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________________ का कोई विद्वान यह इतिहास लिखता तो कहीं-न-कहीं या किसी-न-किसी रूप में आत्म प्रशंसा की गंध पाठकों को आ सकती थी। अतिरंजना या अतिशयोक्ति का दोष भी आ सकता था। इन सब दोषों से हम बच गए, इस सौजन्य के प्रति हम वकील साहब के आभारी हैं। वैसे भी उदारचेता लोग 'अयं निजः अयं परः' की संकीर्ण भावना से ऊपर उठकर ही कार्य करते हैं । भाई प्रताप जैन दिल्ली समाज के सक्रिय, जागरूक एवं कर्मठ कार्यकर्त्ता के रूप में जाने जाते हैं। उनकी छवि यहां के विविध सभा-सम्मेलनों के एक सफल संचालक और सूत्रधार के रूप में बनी हुई है। सभी समाजों में उनका समादर भी है। अपनी जाति का कोई इतिहास अब तक प्रकाशित नहीं हुआ, यह टीस उनके मन में भी थी। जब हमने उनसे इस इतिहास की चर्चा की तो उनका दिल फड़क उठा और उन्होंने उसे दिल्ली के एक संगठन की ओर प्रकाशित करने का भाव व्यक्त किया। हमें या किसी को भी इस प्रस्ताव पर क्या आपत्ति हो सकती थी ! हमने पाण्डुलिपि उन्हें सौंप दी । भाई प्रताप जी की भावना थी कि इतिहास में कुछ भी छूट न पाए । उन्होंने हमसे, भाई ब्रजकिशोर से तथा अपने अन्य प्रबुद्ध साथियों से निरन्तर सम्पर्क बनाए रखा। जैनगजट, करुणादीप आदि पत्रों में यथेष्ट जानकारी भेजने के लिए विज्ञप्तियां प्रकाशित कीं, किन्तु इतिहास के महत्व से अनजान समाज इन पर ध्यान ही कहां देता है ! फलतः कहीं से कोई जानकारी सुलभ नहीं हो सकी। उन्हें अपने स्तर से ही सारी सामग्री जुटानी पड़ी। चूंकि इतिहास पहली बार छप रहा है, इसलिए यह दावा तो नहीं ही किया जा सकता है कि यह सम्पूर्ण है। कोशिश अवश्य ही यही रही है कि कुछ भी छूट न पाए, पर बहुत कुछ छूट गया है, यह स्वीकार करने में हमें कोई संकोच नहीं है। हम तो प्रताप जी से बराबर यही कहते रहे कि सर्वश्रेष्ठ या सर्वांगपूर्ण के चक्कर में कहीं श्रेष्ठ भी छूट न जाए। अंग्रेजी में एक कहावत भी है- 'Best is the enemy of good' । सर्वागपूर्ण बनाने की धुन में दो-तीन वर्षों का विलम्ब तो हुआ, पर अब यह छप रहा है, यह खुशी है । श्री रामजीत जी से प्राप्त पाण्डुलिपि के बाद जो नई जानकारियां जुटाई जा सकी हैं, उन्हें परिशिष्ट 2 एवं 3 में संग्रहीत कर दिया गया है। परिशिष्ट X
SR No.010135
Book TitlePadmavati Purval Digambar Jain Jati ka Udbhav aur Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjit Jain
PublisherPragatishil Padmavati Purval Digambar Jain Sangathan Panjikrut
Publication Year2005
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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