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स्वीकार नहीं करते फिर भी आम तौर पर इसे अच्छा नहीं माना जाता। यह जाति दिगम्बर जैन आम्नाय वाली है।
मोत्र क्विार-गोत्र शब्द अनादि है। आठ कर्मों में भी गोत्र नाम का कर्म है। इसे आगम में जीवविपाकी कहा गया है। इस पर से यह अर्थ फलित किया है कि परम्परा से आये हुए आचार का नाम गोत्र है। उच्च आचार की उच्च गोत्र संज्ञा है और नीच आचार की नीच गोत्र संज्ञा ।
आगमानुसार कोई नीच गोत्री मनुष्य हो और वह उच्च आचार वालों की संगति करके अपने जीवन को बदल दे तो वह मुनिधर्म को स्वीकार करते समय उच्च गोत्री हो जाता है। लेकिन उच्च गोत्री आचार की दृष्टि से कितना भी गिर जाय फिर भी वह शक्ति की अपेक्षा पर्याय में उच्च गोत्री ही बना रहता है।
गोत्र कर्म का यह सैद्धांतिक अर्थ है। इसका एक सामाजिक रूप भी है। किसी भी समाज के निर्माण में इसका विशेष ध्यान रखा जाता है।
कहा जाता है कि जैन समाज में जितनी भी उपजातियां बनी हैं वे सब उन्हीं कुटुम्बों को लेकर बनी हैं, जो आचार की दृष्टि से लोक प्रसिद्ध रहे हैं। इसका कारण है जैन आचार। क्योंकि कोई भी कुटुम्ब जैनाचार की दीक्षा में दीक्षित हो और वह हीन आचार वाला हो, यह नहीं हो सकता।
शब्द कल्पद्रुम में गोत्र का अर्थ है कि वह जिससे पूर्वजों का ज्ञान हो। लौकिक गोत्र बने जिनका आधार आख्यानों के पूर्वजों के उपनाम के आधार पर।
गोत्रों की मान्यता निम्न आधार पर है1. किसी व्यक्ति के वंश का विस्तार होने पर उसी के नाम पर गोत्र 2. प्रवजन का पूर्व निवास स्थान-खंडेला से खंडेलवाल
3. किसी प्रभावी महापुरुष की कीर्ति अमर रखने के लिए पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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