________________
पं. माणिकचन्द्र जी न्यायाचार्य - (चावली-आगरा, वि.सं. 1943) पं. माणिकचन्द्र जी न केवल पद्मावती-पुरवाल समाज के, अपितु समग्र जैन समाज के शिरोमणि विद्वानों में अग्रगण्य माने जाते हैं। इनकी प्रखर-प्रतिभा का इसी से अनुमान किया जा सकता है कि लोहे के चने के रूप में माने जाने वाले श्लोकवार्तिक जैसे दुरूह ग्रन्थ का हिन्दी में सर्वप्रथम अनुवाद एवं समीक्षा लिखकर उन्होंने उसे सर्व-सुलभ बनाया।
पण्डित जी ने वि.सं. 1958 से 2018 तक पी.डी. जैन कॉलेज फिरोजाबाद (आगरा), मुरैना, सहारनपुर आदि के शिक्षण संस्थानों में अध्यापन कार्य कर लगभग 400 विद्वान तैयार किये, जिनमें से कुछ ने मुनि-दीक्षा आदि भी ग्रहण की। __ पण्डित जी का कार्यकाल शास्त्रार्थों का युग था। उस समय आर्य समाजी जैन-सिद्धान्तों की अवमानना करने के लिये निरन्तर ही जैन-समाज को शास्त्रार्थ हेतु ललकारते रहते थे। किन्तु पं. राजेन्द्र कुमार जी आदि के साथ इन्होंने भी निर्भीकता पूर्वक उनके चैलेंज को सवीकार कर दिल्ली, भिवानी, अजमेर, भोगांव, अम्बाला आदि स्थलों पर विरोधियों के छक्के छुड़ा दिए थे। जैन-समाज ने भी प्रमुदित होकर अपने इस गौरवशाली पुत्र को विभिन्न अवसरों पर न्यायभूषण, न्याय-दिवाकर, तर्क-शिरोमणि, प्रवचन-चक्रवर्ती, न्यायरत्न जैसी विशिष्ट उपाधियों से विभूषित किया था।
उक्त श्लोक वार्तिकं ग्रन्थ के अतिरिक्त पण्डित जी द्वारा लिखित अन्य ग्रन्थों में से कुछ निम्न प्रकार हैं
1. धर्मफल-सिद्धान्त, 2. षद्रव्यों की आकृतियां, 3. जैनशासन-रहस्य एवं 4. दर्शन-दिग्दर्शन आदि।
पद्यावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
350