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सेना भेजकर कन्या छीननी चाही। इस पर सभी निष्कासित बन्धुओं ने सेना का मुकाबला किया और विजय प्राप्त की। 'पद्मावती', जो कन्या का नाम था, युद्ध की अकारण हिंसा से घबरा गई और स्वयं आत्म-दाह कर लिया। पराजित शासक ने जब कन्या के आत्महाद की बात सुनी तो उसे बड़ा दुख और लज्जा का अनुभव हुआ। उसने सभी से लौटने का अनुरोध किया, किन्तु पुनः लौट जाना, अत्याचारी शासन में रहना लोगों ने स्वीकार नहीं किया।
इन्हीं निष्कासित लोगों ने कन्या के नाम पर 'पद्मावती नगरी' बसाई और सवयं को पद्मावती पुरवाल कहने लगे, उन्होंने अपनी सामिजिक व्यवस्था का नवीनीकरण किया। अपने प्रधान को सिरमौर कहने लगे और पण्डित को पाण्डे, जो पुरोहतका भी कार्य करता था और प्रबन्धक को सिंघई शब्द से सम्बोधित किया। यह व्यवस्था आज भी दिखाई देती है। इस प्रकार 'पद्मावती पुरवाल' जाति का उद्भव हुआ।
तीसरी किंदवन्ती एक पौराणिक कथा से संबंध रखती है। कहा जाता है कि भगवान पार्श्वनाथ पर जब घोर उपसर्ग हुआ तो पाताल लोक के पद्मावती धरणेन्द्र का आसन कम्पायमान हुआ। वह उपसर्ग दूर करने के उद्देश्य से धरणेन्द्र अपने दो रूप में उपस्थित हुआ-आसन बनकर तथा छत्र बनकर। इसी समय भगवान् को केवलज्ञान की उत्पत्ति हुई। लोगों ने सर्प के रूप में रक्षा करते हुए धरणेन्द्र को देखा तो वे गद्गद हो गए। लोगों ने बाद में उसी स्थान को अहिच्छत्र नाम से प्रसिद्ध किया। आज भी बरेली के निकटस्थ इस क्षेत्र की पद्मावती पुरवालों में बड़ी महत्ता है। उस उपसर्ग के स्थान पर एक 'पद्मावती' नाम का नगर बसाया गया तथा एक विशाल किला, जिसका क्षेत्रफल लगभग 12 मील (?) का होगा, निर्माण किया। समय के झञ्झावात ने इस गौरवशाली नगरी का आज हर प्रकार का चिन्ह मिटा डाला है, किन्तु पद्यावती पुरवाल समाज में आज भी इसका पूज्य स्थान बना हुआ है। इस 'पद्मावती नमर' के भक्तों ने स्वयं को 405
पावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास