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कविवर क्षत्रपति ने इस ग्रन्थ को संवत् 1909 में पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र माधवदी 12 शनिवार की संध्या को पूर्ण किया था जिसका प्रमाण यह दोहा है
"संक्त विक्रम लो सार, रसनम, रसससि ए अंकलार।
बदि माघ द्वादशी सनी मान, पूरण रिघि पूर्वापाट मांग ॥ इस प्रकार श्री ब्रह्मगुलाल जी के निधन के 200 वर्ष बाद इस ग्रन्थ की रचना की गई।
इतिहास में उल्लेख है कि पद्मावती पुरवाल ब्रह्मगुलाल पद्मावती (वर्तमान पवाया) से चलकर गंगा यमुना के बीच ‘टापू' या टापा गांव पहुंचे। कुछ विद्वानों के अनुसार यह टापा गांव चन्दवार निकट (फिरोजाबाद के पास) है। इसी टापा ग्राम में ये लोग आकर बस गये थे। ___टापा गांव वर्तमान काल में फिरोजाबाद नगर के उत्तर में दो मील दूर एक छोटी बस्ती है। उस समय टापा नगर एक राजा की राजधानी था। चन्दवार के राजा कीर्तिसिंह का राज्य टापे तक फैला हुआ था।
इनका पालन पोषण बड़े लाड़ प्यार से हुआ। स्वस्थ एवं सुन्दर होने के कारण उनकी शिक्षा एक श्रुत पाठक विद्वान के द्वारा हुई। अल्पकाल में ही ये धर्मशास्त्र, गणित, व्याकरण, काव्य, साहित्य, छन्द, अलंकार, शिल्प शकुनशास्त्र, वैद्यक आदि में पारंगत हो गये जैसा कि कवि छत्रपति ने लिखा है
'ब्रह्मगुलाल कुमारणे, पूर्व उपग्यो पुण्य।
पाते बहु विद्या फुरी, कमो जगत ने धन्य॥' इन्हें दूसरों की रची लावनी, शैर आदि सुनकर गाने की अभिरुचि उत्पन्न हो गई जिसके कारण स्वयं भी कविता करने लगे। इनकी प्रारम्भिक रचनाएं वीर, हास्य, श्रृंगार तथा अश्लीलता को स्पर्श करने वाली थीं। रासलीला रचने, स्वांग करने तथा अभिनय की प्रवृत्ति उत्तरोत्तर
पधावतीपुरुषाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास