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राज्य के बहुत आग्रह करने पर हल्ल ने प्रसिद्ध श्रेष्ठी शाहंशाह की गुणवती सुशील कन्या के साथ विवाह कर लिया। इस दूसरी पत्नी से ब्रह्मगुलाल का जन्म हुआ।
इनके गुरु हथिकान्त-अटेर के भट्टारक जगतभूषण थे। कवि हृदय ब्रह्मगुलाल ने अल्पकाल में ही अनेक विषयों का अध्ययन कर लिया। वे एक सभ्य स्वस्थ और रूपवान पुरुष थे। उन्हें गाने बजाने और स्वांग भरने का शौक था। जारखी नगर के श्रेष्ठी धर्मदासजी के भतीजे मथुरामल इनके बालमित्र थे। कवि की बढ़ती हुई ख्याति से जलकर राजा के दीवान ने एक बार राजकुमार को उकसाया और ब्रह्मगुलाल से सिंह का स्वांग भरने के लिए कहलाया। ब्रह्मगुलाल ने राजकुमार के कहने पर सिंह का स्वांग भरना तो स्वीकार किया किन्तु कोई अपराध होने पर उसको क्षमा करने का वचन ले लिया। यथा समय ब्रह्मगुलाल सिंह का स्वरूप धरकर राजदरबार में पहुंचे और अपनी कला से सभी को चकित कर दिया। तभी राजकुमार ने उन्हें छेड़ा
'सिंह नहीं तू स्यार है, मारत नाहिं शिकार।
वृथा जनम जननी दियो, जीवन को धिक्कार।' इतना सुनते ही सिंह रूपधारी ब्रह्मगुलाल को क्रोध आ गया। वे सिंह के समान दहाड़े और उछलकर अपने पैने नाखूनों से राजकुमार के शरीर को फाड़ दिया। राजकुमार मर गया। सारे दरबार में शोक छा गया। शेर चला गया। कुछ समय बाद ब्रह्मगुलाल आये। और विलाप करने लगे। राजा ने कहा-'गलती तुम्हारी नहीं, राजकुमार की थी। उसने ही तुम्हें गीदड़ कहकर उत्तेजित किया था।'
एक दिन दीवान ने राजा को बहकाया-'महाराज! आप ब्रह्मगुलाल से कहिये कि वह दिगम्बर मुनि का वेष धरकर आपको समझाये तो आपका शोक कम हो जायेगा। राजा ने यह बात ब्रह्मगुलाल से कही। निरुपाय
पद्मावतीपुस्वाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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