Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 695
________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/665 भाषा के २५६ पद्यों में निबद्ध है। इसका रचनाकाल विक्रम की आठवीं शती है। यह रचना सोलह प्रकरणों में विभाजित है और प्रत्येक प्रकरण में सोलह-सोलह श्लोक हैं। इनमें छठा, सातवाँ, आठवाँ, नौवाँ, बारहवाँ प्रकरण विधि-विधान से सम्बन्धित है। छठे प्रकरण में जिनमंदिर बंधवाने वाला अधिकारी कैसा होना चाहिए, जिनमन्दिर के लिए भूमि कैसी होनी चाहिए, काष्टादि की सामग्री कैसी होनी चाहिए, जिनालय निर्माण की सामग्री लाने वाले कैसे होने चाहिए इत्यादि का सम्यक् विवेचन है। इसके साथ ही जिनालय निर्माण की विधि, जिनालय उपयोगी काष्ट विशेष लाने की विधि, शिल्पी-कारीगरों से काम करवाने की विधि आदि का भी उल्लेख किया गया है। सातवाँ प्रकरण 'जिनबिंबविधि' से सम्बन्धित है। इसमें जिनबिंब भरवाने के कारणों का, शिल्पी के मनोरथों को पूरा करने का एवं बिंबनिर्माण के समय चित्त की भावनाएँ शुभ रखने आदि का वर्णन है। आठवाँ प्रकरण 'प्रतिष्ठाविधि' का विवेचन करता है। इसमें तीन प्रकार की प्रतिष्ठा विधि का, पूजा संपादन सम्बन्धी शंका- समाधान का, 'निज भावना ही श्रेष्ट प्रतिष्ठा है' इस संबंधी विचारणा का एवं प्रतिष्ठा संबंधी भावना विशेष का तात्विक और मार्मिक वर्णन हुआ है। नौवें प्रकरण में पूजाविधि का वर्णन है। इसमें पूजा का स्वरूप, तीन प्रकार की पूजा, पूजा करने की विधि पूजा में हिंसा मानने वालों की शंकाओं के समाधान का प्रतिपादन हुआ है। बारहवें प्रकरण में दीक्षाधिकार की चर्चा करते हुए दीक्षापद की निरुक्ति का, दीक्षा के अर्थ का और नाम-न्यास की महत्ता का वर्णन किया गया है। इसमें मार्मिक बात यह कही गई है कि 'नूतन नामकरण करना यही दीक्षा है।' उक्त विवरण से यह ज्ञात होता हैं कि हरिभद्रसूरि के समय पूजा-विधान का उत्तरोत्तर विकास हुआ। जिनबिंब-निर्माण विधि का प्राचीन रूप भी यहाँ देखने को मिलता है। निःसन्देह आगमग्रन्थों के पश्चात् विधि-विधान सम्बन्धी प्रारम्भिक चर्चा सर्वप्रथम हरिभद्रसूरि के ग्रन्थों में दृष्टिगत होती है। टीकाएँ - इस गन्थ पर श्री यशोभद्रसूरिकृत 'सुगमार्थकल्पना' नामक टीका है। महोपाध्याय श्री यशोविजयगणि विरचित 'योगदीपिका' नामक टीका है। उपाध्याय श्री धर्मसागरगणि कृत एक टीका है। एक टीका अज्ञातकर्तृक है। अभी मुनिपुंगव पन्यास श्री यशोविजयजी ने 'कल्याणकन्दली' नामक टीका और 'रतिदायिनी' नामक गुजराती व्याख्या लिखी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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