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। ब्रह्मगुलाल कुमार ने पूर्ण उपायो पुन्य। . __ या ते बहु विद्यापुरी कह्यो जगत ने धन्य। डील-डौल एवं अप्रतिम सौन्दर्य का वरदान उन्हें प्रकृति-प्रदत्त था। उनके संगीत एवं वक्तृत्व-कला ने चन्द्रवाड-पट्टन के तत्कालीन नरेश को आकर्षित किया था और उसने उन्हें अपनी राज्य-सभा का पार्षद भी मनोनीत किया था। ब्रह्मगुलाल की लोकप्रियता तथा बढ़ते प्रभाव से राज्य के अन्य पार्षद् ईर्ष्या एवं विद्वेष से भर उठे थे जैसा कि कहा जा चुका है, वे स्वांग भरने में अतिशय रूप में निपुण थे और समय-समय पर बहुरूपियों के भेष धारण कर सभी को आश्चर्यचकित कर चुके थे। अतः एक दिन अवसर देखकर कुछ ईर्ष्यालु पार्षदों ने राजा को सलाह दी कि वे ब्रह्मगुलाल को दिगम्बर-मुनि-वेश धारण कर अपनी राज्यसभा में बुलावें। राजा ने उनकी दुर्बुद्धि पर विचार किये बिना ही ब्रह्मगुलाल को वैसा ही आदेश दे दिया। अगले दिन ब्रह्मगुलाल भी दिगम्बर-मुनि-मुद्रा में पिच्छी-कमण्डलु लेकर राज्य-सभा में आये। वहां उन्होंने सरस प्रवचन भी किया और फिर वे दिगम्बर-मुनि ही बने रहे, घर वापिस नहीं लौटे। __ जगभूषण भट्टारक के सुशिष्य कवि ब्रह्मगुलाल चन्द्रवाड पट्टम (वर्तमान में चंदुवार) के समीप स्थित टापे नामक ग्राम के निवासी थे। उस समय वहां राजा कीरतसिंह का राज्य था, जिससे कोसम (इलाहाबाद) के दुर्ग पर विजय प्राप्त की थी तथा गोहत्या पर साहसिक प्रतिबन्ध लगाया था। ब्रह्मगुलाल के पिता हल्ल भी उनकी राज्यसभा के सदस्य थे। उसी टापे में मथुरामल्ल नाम के एक ब्रह्मचारी भी निवास करते थे। उनके उपदेश से प्रभावित होकर ब्रह्मगुलाल ने वि.सं. 1671 में 'कृपण जगावन काव्य' की रचना की थी।
प्रस्तुत कथा छोटी ही है किन्तु है वह बड़ी ही सरस और रोचक। उसमें कवि ने विशेष रूप से प्रभावकारी भाषा में यह बतलाया है कि दुर्भाय की
पथावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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