________________
यह एक सर्वेक्षणात्मक निबन्ध है, कोई ग्रन्थ नहीं। सूत्र शैली में लिखने पर भी उसका आकार विस्तृत हो गया है। जैसा कि लिखा जा चुका है, आज भले ही इस समाज का आकार सिमट गया है, फिर भी इसके बहुआयामी कार्य-कलापों को विधिवत् विस्तार दिया जाय तो उस पर कम से कम 5-6 खण्ड (ग्रन्थ) तो आसानी से लिखे ही जा सकते हैं। यहां हमने तो केवल सूत्र मात्र ही प्रस्तुत किये हैं। इस समाज ने अनेक विभूतियों को जन्म दिया है। चाहे वह प्राच्य जैन-विद्या का क्षेत्र हो, चाहे पत्रकारिता का क्षेत्र हो, चाहे सार्वजनिक समाज-सेवा का क्षेत्र हो, चाहे जैन संस्थाओं की स्थापना कर उनके विकास का कार्य हो और चाहे राष्ट्रीय क्षेत्रों में, उनकी समर्पित भाव से सहभागिता रही हो।
पंचकल्याणक : तब और अब पिछले तीस-पैंतीस वर्षों में पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं के स्वरूप में तेजी से परिवर्तन हुए हैं। पहले जहां इनके माध्यम से व्यक्ति और व्यक्ति-समूह के आचार-विचार को निर्मल बनाने पर जोर रहता था, वहां अब इन्हें मेला या प्रदर्शनी सरीखी भव्यता प्रदान करना ही हमारा एक मात्र उद्देश्य बन गया है। प्रतिष्ठा-पात्रों का चयन पहले व्यक्ति की योग्यता को देखकर किया जाता था, वहां अब उसकी आर्थिक स्थिति को आंककर होता है। आयोजकों की दृष्टि केवल इस बात पर रहती है कि कौन कितना पैसा खर्च कर सकता है। धन को महिमा-मण्डित करने से गुणों की उपेक्षा हुई है। और इस कारण इन प्रतिष्ठाओं की गरिमा में निरन्तर गिरावट आती जा रही है। अवमूल्यन के आधारभूत कारणों को हमें अविलम्ब दूर करना चाहिए।
प्रतिष्ठाओं में सादगी अपेक्षित है। प्रदर्शन या दिखावे से अहंकार का पोषण तो हो सकता है, किन्तु मनःशान्ति और आत्मलाभ प्राप्त नहीं हो
सकता।
-महासमिति पत्रिका : 16-30 जून 1999 पयाक्तीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
383