________________
जी सोनी ने आपसे बहुत ही आग्रह किया परन्तु आप फिर अजमेर में नहीं रुक सके । परिणामतः आप अजमेर से चावली चले आये और व्यवसाय करने लगे । व्यवसाय की उलझन ने भी आपकी ज्ञान-पिपासा को स्वल्प भी कम नहीं होने दिया । व्यवसाय में निरत रहने पर भी आपको स्वाध्याय की लगन अजस्त्र रूप से बनी रही और यही कारण है कि आपके निरन्तर बढ़ते हुए ज्ञान प्रगति के चरण क्षणैकार्थ भी नहीं रुके।
आप कर्मकाण्ड के पंडित बन गए। कर्मकाण्ड संबंधी पाण्डित्य के द्वारा आपने जो कीर्ति हस्तगत की वह कहने का विषय नहीं । आपकी प्रतिष्ठादि की विधि उस समय अत्यन्त प्रामाणिक मानी जाती थी। श्रद्धालु धार्मिक जन चावली ग्राम तक पहुंचते और आपको ससम्मान आमंत्रित कर ले जाते थे । आपके द्वारा लगभग 50 पंचकल्याणक एवं गजरथ महोत्सव सम्पन्न हुए। इसका ज्वलन्त उदाहरण यह है कि गजरथ क्षेत्र बुन्देलखण्ड में आज भी आपका नाम ससम्मान स्मरण किया जाता है ।
संवत् 1992 में अजमेर के धर्मप्रेमी सर सेठ भागचन्द जी सोनी ने इन्हें पुनः अपने यहां निजी स्वाध्यायार्थ बुला लिया। आपको इस परिवार से जो भी सम्मानवर्द्धक वात्सल्य मिला वह अब शायद विरले विद्वानों को ही मिलता होगा, वह भी सौभाग्य से । जीवन के अन्त तक आप अजमेर में रहे । कार्तिक सुदी त्रयोदशी संवत् 2001 में आपका देहावसान हो गया।
I
अजमेर में रायबहादुर सेठ टीकमचन्द जी सोनी ने पूज्य 108 मुनिराज चन्द्रसागर जी महाराज की मंगलमयी प्रेरणा से 84 फुट ऊंचा विशाल मानस्तम्भ सिद्धकूट चैतयालय में बनवाया था। उसका सम्पूर्ण विधिकार्य आपकी शास्त्रीय सम्मति से ही सम्पन्न हुआ था ।
आप पर्यूषण पर्व में कई स्थानों पर गये और अपने सुधासिक्त प्रवचनों से बड़े-बड़े धुरन्धर विद्वानों का मन लुभाया। आपकी शैली रोचक एवं गंभीर थी। आपके चार पुत्र रत्न हुए किन्तु उनमें से द्वितीय पुत्र नहीं हैं। आपका लगभग 80 व्यक्तियों का सुशिक्षित परिवार है।
पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
99