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________________ विकासशील रहा। अपने मौलिक सिद्धान्तों का विकास और प्रसार करने के लिए उस समय जैन साधु अपना पूरा समय व्यतीत करते थे। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के रूप में साधुओं में वस्त्र धारण की प्रथा थी तथापि भगवान के आदर्श जीवन को वे नहीं भूल सके। ईस्वी सन् की दूसरी शताब्दी में जैन समाज व्यवस्था प्रिय होने लगी। इस युग के आरम्भ में श्री कुन्दकुन्द और धरसेन आचार्य ने विशाल शास्त्रों को सूत्र बद्ध करने का कार्य आरम्भ किया। पांचवीं शताब्दी में श्वेताम्बर सम्प्रदाय ने भी अपने आगम शास्त्रबद्ध किये। इसी युग में मठ और मंदिरों का निर्माण वेग से हुआ। आचार्य परम्परायें सार्वदेशीय रूप छोड़कर स्थानिक रूप ग्रहण करने लगीं। यह काल 600 वर्ष तक चला। __नौवीं शताब्दी से जैन समाज का सम्पर्क जनसाधारण से कम होता गया। भारत के कई प्रदेशों में अब यह सिर्फ वैश्य समाज के रूप में परिणित होने लगी। मुस्लिम शासकों का प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ने लगा। इन परिस्थितियों में विकास और व्यवस्था की प्रवृत्तियां पीछे रह गयीं और आत्मसंरक्षण की प्रवृत्ति को प्रधानता मिलने लगी। युग प्रवर्तक नेता के अभाव में यह प्रवृत्ति बढ़ने लगी। फलस्वरूप साधु-संघ में भट्टारक सम्प्रदाय का उदय हुआ। दसवीं शताब्दी जैन समाज में जातियों की स्थापना का काल माना जाता है। जातियों का निर्माण कब और कैसे हुआ इसका इतिहास गर्भ में है। यद्यपि ऐसा माना जाता है कि भगवान महावीर के काल में ही यह जाति परम्परा प्रचलित थी और धीरे-धीरे यह संख्या बढ़ने लगी। आचार्यों ने इस पर नियंत्रण करने का भरसक प्रयत्न किया। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कुल मद के समान जाति मद का निषेध किया है। मूलाचार से भी उक्त अर्थ की पुष्टि होती है। उसमें लिखा है कि जाति, कुल, शिल्प कर्म, तपकर्म और ईश्वर पूजा इनकी आजीव संज्ञा है। इसके आधार से आहार पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
SR No.010135
Book TitlePadmavati Purval Digambar Jain Jati ka Udbhav aur Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjit Jain
PublisherPragatishil Padmavati Purval Digambar Jain Sangathan Panjikrut
Publication Year2005
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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