Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 672
________________ 642/विविध विषय सम्बन्धी साहित्य कुल १५६ कारिकाएँ हैं। यह कृति विजयानंदसूरि की परम्परा के शान्तिविजयगणि के सुशिष्य श्रीमानविजयगणि' द्वारा रची गई है। यह रचना वि.सं. १७३१ की है। इस ग्रन्थ की पूर्णाहूति अक्षयतृतीया के दिन हुई थी, ऐसा ग्रन्थ प्रशस्ति में उल्लेख है। यह ग्रन्थ अपने नाम के अनुसार श्रावकधर्म एवं श्रमणधर्म सम्बन्धी कर्तव्यों तथा अनुष्ठानों का विवेचन करने वाला है। यद्यपि यह ग्रन्थ अर्वाचीन तीन शताब्दि पूर्व का है परन्तु विषयवस्तु की दृष्टि से यह प्राचीन सिद्ध होता है, क्योंकि लेखक ने विषयों का प्रतिपादन प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर किया है। इस ग्रन्थ की मूल कारिकाएँ १५६ ही है, किन्तु विषय निरूपण की शैली अनूठी है। । वस्तुतः यह ग्रन्थ मूलरूप से संक्षिप्त है किन्तु इसकी स्वोपज्ञ टीका अत्यन्त विस्तृत है और उसमें प्राचीन एवं आगमिक व्याख्या साहित्य के अनेक सन्दर्भ दिये गये हैं। सत्यतः इस ग्रन्थ का जो महत्त्व है वह इसकी स्वोपज्ञ टीका के कारण ही है। इस स्वोपज्ञ टीका की अनेक विशेषताएँ हैं - १. इसमें प्राचीन आगमों एवं आगमिक व्याख्याओं अर्थात निर्युक्ति भाष्य आदि से अनेक गाथाएँ उद्धृत की गई है। २. इस स्वोपज्ञ टीका में निश्चयनय-व्यवहारनय की अपेक्षा से विवेच्य विषयों का सम्यक् समाधान प्रस्तुत किया गया है। ३. प्रस्तुत ग्रन्थ में उत्सर्ग एवं अपवाद मार्ग की चर्चा करते हुए वे साधना के क्षेत्र में किस प्रकार एक दूसरे के सम्पूरक है यह बताया है। ४. प्रस्तुत स्वोपज्ञ व्याख्या अपने विवेच्य विषय को द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव और व्यक्ति (पुरुष) आदि अनेक अपेक्षाओं से प्रस्तुत करती है और इस प्रकार विषय को स्पष्ट बना देती है। ५. प्रस्तुत ग्रन्थ की स्वोपज्ञ टीका में आगमों और आगमिक व्याख्याओं तथा प्राचीन आचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थों के जो सन्दर्भ दिये गये हैं उससे टीकाकार की बहुश्रुतता स्वतः सिद्ध हो जाती है। ६. प्रस्तुत स्वोपज्ञ टीका में रचनाकार ने अपने मन्तव्य की पुष्टि हेतु जो आगमिक आदि सन्दर्भ दिये हैं वे उसके बाद वे ही दो विभा., तीन विभाों में 'श्री जिन शासन आराधना ट्रस्ट' मुंबई-२ से वि.सं. २०४० तथा २०४३ में छपे हैं। • तदनन्तर वे ही तीनों भा. गणिफ्यविजयजी द्वारा हिन्दी भाषा में अनुवादित होकर . 'श्री निर्ग्रन्थ साहित्य प्रकाशन संघ, हस्तिनापुर' से सन् १९६४ में प्रकाशित हुये हैं। 'इन्हीं ग्रन्थकार के समान नाम वाले अन्य बहुत से ग्रन्थकार हुए हैं। तपागच्छ में पाँच तथा खरतरगच्छ में दो का नामोल्लेख मिलता है। इसके उपरान्त एक नाम मानमुनि के नाम से प्राप्त होता है। 'धर्मसंग्रह' रचयिता के जन्म तथा स्वर्गवास की तिथि का उल्लेख नहीं मिलता है, लेकिन इतना निश्चित है कि अहमदाबाद के प्रसिद्ध सेठ श्री जवेरी शान्तिदासजी की प्रार्थना से उन्होंने यह अद्भुत ग्रन्थ रचा था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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