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एक रेलवे चौकी पर जहां रात्रि विश्राम करना पड़ा एक भयानक सर्प आपके सामने तीन घंटा पड़ा रहा। गिरनार की तीर्थ वन्दना पर जब पावा और उसके बाद जब भररिया पहुंचने पर वहां के निवासियों ने मारने का उपक्रम किया तो आपकी तपस्या के प्रभाव से उपसर्ग टला।
शुभ चिन्ह-आचार्यश्री विभिन्न शुभ चिन्हों से विभूषित थे। दाहिने पैर में पदमचक्र, हृदय में श्रीवत्स, शरीर में विभिन्न तिल, कांचन वर्ण, आदि उनकी महानता सिद्ध करते हैं।
उपाधियां-मुनिश्री 108 विमलसागर जी महाराज को सन् 1960 में टूंडला में विद्वत समुदाय द्वारा पूज्य आचार्यश्री महावीरकीर्ति की सहमति से आचार्य पद प्रदान किया गया। सन् 1963 में बाराबंकी में चातुर्मास के बीच चारित्र चक्रवर्ती पद प्रदान किया। सन् 1979 में सोनागिर जी में श्री नंगानग कुमार की मूर्तियों की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के समय ज्ञानकल्याणक के दिन ज्ञान दिवाकर श्री भरतसागरजी महाराज ने जनभावना को देखते हुए ‘सन्मति दिवाकर' मद से अलंकृत करने का प्रस्ताव रखा जिसका समर्थन परम श्रेद्धय सम्यक्ज्ञान प्रसार योजना के पुरोधा क्षुल्लक श्री ज्ञानानन्द जी महाराज ने रखा। सभी भक्तों ने इसी नाम से आचार्य श्री की वन्दना की। आपके अन्य गुणों को देखकर आप वात्सल्य मूर्ति, करुणानिधि, स्वपरोपकारी भक्तों द्वारा स्वयंमेव कहे जाने लगे।
अपने विहार के माध्यम से आचार्य श्री ने अपनी पग धूलि से हजारों स्थानों को पवित्र किया। स्वयं भी अनगिनत तीर्थों की वन्दना की। जीर्ण-शीर्ण हो रहे तीर्थों के उद्धार हेतु नर-नारियों को प्रेरित किया। लाखों लोगों को शूद्र जल एवं मांस-भक्षण आदि का त्याग कराया। लगभग 350 त्यागी आपके द्वारा बनाये गये तथा 30 ब्रह्मचारी, 2 एलक, 3 क्षुल्लक, क्षुल्लिकाएं, 2 आर्यिकाएं और 4 मुनि बना चुके तथा और भी अनेक त्यागी बनाये। ऐसी अटूट प्रभावना आपके व्यक्तित्व में थी। पद्मावतीपरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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