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से प्रखर व्यवसाय प्रधान थी। आपने बनारस जाकर 12 वर्ष की अल्पायु में व्याकरण प्रथमा पास की। फिर कलकत्ता विश्वविद्यालय से काव्यतीर्थ परीक्षा उत्तीर्ण की। सन् 1912 तक आप प्रौढ़ विद्वान माने जाने लगे।
पं. पन्नालाल जी बाकलीवाल ने आपके और पं. गजाधर जी के सहयोग से भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था को जन्म दिया। इस संस्था से अनेक अलभ्य जैन ग्रन्थ प्रकाशित हुए जैसे राजवार्तिक, समय - प्राभृत, पत्र परीक्षा, शब्दार्णव चन्द्रिका, जैनेन्द्र प्रक्रिया आदि । ब्रह्मचारी जी ने संस्कृत प्रवेशिनी के दो भाग लिखे जो अतीव प्रशंसित व लोकप्रिय हुए। ये संस्कृतभाषा समुद्र के सन्तरण के लिए जलयान ही हैं। पंडित पन्नालाल जी बाकलीवाल ने कलकत्ते में शुद्ध प्रेस खोला जिसमें सरेस के बेलन के स्थान पर कम्बलों का बेलन था । छपे हुए ग्रन्थों के विरोधी वातावरण में भी बाकलीवाल बढ़ते ही गये ।
श्रीलालजी का प्रथम विवाह हुआ तो पत्नी पुत्र को जन्म देकर चली गई । पुनः विवाह हुआ, गृहस्थ बने और द्वितीय पत्नी का भी पहली पत्नी सा निधन हुआ। आपका चित्त संसार की विषय-वासना से विरक्त हुआ । 15 अगस्त 1947 को ग्रांडट्रंक रोड हावड़ा में आपकी फर्म को मुसलमानों ने घेर लिया। पर आप सम्यकदृष्टि लिये विचलित नहीं हुए ।
आपने जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था में गोम्मटसार टीका टोडरमल जी की छापी। विनोद मासिक पत्र निकाला। एक बौद्ध भिक्षुक ने इसी प्रेस से कातन्त्र व्याकरण छपाई । जगरूप सहाय वकील ने वह सर्वार्थसिद्धि छपाई जो वस्तुतः ब्रह्मचारी जी की कृति थी। विमल पुराण भी संस्था ने छापा । पं. श्रीनिवास जी शास्त्री, पं. मक्खनलाल जी न्यायालंकार के सहयोग से संस्था बढ़ रही थी ।
आप राजेन्द्रकुमार कुंवर जी के साथ व्यावसायिक बृद्धि लिये फर्म में कार्य करने लगे । आप आशातीत आगे बढ़े। जब आचार्य वीरसागर जी
पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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