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विश्वास रखते थे। उनकी विद्वत मंडली में प्रमुख थे - श्री अयोध्याप्रसाद जी, श्री ज्ञानचंद जी, श्री लाला पदमचंद जी आदि ।
तर्कशक्ति से विजयी - एक बार पंडित जी की आर्यसमाजियों से शास्त्रार्थ जैसी स्थित बन गई। आर्यसमाजी पंडितों ने अपनी विभिन्न शंकायें समाधानार्थ रखीं
1. ऐसा भोजन चाहिए जो किसी खेत का बोया नहीं हो। किसी अन्न का भी न हो और जिस अग्नि में पकाया गया हो वह अग्नि न कोयले की हो, न लकड़ी, न गैस स्टोव आदि किसी प्रकार की हो और पेट भी भर जाये ।
2. पानी ऐसा चाहिए जो न कुएं का हो, न नल का, न बावड़ी का न सागर, न तालाब या कुण्ड का ही हो और प्यास भी बुझ जाये ।
3. जिस वस्तु से यह भोजन परोसा जाये वह वस्तु भी चम्मच आदि न हो ।
4. भोजन का ग्राहक न देव हो, न तारकी हो, न तिर्यञ्च हो और न मनुष्य ।
बस संचित ज्ञान प्रस्फुटित हो उठा, समाधान के स्वर स्वतः निसृत होने लगे पं. नेमीचन्द के
ज्ञान रूपी भोजन अपनी आत्मा से आत्मा में ही उत्पन्न होकर समता रूपी जल का सिंचन कर ध्यानरूपी अग्नि से पकाकर अनुभवरूपी चम्मच से आस्वादन करता हुआ योगी निरन्तर ऐसे भोजन का पान करता हुआ कभी भी अघाता नहीं है ?
उत्तर से संतुष्ट होकर वे आर्यसमाजी विद्वान पंडित जी के ज्ञान का लोहा माने बिना नहीं रहे ।
प्रतिष्ठाचार्य के रूप में सम्यक्ज्ञान का प्रचार-प्रसार करने एवं जैन संस्कृति की अक्षुण्ण परम्परा को बनाए रखने के उद्देश्य से पंडित जी ने पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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