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प्रेरणा से की है। इस ग्रन्थ मे कवि ने द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ का जीवन वृत्त गुफिल किया है। इसमें 10 सन्धियां हैं। पूर्व भवावली के पश्चात तीर्थंकर के गर्भ, जन्म, तप ज्ञान और निर्वाण कल्याणकों का विवेचन किया है। प्रसंगवश लोक, गुणस्थान, श्रावकाचार, श्रमणाचार, द्रव्य और गुणों का भी निर्देश किया गया है।
इस ग्रन्थ की प्रथम संधि के नवम कड़वक में जिनसेन, अकलंक, गुणभद्र, गृद्धपिच्छ, प्रोष्ठिल, लक्ष्मण, श्रीधर और चतुर्मुख के नाम आये
कवि विजयसिंह की कविता उच्चकोटि की नहीं है। यद्यपि उनका व्यक्तित्व महत्वाकांक्षी का है, तो भी वे जीवन के लिए आस्था, चरित्र और विवेक को आवश्यक मानते हैं।
उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी के विद्वत जन
(अकारान्त से) पंडित प्रवर अजितकुमार जी शास्त्री आपका जन्म चावली (आगरा) उत्तर प्रदेश में हुआ। जब वि.सं. 1957 में माघ शुक्ला अष्टमी को पंडित जी का जन्म हुआ तब देश और समाज प्लेग के रोग से दुखी हो रहा था। ढाई वर्ष की अवस्था में माता-पिता के साथ सम्मेदशिखर की यात्रा की थी। चूंकि शैशवकाल में ही आपको माता-पिता के सुख से वंचित होना पड़ा था अतएव आप बड़े भाई इन्द्रप्रसाद जी के संरक्षण मे और दादी सीताबाई की गोद में क्रमशः बड़े और खड़े हुए।
सात वर्ष की आयु से आपने विद्या आरम्भ की। सन् 1913 में आप भा.दि. जैन महाविद्यालय चौरासी मथुरा में पढ़ने लगे। चार वर्ष पढ़े। कुछ समय बनारस रहे। वहां पंडित राजेन्द्रकुमार जी और पंडित कैलाशचन्द्र पद्मावतीपुरवाले दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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