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रणछोड़दासजी के साथ काशी गये और वेश बदलकर एक अजैन छात्र के रूप में व्याकरण, न्याय और साहित्य आदि का अध्ययन करने लगे। पिताश्री की प्रेरणा और अपनी लगन से आप दिन दूनी रात चौगुनी मेहनत करने में निरत रहते थे। संयोगवश एक बार आपके छद्मवेष का पता चल गया और तब आप वहां से प्राण बचाकर भागे। अध्ययन की ऐसी ललक
और अनवरत परिश्रम आज की पीढ़ी क्या किसी पीढ़ी के छात्रों में दर्शन मात्र को नहीं मिलती। आप काशी से भागकर नदिया पहुंचे। किन्तु कुछ समय बाद ही वह स्थान भी छोड़ना पड़ा।
19 वर्ष की आयु में आपको अजमेर के स्वनाम धन्य सेठ मूलचन्दजी सोनी ने अपने यहां धर्म शिक्षण और निजी स्वाध्यायार्थ नियुक्त किया। उस अवसर पर आपने ग्रन्थों का गहन-गंभीर अध्ययन मनन किया। साथ ही परम्परागत कर्मकाण्ड ग्रन्थों का गहन मनन और शास्त्रीय विधि नियमों का अवलोकन किया। आपके हृदय प्रवेश पर अध्ययन की कितनी अथक ललक लालसा थी कहा नहीं जा सकता। अपनी प्रतिभा के कारण आप निरन्तर जनता के हृदय का हार बनते गये। और कर्मकाण्ड संबंधी ज्ञान और यश अहर्निश बढ़ता ही गया।
अजमेर में उस समय अच्छी ज्ञान गोष्ठी हुआ करती थी जिसमें स्वयं सेठ मूलचंद जी बैठकर ज्ञानस्वादन किया करते थे। श्री फूलचंद जी पांडया आदि कई स्वाध्याय प्रेमी ऐसे थे जो गोम्मटसारादि ग्रन्थों का मनन किया करते थे। आपको उस ज्ञान गोष्ठी से बहुत कुछ सीखने का अवसर मिला।
आपका ज्ञान कोष बढ़ता ही गया। आपके पाण्डित्य पर निखार आता गया और आप लोकप्रिय और यश-भाजन बनते गये।
अजमेर में आपने त्रयोदश वर्षों तक कार्य किया। इसके उपरान्त पिताश्री का देहान्त हो जाने के कारण आपको अजमेर छोड़ना पड़ा। रायबहादुर सेठ मूलचंद जी सोनी व उनके सुपुत्र रा.ब. श्री सेठ नेमीचन्द पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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