________________
नन्दिसंघ की पट्टावली में लिखा है कि कुन्दकुन्द वि० सं० ४६ में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए । ४४ वर्ष की अवस्था में उन्हें आचार्य पद मिला। ५१ वर्ष १० महीने तक वे उस पद पर प्रतिष्ठित रहे । उनकी कुल आयु ६५ वर्ष १० महीने और १५ दिन की थी ।" आपने आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव का संक्षिप्त जीवन परिचय देखा । इन्होंने अपने साधु जीवन में जितने ग्रन्थ लिखे हैं, उससे सहज ही यह अनुमान हो जाता है कि इनके साधु जीवन का बहुभाग लेखन कार्य में ही बीता है, और लेखन कार्य वन में विचरण करते कर नहीं सकते। बरसात, आँधी, पानी, हवा आदि में लिखे गये पृष्ठों की या ताड़पत्रों की सुरक्षा असम्भव है । इससे ऐसा लगता है कि ये आचार्य मन्दिर, मठ, धर्मशाला, वसतिका आदि स्थानों पर भी रहते होंगे ।
कुछ लोग कह देते हैं कि कुन्दकुन्ददेव अकेले ही आचार्य थे । यह बात भी निराधार है, पहले तो वे संघ के नायक महान् आचार्य गिरनार पर्वत पर संघ सहित ही पहुँचे थे। दूसरी गुर्वावली में श्री गुप्तिगुप्त, भद्रबाहु आदि से लेकर १०२ आचार्यों की पट्टावली दी है । उसमें इन्हें पांचवें पट्ट पर लिखा है । यथा - १. श्री गुप्तिगुप्त, २. भद्रबाहु, ३. माघनन्दी, ४. जिनचंद्र, ५. कुन्दकुन्द, ६. उमास्वामि, आदि । इससे स्पष्ट है कि जिनचन्द्र आचार्य ने इन्हें अपना पट्ट दिया, पश्चात् इन्होंने उमास्वामि को अपने पट्ट का आचार्य बनाया। यही बात नन्दिसंघ की पट्टावली के आचार्यों की नामावली में है । यथा - १४. जिनचन्द्र, ५. कुन्दकुन्दाचार्य, ६. उमास्वामी ।" इन उदाहरणों से सर्वथा स्पष्ट है कि ये महान संघ के आचार्य थे। दूसरी बात यह भी है कि इन्होंने स्वयं अपने 'मूलाचार्य' में “माभूद मेसत्तु एगागी" मेरा शत्रु भी एकाकी न रहे ऐसा कहकर पंचम काल में एकाकी रहने का मुनियों के लिए निषेध किया है । इनके आदर्श जीवन, उपदेश व आदेश से आज के आत्म हितैषियों को अपना श्रद्धान व जीवन उज्ज्वल बनाना चाहिए। ऐसे महान जिनधर्म प्रभावक परम्पराचार्य भगवान श्री कुन्दकुन्ददेव के चरणों में मेरा शतशत नमोऽस्तु !
- आर्यिका ज्ञानमती
१. जैनधर्म का प्राचीन इतिहास, भाग २, पृ. ८५ ।
२. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग ४, पृ. ३६३ ३. वही, पृ. ४४१ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
आद्य उपोद्घात ४१
www.jainelibrary.org