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“जैन एवं जैनेसर साहित्यकारों ने उक्त पद्यावती-पुरी की अवस्थिति मध्यप्रदेश में मानी है। और वर्ममान दिल्ली-बम्बई मार्ग पर गोषाचल (वर्तमान ग्वालियर) जनपद में स्थित पयायो नामक कस्बे को पद्मावती सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। यह भौगोलिक विषय भी कुछ जटिल है। इस दिशा में भी विशेष खोजबीन करने की आवश्यकता है।
"पूर्व-परम्पराएं-जैसा कि पूर्व में का जा चुका है, पद्मावती-पुरवाल समाज का सुदूर अतीत बतलाता है कि वह एक कर्मठ, स्वाभिमानी एवं अनुशासित समाज माना जाता रहा है। वर्तमान में उसकी विधि-व्यवस्था बहुत कुछ अपने परम्परा-प्राप्त सामाजिक-संविधान के अनुसार निर्धारित होती है। उसकी पंचायत-प्रथा में सिरमौर' (अर्थात् पंचायत का मुखिया या अध्यक्ष अर्थात् सामाजिक वाद-विवादों का निपटारा करने वाला न्यायाधीश) सिंघई (अर्थात् संघपति अथवा तीर्थयात्रा-संघ निकालने वाला), तथा पाण्डेय (अर्थात् प्रतिष्ठा-कार्य तथा शादी-विवाह संबंधी कर्मकाण्ड करने वाला) ये तीनों पद अथवा उपाधियां प्रमुख मानी जाती है, जो बाद में श्रेणियों अथवा गोत्रों में रूढ़ होती गयीं। इनका महत्त्व इसी से जाना जा सकता है कि पद्मावती-पुरवाल समाज उक्त पदाधिकारियों द्वारा बनाये गये विधि-विधानों के प्रतिकूल कार्य नहीं करता, यद्यपि पाश्चात्य-सभ्यता के आक्रमण के कारण वर्तमान में इस परम्परा में शैथिल्य भी आने लगा।
साहित्यिक इतिहास के क्षेत्र में पद्मावती-पुरवाल समाज के प्राच्यकालीन अवदानों की सूचनाएं तो अनुपलब्ध हैं किन्तु मध्यकालीन अवदानों को जैन-विद्या एवं जैन-समाज का श्रृंगार माना जा सकता है। मध्यकाल में उसने साहित्य-प्रणयन, विशाल मन्दिर तथा स्फटिक तथा हीरे जवाहरातों की कलापूर्ण बहुमूल्य सहस्रों मूर्तियों के निर्माण, तीर्थों-भूमियों के निर्माण, साहित्यकारों के लिए लेखन-प्रेरणा तथा उन्हें ससम्मान आश्रयदान, पाण्डुलिपियों के संरक्षण एवं प्रतिलिपि-कार्य, शिक्षा-प्रसार, इनके साथ-साथ राष्ट्रीय-समृद्धि के संवर्धन में सक्रिय सहयोग, राजकीय-प्रशासन में पूर्ण पावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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