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धार्मिक विधिविधानों को शास्त्रोक्ति रीति से कराना प्रारम्भ कर दिया और अल्प समय में ही इस क्षेत्र में प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली।
जैन धर्म की रक्षा में तत्पर-जैन धर्म एवं धर्मायतनों की रक्षा के लिए आप सदैव तत्पर रहते थे। एक बार उत्तर प्रदेश के केलई ग्राम में एक जिन मंदिर के निर्माण पर व्यवधान डाल रहे अल्पमतियों को मंत्रशक्ति के बल से पराजित कर जैन मंत्रों की शक्ति एवं जिन भक्ति का साक्षात उदाहरण प्रस्तुत किया।
सर्वगुण सम्पन्न पंडित जी अपने क्षेत्र में सेवा भाव से वैद्य का कार्य भी करते थे तथा वस्त्र व्यवसाय भी करने लगे। साइकिल पर कपड़ा लादकर गांव-गांव कपड़ा बेचने जाने लगे।
सम्मेद शिखर जी की वन्दना-एक समय आप सिद्धभूमि श्री सम्मेदशिखरजी की वन्दनार्थ बिना ब्रेक की साइकिल पर दृढ़ इच्छा शक्ति के बल पर चल दिये और रास्ते की विभिन्न बाधाओं को झेलते हुए तीर्थ वन्दना सफलता पूर्वक कर महान पुण्य का संचय किया।
तीर्थवन्दना का साक्षात फल-तीर्थ वन्दना से वापिस लौटने पर साइकिल खराब हो गई। कोई दुकान दिखाई नहीं दी तो णमोकार मंत्र का जाप करते हुए जंगल में चले। अब तक उन्हें एक दाढ़ी वाला बाबा और साइकिल की दुकान दिखी। पंडित जी के निवेदन पर उसने साइकिल सुधार दी। पंडित जी कुछ आगे बढ़े कि ध्यान आया कि पंप तो दुकान पर ही रह गया है तो वापस लौटे। परन्तु आश्चर्य! पंडित जी आश्चर्य चकित रह गये क्योंकि वहां कोई दुकान नहीं थी और न दाढ़ी वाला बाबा, केवल पंप यथा स्थान रखा था। आप एक बार श्री गिरनार जी की वन्दना को भी गये।
वैराग्य और दीक्षायें-श्री नेमीचन्द जी ने मथुरा, अलवर, बड़ौदा, आगरा, जयपुर आदि का भ्रमण विभिन्न दृष्टिकोणों से किया। आप जब जयपुर पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास