Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 697
________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 667 १. समवसरणदर्पण- यह कृति मेधावीन द्वारा रचित है तथा 'धर्मसंग्रह ' ग्रन्थ का ही एक अंश है। २. समवसरणपूजा - यह रचना वादिभसिंह की है। ये दिगम्बर परम्परा के आचार्य हैं, ३. समवसरणपूजा- यह कृति रत्नकीर्ति की है, ४. समवसरणपूजा - इस कृति के रचनाकार रूपचन्द्र है एवं यह संस्कृत में लिखी गई है, ५. समवसरण विभूति - यह कृति जिनसेन रचित आदिपुराण का एक विभाग ही है, ६. समवसरण स्त्रोत- यह ग्रन्थ महाख्य द्वारा रचित है और इसमें प्राकृत की ५२ गाथाएँ हैं, ७. समवसरणस्तोत्र - यह कृति विद्यादीपगणि ने रची है, ८. समवसरणस्तोत्र - यह रचना विष्णुसेन वैद्य की है। इस कृति में ६३ संस्कृत श्लोक हैं तथा यह रचना वि.सं. १९१६ में, ' माणकचंद दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला हीराबाग, मुंबई से प्रकाशित भी हुई है। सामाचारीशतकम् इसके कर्त्ता खरतरगच्छीय गणि समयसुन्दर है। यह कृति' मुख्य रूप से गद्य में है। इसका रचना काल विक्रम की १७ वीं शती है। इसमें सौ अधिकार कहे गये हैं और वे पाँच प्रकाशों में विभक्त हैं। इन प्रकाशों के अधिकारों की संख्या ३७, ११, १३, २७ और १२ हैं। इसके प्रारम्भ में मंगलाचरण एवं ग्रन्थ प्रयोजन रूप द श्लोक दिये गये हैं और अन्त में प्रशस्ति के रूप में तीन श्लोक हैं। इस ग्रन्थ के द्वारा खरतरगच्छीय सामाचारी सुस्पष्ट रूप से अवगत हो जाती है। इस ग्रन्थ की मुद्रित प्रति में अधिकार के अनुसार विषयानुक्रम दिया गया है। इस प्रकार प्रस्तुत कृति के सौ अधिकारों में जो विषय उल्लिखित हुए हैं उनमें से कुछ इस प्रकार हैं। 'करेमि भंते' के बाद ईर्यापथिकी क्रिया, पर्व के दिन पौषध का आचरण 7 प्रभु महावीरस्वामी के छः कल्याणक, श्री अभयदेवसूरि के गच्छ के रूप में खरतर का उल्लेख, ‘आयरिय - उवज्झाय' सूत्र श्रावकों के लिए पढ़ने का अधिकार, साधुओं के साथ साध्वियों के विहार का निषेध, द्विदल विचार, आयम्बिल में दो द्रव्य ग्रहण करने का अधिकार, श्रावकों के लिए पानी के आगार का निषेध, तरुण स्त्री को मूल प्रतिमा के पूजन का निषेध, श्रावकों को ग्यारह प्रतिमा वहन करने का निषेध, अनेक उपवास का प्रत्याख्यान एक साथ ग्रहण करने का निषेध, सामायिक में तीन बार दण्डक उच्चरने का विधान, जातक मृतक एवं सूतक के घर का भोजन निषेध, श्रावण भाद्रमास की वृद्धि होने पर भी ५० वें दिन में पर्युषणा करने का विधान, पौषध के मध्य में उपधान के बिना भोजन करने का , यह ग्रन्थ 'श्री जिनदत्तसूरि ज्ञान भंडार, मुंबई' से सन् १६३६ में प्रकाशित हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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