________________
• आपकी रुचि प्रारम्भ से ही विरक्ति की ओर चीन बालपन से ही आपका स्वभाव सरल, मृदु एवं व्यवहार नम्रतापूर्वक रहा। विद्यार्थी जीवन में आपकी बुद्धि प्रखर एवं तीक्ष्ण थी। वस्तु परिज्ञान आपको शीघ्र ही हो जाता था। आपकी स्कूली शिक्षा कक्षा 4 तक ही इन्दौर जिला के 'अजनास' गांव में हुई।
वैराग्य की ओर बढ़ते कदम-प्रारम्भिक शिक्षा के बाद संवत् 2000 में आपने आचार्यवर श्री वीरसागर जी महाराज के प्रथम दर्शन किये। फलतः आपके हृदय में परम कल्याणकारी जैन धर्म के प्रति अनन्य श्रद्धा ने जन्म लिया। 17 वर्ष की अल्पायु में आचार्यश्री की सत्प्रेरणा से प्रभावित होकर
आप संघ में शामिल हो गये और जैनागम का गहन अध्ययन प्रारम्भ कर दिया। जैसे-जैसे आपकी निर्मल आत्मा को ज्ञान प्राप्त होता मया वैसे-वैसे आपकी प्रवृत्ति वैराग्य की ओर होने लगी। वि.सं. 2002 में आपने झालरापाटन (राजस्थान) में आचार्यवर श्री वीरसागर जी महाराज से सातवीं प्रतिमा के व्रत अंगीकार कर लिये।
इस अवस्था में आकर आपने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत की कठिन प्रतिज्ञा लेकर सांसारिक भोग विलासों को ठुकराते हुए कठोर व्रतों का अभ्यास कर शरीर को दुर्द्धर तपस्या का अभ्यासी बनाया। इस पवित्र ब्रह्मचर्य अवस्था में आकर आपने अथक श्रम से आगम का ज्ञान प्राप्त किया उससे आपकी उचित प्रतिष्ठा हुई।
ज्ञानवृद्धि व पद प्रतिष्ठायें-ज्ञानवृद्धि के साथ आपकी ख्याति फैलती गई। अनेक पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं में सफलतापूर्वक व्रतविधान कराने के कारण 'प्रतिष्ठाचार्य', आत्म-कल्याण की ओर प्रवृत्त अनेक श्रावक-श्राविकाओं को आगम की उच्च शिक्षा देने के कारण ‘महापंडित' तथा अपनी विद्वतापूर्ण प्रवचन शैली, लेखन-शैली के कारण विद्यावारिधि' पद से समाज ने आपकी साधना को अलंकृत किया।
पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
68