Book Title: Padmavati Purval Digambar Jain Jati ka Udbhav aur Vikas
Author(s): Ramjit Jain
Publisher: Pragatishil Padmavati Purval Digambar Jain Sangathan Panjikrut

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Page 444
________________ जो मध्ययुगीन देन है। इसमें अधिकतम भेंट इक्कीस रुपए की निर्धारित थी, जो आज सुरसा का मुंह बनी हुई है। इस जाति का विकृत रूप जिन्न कारणों से हुआ है, उनमें गोद की रस्म सर्वोपरि है। इसी गोद ने दहेज.को जन्म देकर आज पद्मावती पुरवाल जाति के अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगा दिया है। इसके पश्चात् छोटे-छोटे सोपान पूर्ण किए जाते हैं। इन सबके लिए नाई, नौकर, पाण्डे, मन्दिर, माली की भेंटें एवं वर पक्ष के घरवालों की भेंटों के लिए दक्षिणा निर्धारित है। 17, 35, 51 रुपयों की सीमाएं हैं। नाम उतरवाना-वर के वंश के पूरे नाम कन्या पक्ष के द्वारा मांगने का रिवाज है। सम्भवतः इसका यह कारण प्रतीत होता है कि वर पक्ष की पारिवारिक दशा कैसी है, इसका ज्ञान कन्या पक्ष को हो जाता है। पीतपत्रिका-लगन से पहले पीली चिट्ठी विवाह की प्रीिम सूचना के रूप में भेजी जाती है। लग्न भेजना-लग्न में जातीय पंचों के समक्ष चार आने, दो आने, आठ आने या फिर एक रुपया विवाह का स्तर निर्धारित करने के उद्देश्य से कन्या पक्ष वर पक्ष के यहां भेजता है। यहीं से समस्त कार्य आरम्भ हो जाते हैं। बरात का जाना-दूल्हा मन्दिर में गाजे-बाजे के साथ दर्शन करने के बाद पाणिग्रहण तिथि से एक दिन पूर्व कन्या पक्ष के यहां जाता था। प्राचीन काल में वरपक्ष स्वयं बरातियों को कच्चा खाना खिलाता था। इसे 'रूखरोटी' कहते थे लेकिन आज यह प्रथा बन्द है। दरवाजे पर पहुंचना बरात का चढ़ना कहा जाता है। यहां कन्या पक्ष से बर्तन, दल्हे के कपड़े एवं 51 रु. से अधिक रुपया न देने का रिवाज था। आज भौतिक चकाचौंध एवं प्रदर्शन की भगवान ने इसका भी रूप विकृत कर दिया है। देवदर्शन-वर पक्ष प्रातः देव दर्शन के लिए जाता है और मन्दिर में पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास 408

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