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साहू कुन्थदास भी कम साहित्य-रसिक न थे। वे बड़े भारी श्रीमन्त थे। उन्हें शेखर (मुकुट), रत्नकुण्डल आदि अलंकार अत्यंत प्रिय थे लेकिन स्वर्ण निर्मित अलंकार नहीं, ग्रन्थ रूपी अलंकार । कवि स्वयं उनक बारे में कहता है
‘साहू कुन्थदास के सिर पर समस्त दुःखों के अपहरण करने वाले महापुराण रूपी मुकुट को बांध दिया। उसके दाएं कर्ण में सुवर्णसिद्ध सम्यग्दर्शन रूपी रत्न से निवद्ध तथा रवि मण्डल की प्रभा के समान विस्तृत कौमुदी-कक्षा रूपी श्रेष्ठ कुण्डल पहिना दिया। सोलह-भावना रूपी मणियों से जड़ित जीमन्धर के गुणरूपी स्वर्ण से घटित अद्वितीय दूसरा कर्ण कुण्डल उसके बाएं कर्ण में सुशोभितकर दिया।'
जिनन्धर चरित्र 93/27/1-5
जीवन यों ही जाता है। बालपने में ज्ञान न पायो, खेलि खेलि सुख पाया है समय निकलता है प्रतिक्षण ही, मूरख मद में सोया है। धूप-चांदनी झिलमिल करती, ले आशाओं का घेरा है। धनि चेतन तू जाग आज रे मूरख रैन बसेरा है।
-चानतराय
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पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास