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इन पाँचों प्रशस्तियों में श्री कुन्दकुन्द के चारण ऋिद्धि का कथन है । जैनेद्रसिद्धान्त कोश में, तथा शिलालेख नं० ६२, ६४, ६६, ६७, २५४, २६१, ० २६३, २६६ आदि सभी लेखों से यही घोषित होता है कि कुन्दकुन्दाचार्य वायु द्वारा गमन कर सकते थे 1
४. जैन शिलालेख संग्रह ( पृ० १६७ - १६८ ) के अनुसार
रजोभिरस्पष्टतमत्वमन्तर्बाह्यापि संव्यंजयितुं यतीशः ।
रजः पदं भूमितलं विहाय, चचार मन्ये चतुरंगुलं सः ॥
यतीश्वर श्री कुन्दकुन्ददेव रजःस्थान को और भूमितल को छोड़कर चार अंगुल ऊँचे आकाश में चलते थे । इसका यह भी तात्पर्य हो सकता है कि वह अन्दर और बाहर में रज से अत्यन्त अस्पष्टपने को व्यक्त करते थे ।
हल्ली नं० २१ ग्राम हेग्गरे में एक मन्दिर के पाषाण पर लेख "स्वस्ति श्रीबर्द्धमानस्य शासने । श्री कुन्दकुन्दनामाभूत् चतुरंगुलचारणे ।" श्री वर्द्धमानस्वामी के शासन में प्रसिद्ध श्री कुन्दकुन्दाचार्य भूमि से चार अंगुल ऊपर चलते थे ।
० प्रा० । मो० प्रशस्ति । पृ० ३७६ में उल्लेख है - "नामपंचकविराजितेन चतुरंगुलाकाशगमनदिना..." नाम पंचक विराजित ( श्री कुन्दकुन्दाचार्य) ने चतुरंगुल आकाश गमन ऋद्धि द्वारा विदेह क्षेत्र की पुण्डरीकिणी नगर में स्थित श्री सीमंधरप्रभु की वन्दना की थी ।"
भद्रबाहु चरित में राजा चन्द्रगुप्त के सोलह स्वप्नों का फल कहते हुए आचार्य ने कहा है कि "पंचमकाल में चारण ऋद्धि आदि ऋद्धियाँ प्राप्त नहीं होतीं अतः यहाँ शंका होना स्वाभाविक है किन्तु वह ऋद्धि-निषेध कवन सामान्य समझना चाहिए। इसका अभिप्राय यही है कि "पंचम काल में ऋद्धि प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है, तथा पंचमकाल के प्रारम्भ में ऋद्धि का अभाव नहीं है परन्तु आगे उसका अभाव है ऐसा भी अर्थ समझा जा सकता है। यही बात पं० जिनराज फडकुले ने मूलाचार की प्रस्तावना में कही है।
ये तो हुईं इनके मुनि-जीवन की विशेषतायें, अब आप इनके ग्रन्थों को देखिए
५. ग्रन्थ रचनाएँ -- कुन्दकुन्दाचार्य ने समयसार आदि ८४ पाहुड रचे, जिनमें १२ पाहुड ही उपलब्ध हैं । इस सम्बन्ध में सर्व विद्वान एकमत हैं । परन्तु इन्होंने षट्खडागम ग्रन्थ के प्रथम तीन खण्डों पर भी एक १२००० श्लोक प्रमाण 'परिकर्म' नाम की टीका लिखी थी, ऐसा श्रुतावतार में आचार्य इन्द्रनन्दि ने स्पष्ट उल्लेख किया है । इस ग्रन्थ का निर्णय करना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि इसके आधार पर ही आगे उनके काल सम्बन्धी निर्णय करने में सहायता मिलती है
एवं द्विविधो द्रव्य भावपुस्तकगतः समागच्छन् । गुरुपरिपाट्या ज्ञातः सिद्धांत: कोण्डकुण्डपुरे ॥ १६०॥ श्री पद्मनन्दिमुनिना सोऽपि द्वादशसहस्रपरिमाणः । ग्रन्थपरिकर्मकर्ता षट्खंडाद्यत्रिखंड || १६१ ॥
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आद्य उपोद्घात / ३६
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