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थे। घर में कुछ कहा-सुनी हो जाने के कारण के चुपके से बनारस भाग गये। वे जैनधर्म का अध्ययन करना चाहते थे किन्तु उस समय तक वहां जैन विद्यालय ने होने के कारण जैनेतर-वेश में एक ब्राह्मण-विद्यालय में भर्ती हो गये और वहां ज्योतिष आदि का गहन अध्ययन किया। ब्राह्मणों के मध्य में रहकर उन्हें धारा-प्रवाह संस्कृत में भाषण करने का अच्छा अभ्यास हो गया।
उस विद्यालय के विद्वानों का जब आर्यसमाजियों के साथ शास्त्रार्थ हुआ तब उसमें पं. पन्नालाल जी भी सम्मिलित थे। उन्होंने. शास्त्रीय संस्कृत में आर्यसमाजियों के उत्तर देकर उन्हें निरुत्तर कर दिया था।
उन्होंने संस्कृत-प्राकृत जैन ग्रन्थों का भी अच्छा अध्ययन किया और अपने कार्यकलापों से जैन समाज में अच्छी प्रतिष्ठा अर्जित की।
कहा जाता है कि उनके कार्यकाल में न्यायालयों में जैन-समाज का कोई मुकदमा चल रहा था। तब अंग्रेज जज ने जैन समाज के पक्ष में जैन-ग्रन्थों के प्रमाणों की जानकारी के लिये जैन-ग्रन्थ कोर्ट में प्रस्तुत करने हेतु आदेश दिया था। तब जैन-ग्रन्थों की अवमानना होने के कारण उन्होंने ग्रन्थों को वहां प्रस्तुत नहीं होने दिया था और स्पष्ट कहा था कि क्या प्रमाणों को जानने के लिये जैनेतर-ग्रन्थों को भी कभी कोर्ट में प्रस्तुत करने को कहा गया है? उनकी निर्भीकता से जैन-समाज अत्यन्त प्रभावित थी।
जैन-समाज में जब भी उन्हें निमन्त्रित किया जाता था तो वे वहां से पालकी आने पर ही जाते थे। एक बार जब सहारनपुर की जैन-समाज ने उन्हें निमन्त्रित किया तो बिना पालकी के वहां जाने से उन्होंने इंकार कर दिया था और जब वहां के सुप्रसिद्ध रईस लाला जम्बू प्रसाद जी पालकी लेकर वहां पधारे तब उन्हें पालकी में बैठकर तथा स्वयं कन्धा देकर अपने घर लाये थे। 349
पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास