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संघहित श्रेष्ठ कार्यक्षुल्लक ज्ञानसागर जी ने संघहित एक श्रेष्ठ कार्य यह किया कि उन्होंने सभी मुनिराजों को संस्कृत का अध्ययन कराया। क्षुल्लक व ऐलकों को भी संस्कृत शिक्षण लेने के लिए कहा। आचार्य शान्तिसागर जी आपके इस सत्कार्य की सराहना करते थे। तपोनिधि आचार्य कुन्थसागर ने जो संस्कृत में ग्रन्थ लिखे उनकी पृष्ठभूमि में आपकी मनोभावना थी। अध्यापन के साथ संघ के हित में आपने अनुभवी वैद्य का भी कार्य वैसे ही किया जैसे आपके पिताजी पड़ोसियों के लिए सहज भाव से करते थे।
मुनि और आचार्य-जब प्रतापगढ़ में सेठ पूनमचन्द घासीलाल जी ने पंचकल्याणक प्रतिष्ठा कराई तब केवलज्ञान कल्याणक के समय आपने फाल्गुन शुक्ला त्रयोदशी वीर निर्वाण संवत् 2460 में श्री 108 आचार्य श्री शांतिसागर जी से मुक्तिदायी मुनिदीक्षा ली। आचार्य श्री ने आपको सुधर्मसागर कहकर सम्बोधित किया। आपके साथ ही क्षुल्लक नेमिकीर्ति जी मुनि आदिसागर बने और ब्र. सालिगराम जी क्षुल्लक अजितकीर्ति जी बने। यह कार्य लगभग चालीस हजार मानवमेदिनी के समक्ष हुआ। अब आप समन्तभद्र आचार्य के शब्दों में विषय वासना से परे ज्ञान-ध्यान, तप-रत साधु हो गये।
संघ के समस्त कार्य आचार्य श्री शांतिसागर जी ने आपको सौंप रक्खे थे। अतएव उन्होंने आपकी अनिच्छापूर्वक भी आचार्य पद सौंप दिया। आपने बहुत अनुनय-विनय की और पद से मुक्ति चाही पर आचार्यश्री ने आपको ही अपना उत्तराधिकारी बनाया। पौष शुक्ला दशमी रविवार को आपको अनेक मुनिराजों, व्रतियों तथा अनेक स्थानों के समाज के समक्ष आचार्य घोषित किया गया। इस समय अनेक विद्वान, श्रेष्ठ राज्याधिकारी, उपस्थित थे। सभी ने ताली बजाकर, नाम की जय बोलकर आपको अपना आचार्य मान लिया। कुशलगढ़ जैन समाज के इस कुशलदायी कार्य की सभी ने सराहना की।
पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास