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ऐसे परोपकारी सद्गुरु इस वर्तमान काल में बहुत कम पाये जाते हैं। जो स्वयं चारित्रिक भूमिका पर आरूढ़ होकर पिरों को उठाने में और उठों को धर्म का अमृत देने में निरत रहते हैं। धर्म की आधारशिला इन्हीं पूज्य संतों पर टिकी है तथा जीवन्त है।
आपकी समाधि सन् 1994 में श्री सिद्धक्षेत्र सम्मेदशिखर पर हुई। विमल समाधि
बीसवीं सदी के आचार्य पद पर प्रतिष्ठित अमर संतों में आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज ही एक मात्र ऐसे संत है जिन्होंने तीर्थराज सम्मेद शिखरजी पर सल्लेखना पूर्वक सम्यक् समाधि मरण किया। उनकी अमर स्मृति समाधि मन्दिर की भव्य, अनूठी, दिव्य-रचना भी दर्शनीय, वन्दनीय है। इस विमल समाधि मन्दिर में तीन गृह हैं
प्रथम गृह में आचार्य श्री की आशीर्वाद मुद्रा युक्त वात्सल्यमयी मूर्ति विराजमान है जो भव्यात्माओं को पर्वतराज की ओर चढ़ते हुए तथा उतरते हुए मानो मंगल आशीर्वाद प्रदान कर रही है। द्वितीय गृह में आचार्य श्री के पुनीत चरण-कमल विराजमान हैं, जो मुमुक्ष को मंगल आचरण के लिए संकेत कर रहे हैं तथा तीसरा गृह आराधकों को शांति से बैठकर आराधना करने के लिए सुरक्षित किया गया है।
आचार्यश्री की मुनिदीक्षा सिद्धक्षेत्र सोनागिर जी पर हुई थी। स्मृति स्वरूप मुनि श्री चैत्यसागर जी की प्रेरणा से पर्वतराज सोनागिर जी पर भी छतरी निर्मित की गई है।
वीर निर्वाण संवत् 2515 सन् 1989 में स्याद्वाद विमल ज्ञानपीठ (अ. भा.श्री स्याद्वाद शिक्षण परिषद) सोनागिर (दतिया) द्वारा सन्मति दिवाकर परम पूज्य श्री आचार्य विमलसागर जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित कराया गया।
पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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