Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/49
कच्चादूध-दही-छाछ- प्रासुकजल आदि की काल मर्यादा, दही जमाने की विधि. रसोई, परिण्डा, चक्की आदि क्रियाओं का वर्णन, मिट्टी के बर्तन में खान-पान करने का निषेध, हरी शाक आदि सुखाने का निषेध, जलगालन की विधि, प्रसूता
और रजस्वला स्त्री की शुद्धि का विधान, सप्तव्यसन सेवन करने वाले पुरुषों का उल्लेख कर व्यसनों के त्याग का उपदेश, श्रावक को घृत, तेलादि के व्यापार करने का निषेध, सम्यक्त्व की महिमा उनके भेदों एवं दोषों का वर्णन, सात धर्म क्षेत्रों में धन खर्च करने का विधान, बारहव्रत, ग्यारहप्रतिमा, शील प्रभाव का वर्णन, अनन्तानुबन्धी चार कषायों का सोदाहरण विवेचन, बारह प्रकार का तप, चार प्रकार का ध्यान, सम्यग्दृष्टि की परिणति, रात्रि भोजन के दोष इत्यादि कई विषय सविस्तृत विवेचित हुए हैं। इनकी अन्य १८ रचनाएँ भी उपलब्ध होती हैं जिनमें ८ रचनाएँ मौलिक है ७ रचनाएँ अनुदित है। इन सभी कृतियों का नाम मात्र पढ़ने से ज्ञात होता है कि श्री दौलतरामजी चार अनुयोगों के निष्णात ज्ञाता थे। धर्मसंग्रह-श्रावकाचार
___ इस कृति के रचयिता श्रीपण्डित मेधावी है। यह कृति' संस्कृत के १४४४ पद्यों में निबद्ध है। इस कृति का हिन्दी अनुवाद श्री उदयलाल जैन कासलीवाल ने किया है। यह रचना दस अधिकारों में विभक्त है। इसका रचनाकाल वि.सं. १५४१ है।
इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगल, ग्रन्थ उद्देश्य एवं उपकार स्मृति के रूप में ११ पद्य दिये गये हैं उनमें १८ दोषों से रहित, सिद्धभगवान, सरस्वतीदेवी, चतुर्दशपूर्वधारी, अपनी परम्परा के जिनसेन, भद्राचार्य, समन्तभद्र, अकलंकदेव आदि को नमस्कार किया है और जिस शास्त्र को सुनने एवं पढ़ने से धर्म का संग्रह होता हो तथा धर्म का बोध अच्छी तरह हो जाता हो ऐसे 'धर्मसंग्रह' नामक कृति को रचने की प्रतिज्ञा की है। इसमें ग्रन्थकर्ता ने प्रशस्ति रूप ४१ श्लोक वर्णित किये हैं, उनमें ग्रन्थ को निस्वार्थ भावना से रचने का उल्लेख किया है तथा धर्म की महिमा को वर्णित किया है साथ ही इस ग्रन्थ का महत्व भी निर्दिष्ट किया है।
प्रस्तुत श्रावकाचार का प्रारम्भ कथा ग्रन्थों के समान मगधदेश तथा श्रेणिक नरेश के वर्णन से किया गया है और इसी वर्णन में प्रथम अधिकार समाप्त हुआ है। दूसरे अधिकार में वनपाल द्वारा भगवान महावीर के विपुलाचल
' यह ग्रन्थ बाबू सूरजभानु वकील, जैन सिद्धांत प्रचार मण्डली देवबन्द (सहारनपुर) से, सन् १६१० में प्रकाशित हुआ है।
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