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से घर के सम्पूर्ण कार्य आप एवं आपके छोटे भाई लक्ष्मण स्वरूप जी पर आ पड़े। संवत् 1990 में फरिहा में प्लेग महामारी से आपको बड़ा संघर्ष करना पड़ा। कुछ समय बाद आपके भाई लक्ष्मण स्वरूप का दुःखद वियोग, उनके तीन पुत्र एवं दो पुत्रियों तथा स्वयं के 14 वर्षीय पुत्र एवं 11 वर्षीय पुत्री का अल्पकाल में ही वियोग के महान दुःख को झेल ही नहीं पाये कि अंतिम पुत्र जो लगभग 4 वर्ष का था चल बसा । इस प्रकार अपने सामने कुल दीपक बुझ जाने के कारण आपने फिरोजाबाद जाने का निश्चय किया। परन्तु पंडित रत्नेन्दु जी जो आपके परम मित्र (गुरुभाई) ने क्षेत्र की सेवा करने के व्रत और संकल्प की प्रेरणा देकर रोका।
निस्पृह तीर्थ सेवी-इस प्रकार सांसारिक विपत्तियों को झेलकर आपने जो भी सेवाएं मरसलगंज को अर्पित की वे स्मरणीय रहेंगी। आप निरन्तर उसकी सेवा में संलग्न रहे। सन् 1963 में श्री ऋषभनाथ भगवान की विशाल पद्मासन प्रतिमा पंच कल्याणक मेला द्वारा प्रतिष्ठा कराकर क्षेत्र पर विराजमान करने का श्रेय आपको ही है।
आपका जीवन अत्यन्त धार्मिक, मुनि त्यागियों को आहार दान देने में हमेशा तत्पर, विद्वानों का आदर एवं साधर्मी भाइयों से वात्सल्य भाव आपके निजी उदात्त गुण हैं।
साहित्य सेवी-जहां तक साहित्य सेवा का संबंध है आपने कई प्रसिद्ध ग्रन्थ लिखे हैं। प्रमुख हैं-सुकुमाल महामुनि चरित (तीन भाग), सुखानन्द मनोरमा चरित (दो भाग), भगवत लावनी शतक संग्रह तथा भगवान पार्श्वनाथ पूजा आदि हैं।
आपको शांतिवीर सिद्धान्त संरक्षिणी सभा ने 'धर्मभूषण' की उपाधि से विभूषित किया तथा मरसलगंज के वार्षिक मेले के अवसर पर आपका अभिनन्दन कर सम्मानार्थ 'अभिनन्दन ग्रंथ दिया जो उनकी अतुलनीय सेवाओं के आगे छोटा है।
पावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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