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इन उल्लेखों से इस शाखा के समकालीन एवं पूर्ववर्ती लगभग 7 भट्टारकों के क्रियाकलापों के इतिहास को कवि ने सुरक्षित कर दिया है।
महाकवि इधू के पिता का नाम सिंघई अथवा संघपति देवराज के पुत्र हरिसिंह संघवी एवं माता का नाम विजय श्री था। रइधू अपने माता-पिता के तृतीय पुत्र थे । इनके बड़े भाइयों के नाम बाहोल एवं माहणसिंह थे ।
महाकवि रइधू लेखक होने के साथ-साथ प्रतिष्ठाचार्य भी थे । वे मूर्ति-मन्दिर के प्रतिष्ठा - कार्यों में भी निपुण थे। ग्वालियर-दुर्ग की असंख्यात जैन- मूर्तियों के निर्माण के वे प्रेरक होने के साथ-साथ उन्होंने उनकी प्रतिष्ठा के भी कार्य किये थे। मूर्त्ति लेख के अनुसार गोपाचल - दुर्ग में अवस्थित तथा उत्तर-भारत की उत्तुंगकाय लगभग 80 फीट आदिनाथ की मूर्ति की प्रतिष्ठा उन्हीं के द्वारा विशाल समारोह पूर्वक सम्पन्न हुई थी। जिसकी चर्चा कवि ने अपनी ग्रन्थ-प्रशस्तियों में की है ।
अपने गुरुजनों प्रो. (डॉ.) हीरा लाल जैन एवं प्रो. (डॉ.) एन. एन. उपाध्ये के आदेशानुसार मैंने महाकवि रइधू, जिनका कि समग्र साहित्य अप्रकाशित तथा इधर-उधर बिखरा पड़ा था, भारत भ्रमण कर उनकी पाण्डुलिपियों की खोज कर उनका कई वर्षों तक प्रतिलिपि कार्य कर समग्र साहित्य का सम्पादन- अनुवाद एवं समीक्षा - कार्य किया है।
उक्त गुरुजनों के सत्प्रयत्नों से 20 खण्डों में उनके समग्र साहित्य-प्रकाशन की योजना भी जीवराज ग्रन्थमाला शोलापुर (महाराष्ट्र) से स्वीकार कर ली थी। वहां से दो खण्डों का प्रकाशन भी हुआ किन्तु उक्त गुरुजनों के दुखद अवसान के बाद ही दुर्भाग्य से उक्त साहित्य का प्रकाशन कार्य रोक दिया गया ।
उक्त रइधू- साहित्य की प्रशस्तियों से यह स्पष्ट विदित होता है कि रइधू ने अपने जीवन काल में लगभग 30 ग्रन्थों का प्रणयन किया था, किन्तु वर्तमान में उनमें से अग्रलिखित ग्रन्थ ही ज्ञात हो सके हैं
पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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