Book Title: Padmavati Purval Digambar Jain Jati ka Udbhav aur Vikas
Author(s): Ramjit Jain
Publisher: Pragatishil Padmavati Purval Digambar Jain Sangathan Panjikrut

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Page 422
________________ श्रमण धर्म मानने वाले नाग सम्राटों ने सादा जीवन उच्च विचार की परिकल्पना समाज में पल्लवित की-वे सत्ता से निर्लिप्त रहने का प्रयास करते रहे। मणिभद्रयक्ष कुबेर जैन साहित्य में उल्लेखनीय है। सोनागिर सिद्धक्षेत्र यहां से पैदल रास्ते से 2 कोस (4 मील) है। मुख्य मार्ग होने से देशी-विदेशी व्यापारी सार्थवाह भी यहां ठहरते थे और वस्तुओं का आदान-प्रदान होता था। यही कारण है ईसा के प्रारंभिक तीन चार शताब्दियों में पद्मावती की समृद्धि विश्वव्यापी स्तर पर थी। जैन पुराण साहित्य में सार्थवाहों तथा समुद्री यात्रा करने वाले जैन व्यापारियों का उल्लेख मिलता है। ये सार्थवाह ही थे जो रत्नों का व्यापार किया करते थे। जो पद्मावती पुरवाल कहलाते थे। डॉ मोतीचंद ने अपनी पुस्तक 'सार्थवाह' में जो पटना 1953 में प्रकाशित है नागजाति के सार्थवाहों और श्रमण धर्म अनुयायी होने की पुष्टि की है। कैटलॉग ऑफ दि काइन्स ऑफ दि नागा किंग्ज ऑफ पद्मावती डॉ. एच.एन. त्रिवेदी काइन्स ऑफ एन्शिमेण्ट इण्डिया ए. कनिंघम लंदन 1891, नागा काइन्स-ए.एस. अल्तेकर-नाग सिक्के डॉ केडी वाजपेई के अध्ययन से सिद्ध होता है कि नाग सिक्कों पर जैन धर्म के अष्ट मंगल चिन्हों का तथा श्रमण परंपरा का प्रभाव था। सिक्कों पर त्रिशूल नंदी-पांच शाखाओं वाला वृक्ष भी है। सिक्कों पर उत्तदान-पुरुषदान, शिवदान-डा. जामसवाल ने इनका काल.ई. पू. पहली शताब्दी निर्धारित किया है। वीरसेन के सिक्के पर बैठी आकृति पर पदमावती है। पदमावती में सिक्के ढालने की टकसाल थी। पदमावती के 5 सिक्के मैंने प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाश जी को भेंट किये थे। दि साइट आफ पदमावती-एम.वी. गर्दे सन् 1915-1916 फेज 101-103 तथा मध्य भारत का इतिहास पेज 601 एक मंदिर का उल्लेख किया है जिसक कालान्तर में विष्णु मंदिर का नाम दिया गया। इस मंदिर के अनावरण से जो प्रश्न खड़े हो गए हैं उनकी इतिहासकारों ने विस्तारपूर्वक चर्चा की है किन्तु अभी तक इस बात की जानकारी नहीं मिल सकी है कि पद्यावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास 386

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