________________
आचार्य श्री को जल मंदिर से बाहर निकाल दिया। आचार्य श्री शांतिपूर्वक बाहर बैठ गये। उस असहनीय सर्दी में रातभर बाहर रहने के कारण आपका सारा शरीर अकड़ गया तथापि आचार्यश्री ने यह सब सहज भाव से सहन किया तथा वीरता का परिचय दिया। वास्तव में आचार्यश्री ने इस अत्यन्त विषम कलियुग में इस वीतराग साधुचर्या में रहकर अपने अपूर्व आत्म तेज, अविचल धर्मनिष्ठा और आदर्श मुनि का उदाहरण उपस्थित किया।
आचार्यश्री में ब्रह्मचर्य की अपूर्व आभा दिखती थी। इसके कारण ही आप घण्टों तक एक आसन से अविचल होकर ध्यान मग्न रहते थे। आपने जबसे मुनिव्रत धारण किया तबसे इन्दौर, भोपाल, कटनी, शिखरजी, फिरोजाबाद, जयपुर, नागौर, उदयपुर, गिरनार, पावागढ़, ऊन, धरियाबाद, बड़वानी, मांगीतुंगी, गजपन्था, हुम्मच पद्मावती, कुन्थलगिरि आदि अनेक बड़े-बड़े शहरों और सिद्धक्षेत्रों में चातुर्मास योग धारण किया। __ आचार्यश्री महावीरकीर्ति जी महाराज ज्योतिष, मंत्र-तंत्र के ज्ञाता तो थे ही, आप में सत्य भविष्यवाणी करने की, विष दूर करने की एवं असाध्य रोगों को दूर करने की क्षमता उत्पन्न हो गई थी। कई घटनाएं भक्तों द्वारा सुनी गई हैं। सिद्धांत चक्रवर्ती आचार्य श्री विद्यानन्दजी महाराज ने इन्हीं आचार्य श्री महावीरकीर्ति महाराजजी से क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की थी।
आचार्यश्री की अंतिम समाधि-आचार्यश्री की निर्वाण भूमियों के प्रति अपार निष्ठा थी। शायद इसीलिए कि आप स्वयं निर्वाण के तीव्र अभिलाषी थे। मुनि हो या श्रावक अन्त समय में समाधिमरण से शरीर को शांत परिणामों से छोड़ना ही श्रावक और मुनिधर्म का सार या फल है। आचार्यों ने समाधिमरण का महत्व शास्त्रों में बताया है। अन्त समय में समाधिमरण से मृत्यु होना स्वर्ग और मोक्ष का कारण है।
जब आप गिरनार क्षेत्र के दर्शन कर शजय अहमदाबाद होते हुए पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास