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गोत्रों एवं मूर का उदय हुआ है। इसी तरह अन्य कितनी ही जातियों के संबंध में प्राचीन लेखों, ताम्रपत्रों, सिक्कों, ग्रन्थ प्रशस्तियों और ग्रन्थों आदि पर से उनके इतिवृत्त का पता लगाया जा सकता है।
पता लगाया और जो लगा, इस आधार पर पद्मावतीपुरवाल जाति का इतिवृत्त लिखा जा रहा है, परन्तु पहले जाति निर्माण की कथा :
भगवान महावीर जाति को 'जन्मना' नहीं 'कर्मणा' की मान्यता देते थे । क्योंकि मुक्ति किसी वर्ग विशेष अथवा जाति विशेष की धरोहर नहीं । दूसरे शब्दों में महावीर ने युग-युगान्तरों से चली आ रही जाति व्यवस्था पर परोक्ष रूप से प्रहार कर अपरोक्ष रूप से मान्यता दी और भगवान आदिनाथ जाति व्यवस्था के निर्माता थे, उनके ही विचारों की पुष्टि की। फलस्वरूप ब्राह्मण दार्शनिकों से उनकी भिड़न्त नहीं हुई जो बौद्ध दार्शनिकों से हुई । यही कारण है कि जैन धर्म आज भी अपने पूर्व रूप में जीवित है जबकि हिन्दू दर्शन ने 12वीं शताब्दी तक आते-आते बौद्धमत को पूर्णतया आत्मसात कर लिया। यह ठीक है कि बौद्धमत की भांति जैन धर्म देश के बाहर अधिक लोकप्रिय तो नहीं हो सका, किन्तु इसके साहित्य, दर्शन, स्थापत्य कला, चित्रकला तथा मूर्तिकला भारत की ऐसी धरोहर है जो सदा-सर्वदा विश्व मानव का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती रहेगी।
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किसी भी प्रकार का परिवर्तन स्वीकार न करना जैनियों की खास विशेषता रही है । ईसा से तीन सौ वर्ष पूर्व भद्रबाहु के समय जैन धर्म में ( श्वेताम्बर और दिगम्बर) जो विभाजन हुआ, उसके बाद से लेकर अब तक प्रायः सभी मूल सिद्धांत अपरिवर्तित रहे और आज भी जैन धर्म के अनुयायियों का धार्मिक जीवन दो हजार वर्ष पूर्व जैसा ही है। बहुत से तूफान आये और गुजर गये लेकिन यह विशाल वट-वृक्ष अपने स्थान पर अडिग रहा ।
भगवान महावीर के निर्माण के बाद करीब 600 वर्ष तक जैन समाज
पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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