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सहयोग और धर्ममान-काल में भी देश के स्वतंत्रता आन्दोलन में उसने निरपेक्ष भाक से खुलकर भाग लिये हैं। . . . . . . .
साहित्य के क्षेत्र में पद्मावती-पुरवाल समाज ने संस्कृत, अपश के एक से एक महान् लेखकों का वरदान दिया, जिनसे न केवल जैन-विधा का, अपितु, समग्र भारतीय प्राच्य-विधा का भी गौरव बढ़ा है, हिन्दी के क्षेत्र में तो यह भी कहा जा सकता है कि उसने न केवल हिन्दी भाषा को सशक्त बनाया, अपितु विविध विद्याओं के सफल प्रयोग कर उसे सजाया-संवारा
भी।
अतीतकालीन गौरव-पुत्र इतिहासकारों के अन्वेषणों के अनुसार पद्मावती-पुरवाल जाति के कुछ ऐसे प्राचीन जैनाचार्य भी हुए हैं जिन्होंने जैनदर्शन एवं अध्यात्म संबंधी संस्कृत के मौलिक-ग्रंथों का प्रणयन किया है। ऐसे आचार्यों में दिगम्बराचार्य महाराज (वि.स.308), आचार्य देवनन्दी पूज्यपाद (पांचवी सदी), आचार्य माघचन्द्र (वि.सं.990) आचार्य लक्ष्मीचन्द्र (वि.सं. 1035) आचार्य प्रभाचन्द (वि.सं. 1310) एवं आचार्य पद्मनन्दी (वि.सं. 1385) आदि प्रमुख हैं। यद्यपि अन्वेषकों ने उन्हें पद्मावती-पुरवाल जाति के होने सम्बन्धी सबल प्रमाणों की स्पष्ट सूचना नहीं दी है।
अपभ्रंश के क्षेत्र में कुछ ऐसे भी ग्रन्थकार हुए है, जो स्वयं तो पद्मावती-पुरवाल जाति के न थे, किन्तु इस जाति के कुछ साहित्य-रसिक उदार-हृदय श्रेष्ठियों ने उन्हें प्रेरणा एवं उदार आश्रयदान देकर उनसे बहुमूल्य रचनाओं का प्रणयन कराा है। ऐसे ग्रन्थकारों में से कुछ का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है(1) महाकवि विबुध श्रीधर (वि.सं. 1208) कृत सुकुमालचरिउ (अपभ्रंश-6
सन्धियां एवं 224 कडवको इनके प्रेरक एवं आश्रयदाता थे, पद्मावती-पुरवाल कुलोत्पन्न पीये-पुत्र साहू कुलभूषण कुमारा
पथावतीपुरकास दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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