Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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672/विविध विषय सम्बन्धी साहित्य
गया है। दूसरे पद्य में श्रोताओं की योग्यता को दिखलाया है। ३-४ पद्य में उपमाओं द्वारा चैत्यवासियों को 'जिनोक्ति प्रत्यर्थी' सिद्ध किया है इसके साथ ही १. औद्देशिक भोजन, २. जिनगृह में निवास, ३. वसतिवास के प्रति मात्सर्य, ४. द्रव्यसंग्रह, ५. श्रावक भक्तों के प्रति ममत्त्व, ६. चैत्यस्वीकार, ७. गद्दी आदि का आसन, ८. सावध आचरणा, ६. सिद्धान्त मार्ग की अवज्ञा और १०. गुणियों के प्रति द्वेष इन दश द्वारों का उल्लेख किया है। ६ से ३३ पद्य पर्यन्त इन्हीं दश द्वारों का विशद वर्णन किया गया है। ३४-३५ वे पद्य में ग्रन्थ रचना का कारण बताया गया है। ३६-३७ वे पद्य में सुविहित साधु की आचार विधि का वर्णन कर उनकी प्रशंसा की है। ३८-३६-४० वे पद्य में भस्मग्रह रूप म्लेच्छ सैन्य की उपमा द्वारा चैत्यवासियों की कदर्थना करते हुए उपसंहार किया है।
इस कृति के संक्षिप्त वर्णन से अवगत होता है कि इसमें स्पष्टतः विधिविधान की कोई चर्चा उपलब्ध नहीं है किन्तु शिथिलाचार का सेवन करना, संयम विरुद्ध आचरण करना, जिन मन्दिरों में निवास करना. सर्वारम्भी श्रावकों का विनयाचार आदि करना, तीर्थकर परमात्मा की आज्ञा के विरुद्ध आचरण करना इत्यादि कृत्य न्यूनाधिक रूप से विधि-विधान के अन्तर्गत ही आते हैं। आचरण का अर्थ है- सम्यक् प्रवृत्ति करना। कोई भी प्रवृत्ति हो वह विधि अविधि रूप अवश्य होती है। अतः यह कृति सांकेतिक रूप से विधि-विधान की सूचना देती है।
__ऐसा उल्लेख है कि यह ग्रन्थ चित्तौड़ के महावीर जिनालय के एक स्तम्भ पर खुदवाया गया है। इसका ३८ वाँ पद्य षडरथचक्रबन्ध से विभूषित है। वस्तुतः यह सर्वप्रसिद्ध कृति है। टीकाएँ - इस लघु काव्यग्रन्थ पर भाष्य, वृत्ति, अवचूरि, बालावबोध आदि कई प्रकार का व्याख्या साहित्य लिखा गया है। वर्तमान में इस पर आठ वृत्तियाँ प्राप्त होती हैं। जिनपतिसूरि ने इस पर ३६०० श्लोक परिमाण एक बृहट्टीका लिखी है। इस टीका के आधार पर हंसराजगणि या हर्षराजगणि ने एक लघुवृत्ति रची है। श्री लक्ष्मीसेन ने वि.सं. १३३३ में ५०० श्लोक परिमाण एक लघुटीका लिखी है। इसके अतिरिक्त साधुकीर्ति ने भी एक टीका रची है।
इस पर तीन वृत्तियाँ भी उपलब्ध हैं, जिसमें से एक के कर्ता जिनवल्लभगणि के शिष्य है और दूसरी के कर्ता विवेकरत्नसूरि है। तीसरी अज्ञातकर्तृक है। देवराज ने वि.सं. १७१५ में इस पर पंजिका भी लिखी है।
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