Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 668
________________ 638 / विविध विषय सम्बन्धी साहित्य का रचनाकाल ईस्वी सन् की ५ वीं शताब्दी से पूर्व का है। प्रस्तुत कृति का यह काल निर्धारण नन्दीसूत्र, पाक्षिकसूत्र, नन्दीचूर्णि, आवश्यकचूर्णि, दशवैकालिकचूर्णि एवं निशीथचूर्णि के आधार पर होता है। चूर्णियों का काल लगभग ६-७ वीं शताब्दी माना जाता है । अतः तंदुलवैचारिक का रचनाकाल इसके पूर्व का होना चाहिए । पुनः इसका उल्लेख नन्दीसूत्र मे है, अतः यह ५ वीं शती के पूर्व की रचनाएँ है। तंदुलवैचारिक शब्द का परिचय देते हुए कहा गया है कि सौ वर्ष की आयु वाला मनुष्य प्रतिदिन जितना चावल खाता है, उसकी जितनी संख्या होती है उसी के उपलक्षण रूप संख्या का विचार करना तंदुलवैचारिक है । 'तंदुलवैचारिक' इस नाम से ऐसा प्रतीत होता है कि मानों इसमें मात्र चावल के बारे में विचार किया गया होगा, परन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। इसमें मुख्य रूप से मानव जीवन के विविध पक्षों यथा- गर्भावस्था मानव शरीर रचना, उसकी शत वर्ष की आयु के दस विभाग, उनमें होने वाली शारीरिक स्थितियाँ, उसके आहार आदि के बारे में भी पर्याप्त विवेचन किया गया है। मेरे शोध का मुख्य ध्येय विधि-विधान परक विषयों का परिचय कराना है। प्रस्तुत कृति में प्रमुख रूप से दो प्रकार की विधि उपलब्ध होती है। प्रथम विधि 'गर्भगत जीव की आहार विधि' से सम्बन्धित हैं। इसमें बताया गया हैं कि गौतम महावीर से प्रश्न करते हैं कि हे भगवन् ! गर्भस्थ पर्याप्त जीव मुख के द्वारा कवल आहार करने में समर्थ है ? या नहीं ? उत्तर में कहा जाता है नहीं। तो फिर उसकी आहार विधि कैसी है ? हे गौतम ! गर्भस्थ जीव सभी ओर से आहार करता है और उसे सभी ओर से परिणमित करता है, सभी ओर से श्वास लेता है और छोड़ता है निरन्तर आहार करता है और निरन्तर उसे परिणमित करता है। वह गर्भस्थ जीव जल्दी-जल्दी आहार करता है और जल्दी-जल्दी ही उसे परिणमित करता है इत्यादि । यही गर्भस्थ की आहारविधि' है। द्वितीय कालपरिमाण निवेदक घटिका यन्त्र विधि प्रस्तुत की गयी है। प्रस्तुत विधान के बारे में उल्लेख करते हुए कहा गया है कि अनार के पुष्प की आकृति वाली लोहमयी घड़ी बना करके उसके तल में छिद्र करना चाहिए। वह घडी का छिद्र तीन वर्ष के गाय के बच्चे के पूंछ के छियानवें बाल जो सीधे हो गर्भस्थ अवस्था में माता के शरीर से पुत्र के शरीर को जोड़ने वाली जो नाड़ियाँ होती हैं उनके माध्यम से ही गर्भस्थ जीव माता के द्वारा परिणमित और उपचित आहार को ग्रहण करता है और निस्सरित करता है इसलिए गर्भस्थ जीव न तो मुख से आहार करने में सक्षम है और न उसके अपने मल, मूत्र, पित्त, कफ आदि होते हैं। " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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