Book Title: Padmavati Purval Digambar Jain Jati ka Udbhav aur Vikas
Author(s): Ramjit Jain
Publisher: Pragatishil Padmavati Purval Digambar Jain Sangathan Panjikrut

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Page 435
________________ सम्मिलित नहीं हैं। कहा कुछ भी जाय, किन्तु निरपेक्ष समाज शास्त्रीय दृष्टिकोण से यह कथन असत्य भी प्रतीत नहीं होता । विद्वानों का कहना है कि जातियों के स्वतन्त्र अस्तित्व के लिए सदस्यों का आधार जन्म, निश्चित व्यवसाय, सामाजिक स्थिति, अन्तः समूह विवाद की मान्यता, सामाजिक 'अहं' की श्रेष्ठता की दृढ़ता एवं धार्मिक निर्योग्यताओं में आस्था रखना होता है। यदि हम अपनी अध्ययन पद्धति का यही आधार मान लें तो पद्मावती पुरवाल एक स्वतन्त्र जाति प्रतीत होती है। इस जाति में सदस्यों का आधार जन्म होता है। जाति माँ की ओर से चलती है । पद्मावती पुरवाल जाति मुख्य रूप से वणिक् वृत्ति अपनाए हुए है। बदलती पस्थितियों ने यद्यपि इसमें आज अपवाद खड़े कर दिए हैं, फिर भी बहुसंख्यक लोग आज भी मुख्य रूप से वणिक् वृत्ति ही अपनाए हुए हैं । इस जाति की सामाजिक स्थिति भिन्न है। पूरी जाति दस्सा और बीसा इन दो भागों में बंटी हुई हैं। एक दूसरे के चौके और कन्याओं को लेने में प्रतिबन्ध है । वैवाहिक कार्य पृथक् पण्डितों (पांडो) के द्वारा सम्पन्न होते हैं। इतना होने पर भी मूल रूप से आचार विचार एक है। विवाह केवल स्वजाति में ही किया जाता है (यद्यपि आज शिक्षा के प्रसार और भौतिकवाद ने इस बन्धन को शिथिल कर दिया है, फिर भी पर समूह से विवाह करना अच्छा नहीं माना जाता था ) यदि यदा-कदा इस बन्धन को कोई तोड़ता है, तो पंचायती व्यवस्था के अनुसार जाति बहिष्कार तक का दण्ड दिया जाता है। लोग स्वयं में श्रेष्ठता का भाव रखते हैं। इस 'अहं' को तोड़ने में हिचकिचाहट होती है । पद्मावती पुरवाल जाति का एक भी सदस्य अन्य मत को नहीं पालता । यह अविच्छिन्न रूप से शुद्ध दिगम्बर आम्नाय को मानती चली आ रही है। इसे तनिक भी धर्म का लचीलापन स्वीकार नहीं। इस जाति ने जैन धर्म पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास 399

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