Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 699
________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/669 साधुजन प्रतिक्रमण में नहीं बोलते हैं, प्रतिक्रमण के अन्त में श्री पार्श्वनाथ और शक्रस्तव बोलकर कायोर्क्सग करते हैं, तिथि की वृद्धि होने पर प्रत्याख्यान, कल्याणक आदि तप प्रथम तिथि में करना चाहिए, मास की वृद्धि होने पर प्रथम मास का पहला पक्ष और द्वितीय मास का दूसरा पक्ष तपादि के लिए ग्रहण करना चाहिए, स्त्रियों को जिनपूजा नहीं करनी चाहिए, वाचनाचार्य-उपाध्याय-आचार्य को यथासंख्या एक-दो-तीन कंबल परिमाण आसन रखना चाहिए, एक युग में एक ही युगप्रधान होते हैं अनेक नहीं, चैत्र-आसोज महिने की सप्तमी, अष्टमी एवं नवमी तिथि के दिन किया गया तप तथा रजस्वला स्त्री के द्वारा किया गया तप आलोचना में नहीं गिना जाता है, संप्रतिकाल में श्रावक के द्वारा प्रतिमा रूप धर्म को स्वीकार करना अशक्य है, श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र (वंदित्तुसूत्र) के अंत में 'तस्सधमस्स केवलिपन्नतस्स' यह पद नहीं बोलते हैं, प्रतिदिन जिनमन्दिर में देववन्दन करना चाहिए इत्यादि। इस रचना सामाचारीशतक के पत्र क्रमांक १३६ आ से १४१ आ तक में उद्धृत की गई है। साधुचर्या तथा जिनपूजा का महत्त्व यह कृति दो भागों में विभक्त है। इस कृति' के दोनों भाग भिन्न-भिन्न विषयों से सम्बन्धित है। यह कृति मुनि चंपकसागर जी द्वारा संकलित की गई ज्ञात होती है। इस कृति का विषयानुक्रम कृति के नामानुसार न होकर विपरीत क्रम से है। इसके प्रथम भाग में जिनेश्वर परमात्मा की विधिपूर्वक पूजा करने का महत्त्व प्रतिपादित है। यह अधिकार संस्कृत श्लोकों में निबद्ध है। इसका गुजराती भाषान्तर भी उपलब्ध है। इसके प्रथम भाग में बाईस श्लोक हैं। उसमें धनसार, वीरवणिक और चंदगोपराजा इन तीन दृष्टान्तों से पूजाविधि के महत्त्व को उल्लेखित किया गया है। इसके साथ ही अष्टप्रकारी पूजा, पूजा का फल आदि भी वर्णित है। यह कृति अज्ञातकर्तृक है। इस कृति का दूसरा भाग 'साधुचर्या' से सम्बन्धित है। इस भाग में 'साधनियमकुलक" नामक प्रकरण दिया गया है। वह प्राकृत भाषा में है। उसमें कुल सैंतालीस गाथाएँ हैं। इस प्रकरण की प्रारम्भिक गाथा मंगलाचरण रूप एवं प्रयोजन रूप है। उसमें भगवान महावीर के चरणों में और स्वयं गुरु के चरणों में वन्दना की गई है। उसके साथ ही मोक्षमार्ग की आराधना के लिए दीक्षित हुई आत्माओं के लिए ' यह कृति 'श्री जैन सदाचार साहित्य समिति, पंचासर' से वि. सं. २०३१ में प्रकाशित हुई हैं। ' इस कुलक के कर्ता का नाम अज्ञात है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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