________________ (12) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध एक अचेलक, दूसरा उद्देशिक, तीसरा प्रतिक्रमण, चौथा राजपिंड, पाँचवाँ मासकल्प और छठा पर्युषण कल्प ये छह कल्प निश्चय से नहीं होते। जैसी मर्यादा बाईस तीर्थंकरों के साधुओं की कही है, वैसी ही मर्यादा महाविदेह क्षेत्र के तीर्थंकरों के साधु-साध्वियों की भी जानना। ___यहाँ कोई प्रश्न करे कि साधु तो सब समान हैं, फिर उनके आचार में भेद क्यों हुआ? इसका उत्तर देते हैं- श्री ऋषभदेवजी के समय में लोग ऋजु और जड़ होते हैं। उन्हें धर्म समझाना बड़ा कठिन होता है। तथा श्री महावीर भगवान के समय में लोग वक्र और जड़ होते हैं। उन्हें धर्म का पालन करना बड़ा दुर्लभ होता है। और मध्य के बाईस तीर्थंकरों के समय में सब लोग ऋजु और प्राज्ञ होते हैं। इस कारण से उन्हें धर्म समझाना भी सुलभ होता है और धर्म का पालन करना भी सरल होता है। इस प्रकार मनुष्यों के परिणामों में भेद होने के कारण कल्प में भेद हुआ है, ऐसा जानना चाहिये, पर परमार्थ से कुछ भी भेद नहीं हैं। केवल पुरुषों के परिणाम के भेद हैं। ऋजुजड़, ऋजुप्राज्ञ और वक्रजड पुरुषों से संबंधित दृष्टान्त , प्रथम तीर्थंकर के साधु ऋजु और जड़ होते हैं; सो दृष्टान्त से समझाते हैं- श्री ऋषभदेव के तीर्थ में किसी आचार्य का शिष्य स्थंडिल-भूमि गया। वह बहुत देर से वापस आया। गुरु ने उससे पूछा- 'हे शिष्य! तुझे इतनी देर क्यों लगी?' तब वह शिष्य ऋजुता से बोला- 'हे स्वामिन्! नाटक करने वाले खेल कर रहे थे, सो देखने के लिए मैं खड़ा रहा। इस कारण से अधिक समय लगा।' यह सुन कर गुरु ने कहा। - 'हे वत्स! हम साधु है। हमें नाटक देखने के लिए खड़ा नहीं रहना चाहिये। इससे पाप लगता है। इस कारण से यह हमारे लिए अकल्पनीय है।' तब शिष्य ने 'तहत्ति' कहा। याने कि जो आप कहते हैं वही प्रमाण है। आज के बाद फिर नहीं देखूगा, ऐसा कहा। पुनः एक बार वही शिष्य बाहर भूमि गया और बहुत देर से वापस आया। तब गुरु ने पूछा कि इतनी देर क्यों लगी? तब वह शिष्य बोला कि