण किया। समाज ने भी कृतज्ञता से भरकर उन्हें सिद्धान्त - विज्ञ - शिरोमणि, वाणी-भूषणा आदि उपाधियों से सम्मानित किया। आपने बालकेशरी एवं स्याद्वाद - मार्तण्ड तथा जैनगजट नामक पत्र-पत्रिकाओं का भी कुशल सम्पादन किया । इनकी प्रमुख रचनाएं निम्न प्रकार हैं।
1. आचार्य विमलसागजी का जीवन-चरित,
2. भक्तामर स्तोत्र - टीका,
3. आचार्य महावीरकीर्त्ति-पूजा
•
4. षट्कर्म - समुच्चय, एवं
5. आचार्य सुधर्मसागर - चरित्र ।
अतिशय क्षेत्र महावीरजी के सहस्राब्दी महोत्सव पर आचार्य विद्यानन्द जी के सान्निध्य में आपको 1 लाख रुपयों का पुरस्कार-सम्मान मिला, उसमें आपने इक्कीस हजार रुपये अपनी ओर से जोड़कर बैंक में फिक्स्ड डिपाजिट कर दिये, जिनके ब्याज से सुयोग्य विद्वान को प्रतिवर्ष ग्यारह हजार रुपयों के महाकवि रघू नामक पुरस्कार से सम्मानित किया जाता है।
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पं. लालबहादुर जी शास्त्री
ये रेलवे के एक स्टेशन मास्टर के सुपुत्र थे। इनका जन्म लालरु ( कालका, पंजाब) नामक स्टेशन वाले ग्राम में हुआ था, अतः उस ग्राम की स्मृति में उनके माता-पिता ने इनका नाम भी लालबहादुर रख दिया था। वैसे उनके माता-पिता का मूल निवास स्थल पमारी (आगरा ) था ।
पण्डित लालबहादुर शास्त्रीजी अक्खड़ एवं निर्भीक वक्ता के रूप में प्रसिद्ध थे । वे जन्मजात कवि थे तथा कविताबद्ध समस्या-पूर्ति बहुत ही सुन्दर ढंग से किया करते थे ।
सन् 1949 में वे सर सेठ हुकुमचन्द्र के संस्कृत महाविद्यालय में प्राध्यापक हुए । यह वह समय था, जब वहां व्याख्यान - वाचस्पति पं. देवकीनन्दन जी सिद्धान्त-शास्त्री, पं. जीवन्धर जी शास्त्री तथा पं. वंशीधर जी न्यायलंकार अध्यापन का कार्य कर रहे थे। बाद में वे दिल्ली के समन्तभद्र - विद्यालय के प्रधानाचार्य के रूप में कार्यरत रहे ।
इसी बीच में वे आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार पर शोधकार्य कर पी. एच. डी. हो गये । इस प्रकार वे पण्डित से साहित्य-दर्शन के डॉक्टर हो गये। उसी समय साहू शान्तिप्रसादजी जैन तथा डॉ. मण्डन मिश्र के अनुरोध पर सद्यः संस्थापित लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ सन् 1966 से जैन दर्शन, विभाग के संस्थापक-अध्यक्ष हो गये । पं. लालबहादुर जी संस्कृत, प्राकृत एवं हिन्दी भाषाओं के धुरन्धर विद्वान थे ।
के
वे सम्पादन-कला के भी मर्मज्ञ थे। उनके द्वारा सम्पादित एवं अनुदित ग्रन्थों में से निम्न प्रकार हैंकुछ
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1. मोक्षमार्ग-प्रकाशक (पं. टोडरमल जी) का ढूंढरी भाषा से हिन्दी अनुवाद तथा उस पर णण्डित्यपूर्ण विस्तृत भूमिका का लेखन, 2. रामचरित (संस्कृत) का प्रथम बार हिन्दी अनुवाद,
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3. आप्त-परीक्षा का सम्पादन, 4. महावीर-दर्शन, 5. महावीर-वाणी, 6. मुक्ति-मन्दिर 7. सत्य और तथ्य, और 8. घरवाला।
पण्डित जी की संस्कृत के अच्छे कवियों में गणना होती थी। एक बार उन्होंने डॉ. जाकिर हुसैन के लिए एक सार्वजनिक समारोह के अवसर पर उनकी प्रशंसा में संस्कृत-कविता लिखकर उसका सस्वर पाठ किया था।
कुछ समय तक उन्होंने बनारस में जयधवला विभाग में सम्पादन कार्य किया, किन्तु किन्हीं अदृश्य कारणों से उसे बीच में ही छोड़कर वे पुनः इन्दौर चले गये तथा वहां उन्होंने अपना एक प्रिंटिग-प्रेस खोला।
डॉ. (पं.) साहिब उत्कृष्ट कोटि के समीक्षक और अनुवादक तो थे ही, उच्च कोटि के सम्पादक भी थे। उन्होंने निम्नलिखित पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया था
1. वीर-भारत (पाक्षिक), 2. पद्मावती-पुरवाल (पाक्षिक), 3. जैन-सिद्धान्त 4. जैन दर्शन (साप्ताहिक) सन् 1962 से 5. जैन गजट (साप्ताहिक) लगभग 15 वर्षों तक, एवं 6. जैन-दर्शन (साप्ताहिक) लगभग 1939 से लम्बी अवधि तक।
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पं. बनवारीलाल जी स्यावादी मरथरा (एटा) सन् 1904 ___ पद्मावती-पुरवाल समाज के नव-जागरण में आपका विशेष योगदान रहा। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा मुरैना विद्यालय में हुई तथा दिल्ली विश्वविद्यालय से उन्होंने बी.ए. (इंग्लिश ऑनस) की परीक्षा उत्तीर्ण कर अंग्रेजी में भी महारत हासिल की।
श्री स्याद्वादी जी जैनधर्म एवं जैन दर्शन विषय पर अपने हिन्दी-अंग्रेजी भाषणों के लिये प्रसिद्ध थे। उन्होंने जैन-गजट कार्यालय में मैनेजरी का कार्य भी किया तथा कुछ समय तक अंग्रेजी के जैव-गजट का भी सम्पादन-प्रकाशन किया।
इसके अतिरिक्त उन्होंने वीर तथा भगीरथ नाम की पत्रिकाओं का भी सम्पादन किया। वे नवभारत टाइम्स के Commercial Editor भी लगभग 15 वर्षों तक रहे।
इसके पूर्व उन्होंने जैन संस्कृत कामर्शियल हायर सैकेण्डरी स्कूल दिल्ली में अध्यापन कार्य करते समय जैनधर्म का स्वाध्याय, मनन एवं चिंतन किया। इनके साथ-साथ पद्मावती-पुरवाल-समाज की अनेक संस्थाओं के विकास में वे सक्रिय योगदान देते रहे। उनके द्वारा लिखित निम्न ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं__ 1. मोक्षशास्त्र की टीका, 2. ब्रह्मगुलाल चरित, एवं, 3. गुड़िया का घर (नाटक)।
भगवत्स्वरूप जैन भगवत् धर्मभूषण-उपाधि से सम्मानित श्री भगवत्स्वरूप जैन भगवत (फरिहा, 1910 ई.) ने वि.सं. 1986 में फीरोजाबाद के मेले में, जब चरित्र-चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज थे, तब उनके सानिध्य में बैठकर आपको जैनधर्म के अध्ययन एवं कहानी, कविता, संस्मरण आदि के लेखन
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के लिये प्रेरणाएं मिलीं। इसी का सुफल था कि उन्होंने अपने हिन्दी-लेखन से एक ओर जहां जैन-सिद्धांतों का प्रचार कथा-कहानियों के माध्यम से किया, वहीं उन्होंने हिन्दी को सबल बनाने का भी अथक प्रयत्न किया। बीसवीं सदी के प्रारम्भिक लगभग 5 दशकों तक भगवत् जी अपनी रचनाओं के माध्यम से जैन एवं जैनेत्तर समाज पर छाये रहे। उनकी निम्नलिखित रचनाएं ख्याति प्राप्त रहीं___ 1. सुकुमाल-महामुनिचरित (तीन खण्डों में), 2. सुखानन्द-मनोरमा चरित्र (दो खण्डों में), 3. भगवत-लावनी-शतक-संग्रह, 4. भगवान् पार्श्वनाथ की पूजा।
इनकी बहुमखी सेवाओं को ध्यान में रखते हुए स्थानीय जैन समाज की ओर से आपके सम्मानार्थ आपको एक अभिनन्दन-ग्रन्थ भेंट किया गया।
कविवर भगवत्स्वरूप भगवत कविवर भगवत्स्वरूप (एत्मादपुर आगरा) का जन्म सन् 1911 में हुआ। सुधारवादी लेखकों में इनकी गणना की जाती है। इनके लगभग 20 ग्रन्थ प्रकाशित हैं। इनकी अनेक रचनाएं सरस्वती (मासिक, प्रयाग), विचार, अभयुदय, अनेकान्त, जैन-मार्तण्ड, जैन-सदेश, जैन-गजट आदि में प्रकाशित होती रहीं।
पं. रामप्रसाद जी शास्त्री स्वनामधन्य पं. रामप्रसाद शस्त्री (जटौआ, आगरा, सन् 1889-1991 ई.), जो कि श्रद्धेय पं. गजाधर लाल शास्त्री न्यायतीर्थ के ज्येष्ठ भ्राता थे, उनका व्यक्तित्व भी कम प्रेरक नहीं। वे सुप्रसिद्ध हिन्दी ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय बम्बई तथा माणिक चन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला बम्बई के मानद् सम्पादक प्रारम्भ रहे उन्होंने भूलेश्वर जैन विद्यालय बम्बई में अध्यापन-कार्य किया।
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एक विशेष तथ्य यह है कि षट्खण्डागम साहित्य के प्रकाशन के समय जब 'संजद' शब्द के विरोध या समर्थन की समस्या उठ खड़ी हुई, तब दिग्गजों द्वारा आयोजित शास्त्रार्थ में उनकी भूमिका बड़ी महत्त्वपूर्ण रही। उस समय धवल ग्रन्य को ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण किया जा रहा था। संजद् शब्द-प्रयोग से जैन समाज के अनिष्ट की आशंका से उन्होंने उसका विरोध किया और इनके अथक प्रयत्नों से उस शब्द को निकाल दिया गया।
शास्त्री जी की निम्न रचनाएं प्रसिद्ध हैं1. मकरध्वज-पराजय (मौलिक) 2. हरिवंशपुराण (अनु.), 3. तत्त्वार्थराजवार्तिक (सम्पादन), 4. विदेह-क्षेत्र-विंशति-तीर्थंकर-पूजा (संस्कृत) एवं, 5. चौबीसी भगवान् स्तुति (संस्कृत के विविध गेय छन्दों में) (अनुपलब्ध)
श्री सुरेन्द्रनाथ श्रीपाल बहुभाषाविद् श्री सुरेन्द्रनाथ 'श्रीपाल' का जन्म सन् 1900 में कायथा (आगरा) में हुआ था। उनकी तीन रचनाएं अति प्रसिद्ध हैं
1. Colossole of Shramanabelgola and other Jain shrines of Deccan. 2. जैनबद्री के भगवान् बाहुबली तथा दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ, 3. बाहुबली पूजा, एवं 4. दक्षिण के जैन वीर।
श्री जिनेन्द्रप्रसाद जैन श्री जिनेन्द्र प्रसाद जैन टूंडला (सन् 1931) ने वैसे भौतिक शास्त्र में एम.एससी. की परीक्षा उत्तीर्ण की किन्तु लेखन-कार्य जैनधर्माधारित विषयों में करते हुए जैन समाज की दीर्घकाल तक सेवा की। वे कुशल वक्ता, नाटककार एवं कलाकार थे। उनकी निम्न रचनाएं प्रसिद्ध हैं
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1. शान्तिदूत (नाटक), 2. भगवान महावीर, 3. अग्नि-परीक्षा, 4. विराग की ओर।
वे ऋषभ-छाया-सदन टूंडला के संस्थापक रहे।
ब्रह्म. पं. बिहारीलाल शास्त्री आपका जन्म खेरी (बरहन, आगरा) में वि.सं. 1963 में हुआ। आपने हस्तिनापुर, बनारस एवं मथुरा से उच्च शिक्षा ग्रहण कर अम्बाला, मेरठ, अलीगढ़ और जलेसर की जैन पाठशालाओं में प्रधानाध्यापकी की और मेरठ में सहजानन्द-शास्त्रमाला में जैन-दर्शनादि के अमूल्य ग्रन्थों के प्रकाशन की व्यवस्था की।
ब्रह्म. पं. श्रीलाल शास्त्री काव्यतीर्थ इनका जन्म सन् 1896 टेहू (आगरा) में हुआ। अपने दृढ़ संकल्प एवं लगन के कारण सन् 1912 तक उनकी गणना प्रौढ़ विद्वानों में होने लगी थी। इनकी कुशल-प्रतिभा से प्रभावित होकर उनके तथा पं. गजाधरलाल शास्त्री के सहयोग से जैन-साहित्य के उद्धारक पं. पन्नालाल वाकलीवाल ने जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी सभा (प्रिंटिंग प्रेस) को जन्म दिया। पहले उन्होंने उसकी स्थापना बनारस में की किन्तु किन्हीं विशेष कारणों से वे उसे वहां से समेटकर कलकत्ता ले गये। इस संस्था ने सचमुच ही पत्र-परीक्षा, तत्त्वार्थराजवार्तिक, समय-प्रभात, शब्दार्णव-चन्द्रिका, जैनेन्द्र प्रक्रिया, गोम्मटसार (पं. टोडरमल जी की टीका के साथ मकरध्वज-पराजय, आराधनासार, पद्पुराण (दौलतराम जी कृत) कातन्त्र-व्याकरण, सर्वार्थसिद्धि एवं विमलपुराण आदि जैन दुर्लभ ग्रन्थों को अत्यन्त प्रामाणिकता के साथ प्रकाशित किया।
वह विरोध का जमाना था। जैन समाज जैन-ग्रन्थों को प्रेस में छपाने
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में जिनवाणी की अविनय मानता था। फिर भी उक्त पण्डितत्रयी जिनवाणी की सुरक्षा तथा उसे घर-घर में भेजने की दृष्टि से विरोध का सामना करके भी भी आगे बढ़ती गयी। उनके प्रेस की यह विशेषता थी कि वह शुद्ध प्रेस के रूप में माना जाता था। उसमें सरेस के बेलन के स्थान पर कम्बलों के बेलन का प्रयोग किया जाता था।
पं. गजाधरलाल जी, पं. श्रीनिवास शास्त्री के साथ-साथ पं. मक्खनलाल जी न्यायालंकार ने भी इस प्रेस की प्रगति में पूर्ण सहयोग किया।
पं. श्रीलाल जी ने उक्त ग्रन्थों के प्रकाशन-कार्य में तो अथक सहयोग किया ही, साथ ही कुछ स्वतन्त्र ग्रन्थ भी लिखकर उन्हें प्रकाशित किये, जिनमें संस्कृत-प्रवेशिनी (दो खण्डों में) प्रमुख है। यह ग्रन्थ संस्कृत भषा के सीखने वालों के लिये वस्तुतः प्रवेश-द्वारा मानी जाती थी।
पं. श्रीलाल जी औघढ़ दानी थे। उनकी हार्दिक इच्छा थी जैन विश्वविद्यालय स्थापित करने की। लेकिन बीच में ही उनका दुखद निधन हो गया।
प्रतिष्ठाचार्य पं. नारे जी इनका मूलनाम पं. कन्हैयालाल जैन था किन्तु अपने ‘नारे' गोत्र के कारण वे 'नारे' के नाम से ही अधिक प्रसिद्ध रहे। इन्होंने यद्यपि ज्योतिष, आयुर्वेद, होम्योपैथी, जैनदर्शन आदि विषयों में उपाधियां प्राप्त की थीं। किन्तु उन्होंने अपनी विद्वता को मोड़ देकर केवल प्रतिष्ठा-कार्यों से ही सम्बद्ध कर लिया और लगभग 600 वेदी-प्रतिष्ठाएं, 250 सिद्धचक्र विधान कर एक कीर्तिमान स्थापित किया है।
समाज ने उनके कार्यों से प्रमुदित होकर उन्हें जैनरत्न, प्रतिष्ठिा-विशारद, ज्योतिष-विशारद, वाणीभूषण, धर्मरत्न, वैध-शास्त्री, धर्मानुष्ठान-तिलक जैसी उपाधियों से विभूषित किया है।
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श्री प्रकाश जैन सन् 1934 में कलकत्ता में जन्में श्री प्रकाश का पारिवारिक निवास फरिहा (मैनपुरी) में था।
श्री प्रकाश विषम परिस्थिति से हार न मानकर आगे बढ़ते रहे। पत्रकारिता ने उनहें विशेष प्रसिद्धि प्रदान कराई। उनके द्वारा सम्पादित पत्रिकाओं के नाम निम्न प्रकार हैं
1. बाल प्रभात (सन् 1965 से) एवं, युगवीर (पटना से, सन् 1973 से)। इनकी निम्नलिखित पुस्तकें ख्याति प्राप्त हैं
1. वरमाला (1966 ई.), 2. आओ साथी करें वन्दना (1967 ई.), 3. द्वादश-द्वादशी (1965 ई.), साहसी अरुण (बाल-उपन्यास), 5. आदीश-अर्चना (भावपूर्ण पूजन), 6. बूझो तो जानें नानी की कहानी (8 पद्य कथाएं), (7-15) 8 ग्रन्थ अप्रकाशित, 16. आचार्य शान्तिसागर संबंधी महाकाव्य भी अप्रकाशित ही रह गया।
पाण्डेय कंचनलाल मुनिराज ब्रह्मगुलाल की परम्परा में उत्पन्न पाण्डेय महाकवि पाण्डेय रूपचन्द के वंशज थे। समाज-सेवा के साथ-साथ उन्होंने राष्ट्रीय विकास कार्यों तथा प्राइमरी पाठशालाओं की स्थापना, धर्मशालाओं एवं सार्वजनिक कुओं का निर्माण, पशुपालन, वृक्षारोपण के कार्यक्रमों का संचालन तथा पैंडत, जखैया आदि स्थानों पर बलि-प्रथा की बन्दी आदि, अखिल भारतीय जीवदया-प्रचारिणी समिति, अत्याचार-निरोधक समिति, आदि के माध्यम से उनके असीमित रचनात्मक योगदानों को भुलाया नहीं जा सकता।
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पं. कुंजीलालजी शास्त्री
सन् 1917 में मरसेना ( अहारन, आगरा) में जन्म प्राप्त पं. कुंजीलाल जी ने सन् 1939 में मुरैना विद्यालय से शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण कर वहीं अध्यापन कार्य किया। बाद में आप गिरिडीह (बिहार) के जैन विद्यालय में प्रधानाध्यापक के पद पर रहे। अध्यापन के साथ-साथ नई पीढ़ी के विद्वानों को प्रेरणा देकर उन्होंने साहित्यिक कार्य करने हेतु मार्गदर्शन दिया, साथ ह सामाजिक जागरण हेतु विविध रचनात्मक कार्य किये।
बाबू जगरूपसहाय
आपका जन्म उम्मरगढ़ (एटा) में हुआ। आपने कठिन परिस्थितियों में भी उच्च शिक्षा प्राप्त कर शिक्षा एवं समाज के क्षेत्र में अविस्मरणीय योगदान कर अनेकविध प्रतिष्ठित सम्मानों को अर्जित किया ।
श्री रत्नेन्दु फरिहा
श्री रत्नेन्दु फरिहा ( मैनपुरी यू. पी., वि.सं. 1871-2006) का बहुआयामी व्यक्तित्व था । एक ओर वे षट्दर्शन के चिन्तक विद्वान थे, तो दूसरी ओर ज्योतिष के विद्वान एवं प्रतिष्ठाचार्य । इनके अतिरिक्त भी वे राष्ट्रीय - भावना से ओतप्रोत थे और कांग्रेस के सक्रिय सदस्य । अपनी कविताओं में इन्होंने छायावाद एवं हालावाद का प्रयोग कर अपनी विशेष पहिचान बनाने का प्रयत्न किया ।
प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाश जैन
प्राचार्य नरेन्द्र प्रकाश (फिरोजाबाद) वर्तमान कालीन विद्वत्मण्डली के ऐसे भाग्यशाली नक्षत्र हैं, जिसका प्रकाश पद्मावती-पुरवाल समाज की सीमाओं को लांघकर सर्वत्र अपने चिन्तन एवं अनुभव के कणों को बिखेर
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रहा है। कुशल वक्ता, यशस्वी लेखक एवं निर्भीक समीक्षक हैं। वर्तमान में जैन-गजट के सम्पादन में कार्यरत हैं।
समाज की साक्षात् सेवा हेतु आपने पी.डी. जैन इंटर कॉलेज फिरोजाबाद की प्रधानाध्यापकी से समय के पूर्व ही अवकाश ग्रहण कर लिया और अब सारा समय अखिल भारतीय शास्त्री परिषद् एवं समाज-सेवा में लगा रहे हैं। कॉलेज के अध्यापन काल में इनकी निम्नलिखित रचनाएं लाकप्रिय थीं।
1. नूतन व्याकरण प्रदीप, 2. रचना रशिम, 3. हिन्दी दिग्दर्शन, 4. हिन्दी रचना कल्पद्रुम, एवं, आचार्य विमलसागर-परिचय आदि।
श्री रामस्वरूप जैन 'भारतीय' बैरिस्टर चम्पतराय के घनिष्ठ मित्र जारखी निवासी श्री रामस्वरूप जैन 'भारतीय' न केवल पद्मावती-पुरवाल अपितु समग्र जैन समाज के समर्पित सेवक के रूप में प्रसिद्ध रहे।
वे योजनाओं के कुशल निर्माता तथा सम्पादन-कला के मर्मज्ञ थे। इनकी जानकारी उन पत्र-पत्रिकाओं से मिलती है, जिनका उन्होंने दीर्घकाल तक सम्पादन किया। यथा
1. पद्मावती-संदेश, 2. देवेन्द्र (साप्ताहिक), 3. वीर भारत (साप्ताहिक), 4. नवभारत (देहरादून, संस्करण), 5. जैन मार्तण्ड (हाथरस), 6. महावीर (विजयगढ़), एवं 7. ग्राम्य-जीवन (आगरा)।
इनके अतिरिक्त वे निम्न लिखित संस्थाओं के उच्च पदाधिकारी रहे1. पद्मावती-महासभा के संस्थापक अध्यक्ष, 2. जीवदया प्रचारिणी सभा के महामंत्री, 3. अखिल भारतीय दिगम्बर जैन परिषद के संस्थापक मंन्त्री, 4. राष्ट्र भाषा हिन्दी के प्रचारक, 5. गोमाता रक्षक सभा एवं 6. ग्राम पंचायत सभा। पद्यावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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पं. शिवमुखराय जैन पं. शिवमुखराज जी (कुतकपुर, आगरा, सन् 1902) का जन्म जमींदार घराने में होने पर भी स्वभाव से अत्यन्त भद्र दयालु एवं धर्मात्मा थे। मारोठ (राजस्थान) जैन विद्यालय में 28 वर्षों की अध्यापकी के बाद वे इन्दौर के रायबहादुर हीरालाल पाटनी द्वारा संस्थापित पारमार्थिक ट्रस्ट के निदेशक रहे और उसके अन्तर्गत चलने वाले औषधालय, विद्यालय (मारोठ), कन्या विद्यालय (आगरा एवं कामा), छात्रवृत्ति-फण्ड, जीवदया-फण्ड, जीर्णोद्वार-फण्ड, धर्मप्रचार-फण्ड, जीवदया-प्रसार-फण्ड, जैन बोर्डिंग हाऊस तथा लायब्रेरी के कार्यों का उन्होंने सुचारु रूप से संचालन किया।
श्री बाबूराम जैन बजाज 'दयासागर' बैरिस्टर चम्पतराय जी के अनन्य मित्र श्री बाबू जी बजाज (सन् 1890) अपने समय के जैनाजैन समाज में समान रूप से प्रतिष्ठित थे। समकालीन गौशालाओं के अध्यक्ष स्वामी शंकराचार्य थे, जब कि वे स्वयं उनके महामन्त्री थे। महात्मा गांधी द्वारा संस्थापित जीवदया-प्रचारिणी समिति के वे संस्थापक-मंत्री तथा पद्मावती-पुरवाल-समाज की अनेक संस्थाओं के सक्रिय कार्यकर्ता थे। उन्होंने उस समय की अनेक रियासतों में होने वाली प्राणि-हिंसाओं को निर्भीकतापूर्वक बन्द कराई थी, जिसके उपलक्ष्य में हिन्दू महासभा ने उन्हें 'दयासागर' की उपाधि से विभूषित किया था।
पं. अमोलकचन्द्र उडेसरीय - पं. अमोलक चन्द्र उडेसरीय (इन्दौर, सन् 1893) की विशेषता थी कि उनके पितृवत् व्यवहार से बोर्डिंग-हाऊस के सभी छात्र उन्हें अपने पिता के समान संरक्षक मानते थे।
उन्होंने जीवदया प्रचारिणी सभा के माध्यम से अनेक स्थलों पर 365
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प्राणिवध को बन्द कराने का सफल प्रयत्न किया।
मालवा प्रान्तीय महासभा के सरस्वती भण्डार के सक्रिय सदस्य थे तथा पद्मावती - परिषद् के मंत्री, पद्मावती-पुरवाल पत्रिका के सम्पादक तथा दिगम्बर जैन महासभा के मन्त्री आदि पदों पर रहकर उन्होंने विकास सम्बन्धी अनेक कार्यों को सम्पन्न किया ।
श्री हजारीलाल जैन वकील
श्री हजारी लाल जैन वकील (फिरोजाबाद) को अपनी कुशाग्र बुद्धि तथा सामाजिक सेवाओं के कारण कई बार प्रशासन की ओर से सम्मानित किया गया।
वे अनेक बार बैंच मैजिस्ट्रेट, स्पेशल मैजिस्ट्रेट, जुडीशियल मैजिस्ट्रेट रहे । सरोजिनी नायडू अस्पताल के संस्थापक, फिरोजाबाद नगर पालिका के सदस्य, शिक्षा विभाग के चेयरमैन, गांधी-सेवा-संघ के सदस्य, भ्रष्टाचार निवारण समिति के सदस्य, पी. डी. जैन इंटर कॉलेज के संस्थापक-सदस्य के रूप में उन्होंने अविस्मरणीय सेवाएं की ।
सुप्रसिद्ध सम्पादकाचार्य पं. बनारसीदास चतुर्वेदी उन्हें बड़े ही सम्मान के साथ काका जी कहकर उनका स्मरण किया करते थे ।
बाबू जुगमन्दरदास जैन
बाबू जुगमन्दर दास जी का स्मरण तो मन को भाव विभोर कर देता है। उनका राष्ट्र-प्रेम किसी क्रांतिकारी से कम न था । उनके क्रान्तिकारी कदमों ने जहां अंग्रेजों में हड़कम्प मचा दिया था, वहीं उन्होंने जैन समाज के निन्दकों के इस भ्रम को भी दूर कर दिया था कि जैन केवल आत्मोन्मुखी रहते हैं, और समाज एवं देश की वे उपेक्षा किया करते हैं।
उनका जन्म एटा यू.पी. में सन् 1912 में हुआ । प्रारम्भिक शिक्षा के पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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बाद' के स्वतन्त्रता आन्दोलन में कूद पड़े । फलस्वरूप दीर्घकाल तक थे कारागार में बन्द रहे। सन् 1953 में कलकत्ता के रईस श्रीमान बाबू छोटे लाल की प्रेरणा से उन्होंने लिलुआ (कलकत्ता) में स्टेनलेस स्टील का कारखाना खोला और स्वतन्त्र व्यवसाय करते हुए समाज एवं साहित्य की सेवा करते रहे।
रहयू साहित्य के प्रकाशन के लिए वे बड़े लालायित रहे किन्तु असामयिक निधन के कारण उनकी यह साध पूर्ण न हो सकी।
बाबूजी ने सबसे बड़ा कार्य किया-पद्मावती-पुरवाल डायरेक्टरी का प्रकाशन कर। यद्यपि उसका प्रथम भाग ही में प्रकाशित कर सके, फिर भी, पद्मावती-पुरवाल-समाज के इतिहास-लेखन के लिये वह एक अच्छा दस्तावेज तैयार हो गया है। वे समाज की प्रगति के लिये बड़े चिंतित रहा करते थे।
श्री धन्यकुमार जैन श्री धन्य कुमार जैन (1923 ई.) कोटकी (अवागढ़) की विशेषता थी कि उन्होंने जैनधर्म के साथ-साथ जैनेतर धर्मों का भी अध्ययन किया तथा जैन एवं जैनेतर मन्दिरों के जीर्णोद्धार कराते रहे। इनके अतिरिक्त वे मण्डल-कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता थे तथा जैन संस्थाओं के विकास में अविस्मरणीय योगदान दिया।
श्री ब्रजकिशोर जैन (फिरोजाबाद) श्री ब्रजकिशोर जी ने सन् 1959 में उार प्रदेश सरकार-शासन में जेलर के रूप में अपनी सेवाएं प्रदान की। तत्पश्चात् प्रौढ़-शिक्षा-प्रसार विभाग आदि में भी अपने सक्रिय सहयोग किये।
श्री किशोर साहब की विशेष अभिरुचि प्रारम्भ से ही संस्मरण, इतिवृत-लेखन एवं पत्रकारिता में रही। सन् 1970 में अपने सहयोगियों के
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साथ उन्होंने पद्मावती-सदिश का प्रकाशन एवं सम्पादन कर नई पीढ़ी को अनेकाविध प्रेरणाएं प्रदान की।
प्रो. भागवन्द्र जैन (सरनऊ, एटा, यू.पी.) आपने सन् 1958 से चांदनी चौक, दिल्ली स्थित सेंट्रल बैंक ऑफ इण्डिया में कैशियर-पद पर योग्यतापूर्वक कार्यरत रहते हुए भी महत्त्वपूर्ण लेखन-काय कर समाज के समुन्नयन में महत्त्वपूर्ण योगदान किया।
पं. हीरालाल जी (सुपुत्र श्री मुकुन्द राम जैन) इनका जन्म तालोद (देवास, मध्यप्रदेश) में वि.सं. 1973 में हुआ। आपका सारा जीवन समाज-सेवा में व्यतीत हुआ। सुप्रसिद्ध पत्रकार एवं समाजसेवी श्री पारसदास जैन
श्रम और मानवता में अटूट आस्था जिनके जीवन का मूलमंत्र है, ऐसे सौम्य एवं मधुर स्वभाव के वरिष्ठ पत्रकार श्री पारसदास जैन समाज के उन कर्मठ कार्यकर्ताओं एवं बुद्धिजीवियों में से हैं, जिन्होंने अपने जीवन की लगभग अर्द्ध-शताब्दी समाज सेवा और उसके उन्नयन में लगाई है। समाज की संसद कही जाने वाली अखिल भारतीय संस्था-दिगम्बर जैन महासमिति के वे संस्थापक सदस्य हैं तथा समाज की सबसे पुरानी क्रांतिकारी सुधारवादी संस्था अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परिषद् से लगभग 50 से सक्रिय रूप से जुड़े हैं। यश की आकांक्षा से दूर निःस्वार्थ भाव से सबके काम के लिए तत्पर श्री पारसदास जैन की धर्म
और समाज के लिए उल्लेखनीय सेवाएं हैं। __ 1 सितम्बर, 1927 को ज्ञानपंचमी के दिन उत्तरप्रदेश के एटा जिले में स्थित बेरनी गांव में उनका जन्म हुआ। माता श्रीमती गोमश्री जैन पञ्चावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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धर्मपरायण महिला थीं। पिताश्री द्वारिकादास जैन प्रसिद्ध वैध थे। उनके धर्मार्थ-औषधालय से सैकड़ों रोगी निःशुल्क-चिकित्सा प्राप्त करते थे। पीड़ित मानवता की निःस्वार्थ सेवा का यह संस्कार पुत्र श्री पारसदास जैन को पिता से मिला। इसमें सहयोग दिया उनकी विदुषीं पत्नी श्रीमती उर्मिला देवी जैन ने, जो इंदौर के प्रमुख समाजसेवी, शिक्षाविद् मास्टर रामस्वरूप जी की पुत्री थीं। चाचाजी पं. मथुरादास जैन स्वयं वाराणसी से उच्च शिक्षा प्राप्त जैन-दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान थे, जिन्होंने शांति-निकेतन (बंगाल) तक में अध्यापन कार्य किया था। सारे वातावरण ने इनके जीवन में धार्मिक व समाज सेवा के संस्कार भर दिए थे।
हिन्दी में एम.ए., संस्कृत में बी.ए. आनर्स तथा बंगाल संस्कृत एसोसिएशन व जैन गुरुकुल से जैन दर्शन की शिक्षा प्राप्त श्री पारस दास जैन 1949 में राष्ट्रीय दैनिक 'नवभारत टाइम्स' से जुड़े और अप्रैल, 2001 तक सक्रिय रूप से उसमें कार्यरत रहे। पत्रकारिता की इस दीर्घ अवधि में समाचार-संपादक, सहायक संपादक एवं स्तंभ-लेखक के रूप में पत्र को गरिमा प्रदान की। उनके कार्यकाल में यह राष्ट्रीय पत्र अनेक बार पुरस्कृत हुआ। वे स्वयं भी अनेक संस्थाओं द्वारा पत्रकारिता के लिए पुरस्कृत हुए। इससे पूर्व 1948 में उन्होंने अपने भाई श्री महावीरदास जैन के साथ हिन्दी का पहला रीडर्स डाइजेस्ट 'सौरभ' निकाला तथा 'सूरदास' पर एक समीक्षात्मक पुस्तक भी लिखी। नवभारत टाइम्स के माध्यम से उन्होंने सारे समाज को जोड़ा और यह जैन-समाज का अपना पत्र बन गया क्योंकि उसमें जैन समाज की धड़कन अभिव्यक्त होती थी। साहू अशोक जी ने इसे बखूबी समझा और श्री पारसदास जैन ने इसमें प्रमुख भूमिका निभाई।
श्री पारसदास जैन में धर्म और समाज सेवा के संस्कार वंशानुगत थे। उन्हें प्रोत्साहन मिला साहू शांतिप्रसाद जैन, लाल राजेन्द्रकुमार जैन,
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महात्मा भगवानदीन, श्री जैनेन्द्रकुमार जैन, साहू श्रेषांसप्रसाद जैन, श्री अक्षयकुमार जैन आदि से। उनकी प्रेरणा से वे समाज की सबसे पुरानी क्रांतिकारी सुधारवादी संस्था दिगम्बर जैन परिषद् से जुड़े तथा उसकी देशव्यापी मतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग लेने लगे। यह वह समय था, जब परिषद समाज में वर्ग भेद के खिलाफ आवाज उठाकर उन सभी बन्धुओं को सामाजिक संगठन में लाने के प्रयास में जुटी थी, जो समय के प्रभाव वै परिस्थितिवश समाज की मुख्यधारा से कट गये थे। किन्तु आचार-विचार से जैन-संस्कृति का पालन करते थे और देव, शास्त्र तथा गुरु में जिनकी आस्था थी साहू शांतिप्रसाद जैन के नेतृत्व में तब श्री बाबूलाल जैन जमादार आदि ने ऐसे क्षेत्रों का व्यापक भ्रमण किया। सराक, कलार आदि के नाम से जाने वाले ऐसे चार लाख से अधिक व्यक्ति थे, जो समाज की मुख्यधारा से कट गये थे। और बिहार, बंगाल, उड़ीसा व मध्यप्रदेश में रहते थे। इन्हें समाज में वापस लाने के प्रयासों में श्री पारसदास जैन ने सहयोग दिया। भगवान महावीर के 2500वें निर्वाण-महोत्सव के बाद सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज को एकसूत्र में संगठित करने के उद्देश्य से साहू शांतिप्रसाद जैन न जब दिगम्बर जैन महासमिति की स्थापना की, तो श्री पारसदास जैन उसके संस्थापक सदस्यों में थे। साहू शांतिप्रसाद जैन के सहयोगी के रूप में वे भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी की गतिविधियों से भी जुड़े थे। साहू शांतिप्रसाद जी के बाद जब यह दायित्व साहू श्रेयांस प्रसाद जी ने संभाला, तो उसी कर्मठता से उन्हें भी अपना सहयोग प्रदान किया। आप भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी के सम्माननीय सदस्य हैं।
साहू अशोक कुमार जैन ने जब सक्रिय रूप से समाज का नेतृत्व संभाला तो एक विश्वस्त एवं कर्मठ सहयोगी के रूप में श्री पारस दास जैन ने उनका साथ दिया। अपने पिताश्री साहू शातिप्रसाद जैन की भावना को साकार करने की दृष्टि से अशोक ने दिगम्बर जैन महासमिति की पथावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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के मानद प्रधान सम्पादक का दायित्व संभाला। जैन पत्रकारिता के लिए यह एक महत्वपूर्ण अवसर सिद्ध हुआ। जैन पत्र-पत्रिकाएं अब तक सामान्य रूप से अध्यात्म पक्ष से अधिक जुड़ी रहती थीं। श्री पारस दास जैन ने साहू अशोक जी से चर्चा कर उन्हें समाज की समस्याओं से जोड़ने का मार्ग प्रशस्त किया। इससे जैन पत्र-पत्रिकाओं का नयी दिशा मिली और आज प्राय सभी जैन पत्र तत्वचर्चा के साथ समाज की समस्याओं को भी मुखरित करते हैं। इससे समाज में संगठन को बढ़ावा मिला तथा एक नई जागृति और चेतना पैदा हुई। श्री पारसदास जैन को इसके लिए दिगम्बर जैन महासमिति के इंदौर अधिवेशन में सार्वजनिक रूप से साहू अशोक कुमार जैन, श्री रतनलाल गंगवाल, श्री बाबूलाल पाटोदी ने सम्मानित किया और प्रशस्ति पत्र भेंट किया। जैनों को भारतीय संविधान में प्रदत्त अल्पसंख्यक दर्जे की मान्यता दिलाने के सभी प्रयासों में श्री पारसदास जैन जुड़े हैं तथा अल्पसंख्यक आयोग से मिलने वाले जैन शिष्टमण्डल के सदस्य रहे हैं।
श्रमण-संस्कृति के संरक्षण-संवर्द्धन के लिए श्री पारस दास जैन ने साहू अशोक जी के साथ अनेक तीर्थक्षेत्रों का भ्रमण कर उनके विकास के लिए परामर्श दिया। 1993 में श्रवणबेलगोल में भगवान् बाहुबली की विश्व-प्रसिद्ध मूर्ति के महामस्तकाभिषेक-समारोह के लिए अशोक जी ने आपको कार्यकारिणी का सदस्य मनोनीत किया था। इस प्रकार देश में जहां भी राष्ट्रीय स्तर के आयोजन हुए, चाहे वह तीर्थवंदना, रथ-प्रवर्तन का हो, बावजगजा-महोत्सव, दिल्ली में अहिंसा-स्थल पर मूर्ति की स्थापना अथवा शिखरजी-रैली का, श्री पारसदास जैन उसमें सम्मिलित थे। पत्रकार के रूप में समाज की आवाज को देशभर में प्रसारित करने का गुरुतर भार उन्होंने पूरे दायित्व के साथ निभाया। उनका यह सेवा कार्य जीवन का जैसे अभिन्न अंग बन चुका था। साहू रमेशचंद्र जैन के साथ भी बुदेलखण्ड
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के तीर्थक्षेत्रों का विशेष रूप से दौरा कर वहां के विकास कार्यों को समझा
और जनमानस को इन तीर्थों की समस्या के प्रति जागृत किया। सभी वरिष्ठ आचार्यों से चर्चा में श्री पारसदास जैन, साहू अशोक जी के साथ रहे। इस व्यापक संपर्क के फलस्वरूप देश का प्रायः सारा जैन समाज आज उनसे सुपरिचित है। उन्हें इन सेवाओं के लिए इसी वर्ष दिल्ली में आचार्य श्री विद्यानन्द जी मुनिराज के सान्निध्य में दशलाक्षणी-पर्व पर एक लाख रुपएँ के, साहू अशोक जैन स्मृति पुरस्कार' से सम्मानित किया गया।
जैन समाज का कोई भी आयोजन चाहे वह किसी भी समाज का हो, श्री पारसदास जैन के सहयोग से अछूता नहीं रहा। उन्हें सम्पूर्ण समाज का विश्वास प्राप्त है। अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परिषद् के संयुक्त महामंत्री, वीर के संपादक तथा जागृत वीर समाज के संस्थापक-अध्यक्ष के रूप में समाज के उन्नयन तथा जन कल्याण के लिए उनके कार्यों की लम्बी सूची है। भगवान् महावीर के 2500वें निर्वाणोत्सव के बाद उनकी शिक्षाओं को क्रियात्मक रूप देने के लिए इनकी अध्यक्षता में स्थापित संस्था 'जागृत वीर समाज' ने निरंतर जनकल्याणकारी कार्य किये हैं। इसका क्षेत्र भी देशव्यापी रहा है। असहाय, निर्धन, बेसहारा महिलाओं, विकलांगों को मदद, छात्रवृत्तियां, चिकित्सा शिविर, पिछड़े क्षेत्रों में निःशुल्क दवाइयों का वितरण आदि कार्य पीड़ित मानवता के प्रति उनकी कोमल भावनाओं के सूचक हैं। दिल्ली में इस संस्था के व्यापक रूप से बिना किसी जातिगत भेद के सेवा कार्य को राज्य सरकार ने भी सराहा। शाकाहार के प्रचार-प्रसार के लिए लगभग तीन दशक पूर्व उन्होंने जोरदार अभियान चलाया, जीवदया-मण्डल की स्थापना में सहयोग दिया और
और शाकाहार के लाभ व मांसाहार के दोषों को उजागर किया। इनके द्वारा इस विषय पर अनेक छोटी-छोटी पुस्तिकाएं लिखी गईं, जो अत्यन्त लोकप्रिय हुईं। पपावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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पत्रकार के नाते श्री पारसदास जैन का सामाजिक दायरा इतना विस्तृत था कि जैन संस्थाओं के अतिरिक्त अन्य अनेक अजैन संस्थाओं-आर्य समाज, सनातन धर्म सभा, समलीला कमेटी आदि से भी वे जुड़े थे और उन्हें सक्रिय सहयोग देते रहे।
समाज सेवी स्व. श्री सुन्दरसिंह जैन पद्यावती-पुरवाल जाति के एक संभ्रात-परिवार में श्री सुन्दरसिंह का जन्म 11 दिसम्बर 1935 को हुआ। शिक्षा पूरी करने के बाद वे केन्द्रीय सरकार की सेवा में चले गये। समाज-सेवा और धार्मिक-संस्कार जो उन्हें अपने परिवार से मिले, वे उनसे भी निरन्तर जुड़े रहे। अपने क्षेत्र की जनता पर उनका गहरा प्रभाव था। प्रभावक व्यक्तित्व तथा कशल सूझ-बूझ के धनी होने के कारण सभी राजनैतिक दल उन्हें अपने दल से जोड़ना चाहते थे। पर सरकारी कर्मचारियों के लिये निर्धारित आचार-संहिता का उन्होंने पूर्णतः पालन किया। वे गांधी वादी विचारधारा से काफी प्रभावित थे।
वे लगभग 15 वर्षों तक पद्मावती-पुरवाल दिगम्बर जैन पंचायत (पंजी.) धर्मपुरा, दिल्ली-6 के महामंत्री रहे। भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परिषद के दिल्ली प्रदेश के सक्रिय सदस्य एवं उससे प्रकाशित पाक्षिक पत्र 'वीर' के सह-सम्पादक रहे। इष्ट-मित्रों एवं श्रावक-श्राविकाओं के साथ सामूहिक तीर्थयात्रा करना, कराना और पीड़ित लोगों की सेवा-सहायता में उनकी विशेष रुझान रही। 19 सितम्बर, 2003 का उनका आकस्मिक दुखद निधन हो गया। अपने जीवन के अन्तिम क्षणों तक वे निम्न संस्थाओं से जुड़े रहे___ 1. मोहल्ला कमेटी, छत्ता प्रतापसिंह, 2. राष्ट्रीय एकता निर्माण समिति, 3. ट्रैफिक वार्डन, पुरानी दिल्ली, 4. मानद विशिष्ट पुलिस ऑफिसर उत्तरी जिला, 3. केन्द्रीय नागरिक समिति क्षेत्र संख्या 4, 6. जैन युवक निर्माण 373
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समिति, 7. अभिनव जागृत समाज, 8. महाशक्ति चेतना समिति, 9. सर्वोदय जैन समाज, 10. इन्द्रप्रस्थ वालिंटियर बोर्ड, दिल्ली 11. अकलंक जैन सोसायटी एवं 12: नगर विकास परिषद् ।
श्री सतीश जैन ( आकाशवाणी)
f
श्री सतीश जैन का जन्म उत्तर प्रदेश के जिला एटा के अन्तर्गत ग्राम मरथरा में 30 मार्च 1937 को हुआ। इनके पितामह स्व. श्री छोटेलाल जैन और पिता स्व. श्री हरमुखराय जैन तत्कालीन जैन समाज के विशेष रूप से पद्मावती पुरवाल जैन समाज के, उन गिने चुने व्यक्तियों में थे जिन्हें उस समय के समाज का स्तम्भ माना जाता था। अपने सरल तथा सेवा भावी स्वभाव के कारण वह क्षेत्रीय समाज में श्रद्धा तथा विश्वास के पात्र बन गये थे ।
उत्साही एवं समर्पित व्यक्तित्व के धनी श्री सतीश जैन दिल्ली जैन समाज के जाने माने सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं। उन्होंने अपनी शिक्षा समाप्त करने पर आजीविका के लिए आकाशवाणी केन्द्र, नई दिल्ली (केन्द्रीय सरकार) में नौकरी आरम्भ की। आपके योगदान से ही आकाशवाणी के सभी केन्द्रों से जैन भजनों का प्रसारण आरम्भ हुआ। श्री सतीश जैन (आकाशवाणी) के कार्यकाल में सर्वप्रथम 'श्रमण जैन भजन प्रचारक संघ' ने जैन भजनों के ग्रामोफोन रिकार्ड बनवाने आरम्भ किए उस समय श्री सतीश जैन संस्था के मंत्री थे। आपके नेतृत्व में ही 'समयसार', 'छहढाला', 'द्रव्य संग्रह' जैसी रचनाओं के कैसेट तैयार किए गए।
संस्थाएं
1. जैन मिलन दिल्ली मध्य के अध्यक्ष (जैन समाज के वर्गों की प्रतिनिधि संस्था)
भारत जैन महामण्डल दिल्ली प्रदेश के मंत्री (जैन समाज के
2.
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8.
3. श्री सम्मेदशिखर जी आन्दोलन समिति दिल्ली प्रदेश के कार्यालय
' मंत्री .... . 4. जैन समाज दिल्ली (पंजीकृत) के मंत्री । 5. भगवान महावीर 2560वें परिनिर्वाण महोत्सव समिति के प्रचार
विभाम दिल्ली के संयोजक । भगवान बाहुबली महामस्तकाभिषेक एवं सहस्राब्दी समारोह
समिति 1981 प्रचार-प्रसार समिति के मंत्री। 7. भगवान बाहुबली प्रतिष्ठा एवं पंचकल्याण महोत्सव समिति
धर्मस्थल के प्रचार-प्रसार समिति के मंत्री (1982)। गोम्प्टगिरि इन्दौर (मध्य प्रदेश) में भगवान बाहुबली के महामस्तकाभिषेक एवं पंचकल्याणक समिति के दिल्ली कार्यालय
के संयोजक (1986)। 9. भगवान आदिनाथ बावनगजा महामस्तकाभिषेक महोत्सव समिति
(मध्य प्रदेश) दिल्ली कार्यालय के संयोजक (1991)! . 10. भगवान बाहुबली महामस्तकाभिषेक (1993) महोत्सव समिति
कलश आवंटन एवं दिल्ली कार्यालय के संयोजक। 11. आचार्य कुन्दकुन्द द्विसहस्राब्दी समारोह समिति के मंत्री (अखिल
भारतीय समारोह समिति)। 12. भारतवर्षीय अनाथ रक्षक सोसायटी और जैन सभा, नई दिल्ली
के वरिष्ट कार्यकर्ता एवं आजीवन सदस्य। 13. पी.एस. जैन फाउण्डेशन, दिल्ली के पूर्व सचिव। 14. आचार्य श्री विद्यानन्द चातुर्मास समिति, दिल्ली के मंत्री 1974, 1976, 1978, 1986, 1987, 19907
पचायतीपुरवाल विगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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16. चिनो
15. आचार्य श्री विद्यानन्द षष्टिपूर्ति समारोह समिति के मंत्री (सन्
1986)1 त्रिलोग शोध संस्थान हस्तिनापुर, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के संस्थापक
पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ सहयोगी। 17. प्रायोजित कार्यक्रम (आकाशवाणी के केन्द्रों से प्रसारित) 'पाषाण बोलते हैं (प्रायोजित कार्यक्रम) के लेखक, प्रस्तुतकर्ता, संयोजक (13 किस्तों में प्रसारित सन् 1980-1981)
'ज्ञान ज्योति' (प्रायोजित कार्यक्रम) के प्रस्तुतकर्ता एवं संयोजक (इस कार्यक्रम का प्रसारण कई केन्द्रों से हुआ सन् 1982-83)।
नई दिल्ली स्थित अहिंसा स्थल में भगवान महावीर की भव्य एवं मनोज्ञ प्रतिमा के महामस्तकाभिषेक महोत्सव समिति के संयोजक (सन् नवम्बर 2001)
आचार्य श्री शान्तिसागर जी मुनिराज के 131 वें जन्म-जयन्ती वर्ष 'संयम-वर्ष' के संयोजक (सन् जुलाई 2003 से जुलाई 2004)।
आचार्य श्री शान्तिसागर जी मुनिराज की 'समाधि स्वर्ण जयन्ती वर्ष के संयोजक (सन् सितम्बर 2004 से 2005)
'समाधि स्वर्ण जयन्ती वर्ष के उपलक्ष्य में समाधि कलश कैसेट एवं सी.डी. निर्माण के संयोजक।
फरीदाबाद सन् फरवरी 2003 के पंचकल्याणक के अवसर पर 'समाज रत्न' की उपाधि से विभूषित।
भगवान गोम्मटेश्वर भगवान श्री बाहुबली स्वामी महामस्तकाभिषेक महोत्सव समिति फरवरी 2006 केन्द्रीय समिति में मंत्री, प्रचार-प्रसार, उपसमिति में निर्देशक, सांस्कृतिक कार्यक्रम उपसमिति के सदस्य, दिल्ली कार्यालय के मंत्री। पथावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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श्री सतीश जैन अखिल भारतीय समारोह एवं संस्थानों से जुड़े वरिष्ठ कार्यकर्ता एवं अनेक अभिनन्दन पुरस्कारों से सम्मानित हैं।
समाजसेवी श्री प्रताप जैन (
वीर समाज):: उत्तर प्रदेश के एटा जिला, मरथरा जनपद के जमींदार और पद्मावती पुरवाल-जाति के सिरमौर-परिवार के स्व. श्री हरसुखराय जैन के तृतीय पुत्र श्री प्रताप जैन का जन्म 1 जुलाई 1939 को हुआ। 1953 में मिडिल क्लास उत्तीर्ण करके फिरोजाबाद के श्री पी.डी. जैन इंटर कॉलेज से 1955 व 1957 में क्रमशः हाई स्कूल और इंटरमीडिएट की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। हिन्दी-विभाग के अध्यक्ष श्री नरेन्द्र प्रकाश जैन के मार्गदर्शन में वक्तृत्व-कला और लिखने के कीर्तिमान स्थापित किये, कॉलेज में शिक्षा-प्राप्ति के दिनों में ही।
इंटरमीडिएट की परीक्षा समाप्त होने के कुछ दिनों बाद ही पहले से दिल्ली में रह रहे अपने अग्रज श्री प्रेमसागर जैन (राज्यसभा सचिवालय) एवं श्री सतीश जैन (आकाशवाणी) के पास दिल्ली आ गये। बड़े भाई श्री प्रेमसागर जी के संकेत पर आजीविका के लिए गांधीवादी प्रकाशन संस्था 'सस्ता साहित्य मंडल' से 1 मई 1957 से जुड़े। यहां रहते हुए ही इन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से 'प्रभाकर' की परीक्षा पास की। तत्पश्चात् 18 अप्रैल 1961 को दिल्ली नगर निगम में इनका चयन हो गया और 30 जून 1997 को वहां से सेवा निवृत्त हुए। हिन्दी भाषा, रचनात्मक कार्यों से मानवता की सेवा, और धर्म-प्रभावना के लिए समर्पित उत्साही प्रताप जैन की निम्न सेवाएं विशेष रुपेण उल्लेखनीय हैं
1. विगत लगभग 30 वर्ष में दिल्ली के विभिन्न अंचलों में स्थापित होने वाले लगभग 50 दिगम्बर जैन मंदिरों के निर्माण, उनके पंच-कल्याणकों के साथ-साथ अन्य अनेक मंदिरों की वेदी-प्रतिष्ठा महोत्सव आदि में अपनी निष्ठापूर्ण सेवाएं समर्पित की। ...
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• भारतवर्षीय अनाथ रक्षक जैन सोसायटी (जैच बाल आश्रम) दरियागंज की कार्यकारिणी के 1985 से अब तक सदस्य हैं। आश्रम से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका जैन प्रचारक' का पिछले लगभग 14 वर्षों से प्रकाशन भी करते आ रहे हैं। __3. अनाथ बच्चियों, विधवाओं एवं निराश्रित महिलाओं का संरक्षण
और उनके भविष्य निर्माण में योगदान देने वाली संस्था 'दिगम्बर जैन महिला आश्रम' दरियागंज दिल्ली की कार्यकारिणी के सदस्य के रूप में विगत 20 वर्षों से अपना योगदान दे रहे हैं।
4. अखिल भारतीय स्तर की प्रमुख संस्थाओं दिगम्बर जैन परिषद, दिगम्बर जैन महासमिति, भारतीय जैन मिलन और वीर सेवा मंदिर, दरियागंज (दिल्ली) आदि संस्थाओं की कार्यकारिणी के सदस्य एवं पदाधिकारी हैं। सभी आयोजनों में वे सक्रियता से योगदान करते आ रहे
हैं।
5. शास्वत सिद्ध तीर्थक्षेत्र सम्मेदशिखर के लिए 9 मई 1994 में आयोजित रैली के यमुनापार के संयोजक के रूप में सर्वाधिक योगदान के लिये आज भी उन्हें याद किया जाता है। बाद में ट्रस्ट-निर्माण में श्री चक्रेश जैन, (बिजली वाले) के साथ मिल कर बहुत बड़ी धन-राशि उस ट्रस्ट के लिए एकत्रित कराई।
6. प्राचीन श्री अग्रवाल दिगम्बर जैन पंचायत (पंजी.) लाल मंदिर, एवं जैन-मित्र मंडल के तत्तवावधापन में आयोजित सभी कार्यक्रमों को पिछले लगभग 20 वर्षों से सफल संचालन में उल्लेखनीय योगदान देते आ रहे
हैं।
7.बिना किसी पद की आकांक्षा के श्री पद्मावती पुरवाल-दिगम्बर जैन पंचायत (पंजी.) धर्मपुरा, दिल्ली-6 की सेवा में पिछले लगभग 30 वर्षों से सक्रियता के साथ जुड़े हुए हैं। विगत लगभग 10 वर्षों में तो पंचायत के पचाक्लीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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आयोजनों के लिए नये कीर्तिमान स्थापित कराने वालों में वे सर्वाधिक योगदान करने वाले सदस्य माने जा रहे हैं . . . . . . . . . .
8. आचार्य शांतिसागर जी महाराज के समय अब से गठित मुनिसंच कमेटी की पिछले 25 वर्षों से कार्यकारिणी के सदसथ हैं। फलतः आचार्य श्री विधानंद जी मुनिराज, आचार्यश्री बाहुबली जी, आचार्य श्री पुष्पदन्त जी, गणधराचार्य कुंथुसागर जी, स्व. आचार्यश्री विमलसागर जी, आचार्य श्री कल्याणसागर जी, आचार्य श्री सुमतसागर जी, उपाध्याय श्री ज्ञानसागर जी, उपाध्याय श्री गुप्तिसागर जी, उपाध्याय श्री श्रुतसागर जी, उपाध्याय श्री निर्णयसागर जी एवं इनके शिष्य मुनिराजों एवं आर्यिका माताओं के दिल्ली के विभिन्न आंचलों में विहार एवं धर्म-सभा कराने का आशीर्वाद एवं सौभाग्य इन्हें प्राप्त हो रहा है।
9. भगवान् महावीर के 2500वें निर्वाण महोत्सव में निष्ठावान, समर्पित एवं विनयशील कार्यकर्ता के रूप में उभरे श्री प्रताप जैन ने स्व. अक्षयकुमार जैन एवं श्री यशपाल जैन के परामर्श से श्री पारसदास जैन की अध्यक्षता में तीर्थंकरों की वाणी को मूर्तरूप देने के लिए 'जागृत वीर समाज' की स्थापना कराई। स्थापना से लेकर अब तक आप उसके सचिव हैं। इस संस्था के विविध रचनात्मक कार्यों से सामाजिक एवं धार्मिक आयोजनों को नया मोड़ मिला। ___10. रोटरी और लायंस और क्लब जैसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के बाद 1976 से 1986 तक दिल्ली के विभिन्न क्षेत्रों में जाकर 'ट्रिपल एंटीजन इंजेक्शन एवं पोलिया दवा वितरण के शिविर लगाने वाली प्रथम भारतीय समाज सेवी संस्था है। उसके ये कर्मठ सदस्य के रूप में माने जा रहे हैं। ___11. 1977 से 1986 तक सेन्ट्रल बोर्ड ऑफ एजूकेशन की परीक्षाओं में प्रथम, द्वितीय और तृतीय स्थान प्राप्त करने वाले मेधावी छात्र-छात्राओं को अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित समारोह में प्रशास्ति-पत्र एवं
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भगवान महावीर के चित्र के मैडल देकर आपने उन्हें प्रोत्साहित किया है। आवश्यक होने पर यथासंभव उनको छात्रवृत्ति आदि भी प्रदान कराई है। ____12. भगवान महावीर विकलांग सेवा समिति, जयपुर के दक्ष एवं विशेषज्ञ डॉ. की देखरेख में अनेक तीर्थक्षेत्रों पर वहां रहने वाले हजारों विकलांगों को कृत्रिम पैर, केलीपर्स, ट्रायसाइकिल एवं बैसाखी आदि प्रदान की हैं, साथ ही पाठ्य-पुस्तकें भी प्रदान कराते आ रहे हैं। __13. तरुण-मित्र परिषद, जैन युवा संगठन (कूचा पातीराम), जैन जागरण समिति, (दिल्ली गेट), भक्ताम्मर पाठ समिति (वासुपूज्य मंदिर), गांधी नगर, आदि अनेक संस्थानों का गठन कराके उन्हें स्वतंत्र रूप से कार्य करने की प्रेरणाएं प्रदान की हैं।
14. ब्र. बहन कमलाबाई जी, द्वारा श्री महावीरजी में स्थापित कन्या-विद्यालय के अनेक समारोहों, विशेषकर उसके स्वर्ण-जयन्ती वर्ष में स्थापित किये गये महाविद्यालय के शिलान्यास-समारोह को सफल बनाने
और उसके संचालन में इनका काफी योगदान रहा है। 1984 में पूज्य कमलाबाई जी के सार्वजनिक सम्मान में भारतवर्षीय जैन समाज द्वारा आयोजित समारोह के आप कार्यक्रम के संयोजक थे। ___15. नेपाल जैन परिषद, काठमाडों में निर्मित श्री दिगम्बर जैन मंदिर का वेदी-प्रतिष्ठा-महोत्सव और उसके दो वर्ष बाद आयोजित वार्षिक समारोह की सफलता और उसके धन-संग्रह में भी आपका उल्लेखनीय योगदान रहा है। __16. अक्तूबर 1991 में आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के पावन सानिध्य में कुंडलपुर में दिगम्बर जैन नैतिक-शिक्षा-समिति के शिविर के सफल आयोजन में आपका अतुलनीय योगदान रहा है। 1985 से आप इस संस्था के अब तक संयुक्त-महामंत्री हैं। लाखों बच्चों को अब तक धार्मिक नैतिक शिक्षा इस संस्था के माध्यम से दिलाने में इन्होंने क्रियात्मक पथावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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योगदान दिया है। .
. .... .. 1958 में दिल्ली आने से लेकर अब तक इन्होंने हिन्दी भाषा, हिन्दी साहित्य, धर्म-प्रचार-प्रसार, गुरु-भक्ति तथा मानव-कल्याण के अनेक कार्यों के माध्यम से सामाजिक नव जागरण के नये कीर्तिमान स्थापित किये हैं। जुलाई 1997 में हृदय-रोग से पीड़ित होने और फरवरी 1998 में बाई पास कराने के बाद भी उनकी सक्रियता वर्तमान में भी लगभग वैसी ही है। पद्मावती पुरवाल जाति के इस बहुआयामी व्यक्तित्व से इस प्रदेश का जनमानस बड़ा प्रभावित है, इसमें कोई सन्देह नहीं।
। स्वतन्त्रता प्राप्ति आन्दोलन एवं
समाज-सेवा के क्षेत्र में स्वनामधन्य श्री पन्नालाल जी 'सरल' (नारखी) श्री केशवदेव दी (कायथा), श्री बाबू नेमिचन्द जी गुप्ता (बेरनी) समाजसेवियों एवं स्वतन्त्रता सेनानियों की भी एक लम्बी सूची है। उन सभी का समग्र परिचय दे पाना यहां संभव नहीं है। अतः यहां उनकी सूची मात्र प्रस्तुत की जा रही है, जो निम्न प्रकार है__ “जातिभूषण' उपाधिधारी मुंशी हरदेव प्रसाद जी जमींदार (बेरनी), पाण्डेय कंचन लाल जी (टूंडला), मुनि ब्रह्मगुलाल जी के वंशज पाण्डेय उग्रसेन जैन शास्त्री टूंडला तथा उनके भाई पाण्डेय रूपचंदजी , पाण्डेय शिवलाल जी, पाण्डेय सुखानन्द लाल जी, श्री रामस्वरूप जी (1904-1062 ई.) (इन्दौर), श्री कान्ति स्वरूप जी (सन् 1916 इन्दौर) श्री हकीम प्रेमचंद जी (फिरोजाबाद), श्री श्री श्योप्रसाद जी रईस टूंडला, (जो आचार्य शान्तिसागर जी महाराज के टूंडला-चातुर्मास के संवाहक भी रहे), श्री राजकुमार जी फिरोजाबाद (सन् 1910), सुप्रसिद्ध नगरसेठ श्री गुलजारी लाल जी रईस (अवागढ़) (सन् 1847), श्री मुंशीलाल जी कोटकी (सन् 381
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1887), श्री महावीर प्रसाद जी सर्राफ दिल्ली, पं राजकुमार जी शास्त्री निवाई: (राजस्थान), डॉ. महावीर प्रसाद जैन खन्दौली (सन् 1997), जातिभूषण श्री ममनलाल जैन शुजालपुर (1892 ई.) श्री पंचमलाल जी महाराजपुर (सन् 1887), श्री जैनेन्द्र कुमार जैन (सन् 1936), फिरोजाबाद, पं. नरसिंहदास जैन प्रतिष्ठाचार्य चावली (आगरा), श्री कस्तूरचंद जैन (सन् 1879-1944) सारंगपुर, श्री दुलीचंद जैन (सन् 1902) सारंगपुर, श्री राजेन्द्र कुमार जी जैन (सन् 1920) अवागढ़, श्री छोटे लाल शास्त्री जनकपुरा (मन्दसौर), देवचंद जैन (सन् 1922) (रीवां, जिला-मैनपुरी), लाला गौरीशंकर जैन फिरोजाबाद, श्री भगवान स्वरूप जैन (1801ई.) टूंडला, श्री बाबूलाल (सन् 1882-1942) कोटकी, श्री गुलजारी लाल जैन (सन् 1884-1951) कोटकी, बैलगाड़ी से सम्मेदशिखर की यात्रा करने कराने वाले श्रीमान् रामस्वरूप (सन्1886-9141) कोटकी, रेलवे सेवा में उत्तम कार्य कर रेल मंत्री बाबू जगजीवन राम जी से पुरस्कृत-सम्मानित होने वाले श्री महावीर प्रसाद जैन (सन् 1925) अहारन, पं. श्री निवास शास्त्री चिरहोली, पाण्डेय ज्योति प्रसाद जैन, नगला सुरूप गनशूटिंग प्रतियोगिता (सन् 1954) में प्रथम पुरस्कार से सम्मानित श्री कमल कुमार (1813 ई.) कोटकी, श्री रघुवर दयाल जैन (सन् 1901-1966) एटा, प्रो. (डॉ.) त्रिलोकचन्द जैन जामनगर (गुजरात), श्रीमती कुन्ती देवी जैन (सन् 1904) नगला स्वरूप, अवागढ़-रियासत के सरकारी वकील साथ ही महाराजा के शिकार-संबंधी कार्यों का निर्भीक विरोध करने वाले श्री बनारसी दास जैन, जलेसर, दानवीर रायसाहब नेमिचंद जैन (जिन्हें दीर्घकाल तक आचार्य शान्तिसागर महाराज की वैयावृत्ति करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था), कैप्टेन माणिकचन्द्र जैन फिरोजाबाद । यह सूची अन्तिम नहीं है यह तो केवल एक बानगी मात्र है।
उक्त सभी यशस्वी नाम केवल पावली पुरवाल समाज के ही नहीं, बल्कि समन जैन समाज एवं पूरे देश-विदेश के जैन इतिहास को शवलित करने वाले हैं। पावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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यह एक सर्वेक्षणात्मक निबन्ध है, कोई ग्रन्थ नहीं। सूत्र शैली में लिखने पर भी उसका आकार विस्तृत हो गया है। जैसा कि लिखा जा चुका है, आज भले ही इस समाज का आकार सिमट गया है, फिर भी इसके बहुआयामी कार्य-कलापों को विधिवत् विस्तार दिया जाय तो उस पर कम से कम 5-6 खण्ड (ग्रन्थ) तो आसानी से लिखे ही जा सकते हैं। यहां हमने तो केवल सूत्र मात्र ही प्रस्तुत किये हैं। इस समाज ने अनेक विभूतियों को जन्म दिया है। चाहे वह प्राच्य जैन-विद्या का क्षेत्र हो, चाहे पत्रकारिता का क्षेत्र हो, चाहे सार्वजनिक समाज-सेवा का क्षेत्र हो, चाहे जैन संस्थाओं की स्थापना कर उनके विकास का कार्य हो और चाहे राष्ट्रीय क्षेत्रों में, उनकी समर्पित भाव से सहभागिता रही हो।
पंचकल्याणक : तब और अब पिछले तीस-पैंतीस वर्षों में पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं के स्वरूप में तेजी से परिवर्तन हुए हैं। पहले जहां इनके माध्यम से व्यक्ति और व्यक्ति-समूह के आचार-विचार को निर्मल बनाने पर जोर रहता था, वहां अब इन्हें मेला या प्रदर्शनी सरीखी भव्यता प्रदान करना ही हमारा एक मात्र उद्देश्य बन गया है। प्रतिष्ठा-पात्रों का चयन पहले व्यक्ति की योग्यता को देखकर किया जाता था, वहां अब उसकी आर्थिक स्थिति को आंककर होता है। आयोजकों की दृष्टि केवल इस बात पर रहती है कि कौन कितना पैसा खर्च कर सकता है। धन को महिमा-मण्डित करने से गुणों की उपेक्षा हुई है। और इस कारण इन प्रतिष्ठाओं की गरिमा में निरन्तर गिरावट आती जा रही है। अवमूल्यन के आधारभूत कारणों को हमें अविलम्ब दूर करना चाहिए।
प्रतिष्ठाओं में सादगी अपेक्षित है। प्रदर्शन या दिखावे से अहंकार का पोषण तो हो सकता है, किन्तु मनःशान्ति और आत्मलाभ प्राप्त नहीं हो
सकता।
-महासमिति पत्रिका : 16-30 जून 1999 पयाक्तीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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'पद्मावती' और पद्मावतीपुरवाल
-डा. अभयप्रकाश जैन, ग्वालियर “पद्मावती' ग्वालियर के दक्षिण पश्चिम दिशा में 42 कि.मी. की दूरी पर डबरा-करियावटी मार्ग द्वारा पहुंचा जा सकता है। यह स्थान सिंघ-पार्वती नोन नदियों के संगम पर स्थित है। आज कल इस ग्राम को पवाया कहते हैं। इसका प्राचीन नाम पद्मावती खजुराहो शिलालेख 1001 शती ई. तथा वि.सं. 1058 में प्राप्त होता है। विष्णु पुराण में उल्लेख है श्रमण धर्म को मानने वाले नागवंश की राजधानी पद्मावती थी। डॉ. यशवंत मलैय्या कोलेरेडो वि.वि. अमेरिका के मत से पद्मावती पुरवाल जाति का उद्गम इसी स्थान से माना जाना चाहिए। उन्होंने जैन जातियों के इतिहास पर मौलिक शोध किया है। महाकवि भूवभूति (कालिदास के समकालीन) की जन्म स्थली भी पवाया थी जहां उन्होंने मालती माधव तथा उत्तर रामायण नाट्यों का प्रणयन किया, जिनमें पद्मावती का चित्रण किया गया है। नाग और ग्राह्य जातियां श्रमणधर्म मानने वाली जातियां थीं, ऐसा वेदों में उल्लेख है। नागों के राजवंश को हम तीन भागों में बांट सकते हैं
श्रृंगों के सकालीन-श्रृंगों से कनिष्क तक और कुषाणों के पश्चात् वाकाटकों तक पहली शाखा विदिशा में सीमित थी। उनके विषय में विस्तृत शोध जरूरी है। शुंगों के पश्चात् नागों ने अपना राज्य विदिशा से पत्रावती तक फैला लिया था। इसके बाद गुप्त राजवंश के भी अवशेष यहां प्राप्त हुए हैं, जिसमें तीसरी-चौथी शताब्दी की मणिभद्र यक्ष पाषाण पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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प्रतिमा, पवाया टीलों के उत्खनन से प्राप्त हुई हैं। पहले मणि भद्र यक्ष अपने शीश पर भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा धारण किए हुए थे। बाद में पार्श्वनाथ प्रतिमा कहीं लोप हो गई। शिलालेख के अनुसार यह मूर्ति पहली शताब्दी की सिद्ध होती है।
मध्य भारत पुरातत्व विभाग के यशस्वी मूर्धन्य पुरातत्वविद् स्व. श्री एस. एम. वी. गर्दे का तप था जिन्होंने पवाया टीले का उत्खनन कार्य प्रारंभ किया। सर्वप्रथम 1905 फिर 1925 में इस टीले की खुदाई की गई जिसमें मृण्मयी मूर्तियां, शीश तथा जैन प्रतिमाएं प्राप्त हुयीं । ब्राह्मी लिपि में लिखित ईंट भी प्राप्त हुईं। जिन पर अष्ट मंगलों के चिन्ह भी उकेरे हुए थे। कुछ ईंटों पर 'नमो जिनस्' भी पढ़ा गया, ये ईंटें गूजरी महल संग्रहालय में सुरक्षित हैं। कुलदेवता मणिभद्रयक्ष की पाषाण प्रतिमा प्रथम शती ई. की है। ऐसी मान्यता है कि पवाया में जब भी कोई लोकोत्सव मनाया जाता था इस प्रतिमा की पूजा नागवंशी सम्राट अवश्य करते थे । यहां से प्राप्त टेराकोटा जो नाग सम्राटों द्वारा ईंट निर्मित मंदिरों में सजावट के लिए प्रयोग किए गये थे-इन टेराकोटा में एक सुंदर नाग की प्रतिमा भी मिली है, जिसमें श्री पार्श्वदेवस्य लिखा है। श्री एम.वी. गर्दे की रिपोर्ट 1941 के पृष्ठ 19-20 में छपी है। निःसंदेह यह बहुत बड़ी उपलब्धि है । जो संभवतः कहीं भी प्राप्त नहीं हुई है। पवाया से प्राप्त टेराकोटा की प्रदर्शनी गूजरी महल संग्रहालय में 17-5-93 से 30-6-93 तक लगाई गई। ये टेराकोटा चौथी शती ई. के हैं । पद्मावती शिक्षा का एक महान केन्द्र था। समूचे भारत तथा विदेशों से जैनधर्म, ज्योतिष, संगीत, दर्शन न्याय - धर्मशास्त्र एवं भाषा साहित्य छात्र अध्ययनार्थ आते थे। इसका बोध हमें 'मालती माधव' के उल्लेख से हो जाता है। सांस्कृतिक संस्थान और धार्मिक स्थल होने के साथ-साथ पद्मावती व्यापार का एक प्रमुख केन्द्र था। प्रमुख राजमार्ग पर स्थित महा जनपद की राजधानी होने से तत्कालीन सांस्कृतिक जीवन को नई दिशा देने में पद्मावती का अभूतपूर्व योगदान है। पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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श्रमण धर्म मानने वाले नाग सम्राटों ने सादा जीवन उच्च विचार की परिकल्पना समाज में पल्लवित की-वे सत्ता से निर्लिप्त रहने का प्रयास करते रहे। मणिभद्रयक्ष कुबेर जैन साहित्य में उल्लेखनीय है। सोनागिर सिद्धक्षेत्र यहां से पैदल रास्ते से 2 कोस (4 मील) है। मुख्य मार्ग होने से देशी-विदेशी व्यापारी सार्थवाह भी यहां ठहरते थे और वस्तुओं का आदान-प्रदान होता था। यही कारण है ईसा के प्रारंभिक तीन चार शताब्दियों में पद्मावती की समृद्धि विश्वव्यापी स्तर पर थी। जैन पुराण साहित्य में सार्थवाहों तथा समुद्री यात्रा करने वाले जैन व्यापारियों का उल्लेख मिलता है। ये सार्थवाह ही थे जो रत्नों का व्यापार किया करते थे। जो पद्मावती पुरवाल कहलाते थे। डॉ मोतीचंद ने अपनी पुस्तक 'सार्थवाह' में जो पटना 1953 में प्रकाशित है नागजाति के सार्थवाहों और श्रमण धर्म अनुयायी होने की पुष्टि की है। कैटलॉग ऑफ दि काइन्स ऑफ दि नागा किंग्ज ऑफ पद्मावती डॉ. एच.एन. त्रिवेदी काइन्स ऑफ एन्शिमेण्ट इण्डिया ए. कनिंघम लंदन 1891, नागा काइन्स-ए.एस. अल्तेकर-नाग सिक्के डॉ केडी वाजपेई के अध्ययन से सिद्ध होता है कि नाग सिक्कों पर जैन धर्म के अष्ट मंगल चिन्हों का तथा श्रमण परंपरा का प्रभाव था।
सिक्कों पर त्रिशूल नंदी-पांच शाखाओं वाला वृक्ष भी है। सिक्कों पर उत्तदान-पुरुषदान, शिवदान-डा. जामसवाल ने इनका काल.ई. पू. पहली शताब्दी निर्धारित किया है। वीरसेन के सिक्के पर बैठी आकृति पर पदमावती है। पदमावती में सिक्के ढालने की टकसाल थी। पदमावती के 5 सिक्के मैंने प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाश जी को भेंट किये थे।
दि साइट आफ पदमावती-एम.वी. गर्दे सन् 1915-1916 फेज 101-103 तथा मध्य भारत का इतिहास पेज 601 एक मंदिर का उल्लेख किया है जिसक कालान्तर में विष्णु मंदिर का नाम दिया गया। इस मंदिर के अनावरण से जो प्रश्न खड़े हो गए हैं उनकी इतिहासकारों ने विस्तारपूर्वक चर्चा की है किन्तु अभी तक इस बात की जानकारी नहीं मिल सकी है कि पद्यावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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प्राचीन मंदिर को नवीन निर्माण के अंदर दबा देने का कारण क्या था? यह निर्माण मूलतः दो विशाल चबूतरों के रूप में था जो एक के ऊपर एक थे। दोनों चबूतरे वर्गाकार आकृति के हैं। दोनों चबूतरों में ऊपर के चबूतरे की लंबाई 53 फुट तथा नीचे के चबूतरे की लम्बाई 93 फुट है। दूसरा नवीन चबूतरा लम्बाई में 143 फुट तथा चौड़ाई में 140 फुट है। नीचे का चबूतरा अलंकृत है तथा ऊपर का चबूतरा सादा है। लगता है घेरे के निर्माण के लिए ऐसा किया गया है। जब तक उत्खनन कार्य पूर्णरूपेण सम्पन्न नहीं हो जाता तब तक इस मंदिर तथा अन्य निर्माण के विषय में निर्णायक विचार बना पाना संभव नहीं है। गुर्जरा में प्राप्त शिलालेख में पदमावती के उल्लेख में इन चबूतरों में 8 जैन मंदिरों के छिपाने का सूत्र मिलता है। यहां जैन परंपरा के विशाल स्तूप भी थे जो बाद में ध्वस्त हो गए।
पवाया- पांचोरा - छितोरी से प्राप्त ईंटों का आकार लंबाई 19 इंच चौड़ाई 10 इंच और मोटाई 3 इंच है। इन पर कुछ पर णमो जिण्णस' लिखा मिलता है। यहां एक दुर्ग भी है जो चालीस एकड़ में फैला है। इसके उत्तर पश्चिम कोने पर प्रवेश द्वार है तथा एक दरवाजा दक्षिण पूर्वी कोने पर भी है समूचा प्रासाद खण्डहर हो चुका है। यहां भी खंडित जैन मूर्तियां मिलती हैं। उत्तरापथ से दक्षिणापक्ष की ओर जाने वाले सभी यात्री पदमावती होकर ही जाते थे तीन नदियों का संगम क्रमशः पार्वती - नोन-सिंध यहां से है । नावों द्वारा भी व्यापार होता था । मणिभद्र यक्ष की उपासना के लिए तथा मनौती मनाने के लिए यह स्थान प्रसिद्ध था
मणिभद्र यक्ष की चरण चौकी पर एक महत्वपूर्ण अभिलेख अंकित है । इसकी लंबाई नौ इंच और चौड़ाई नौ इंच मात्र है। यह अभिलेख खंडित है परिणामस्वरूप ऊपर की पंक्ति के अक्षरों के ऊपर लगने वाली मात्राएं या तो मिट गई हैं या अस्पष्ट हो चुकी हैं इसलिए प्रथम पंक्ति को सही-सही पढ़ना कठिन है। अभिलेख ब्राह्मी तथा संस्कृत भाषा में है। लिपि के आधार पर इतिहासकारों ने अभिलेख का समय ईसा की प्रथम शताब्दी पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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निर्धारित किया है
प्रथम पंक्ति - (रा) ज्ञा: श्वा (मि) शिव (न) न्दिस्म संव (त्स) रे चतु (') ग्र (1) षम पक्ष ( ) द्विवतीयेर (f) दबस ( )
द्वितीय पंक्ति-द्व (1) द (शे) 102 यतस्य पूर्वाय ( ) गोष्ठ्या मणिभद्र भक्ता गर्भसुरिवता अर्हता भगवतो ।
तृतीय पंक्ति-माण (f) भद्रस्य प्रतिमा प्रतिष्ठाययति गोष्ठ्याम भगवा आयु वालम वायम कल्प (1) शाम्यु
मथुरा के ग्राम परखम में यक्ष की विशालकाय मूर्ति मिली है। उसकी तुलना पवाया के मणिभद्र यक्ष की मूर्ति से की जा सकती है। धन का भण्डारी कुबेर यदि मथुरा में धन वैभव की वृद्धि कर रहा था तो उसका . सहोदर माणिभद्र यक्ष पद्मावती में सुख समृद्धि बढ़ा रहा था। उस काल मे जैन धर्मानुयायी भी कुबेर और मणिभद्र यक्ष को 'क्षेत्रपाल' की तरह रखने लगे थे । (देखिए 'मथुरा' डॉ. के. डी. वाजपेई पेज 35 )
1
पद्मावती की स्थिति के विषय में इतिहासकारों का अनेक वर्षों तक विवाद बना रहा। कोई विद्वान उज्जैन के पास जैसा कि कोषकार ने पद्मावती के अर्थो में उज्जयिनी का प्राचीन नाम दिया है। एकमत नरवर की वर्तमान स्थिति को मानता रहा। राजस्थान में भी पद्मावती सिद्ध की जाती रही। लंबे विवाद के बाद यह निश्चित हुआ कि पद्मावती वर्तमान पवाया ही है । उत्खनन रिपोर्टों से इसे सिद्ध कर दिया। पद्मावती पुरवाल जाति का उद्गम स्थल यही स्थान है। इसकी पुष्टि डॉ. यशवंत मलैय्या, डा. कासलीवाल, डॉ. एस. एम. गर्दे की रिपोर्ट करती हैं।
विष्णु पुराण का यह श्लोक यहां समीचीन है
"नवनागाः पद्मावत्यां कांतिपुरिर्या मथुरायामनुगंगा प्रयागं मागधा गुप्ताश्म मौक्ष्यंति"
नागजाति का विस्तार इस श्लोक़ से पर्याप्त मिल जाता है।
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: एक विकसित समाज
प्रस्तुति :- पं. शिवधरनलाल जैन, मैनपुरी मानव एक सामाजिक प्राणी है। व्यक्तियों से समष्टि प्रभावित होती है तथा समाज से व्यक्ति का सुप्त स्वरूप निखरता है। इसका श्रेष्ठ चित्र हमें जैन जगत के पद्मावती पुरवाल समाज में पल्लवित होता हुआ दृष्टिगत होता है। पुराकाल से ही यह जाति अपने विकसित क्षेत्र के निर्माण में प्रयत्नशील रही है। - पद्मावतीपुरवाल जाति के सम्पूर्ण सदस्य दिगम्बर जैन परम्परा की विश्वासी है। इस विशाल समाज का मूल निवास आगरा मंडल एवं ब्रज क्षेत्र है। यह क्षेत्र आगरा, एटा, फिरोज़ाबाद एवं मैनपुरी जिलों में विस्तार को प्राप्त है। इसके प्रमुख केन्द्र इन जिलों के अतिरिक्त टूण्डला, एत्मादपुर, शिकोहाबाद, जसराना, पाढम, अवागढ, जलेसर, फरिहा, घिरोर आदि तक फैले हुए हैं। पूर्व में इस समस्त्र क्षेत्र में गांव-गांव में पद्मावती पुरवाल जाति के लोग अपनी धार्मिक आस्थाओं को एवं आयतनों को कायम रखते हुए देव शास्त्र गुरु की अनन्य भक्ति के साथ निवास करते थे। इन ग्रामों में कोसमा, चावली, जटौआ, जारखी, नारखी, उड़ेसर, पैंडथ, फफोतू आदि विख्यात हैं। वर्तमान में अनिवार्य प्रर्वजन के फलस्वरूप ये पद्मावती पुरवाल लोग दिल्ली, इन्दौर, मुंबई, अजमेर आदि स्थानों में सम्पूर्ण देश में बस गये हैं।
इस जाति में अनेकों संयमी, विद्वान, उदारमना श्रेष्ठी, सामाजिक कल्याणरत्न मनीषी, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लेखक, पत्रकार, अधिकारी
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एवं अन्य गुणों से युक्त वैभव के साथ आदर्श जीवन व्यतीत करते रहें हैं। पद्मावती पुरवाल क्षेत्र के निकटवर्ती स्थानों में बुढेलवाल, लबेंचू, खरौआ, अग्रवाल, पल्लीवाल, जैसवाल आदि जातियों से मधुर संबंध रखते हुए पद्मावती पुरवाल समाज सम्पूर्ण क्षेत्र को सुशोभित करने में महत्वपूर्ण योगदान कर रही हैं। पूर्व में तो इस जाति के लोग अपनी जाति में ही वैवाहिक संबंध स्थपित करते थे, किन्तु अब अन्य जातियों से भी वैवाहिक संबंध होने लगे हैं। पद्मावती पुरवालों में गोत्र व्यवस्था प्रायः भंग हो गयी है। आवश्यकता है कि भूले-बिसरे गोत्रों को स्मरण कर किसी भी प्रकार से पुनर्जीवित एवं स्थापित किया जाए।
लोकोत्तर साधना में अग्रसर एवं स्वपर कल्याण के उत्कृष्ट मानदंड आदर्श महापुरुषों में पद्मावती.पुरवाल जाति के अंतर्गत प.पू. 108 आ. श्री महावीरकीर्ति, आ. श्री सुधर्मसागर जी, आ. श्री विमलसागर जी, आ. श्री निर्मलसागर जी, आ. श्री सन्मतिसागर जी, फफोतू वाले, मुनि श्री अमितसागर जी के तीनों शिष्य मुनि श्री आदित्यसागर जी, मुनि श्री आस्तिक्यसागर जी, मुनि श्री अनुकम्पासागर जी महाराज आदि के नाम समाज द्वारा श्रद्धा के साथ लिये जाते हैं। यह समाज मनीषी विद्वानों की ही पर्याय के रूप में प्रसिद्ध है। पूर्व में पं. गजाधर लाल जी, पं. रामप्रसाद जी शास्त्री, पं. मनोहर लाल जी, पं. खबचन्द्र जी, पं. नरसिंगदास जी. पं. श्री लाल जी, विद्वत सम्राट पं. माणिक चन्द्र जी 'कौन्देय', वाद-शास्त्रार्थ विद्या के उच्च शिखर पं. मक्खन लाल जी, पं. हेमचन्द्र जी, पं. रामचन्द्र जी, पं. कुंजीलाल जी, जैन गजट के पूर्व यशस्वी सम्पादक पं. श्याम सुन्दर लाल जी आदि सैकड़ों की संख्या में उद्भट विद्वानों ने इस जाति के गौरव को वृद्धिंगत किया हैं पं. लालाराम जी शास्त्री जो कि पं. मक्खन लाल जी के भाई थे, ने 60 से अधिक ग्रन्थों की अपूर्व टीकायें लिख कर दिगम्बर जैन समाज पर महान उपकार किया है। ये दीर्घकाल तक मैनपुरी में निवास कर सरस्वती साधना में लीन रहे। आज भी मुझे उनका भावभीना स्मरण है। वे निरन्तर 8-8, 10-10 घण्टे बैठकर लेखन कार्य किया करते थे। अर्थाभाव को गले लगाकर स्वाभिमानी एवं सादगीपूर्ण जीवन के साथ हमारे परिवार के अग्रज डा. सतीश चन्द्र जी के घर से पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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मिले हुए मकान में निवास करते थे। पीली पगड़ी, झुकी हुयी कमर, लगभग 80-90 वर्ष की आयु में वरत रहे पंडित जी का तपस्वी व्यक्तित्व आज भी मेरी आंखों के सामने अत्यंत गौरवमय रूप में विद्यमान है। उपरोक्त सरस्वती पुत्रों के विषय में निम्न उक्ति सार्थक है
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'चरित्रवान मनस्वी फूलों के गुच्छे के समान है, फूल या तो देतवाओं के मस्तक पर चढ़ता है, या धूलधूसरित होने की स्थिति में खेद नहीं करता ।'
वर्तमान में समाज की उपेक्षा के कारण विद्वानों के समुदाय रूप वैभव के दर्शन अब नहीं हैं। इस जाति में अब उंगलियों पर गिनने लायक ही विद्वानों का सद्भाव है। अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्री परिषद् के यशस्वी अध्यक्ष, जैन गजट के प्रधान संपादक, पी. डी. जैन कालेज, फिरोजाबाद के पूर्व आचार्य श्री नरेन्द्र प्रकाश जी इस समाज के विद्वत् वर्ग का नेतृत्व कर रहे हैं। वे कुशल पत्रकार, सुलझे हुए धार्मिक एवं सामाजिक कार्यकर्ता, लेखनी के धनी, कुरीतियों एवं आगम विरोधी प्रवृत्तियों के विरुद्ध जुझारू, मनीषी, लोकमान्य नता, उत्कृष्ट शिक्षक, प्रशिक्षक, एकान्त निश्चयाभाषी के सफल निरसक और सबके प्रिय वाणी के जादूगर के रूप में विख्यात हैं । भारतवर्षीय दि. जैन महासभा के सचेतक इन सादे व्यक्तित्व के धनी महानुभाव के सम्मान हेतु महासभा के द्वारा अभिनन्द ग्रन्थ प्रकाशित करने की योजना साकार रूप लेने जा रही हैं उनके विषय में निम्न पंक्तियां उनके मनीषी एवं हितैषी स्वरूप के विषय में सार्थक हैं
'मनीषिणः सन्ति न ते हितैषिणः, हितैषिणः सन्ति न ते मनीषिणः । सुहृच्च विद्वानपि दुर्लभो नृणां यथौषधं स्वादु हितं च दुर्लभं ॥' (भर्तहरि )
- जो मनीषी हैं वे हितैषी नहीं हैं, जो हितैषी हैं वे मनीषी नहीं हैं। हितैषी मित्र जो हो और विद्वान भी हो, मनुष्यों में यह उसी प्रकार दुर्लभ है, जैसे औषधि स्वादिष्ट भी और हितकारी भी हो ।
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पद्मावती पुरवाल समाज मेरे अनुमान के अनुसार एक बहुसंख्यक समाजों में अपना स्थान रखती है। इसके नामकरण के विषय में पद्मावती देवी अथवा पद्मावतीपुर नाम के स्थान से बिठाना कठिन ही प्रतीत होता है। विदित ही है कि यह समाज अपने धार्मिक संस्कारों, पूर्व परम्परा के सादा जीवन उच्च विचार एवं लोक में मिलजुल कर रहने की प्रवृत्ति को यथावत कायम रखने का भगीरथ प्रयत्न करता रहा है। आम जैनेतर जनता की लौकिक एवं सामाजिक, धार्मिक मान्यताओं के प्रति सहिष्णुता का परिचय अपनी श्रद्धा और जैन धर्म की आचार संहिता को अक्षुण्ण बनाये रखते हुए देती रही है, और यह पद्धति पूर्वाचार्यों के निम्न संदेश की संवाहक ही है
'सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्व हानिर्न यत्र न व्रतदूषणं ॥'
( यशस्तिलकचम्पू, आ. सोमदेव)
- जैनियों को सभी लोक समुदाय (जैनेतर भी) की वह विधि, रीतिरिवाज, रहन सहन स्वीकार करने योग्य है, जिससे सम्यक्त्व की हानि न हो और व्रत चारित्र में दूषण न लगे ।
वर्तमान में भी राष्ट्रीय, सामाजिक एवं धार्मिक आचार्यों की सभी विधाओं में अपनी ईमानदारी, धर्मभीरुता, कुशलता आदि गुणों के साथ यह जाति समादर की दृष्टि से स्वीकार की जाती है ।
इस समाज के केन्द्र फिरोजाबाद क्षेत्र का एक प्राचीन गौरवशाली इतिहास है । फिरोजाबाद के अस्तित्व से पूर्व लगभग 700-800 वर्ष पहल निकटवर्ती चन्दवार (चन्द्रवाट ) नाम का विशाल राज्य था । इस राज्य को यमुना नदी अपने सुरम्य, शीतल वातावरण से समृद्ध करती रही हैं वहां के राजा जैन धर्म की प्रति श्रद्धालु थे । वैभवयुक्त विशाल राजधानी में विशाल जैन मन्दिर धर्म प्रभावना के केन्द्र थे । उसी नगर से मुनि पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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ब्रह्मगुलाल का विख्यात चरित्र जुड़ा हुआ है। एक बहुरूपिये, जिसने विवशता में सिंह के वेश को धारणकर राजकुमार को भी मारकर उस भेष के अभिनय से जनता को चमत्कृत कर दिया था और बाद में राजा की आज्ञानुसार उस शोकसन्तप्त को उपदेश देने के लिये दिगम्बर जैन मुनि के गौरवमय पूज्य वेष को धारण किया और उस वेष की मर्यादा स्वरूप यर्थात मुनि चर्या अंगीकार कर ली। समस्त राज्य में जैन धर्म की प्रभावना हुई। भारत राष्ट्र के दुर्भाग्य के अनुसार ही मुस्लिम धर्मान्ध आक्रान्ताओं द्वारा चन्दवार को तहस नहस कर दिया गया। उसके विशिष्ट जिनालय में विराजमान विशाल स्फटिक मणि की प्रतिमाओं की अविनय की आशंका से भयभीत श्रावकों ने उन प्रतिमाओं को यमुना में प्रतिस्थापित कर दिया। पश्चात् दीर्घ काल में मल्लाहों को प्राप्त भगवान चन्द्रप्रभु आदि की वे प्रतिमायें प्रयत्नपूर्वक लाकर फिरोजाबाद मंदिर जी में विराजमान की गयी और भगवान चन्द्रप्रभु मंदिर के नाम से यह अतिशय क्षेत्र आज भी भव्य धार्मिक स्मारक के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है। कांच के सामान व चूड़ियों के उद्योग से विख्यात सुहागनगर फिरोजाबाद में ही पल्लीवाल जाति के गौरव श्री छदामी लाल जी जैन द्वारा निर्मित 43 उत्तुंग भगवान बाहुबली की खड्गासन भव्य प्रतिमा से युक्त मूल नायक भगवान महावीर का जैन नगर का विशाल जिनालय भी फिरोजाबाद की प्रसिद्धि में चार चांद लगा रहा है।
यद्यपि मैं बुढेलवाल जाति का अंग हूं फिर भी अन्य जातियों में प्रमुख रूप से पद्मावती पुरवाल जाति से मेरा निकट संबंध रहा है। संक्षिप्त आलेख में इस जाति का गौरवमय स्वरूप वर्णित नहीं किया जा सका है। शुभ कामना है कि यह समाज धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक सभी क्षेत्रों में यादच्चन्द्रदिवाकरौ उत्तरोत्तर विकास करे। इत्यलम्।
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पद्मावतीपुरवाल जाति का इतिहास
प्रस्तुति :-लाल बहादुरसिंह, संग्रहाध्यक्ष,
पुरातत्व संग्रहालय, गूजरी महल, ग्वालियर पुरातत्व-शास्त्रियों के अथक और सतर्क प्रयास से कण-कण एकत्रित की हुई सामग्री पर इतिहास के भवन की भित्तियों का निर्माण होता है। किसी भी जाति के इतिहास को जानने के लिए स्थान विशेष का अधिक महत्व होता है। हमारी सभ्यता-संस्कृति नदियों के किनारे ही बसी, पनपी और विकसित हुई। प्राचीन मुद्राएं, अभिलेख, स्थापत्य' आदि के भग्नावशेष वे सामग्रियां हैं जिनके सहारे इतिहास का वह ढांचा तैयार होता है, जिसको दृढ़ आधार मान एवं पुराण, काल, अनुश्रुति आदि का सहारा लेकर इतिहासकार अत्यन्त धुंधले अतीत के भी सजीव एवं विश्वसनीय चित्र प्रस्तुत करता है। ऐसे ही धुंधले अतीत पद्मावती पुरवाल जाति के बारे में है। ये जैन जाति का नया उद्गम स्थल पद्मावती से है जिनके इतिहास का पन्ना पलटना आवश्यक है।
पवाया, जिसे पद्म-पवाया अथवा 'पदम-पवा' कहा जाता है, मध्य रेलवे के डबरा स्टेशन से साढ़े तेरह मील दूर स्थित है। डबरा ग्वालियर से 45 कि.मी. की दूरी पर है। डबरा से एक सडक भितरवार के लिए जाती है। उसी सांखनी ग्राम से होती हुई धूमेश्वर मंदिर के पास ही पद्मावती नगरी बसी थी। पद्मावती के संबंध में प्राचीनतम उल्लेख 'विष्णुपुराण' में मिलता है, यथा 'नवनागास्तु भोक्ष्यंति पुरी पद्मावती नृपाः मथुरांच पुरी रम्यां नागा भोक्ष्यति सप्तवै।' पद्यावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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विष्णु पुराण में जिन तीन नामों का उल्लेख किया गया है यथा- पद्मावती, कान्तिपुरी और मथुरा, उनके विषय में श्री कानिंघम द्वारा किया गया संकेत विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उन्होंने पद्मावती को वर्तमान नरवर के रूप में पहचाना जो कि मथुरा से 150 मील की दूरी पर स्थित है। (देखें कनिंघम की सर्वेक्षण रिपोर्ट खंड-2 पृष्ठ 303 ) । पद्मावती पर परमार वंश के राजाओं का राज्य रहा था । धुन्दपाल उस वंश का एक शक्तिशाली राजा था, जिसने किले का निर्माण कराया था । पद्मावती दो नदियों से आवेष्ठित थी - एक सिन्धु और दूसरी पारा ।
पद्मावती गुप्तकाल से पूर्व एक समृद्धिशाली नगर था। वैसी तो पद्मावती के खण्डहरों में उस नागवंशीय राजधानी के ध्वंसावशेषों को पहचाना जा सकता है और इस बात का परिचय भी मिल ही जाएगा कि ये अवशेष आगे चलकर गुप्तों से भी प्रभावित हुए ।
पद्मावती का तत्कालीन समाज कला-प्रिय रहा होगा, इसमें कोई संदेह नहीं । किन्तु इसके साथ-साथ पद्मावती एक वैभवशाली और धन-धान्य सम्पन्न नगर था, इस बात को सिद्ध करने के लिए भी पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं। इसके साथ ही देशी और विदेशी व्यापार के प्रमुख मार्ग पर स्थित होने के कारण यह नगर संस्कृति का एक केन्द्र बन गया था। इसी सांस्कृतिक वैभवशाली नगरी से जैन जाति की श्रेणी में पद्मावती पुरवाल जाति का उद्भव हुआ है, ऐसी मेरी मान्यता है। कुषाण शासन काल में हमें अधिकांशतः बौद्ध और जैन धर्मों के स्मृति चिह्न मिलते हैं। पवाया से प्राप्त मणिभद्र यक्ष की प्रतिमा इस बात का प्रमाण है कि यहां जैन धर्म के अनुरागी सार्थवाह विशेष उत्सव पर मूर्ति के आस-पास नृत्य-संगीत से मनोरंजन किया करते थे । जैन ग्रन्थों में महावीर की यात्रा के संदर्भ में उनके किसी जैन मंदिर में जाने या जिन मूर्ति के पूजन करने का अनुल्लेख है। इसके विपरीत यक्ष- आयतनों एवं यक्ष-चैत्यों (पूर्णभद्र और मणिभ्रद ) में उनके विश्राम करने के उल्लेख प्राप्त होते हैं, (शाह यू.पी. 'बिगनिंग्स
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आफ जैन आइक्नोग्राफी, सं. पु. प. अं. 9 पृष्ठ 2 ) । इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि मणिभद्र प्रतिमा जो पद्मावती से प्राप्त हुई है, कहीं महावीर इन्हीं यक्ष चैत्यों में विश्राम न किए हों। यह खोज का विषय है । मणिभद्र यक्ष की चरण चौकी में कुल छः पंक्तियों में लेख है । यह लेख प्रथम शती ईस्वी का है। प्रतिमा की स्थापना दानदाताओं द्वारा की गई है।
एक जन-समुदाय के द्वारा यक्ष की प्रतिमा के स्थापना से सिद्ध होता है कि तत्कालीन जैन समाज में जन सहयोग की भावना सुदृढ़ थी । हो सकता है पद्मावती पुरवाल समाज के कुछ लोग इस प्रतिमा को धन-धान्य देवता के रूप में पूजा करते थे । मणिभद्र यक्ष की मूर्ति और मथुरा की कुबेर यक्ष की मूर्तियों में अद्भुत समानता है । उस काल में कुबेर की उपासना तो इतनी लोकप्रिय हो चुकी थी कि हिन्दुओं के अतिरिक्त जैन और बौद्ध धर्मवाबलम्बी भी पूजने लगे थे। मणिभद्र के हाथ कुबेर जैसी थैली है।
पवाया में प्राप्त स्त्रियों और पुरुषों के केशों को संवारने की विधि affes घुंघराले बाल जैसे ही जिस प्रकार तीर्थकरों के बाल होते हैं, इस कलात्मक केश को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि यह उसी धर्म-जाति के लोग हैं जो इससे परिचित होंगे। कहीं पुरवाल जाति तो इस प्रकार के केश बनाने वाले तो नहीं थे। यह एक नई तथ्यात्मक टिप्पणी है, जिसे खोजना आवश्यक है ।
पद्मावती से प्राप्त मणिभद्र यक्ष प्रतिमा सार्थवाहों के आराध्य यक्ष थे पद्मावती से प्राप्त मणिभद्र यक्ष की चरण चौकी पर अंकित लेख में इस बात का उल्लेख किया गया है कि शिवनंदी के समय में नगर के जैन समुदाय ने मिलकर इस यक्ष की स्थापना की थी। पद्मावती अन्तर्राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित थी । सार्थवाह को कहीं-कहीं जैन समुदाय के अन्तर्गत पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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माना है। यह एक विशाल तीर्थ स्थान रहा होगा, जो सार्थवाह उत्तर भारत से दक्षिण भारत में यात्रा करते थे तथा जो दक्षिण से उत्तर में जाया करते थे वे मणिभद्र यक्ष की मान्यता में विश्वास करके इसको पूजते होंगे। __ पद्मावती में एक प्रतिमा के ऊपर पांच सर्पफन से आच्छादित मृण्मयी मूर्ति भी प्राप्त हुई है जिसे कुछ विद्वान नाग देवता कहते हैं और जैन धर्म के पार्श्वनाथ से भी जोड़ते हैं। यह एक खोज का विषय है। पद्मावती पुरवाल जाति का इतिहास पद्मावती स्थान से जुड़ा हुआ है तथा मणिभद्र यक्ष एवं जैन मूर्ति मिलना तथा सार्थवाह का धन धान्य में विश्वास रखना तथा जो दानदाताओं की श्रेणी में सबसे आगे भी थे इसके अतिरिक्त यहां की मृण्यमयी प्रतिमाओं के धुंघराले केश विन्यास, यह सब एक जाति विशेष की कला की सोची समझी इतिहास की कड़ी है। इससे हम कह सकते हैं कि पद्मावती पुरवाल जैन जाति का उद्भव पद्मावती से हुआ होगा।
सच्ची विनय सामान्यतया महापुरुषों के सामने झुकने को विनय माना जाता है किन्तु सच्ची विनय तो महापुरुषों की आज्ञा का पालन करना है। कोई बेटा अपने पिता के चरण-युगल तो रोज दाबे, उनका यथोचित सत्कार भी करे, किन्तु उन्हें वक्त पर न तो भोजन दे और न ही उनकी सीख ही माने तो उसे सपूत नहीं कहा जा सकता। तीर्थंकरों द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर चलना ही सच्ची विनय है।
-आधुनिक राजस्थान, अजमेर : 26-8-90
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- श्री महेन्द्रकुमार जैन, बी. ए. आगरा
किसी भी जाति का इतिहास लिखना स्वयं में एक कठिन कार्य है। ऐतिहासिक ठोस प्रमाणों के अभाव में एवं निरन्तर ध्वस्त हो रहे सामाजिक मूल्यों के परिवर्तनों से किसी अकाट्य निष्कर्ष पर पहुंचना स्वयं में एक कठिन कार्य है । आज का मानव हजारों जातियों में बंटा हुआ है। स्वयं भारत में ही 3000 जातियां निवास करती हैं। जैन संसार भी अपने 84 खेमों में बंटा हुआ है। इसमें कौनसी जाति अविच्छिन्न रूप से जैनधर्मावलम्बी है, यह कहना भी कठिन है । वास्तविक बात तो यह है कि धार्मिक मान्यताओं के कारण जातियों का क्रमबद्ध इतिहास लिखना या उनके जन्म का समय खोजना गोलाई में चक्कर लगाना है। किसी भी जाति की उत्पत्ति, विकास, जीवनकाल, मान्यताओं, प्रथाओं एवं सामाजिक संरचना की जटलताओं में उलझकर एक सर्वमान्य मत स्थापित करना असाधारण श्रमसाध्य कार्य हैं । हमें निश्चय ही किसी भी जाति का प्राचीन साहित्य एवं विकास क्रम को टटोलना होगा । किंवदन्तियों के सहारे तथ्यों का एकीकरण करना होगा। साथ ही अन्य जातियों के इतिहास, विद्वानों की राय एवं प्राचीन श्रुतज्ञान के सहारे सम्भवतः किसी तथ्य को निकालने में सरलता होगी।
पद्मावती पुरवाल जैन जाति समस्त जैन विश्व में अपनी कुछ विशेषताओं को समेटे हुए है। कहा जाता है कि यह वर्तमान की चौरसी जातियों में पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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सम्मिलित नहीं हैं। कहा कुछ भी जाय, किन्तु निरपेक्ष समाज शास्त्रीय दृष्टिकोण से यह कथन असत्य भी प्रतीत नहीं होता । विद्वानों का कहना है कि जातियों के स्वतन्त्र अस्तित्व के लिए सदस्यों का आधार जन्म, निश्चित व्यवसाय, सामाजिक स्थिति, अन्तः समूह विवाद की मान्यता, सामाजिक 'अहं' की श्रेष्ठता की दृढ़ता एवं धार्मिक निर्योग्यताओं में आस्था रखना होता है। यदि हम अपनी अध्ययन पद्धति का यही आधार मान लें तो पद्मावती पुरवाल एक स्वतन्त्र जाति प्रतीत होती है। इस जाति में सदस्यों का आधार जन्म होता है। जाति माँ की ओर से चलती है ।
पद्मावती पुरवाल जाति मुख्य रूप से वणिक् वृत्ति अपनाए हुए है। बदलती पस्थितियों ने यद्यपि इसमें आज अपवाद खड़े कर दिए हैं, फिर भी बहुसंख्यक लोग आज भी मुख्य रूप से वणिक् वृत्ति ही अपनाए हुए हैं ।
इस जाति की सामाजिक स्थिति भिन्न है। पूरी जाति दस्सा और बीसा इन दो भागों में बंटी हुई हैं। एक दूसरे के चौके और कन्याओं को लेने में प्रतिबन्ध है । वैवाहिक कार्य पृथक् पण्डितों (पांडो) के द्वारा सम्पन्न होते हैं। इतना होने पर भी मूल रूप से आचार विचार एक है।
विवाह केवल स्वजाति में ही किया जाता है (यद्यपि आज शिक्षा के प्रसार और भौतिकवाद ने इस बन्धन को शिथिल कर दिया है, फिर भी पर समूह से विवाह करना अच्छा नहीं माना जाता था ) यदि यदा-कदा इस बन्धन को कोई तोड़ता है, तो पंचायती व्यवस्था के अनुसार जाति बहिष्कार तक का दण्ड दिया जाता है। लोग स्वयं में श्रेष्ठता का भाव रखते हैं। इस 'अहं' को तोड़ने में हिचकिचाहट होती है ।
पद्मावती पुरवाल जाति का एक भी सदस्य अन्य मत को नहीं पालता । यह अविच्छिन्न रूप से शुद्ध दिगम्बर आम्नाय को मानती चली आ रही है। इसे तनिक भी धर्म का लचीलापन स्वीकार नहीं। इस जाति ने जैन धर्म
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के प्रकाण्ड विद्वानों, तार्किकों एवं पण्डितों को जन्म दिया है। इस विवेचन से इसे पृथक् अस्तित्व में कोई सन्देह नहीं रह जाता। __पाश्चात्य विद्वानों जातियों की उत्पत्ति का मुख्य कारण 'धर्म' को माना है। प्रसिद्ध विद्वान होकार्ट के अनुसार धार्मिक क्रियाओं के आधार पर जातियों के रूप में समाज का विभाजन हुआ। क्रियाओं की शुद्धता का आधार जातियों की श्रेष्ठता का मापक बना और कालान्तर में इन्हीं जातियों की अगणित उपजातियों ने अपने 'टोटम', अलौकिक महामानव की कल्पना एवं उत्पत्ति का कोई न कोई कारण निश्चय कर लिया। वे ही लोग सम्मान पाने के अधिकारी माने गए, जो दूसरों से अधिक धार्मिक क्रियाओं को करते हैं। भारत में 'ब्राह्मणों की उत्पत्ति ऐसे ही हुई।
हिन्दू धर्म के अनुसार जातियों का जन्म देवताओं द्वारा हुआ। महाभारत काल में भृगु ने जातियों की उत्पत्ति वर्ण (रंग) के कारण बताई। किन्तु गीता में गुण तथा कर्म के अनुसार ही वर्णों (जातियों) की उत्पत्ति मानी गई।
जैन सिद्धान्तानुसार भी जातियों का निर्माण गुण और कर्म के अनुसार हुआ। चौदहवें कुलकर (कुल-की रीतियों के आविष्कारक) और हिन्दुओं के आठवें मनु (जातियों के नियमादि को बताने वाले) राजा नाभि के पुत्र जैनियों के प्रथम तीर्थंकर और वेदों के देवता ऋषभदेव के समय तक इस भूमि पर मानव अपनी प्राकृतिक अवस्था में रहता था। धीरे-धीरे जनसंख्या के बढ़ने, नवीन-नवीन आवश्यकताओं के उपस्थित होने एवं अज्ञानी मानव के जीवन यापन एवं व्यवस्था बनाए रखने के लिए सर्वप्रथम षट् कर्म (असि, मसि, कृषि आदि) का ज्ञान दिया। सर्वप्रथम ईख और उनके प्रयोग का ज्ञान देने वाले ऋषभदेव का वंश 'इक्ष्वाकु कहलाया (इक्षु इति शब्द अकतीति अथवा इक्षुणा करोतीति इक्ष्वाकुः) जब 'इक्ष्वाकु वंश प्रसिद्ध हो गया तो उन्होंने नाथवंश, सोमवंश तथा कुरुवंश की और
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स्थापना की। ये वंश क्षत्रिए जाति के कहलाए। संहनन (शारीरिक गठन एवं क्षमता) गुण कर्म के आधार पर वैश्य तथा प्रजावर्ग जातियों का निर्माण हुआ । इस प्रकार क्षत्रिय जाति संसार की आध जाति ठहरती है।
ऋषभ के दो पुत्र भरत और बाहुबली के द्वारा इक्ष्वाकु के दो वंश कालान्तर में और किए गए ( बनाए गए जिन्हें क्रमशः सूर्य और चन्द्र वंश के नाम से पुकारा जाता है। उपरोक्त सोमवंश में सोम-श्रेयांस बन्धु बड़े प्रतापी राजा हुए। इन्हीं के पुत्र जयकुमार भारत की सेना के सेनापति और ऋषभदेव के 72वें गणधर हुए। सेनापति जयकुमार ने ही 'स्वयंवर' की प्रथा चलाई, जो मध्ययुग तक क्षत्रियों में बहु प्रशंसित प्रथा रही। इसी स्वयंवर प्रथा के अनुसार जय कुमार ने सुलोचना से विवाह किया। कहा जाता है कि पद्मावती पुरवाल इन्हीं जयकुमार के वंशज हैं, जिनका मूल निवास हस्तिनापुर था।
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इस अध्ययन के आधार पर इस तथ्यपर निष्कर्ष रूप में विचार बन सकता है, कि आज की पद्मावती पुरवाल जाति मूलतः क्षत्रिय सोमवंशीय जाति ही है और ऋषभकाल से ही जैनधर्मावलम्बी है । क्षत्रिय होने के प्रमाण के लिए हमें दोनों जातियों की प्रचलित प्रथाओं का अध्ययन करना पड़ेगा। इन प्रथाओं का आश्रय लेना इसलिए आवश्यक हो जाता है, कि निर्धारित नियम आज मात्र सिद्धान्त ही रह गए हैं; शिथिलाचार ने उन सिद्धान्तों के खण्डहरों पर कुठारघात करना कभी किसी काल में कम नहीं किया। वर्तमान काल में हम क्षत्रियों और पद्मावती पुरवाल जैन जाति में समाज प्रथाओं की ओर संकेत करना चाहेंगे, ताकि यह अनुमान लगाना है कि पद्मावती पुरवाल मूलतः क्षत्रिय हैं, कोरी कल्पना न रह जाये।
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'जुहरु' शब्द दोनों जातियों में सम्मान सूचक है। बड़ों के लिए आज तक दोनों जातियों में यह शब्द प्रयुक्त होता है। पंडितों और जैनियों में पांडों (जो पंडितों का पर्याय है) का
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गृहस्थाचार्य के रूप में मान्यता है। यह प्रसिद्ध है कि पांडे मूलतः
ब्राह्मण हैं। - दान और स्वाभिमान प्रवृत्ति दोनों जातियों में महत्त्व रखती है। -- दोनों जातियों ने गांवों को ही अधिक पसन्द किया। क्षत्रिय और पद्मावती पुरवाल अधिकांश में गांवों में ही रहते थे। सुरक्षा और
व्यवसाय की दृष्टि से यह बात उतनी नहीं रही। - अनेक रूढ़ियां दोनों जातियों में समान है। - वैवाहिक कार्य अन्तः समूह में ही होते हैं। जैसे सप्तपदी अग्नि के
चारों ओर सम्पन्न करना। पंडितों से ही विवाह पढ़वाना। आज लगभग पचास वर्षों पहले तक दोनों में बाल विवाह का प्रचलन होना आदि। दूल्हे का पहनाव 'जामा' (एक प्राचीन क्षत्रिय वीर पोशाक) दोनों जातियों में समान दिखाई देता था। फेंटा कटारी का बांधना, बारात का कन्या पक्ष के घर पर पहुंचने की विधि को 'चढ़ाई करना' कहना, तीर चलाना आदि ऐसी सांकेतिक सहक्रियाएं हैं, जो यह बताती हैं कि पद्मावती पुरवाल जैन जाति अन्य जैन जातियों से भिन्न तथा क्षत्रियों के अति निकट है। तो यह कहना पद्मावती सोमवंशीय क्षत्रिय पुत्र है, कोई असत्य प्रतीत नहीं
मालूम पड़ता। चूंकि सोमवंशीय जयकुमार का निवास हस्तिनापुर था। असके वंशज धीरे-धीरे संख्या की दृष्टि से तथा कुछ अज्ञात कारण भी रहे होंगे, से वे लोग पद्मनगर में आकर बस गए। यह भी अनुमान लगाया जाता है कि कालान्तर में इस पदनगर का नाम बिगड़कर पद्मावतीपुर हो गया और यहां के रहने वालों को बाहर 'पद्मावतीपुरवाले' के नाम से जाना जाने लगा। यही 'पद्मावती पुर वाले बिगड़कर 'पद्मावती पुरवाल शब्द रह गया पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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और क्षत्रियों की एक शाखा प्रथक जाति 'पद्मावतीपुरवाल' के रूप में पहचानी जाने लगी।
अब पद्मनगर या पद्मावतीपुर भी दृष्टि डालना समीचीन होगा। क्या पद्मनगर का कोई भौगोलिक प्रमाण है? यह खोज का विषय है। हां, जो कुछ सामग्री उपलब्ध है, उससे यह विचार पक्का होता है कि पद्मावतीपुर या पद्मनगर.था। ‘सरसवती कंगभरण' नामक ग्रन्थ में जो ग्यारहवीं शताब्दी का है, पद्मनगर का वर्ण आया है। पौराणिक काल में यह पद्ममनगर अपने वैभव एवं विशालता के कारण बहुत प्रसिद्ध था।' उस काल में पद्मावती नाम का एक जनपद भी था, जिसका प्रधान केन्द्र 'पद्मनगर' था। इस सम्बन्ध में कोई उल्लेखनीय खोज तो हुई नही, मात्र अनुमान लगाया जाता है कि जनपद में आधुनिक ग्वालियर, मुरैना तथा शिवपुरी सम्भाग का कुछ भाग सम्मिलित था। इस जनपद में 'नागवंशीय' राजाओं का शासन था, जिनके शासनकाल के अनेक सिक्के यत्रतत्र मिले हैं। यह नागवंशीय शासन मथुरा तक फैला हुआ था। मुरैना के एक स्थान से लगभग 18 हजार मुद्राएं एवं झांसी डिविजन से भी हजारों मुद्राएं, जो चांदी एवं स्वर्ण की है; नागवंशीय शासकों के शासन काल की प्राप्त हुई हैं। नव नागों (नए नागों) तथा ज्येष्ठ नागों इन दो प्रकार के नागों का संकेत इन सिक्कों में मिलता है। उन दिनों मथुरा, पद्मावती तथा विदिशा व्यापारिक मार्ग पर विशालतम नगर थे, जो दूर-दूर तक अपने व्यापार के लिए प्रसिद्ध थे।
खजुराहो के वि. सं. 1052 के एक शिलालेख में भी पद्मावती (पद्मनगर) नगर का वर्णन मिलता है। उस शिलालेख से यह स्पष्ट होता है कि उन दिनों पद्मावती नगर ऊंचे-ऊंचे शिखरों, चौड़े, राजमार्गों एवं स्वच्छ श्वेत भित्ति वाले गगनचुम्बी भवनों से सुशोभित था।
साहित्य में पद्मावती पुरवाल जैन जाति की उत्पत्ति से सम्बन्ध में कुछ 403
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प्रकाश 'ब्रह्ममुलालचरित्र' (17वीं शताब्दी) में मिलता है। उसके अनुसार इस जाति का वंश सोमवंश और सिंह तथा धार ये दो गोत्र थे। इन्होंने क्षत्रिय वृत्ति का परित्यागकर वणिक्वृत्ति अपनाई और धनधान्य से पूर्ण हो गए। पद्मावती पुरवाल बन्धु धार्मिक भावनाओं में श्रेष्ठ आचरण वाले थे। हम देखते हैं कि तीन सौ वर्ष पहले कही हुई बात आज भी सही चरितार्थ हो रही है।
अब हम उन किंवदन्तियों को लेते है जो इस जाति की उत्पत्ति का दावा करती है। पहली-पद्मावती नगर जो अपने ऐश्वर्य और धनधान्य के कारण बहु प्रशंसित थी, एक तपस्वी के कोप का शिकार बनी । तपस्वी ने अपनी विद्या तथा प्रभाव से नगरवासियों को नाना प्रकार से सताना आरम्भ किया। अन्त में तंग होकर उस नगर के 1400 परिवार निकलकर अन्यत्र चले गये। वे तीन शाखाओं में बंटे-एक शाखा दक्षिण को, दूसरी मध्य भारत को और तीसरी उत्तरी भारत में आकर बस गई। ये लोग चूंकि 'पद्मनगरी' के थे, इस कारण 'पद्मावती पुरवाल' कहलाए।
दूसरी किंवदन्ती इस प्रकार है-'पद्मावती नगर' के राज्य मन्त्री के एक सुन्दर कन्या का जन्म हुआ। वह कन्या इतनी अधिक सुन्दर थी, कि राजा उस पर मोहित हो गया। उसने उस कन्या से विवाह करना चाहा, किन्तु आयु, जाति एवं धार्मिक अन्तर के कारण मन्त्री कन्या को नहीं देना चाहता था। मध्ययुगीन शासक की आसक्ति कन्या पर दिनों-दिन बढ़ती गई। अन्त में मंत्री के समक्ष राजा का प्रस्ताव आया। उन दिनों पद्मावती पुरवाल समाज में जातिय पंचायत का प्रचलन था। (आधुनिक काल के समान)। मंत्री ने वह प्रस्ताव पंचायत के समक्ष रक्खा । पंचायत ने प्रस्ताव का विरोध किया। फलतः शासक से मंत्री ने कन्या न देने के निर्णय-की बात कही। राजा यह सुनकर बल प्रयोग पर उतारू हो गया। उसने युद्ध अथवा विवाह या राज्य से चले जाने की घोषणा की। जातीय पंचायत ने राज्य त्याग कर चला जाना ही उचित समझ, किन्तु उन्मादी शासक ने पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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सेना भेजकर कन्या छीननी चाही। इस पर सभी निष्कासित बन्धुओं ने सेना का मुकाबला किया और विजय प्राप्त की। 'पद्मावती', जो कन्या का नाम था, युद्ध की अकारण हिंसा से घबरा गई और स्वयं आत्म-दाह कर लिया। पराजित शासक ने जब कन्या के आत्महाद की बात सुनी तो उसे बड़ा दुख और लज्जा का अनुभव हुआ। उसने सभी से लौटने का अनुरोध किया, किन्तु पुनः लौट जाना, अत्याचारी शासन में रहना लोगों ने स्वीकार नहीं किया।
इन्हीं निष्कासित लोगों ने कन्या के नाम पर 'पद्मावती नगरी' बसाई और सवयं को पद्मावती पुरवाल कहने लगे, उन्होंने अपनी सामिजिक व्यवस्था का नवीनीकरण किया। अपने प्रधान को सिरमौर कहने लगे और पण्डित को पाण्डे, जो पुरोहतका भी कार्य करता था और प्रबन्धक को सिंघई शब्द से सम्बोधित किया। यह व्यवस्था आज भी दिखाई देती है। इस प्रकार 'पद्मावती पुरवाल' जाति का उद्भव हुआ।
तीसरी किंदवन्ती एक पौराणिक कथा से संबंध रखती है। कहा जाता है कि भगवान पार्श्वनाथ पर जब घोर उपसर्ग हुआ तो पाताल लोक के पद्मावती धरणेन्द्र का आसन कम्पायमान हुआ। वह उपसर्ग दूर करने के उद्देश्य से धरणेन्द्र अपने दो रूप में उपस्थित हुआ-आसन बनकर तथा छत्र बनकर। इसी समय भगवान् को केवलज्ञान की उत्पत्ति हुई। लोगों ने सर्प के रूप में रक्षा करते हुए धरणेन्द्र को देखा तो वे गद्गद हो गए। लोगों ने बाद में उसी स्थान को अहिच्छत्र नाम से प्रसिद्ध किया। आज भी बरेली के निकटस्थ इस क्षेत्र की पद्मावती पुरवालों में बड़ी महत्ता है। उस उपसर्ग के स्थान पर एक 'पद्मावती' नाम का नगर बसाया गया तथा एक विशाल किला, जिसका क्षेत्रफल लगभग 12 मील (?) का होगा, निर्माण किया। समय के झञ्झावात ने इस गौरवशाली नगरी का आज हर प्रकार का चिन्ह मिटा डाला है, किन्तु पद्यावती पुरवाल समाज में आज भी इसका पूज्य स्थान बना हुआ है। इस 'पद्मावती नमर' के भक्तों ने स्वयं को 405
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पद्मावती पुरवाल घोषित किया।
एक और किंवदन्ती के अनुसार 'पद्मावती पुरवाल बाहुबली के शासन क्षेत्र-पोदनपुर के निवासी थे। कालान्तर में पोदनपुर 'पद्मावती' हो गया और यहां के निवासी चन्द्रवंशीय क्षत्रिय 'पद्मावती पुरवाल हो गए।
इस प्रकार अबतक के विवरण के सारांश में हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं
- 'पद्मावती नगर' के वासी ही पद्मावती पुरवाल हैं। - पद्मावती पुरवाल रक्त से क्षत्रिय और आचार से दिगम्बर जैन
इनकी सामाजिक व्यवस्था, सिरमौर तथा पाण्डे के महत्व तथा कार्यों से व्यवस्थित है। फलतः अन्य जैन जातियों से भिन्न हैं। इस जाति ने कभी भी अपना अलग टोटम या अलौकिक पुरुष जनक नहीं माना। इससे सिद्ध होता है कि यह मूलतः कोई अन्य
जाति (क्षत्रिय) ही हो सकती हैं हमारे विचार में कारण कुछ भी रहे हों। या मान्यताएं कुछ भी हों, एक कारण निश्चित प्रतीत होता है। वह यह कि पद्मावती पुरवाल किसी ऐतिहासिक नगर या जनपद, जिसका नाम 'पद्मनगर' अथवा 'पद्मावतीपुर' रहा हो; के निवासी थे। ये सभी लोग क्षत्रिय थे क्योंकि रक्त, आचार-विचार एवं दृढ़ आस्था वाले होने के नाते और संहनन की दृष्टि से क्षत्रिए ही प्रतीत होते हैं। इनका धर्म दिगम्बर जैन है। अतः ‘पद्याक्तीपुर' वाले (जो कालान्तर में विभिन्न स्थानों में फैल गए) 'पद्मावती पुरवाल पुकारे जाने लगे, जो आज एक पृथक जाति के रूप में प्रसिद्ध है।
पद्मावतीपुरवाल जाति की मान्यताएं भेद-पद्मावती पुरवाल जाति दो भागों में बंटी हुई है-दस्सा और पावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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बीसा। दो दशक पहले तक धार्मिक मंच पर दोनों एक थे, किन्तु सामाजिक मंच पर अलग-अलग थे। रोटी बेटी के सम्बन्ध प्रायः नहीं थे। आज इस बन्धन में कुछ शिथिलता आ गयी है। 'धर्म-सम्पूर्ण जाति अविच्छिन्न रूप से शुद्ध दिगम्बर जैन आम्नाय को मानती है। एक भी सदस्य दूसरे धर्म को मानने वाला नहीं है।
सामाजिक स्थिति-सदस्यता का आधार जन्म होता है। पितृ प्रधान परिवार पाए जाते हैं। संयुक्त परिवार में अधिक विश्वास होता है। दयाभाग में पुत्री को सम्मिलित नहीं करते। स्त्रियों की दशा सामान्य है तथा स्त्रियां स्वयं को पराश्रित समझती हैं। दैनिक पूजा पाठ, चौके की शुद्धता एवं खानपान की त्याग में भावना विशेष रहती है। लोग अधिकांश में देव दर्शन के बाद ही दिन में खाने का कार्य सम्पन्न करते हैं। यह जाति पूर्णतः शाकाहारी है।
विवाह-इस जाति के लोग अन्तः समूह विवाह पद्धति में विश्वास करते हैं। एक बार किए हुए अंतर्जातीय विवाह से उत्पन्न सन्तान पुनः पद्मावती पुरवाल जाति में सम्मिलित नहीं हो सकती। जाति मां से चलती
विवाह निम्नलिखित सोपानों में सम्पन्न होता है
वर की खोज-यह विवाह की प्रस्तुति है। वर कन्या से 4 वर्ष बड़ा होना अच्छा समझा जाता है। कन्या और वर में बारह वर्ष से अधिक अन्त निम्न स्तर का माना जाता है।
वाग्दान-वर के पिता के द्वारा दिया गया शादी का वचन वाग्दान कहा जाता हैं वंश, गोत्र, परिवार में पाया जानेवाला दोष अथवा वर का कोढ़ी, पागल, अपराधी अथवा कन्या के दुराचारिणी पाए जाने पर यह वचन भंग किया जा सकता है।
गोद भेरना-गोद एक स्नेह युक्त आत्मीयता प्रकट करने की रस्म थी 407
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जो मध्ययुगीन देन है। इसमें अधिकतम भेंट इक्कीस रुपए की निर्धारित थी, जो आज सुरसा का मुंह बनी हुई है। इस जाति का विकृत रूप जिन्न कारणों से हुआ है, उनमें गोद की रस्म सर्वोपरि है। इसी गोद ने दहेज.को जन्म देकर आज पद्मावती पुरवाल जाति के अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगा दिया है।
इसके पश्चात् छोटे-छोटे सोपान पूर्ण किए जाते हैं। इन सबके लिए नाई, नौकर, पाण्डे, मन्दिर, माली की भेंटें एवं वर पक्ष के घरवालों की भेंटों के लिए दक्षिणा निर्धारित है। 17, 35, 51 रुपयों की सीमाएं हैं।
नाम उतरवाना-वर के वंश के पूरे नाम कन्या पक्ष के द्वारा मांगने का रिवाज है। सम्भवतः इसका यह कारण प्रतीत होता है कि वर पक्ष की पारिवारिक दशा कैसी है, इसका ज्ञान कन्या पक्ष को हो जाता है।
पीतपत्रिका-लगन से पहले पीली चिट्ठी विवाह की प्रीिम सूचना के रूप में भेजी जाती है।
लग्न भेजना-लग्न में जातीय पंचों के समक्ष चार आने, दो आने, आठ आने या फिर एक रुपया विवाह का स्तर निर्धारित करने के उद्देश्य से कन्या पक्ष वर पक्ष के यहां भेजता है। यहीं से समस्त कार्य आरम्भ हो जाते हैं।
बरात का जाना-दूल्हा मन्दिर में गाजे-बाजे के साथ दर्शन करने के बाद पाणिग्रहण तिथि से एक दिन पूर्व कन्या पक्ष के यहां जाता था। प्राचीन काल में वरपक्ष स्वयं बरातियों को कच्चा खाना खिलाता था। इसे 'रूखरोटी' कहते थे लेकिन आज यह प्रथा बन्द है। दरवाजे पर पहुंचना बरात का चढ़ना कहा जाता है। यहां कन्या पक्ष से बर्तन, दल्हे के कपड़े एवं 51 रु. से अधिक रुपया न देने का रिवाज था। आज भौतिक चकाचौंध एवं प्रदर्शन की भगवान ने इसका भी रूप विकृत कर दिया है।
देवदर्शन-वर पक्ष प्रातः देव दर्शन के लिए जाता है और मन्दिर में पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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यथा शक्ति विवाह के स्तर को देखकर दान की घोषणा करता है। पहले बिना देवदर्शन किए कन्या पक्ष का समस्त खान-पान धर्जित था।
सज्जन मिलाप-दुपहर को दोनों पक्ष आपस में बड़े स्नेह और आदर के साथ एक दूसरे का परिचय देते हुए गले मिलते हैं। इसे समय शुभ लग्न में विवाह होने की लग्न छांटी जाती है।
विवाह-शुभ लग्न में पाण्डे महोदय के द्वारा पूजन के बाद सप्तपदी का कार्य होता है। इसी समय वर और कन्या दोनों को सात-सात बचन दिलाए जाते हैं। जिन्हें सवीकार कर लेने के बाद ही कन्या 'बांए' अङ्ग आती है। .
इस प्रकार सम्पूर्ण विवाह हो होने वाले कार्यक्रमों के संकेतों से पूर्ण होता है।
पद्मावतीपुरवाल जैन जाति की वर्तमान स्थिति यों तो देश काल के द्वारा आए परिवर्तनों का प्रभाव प्रत्येक जाति पर पड़ा है। फिर भी पद्मावती पुरवाल अपनी मूल बातों को अभी तक नहीं भुला पाए हैं। दक्षिण भारत, उत्तरी भारत से कई बातों में भिन्न है। यह भिन्नता दक्षिण के नागपुर भाग में बसे हुए लगभग सात सौ पद्मावती पुरवाल परिवारों पर भी लागू है। चौके की मर्यादा प्रायः टूट चुकी है। भक्ष्य पदार्थों की भी उतनी मर्यादा अब नहीं रही। विवाहादि कार्य 8 घण्टों में ही होते थे, वे भी अब समापत होने लगे हैं। धीरे-धीरे रात्रि भोजन की भी प्रथा चालू होती जा रही है। व्यावसाय में भी यह जाति अन्य लोगों के साथ चल रही है। यह सब शिथिलता और टूटते सांस्कृतिक किनारों के चिह्न हैं। उत्तरी भारत में भी यह सभी बातें धीरे-धीरे घुस रही हैं। जहां दक्षिण भारत के पद्मावती पुरवाल वैवाहिक कार्यों, खान-पान एवं क्रियाकाण्डों में शिथिल हैं। ..
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"नवीन पीढ़ी अवश्य ही मूलधारा से कटती जा रही है। दहेज और प्रदर्शन भगवान ने इस सुदृढ़ किले में भी दरार डालती है। लोग पैसों के लालच में दूसरी जातियों में विवाह करने लगे हैं। इस प्रकार सामाजिक विघटन की प्रवृत्ति इसमें भी आरम्भ हो गयी है।
यह जाति स्वभाव से शान्तिप्रिय है। अधिक धनी पुरुषों में जो अनेक कुसंस्कार कदाचार, और अनेक अवगुण आ जाते हैं, उतने अभी इस जाति में नहीं आए।
पद्मावती पुरवाल जैन जाति का भविष्य, यदि इसने स्वयं को नहीं सम्भाला, अपने मूल सांस्कृतिक परिवेश में ही युग के साथ-साथ चलने का कोई मार्ग नहीं खोजा और दिशाहीन नयी पीढ़ी को कोई दिशाबोध नहीं कराया, तो भविष्य में इसके विघटन को रोकने वाले कोई अवरोधकतत्त्व दृष्टिगत नहीं हो रहे।
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सच्चे साधु सच्चे साधु निरन्तर ज्ञान-ध्यान और तप में अनुरक्त रहते हैं, वही सच्चे संत हैं। आज कुछ साधु ज्ञान-साधन से विमुख या विरक्त होकर भवन निर्माण, क्रिया-कांड आदि में अधिक रुचि लेते हुए देखे जाते हैं। अपनी-अपनी लोकहित प्रधान योजनाओं की पूर्ति के लिए अहर्निशि सजग और सचेष्ट रहते हैं। आत्मचिन्तन, स्वाध्याय और ज्ञान प्रसार में रुचि या लगन का यह हास चिन्तनीय है। हमारे सभी प्राचीन आचार्य एवं साधुवृन्द अपनी विकसित ज्ञान साधना तथा कालजयी रचनाओं के कारण ही आज हजारों वर्षों के बाद भी स्मरण किए जाते हैं। किसी मन्दिर, मानस्तम्भ या भवनादि के कारण नहीं। सतत ज्ञानाभ्यास की अमिट भूख का होना ही किसी भी साधु के स्वास्थ (स्व में स्थित) होने का परिचायक है।
-अन्तस् की आंखे : मुनिश्री प्रमाणसागरजी महाराज पद्यावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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फुट नोट 1. नवनामा पद्मावत्यां कांतिपुर्या मधुरायां विष्णुपुराण अंश 4 अ. 24 1 2. देखो, राजपूताने का इतिहास, प्रथम जिल्द, पहला संस्करण पृ. 230 । 3. मध्य भारत का इतिहास- डा. हरिहर निवास द्विवेदी । 4. देखो -अनेकान्त वर्ष 3 किरण 7 |
5. सात खांप परवार कहावे, तिनके तुमको नाम सुनावें ।
अठ सक्खा पुनि है चौसखा, ते सक्खा पुनि है दो सक्खा । सोरठिया अरु गांगन जानो, पडावतिया सदृम जानो। -बुद्धि विलास । 6. जैनधर्म का प्राचीन इतिहास - भाग 2 - परमानन्द शास्त्री - पृष्ठ 460 7. श्री अहिच्छत्र पार्श्वनाथ स्मारिका पृ. 48
8. अहिछत्र की पुरा सम्पदा - डा. रमेशचन्द जैन पृ. 81-82
9.
यह स्थान पुरातत्व के महत्व का है। भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने खुदाई
करके एक विशाल नगरी का पता लगाया है। यहां के कुछ सिक्के भी मिले हैं तथा लिपि अपठनीय है। कुछ महत्व के मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े प्राप्त हुए हैं।
10. तीर्थंकर महावीर स्मृति ग्रन्थ- प्रकाशक जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर - लेख 'गौपाद्रौ देवपत्ने' -डा. हरिहर निवास द्विवेदी
11. जैनधर्म का प्राचीन इतिहास द्वितीय भाग- सम्पादक व लेखक परमानन्द शास्त्री - भूतपूर्व सम्पादक अनेकान्त- प्रकाशक रमेशचन्द जैन मोटर वाले, दिल्ली- पृ. 115
12. जैन धर्म का प्राचीन इतिहास द्वितीय भाग-लेखक व सम्पादक पं. परमानन्द शास्त्री - प्रकाशक - रमेशचन्द मोटर वाले पृ. 440
13. सुनहरीलाल अभिनन्दन ग्रन्थ, 2. श्री महावीर कीर्ति स्मृति ग्रन्थ एवं भगवान महावीर और उनकी आचार्य परम्परा खण्ड 4 से । 14. 1. सुनहरी लाल अभिनन्दन ग्रन्थ, 2. श्री आचार्य सुधर्मसागर पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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अभिनन्दन ग्रन्थ, 3. विद्वत अभिनन्दन ग्रन्थ। 15 तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा (खण्ड-4) डॉ. नेमिचन्द्र
ज्योतिषाचार्य पू. 227 प्रकाशन 13 नवम्बर 1974 प्रकाशक- मंत्री,
श्री भा.दि. जैन विद्वत परिषद। 16. जैन समाज का वृहद इतिहास (प्रथम खण्ड) डॉ. कस्तूरचन्द
कासलीवाल-जैन इतिहास प्रकाशन संस्था जयपुर 1992 । 17. जैन समाज का वृहद इतिहास-डॉ. कस्तूर चन्द कासलीवाल पृ. 627। 18. श्री धनवंत सिंह का परिचय पृ....... पर अंकित है। 19. सोनागिर वैभव-रामजीत जैन एडवोकेट-चन्द्र भान जैन, आगरा। 20. जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-बलभद्र जैन। 21. शोधा दर्श 38 जुलाई 1999, पृष्ठ 138 22. शोधा दर्श जुलाई पृष्ट 197 एवं 200। 23. शोधा दर्श-40 मार्च 2 ज.ई. पृ. 36-41 से शोध समीक्षा। 24. भारतवर्ष के दि. जैन तीर्थ क्षेत्र प्रथम भाग उत्तर प्रदेश एवं
दिल्ली-संकलन सम्पादन, बलभद्र जैन पृ. 84 प्रकाशन भा. दि. जैन
तीर्थ क्षेत्र कमेटी बम्बई-41 25. गिरनार महात्म्य-ले. रामजीत जैन एडवोकेट-प्रका, जैन समाज
ग्वालियर पृ 131-1321 26. गिरनार महात्म्य -ले. रामजीत जैन एडवोकेट- प्र. जैन समाज ___ग्वालियर पृ. 5। 27. जैन धर्म का प्राचीन इतिहास (प्रथम भाग) बलभद्र जैन पृ. 210-211। 28. भारत के दि. जैन तीर्थ क्षेत्र (चतुर्थ भाग) बलभद्र जैन पृ.-22 । 29. भारतवर्ष के दि. जैन तीर्थ क्षेत्र (चतुर्थ भाग) बलभद्र जैन
पृष्ठ 106-1071 30. भारत के दि. जैन तीर्थ (प्रथम भाग) सम्पादक बलभद्र जैन, पृष्ठ
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