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ओर से 'न्यायालंकार' उपाधि दी। कलकत्ता के जैन समाज ने दशलक्षण पर्व में बुलाया और शंका समाधान, शास्त्र प्रवचन से 'न्याय दिवाकर' की उपाधि दी।
सभापतित्व एवं सम्पादन - दिगम्बर जैन शास्त्री परिषद सिवनी अधिवेशन में आप सभापति रहे । दिगम्बर जैन सिद्धान्त संरक्षिणी ने फरिहा में आपको सभापति बनाकर सम्मानित किया । 'जैन गजट' का आपने बारह वर्ष तक सम्पादन किया। कुछ समय के लिए आपने 'जैन गजट' को अर्ध साप्ताहिक भी कर दिया था। 'जैन दर्शन' पाक्षिक स्वतंत्र पत्र पुनः प्रकाशित किया। बाद में यही पत्र सिद्धान्त संरक्षिणी सभा का मुख - पत्र बन गया। भा. दि. जैन महासभा परीक्षालय के वर्षों मंत्री रहे । आपके गुणों को देखकर अनेक आचार्यों ने आशीर्वाद दिये। आपने आचार्य शांतिसागर संघ के संकट राजाखेड़ा में कौशल पूर्वक दूर कर दिया। अपने जीवन को जोखिम में डालकर आक्रमकों को पकड़वा दिया। केस चला तो अपराधियों को पांच वर्ष जेल व 100/- जुर्माना किया गया ।
चारित्र की दशा में प्रवृत्ति - आपने आचार्य श्री शांतिसागर महाराज से दूसरी प्रतिमा के व्रत लिये व आचार्य महावीर कीर्ति जी से तीसरी प्रतिमा के व्रत लिये। जैनों के हाथ का ही कुएं का जल लेते थे । इस जल लेने के प्रयत्न में एक बार आपके प्राणों पर आ बनी। आप पंजाब मेल चढ़ते समय गिरे पर निरापद रहे । आप पद्मावती देवी का प्रसाद मानते थे । आपने अपने लिए कभी कहीं से भेंट नहीं ली। आपकी यह निर्लोभिता आपको आदर्श विद्वान प्रमाणित करती थी। आपने अनेक सिद्ध क्षेत्रों की वन्दना की । आचार्य शांतिसागर जी ने अपने संलेखना काल में भी आपको आशीर्वाद दिया- 'तुम अपना धर्मसाधन करते हुए निर्भीकता से धर्मरक्षा में तत्पर रहते हो, आगम पर अटल श्रद्धा रखते हो, अतः तुम्हारा सम्यग्दर्शन दृढ़ है, तुम्हारा कल्याण होगा ।'
पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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