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1. सिद्धान्त-सूत्र-समन्वय, 2. सिद्धान्त-विरोध-परिहार, 3. स्पृश्यापृश्य-विचार, 4. चर्चा-सागर पर शास्त्रीय प्रमाण, 5. जैनधर्म हिन्दू धर्म से भिन्न है, 6. मुनि-विहार, 7. कानजी-मत-खण्डन एवं, 8. आर्यभ्रम-निवारण।
अम्बाला तथा दिल्ली के आर्यसमाजियों को उनके साथ शास्त्रार्थों में उन्हें निरुत्तर कर देने के कारण उन्हें वादीभगजकेशरी की उपाधि से सम्मानित किया गया था। इसी प्रकार विभिन्न अवसरों पर उन्हें विद्यावारिधि, न्यायालंकार तथा न्याय-दिवाकर की उपाधियों से सम्मानित किया गया था।
एक बार इनके ऊपर किसी ईर्ष्यालु ने कोर्ट-केश दायर कर दिया था। जब कोर्ट में जिरह हुई तो पण्डित जी के तर्क सुनकर तथा उनकी गम्भीर विद्वत्ता से प्रभावित होकर उस मुकद्दमों को खारिज करते हुए उसके न्यायाधीश श्री किणी महोदय ने उनके विषय में जो कहा था, वह उन्हीं के शब्दों में निम्न प्रकार है_ 'ये दूर देश के विद्वान अपनी निस्वार्थवृत्ति से धार्मिक सिद्धान्तों की रक्षा के लिए इतना कष्ट उठा रहे हैं। अपने सिद्धान्त से तिल-मात्र भी नहीं हट रहे हैं। दूसरी ओर, सुधारवादी फरयादी लोग समय के साथ दौड़ रहे हैं, जो कि सिद्धान्त से सुदूर हैं।' ।
पण्डित जी की विश्वसनीयता, सच्चरित्रता एवं निर्भीकता सचमुच ही अनुकरणीय थी। अपने इन्हीं गुणों के कारण ग्वालियर-नरेश ने उन्हें मुरैना पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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