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चलकर शास्त्रीय परिषद की स्थापना की और अपने सम्पादकत्व में जैन सिद्धान्त पत्र निकाला ।
वि. सं. 1997 में आपका स्वर्गवास हो गया ।
ब्रह्मचारी वासुदेवजी (पिलुआ)
आपका जन्म सन् 1895 में पिलुआ ग्राम में हुआ था । पिताश्री लखमीचन्द जैन प्रतिष्ठित व्यापारी और ठेकेदार थे। उन्हें आयुर्वेद का भी
अच्छा ज्ञान था ।
श्री वासुदेव जी बाल्यकाल से ही सेवाभावी, सुकोमल स्वभाव के होनहार बालक थे । दस वर्ष की अल्पावस्था में ही श्री चम्पालाल की पुत्री गुणमाला जैन के साथ आपका विवाह हो गया। 32 वर्ष की अवस्था में सहधर्मिणी एक विवाहित पुत्री, एक सात वर्षीय पुत्र और 2 वर्षीय कन्या को छोड़कर स्वर्ग सिधार गईं। इस असामयिक वियोग से मन में सुप्त वैराग जाग उठा । पुनर्विवाह का आग्रह दृढ़ता से ठुकरा दिया। पं. लीलाधर शास्त्री कलकत्ता के सान्निध्य में आयुर्वेद का विधिवत अध्ययन किया ।
औषध- दान और साधुवृती सेवा को आपने अपना मिशन बना लिया। बंगाल के बुगड़ा तथा मदारीपुर में औषध दान देकर जनसाधारण तथा साधु- वृती सेवा में संलग्न श्री सम्मेद शिखर की यात्रा के लिए अक्सर जाते रहते और तीन चार मास तक साधुवृतियों की सेवा में लगे रहते। इस प्रकार साधु-समागम, औषध-दान और तीर्थराज की वन्दना का लाभ एक साथ प्राप्त होता ।
45 वर्ष की अवस्था में आपने श्री चन्द्रसागर जी महाराज से सप्तम प्रतिमा (ब्रह्मचर्य का व्रत ग्रहण किया । आचार्य श्री शांतिसागर जी,
आ.
पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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