Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 701
________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 671 ६. वंदणयभासं- यह कुलक श्री अभयदेवसूरि का है इसमें तीन प्रकार की वन्दन विधि एवं तत्सम्बन्धी विषय की चर्चा है। यह कुल ३३ पद्य का है। ७. दाणविहिकुलयं- यह अज्ञातकर्तृक है। इस कृति के नाम से ही ज्ञात होता है कि इसमें दान की विधि कही गई है। यह २५ पद्यों में निबद्ध है। ८. व्यवस्थाकुलक- यह ६२ पद्यों में रचित है। इसके रचयिता खरतरगच्छीय जिनदत्तसूरि है। इसमें साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका के सामाचारी एवं आवश्यक कृत्य सम्बन्धी विधि-विधान कहे गये हैं। ६. श्रावकधर्मकृत्य- यह प्रकरण खरतरगच्छीय जिनेश्वरसूरि का है। इसमें अत्यन्त विस्तार के साथ श्रावक के व्रतसम्बन्धी, दिनकृत्यसम्बन्धी एवं पर्वसम्बन्धी विधि-विधान निरूपित हुए हैं। श्रावक के गुण, व्रत दिलाने वाले गुरु के गुण इत्यादि का भी वर्णन हुआ है। यह रचना संस्कृत के २४८ पद्यों में निबद्ध है । १०. पोसहविहिपयरणं - यह प्रकरण श्रीजिनवल्लभसूरि का है इसमें पौषधविधि की चर्चा है। इसका विवरण अलग से प्रस्तुत करेंगे। संघपट्टक प्रस्तुत काव्य के रचयिता जिनवल्लभगणी हैं'। ये विक्रम की १२ वीं शती के उद्भट विद्वानों में से एक थे। इनका अलंकारशास्त्र, छन्दशास्त्र, व्याकरण, दर्शन, ज्योतिष और सैद्धान्तिक विषयों पर एकाधिपत्य था। इन्होंने अपने जीवनकाल में विविध विषयों पर अनेकों ग्रन्थों की रचनाएँ की थी, किन्तु दैव दुर्विपाक से बहुत से अमूल्य ग्रन्थ नष्ट हो गए। इस समय इनके केवल ४३ ग्रन्थ ही प्राप्त होते हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ जिनवल्लभगणी के जीवन की चरमोत्कर्ष कहानी से सम्बन्धित है। इन्होंने उपसम्पदा के बाद चैत्यवास का सक्रिय विरोध कर आमूलोच्छेदन करने का प्रयत्न किया और इस प्रयत्न में इनको पूर्ण सफलता भी प्राप्त हुई। ग्रन्थकर्त्ता ने इस लघुकाव्य में तत्कालीन चैत्यवासी आचार्यों की शिथिलता, उनकी उन्मार्गप्ररूपणा और सुविहितपथ प्रकाशक गुणीजनों के प्रति द्वेष इत्यादि का सुन्दर विश्लेषण किया है। इस काव्य में ४० पद्य संस्कृत भाषा में निबद्ध हैं। उनमें प्रथम श्लोक में श्री पार्श्वनाथ को नमस्कार कर 'पण्डितों को कुपथ त्याग करने का उपदेश दिया , यह काव्यग्रन्थ साधुकीर्तिगणिनिर्मित अवचूरि, लक्ष्मीसेनरचित टीका, हर्षराजविहित लघुवृत्ति और हिन्दी अनुवाद सहित वि.सं. २००८ में 'श्रीजिनदत्तसूरिज्ञान भण्डार, सूरत' से प्रकाशित हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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