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के प्रकाण्ड विद्वानों, तार्किकों एवं पण्डितों को जन्म दिया है। इस विवेचन से इसे पृथक् अस्तित्व में कोई सन्देह नहीं रह जाता। __पाश्चात्य विद्वानों जातियों की उत्पत्ति का मुख्य कारण 'धर्म' को माना है। प्रसिद्ध विद्वान होकार्ट के अनुसार धार्मिक क्रियाओं के आधार पर जातियों के रूप में समाज का विभाजन हुआ। क्रियाओं की शुद्धता का आधार जातियों की श्रेष्ठता का मापक बना और कालान्तर में इन्हीं जातियों की अगणित उपजातियों ने अपने 'टोटम', अलौकिक महामानव की कल्पना एवं उत्पत्ति का कोई न कोई कारण निश्चय कर लिया। वे ही लोग सम्मान पाने के अधिकारी माने गए, जो दूसरों से अधिक धार्मिक क्रियाओं को करते हैं। भारत में 'ब्राह्मणों की उत्पत्ति ऐसे ही हुई।
हिन्दू धर्म के अनुसार जातियों का जन्म देवताओं द्वारा हुआ। महाभारत काल में भृगु ने जातियों की उत्पत्ति वर्ण (रंग) के कारण बताई। किन्तु गीता में गुण तथा कर्म के अनुसार ही वर्णों (जातियों) की उत्पत्ति मानी गई।
जैन सिद्धान्तानुसार भी जातियों का निर्माण गुण और कर्म के अनुसार हुआ। चौदहवें कुलकर (कुल-की रीतियों के आविष्कारक) और हिन्दुओं के आठवें मनु (जातियों के नियमादि को बताने वाले) राजा नाभि के पुत्र जैनियों के प्रथम तीर्थंकर और वेदों के देवता ऋषभदेव के समय तक इस भूमि पर मानव अपनी प्राकृतिक अवस्था में रहता था। धीरे-धीरे जनसंख्या के बढ़ने, नवीन-नवीन आवश्यकताओं के उपस्थित होने एवं अज्ञानी मानव के जीवन यापन एवं व्यवस्था बनाए रखने के लिए सर्वप्रथम षट् कर्म (असि, मसि, कृषि आदि) का ज्ञान दिया। सर्वप्रथम ईख और उनके प्रयोग का ज्ञान देने वाले ऋषभदेव का वंश 'इक्ष्वाकु कहलाया (इक्षु इति शब्द अकतीति अथवा इक्षुणा करोतीति इक्ष्वाकुः) जब 'इक्ष्वाकु वंश प्रसिद्ध हो गया तो उन्होंने नाथवंश, सोमवंश तथा कुरुवंश की और
पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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