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ब्रह्मगुलाल छह माह की मोहलत लेकर तथा अपनी पत्नी और मित्र और परिवार जनों को समझा बुझाकर जंगलों में चले गये और दिगम्बर मुनि की दीक्षा लेकर घोर तप साधना करने लगे। छह माह बाद वे दिगम्बर मुनि ' के रूप में दरबार में आये। राजा को उपदेश देकर उनका शोक दूर किया। जब उनकी असलियत का पता लगा तो राजा और प्रजा ने, उनकी पत्नी और मित्र ने मुनि वेष त्यागकर गृहस्थ जीवन यापन करने का अनुरोध किया । किन्तु उन्होंने सबको एक ही उत्तर दिया- 'संसार में सब स्वांग भरे जा सकते हैं किन्तु दिगम्बर मुनि का स्वांग नहीं भरा जाता और एक बार दिगम्बर मुनि बनने पर वह परम पवित्र पद छोड़ा नहीं जाता।' यह कहकर वे जंगल की ओर चले गये। उनके मित्र मथुरामल भी उनका अनुगमन करते हुए जंगल में चले गये और मुनिराज ब्रह्मगुलाल से क्षुल्लक पद की दीक्षा लेकर गुरु के साथ साधना में निरत हो गये ।
लोकमानस में उनकी ऐसी छाप पड़ी थी कि एटा निवासी कविवर छत्रपति ने इनके जीवन चरित एवं रचनाओं पर एक छोटा सा काव्य ब्रजभाषा संवत 1909 में लिखा था। ब्रह्मगुलाल चरित दोहा चौपाई की शैली में है । ब्रह्मगुलाल चरित नाम काव्य भी कई वर्षों तक पद्मावती पुरवाल समाज में विशेषकर महिलाओं में केवल धार्मिक भावनाओं से ही पढ़ा जाता था।
एटा निवासी कविवर क्षत्रपति ने इनके पिता के संबंध में लिखा है'सोलह सौ के ऊपरै, सत्रहसों के मांहि । पंडित ही में ऊपजे, दिरंग हल्ल दो भाय ॥
ब्रह्मगुलाल के पिता हल्ल का जन्म 1600 से ऊपर और सत्रह सौ के अन्दर पांडों में ही हुआ था । हल्ल की प्रथम पत्नी के देहावसान के बाद दूसरी पत्नी से ब्रह्मगुलाल का जन्म हुआ था। अनुमान है कि इनका जन्म 1640 के लगभग रहा होगा।
पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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