Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 671
________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/641 लगे दोषों से निवृत्त होने के लिए दैवसिक प्रतिक्रमण करते हैं। तत्पश्चात् सामायिक करते हैं। अहर्निश की चर्यानुसार इस पुस्तक में क्रमशः सामायिकपाठ, स्वयम्भूस्तोत्र, ईर्यापथ- भक्ति, श्रावकप्रतिक्रमण-भक्तियाँ, मुनि प्रतिक्रमण से सम्बन्धित विधियाँ एवं सूत्र- स्तोत्रादि पाठ तथा अन्य उपयोगी स्तोत्रादि का संकलन किया गया है। इसलिए इसका नाम 'दिनचर्या' रखा है। देरासरनी विधि यह गुजरातीलिपि में निबद्ध एक संकलित कृति है।' इसका संकलन शिविर आयोजन एवं ज्ञानार्जन की दृष्टि से किया गया सूचित होता है। इसमें 'जिनदर्शन-पूजन विधि' का सविस्तार वर्णन हुआ है। ___ इस कृति में निम्नलिखित विषय प्रमुख रूप से चर्चित हुए हैं - श्री जिनबिम्ब के दर्शनपूजनादि का फल, पूजन करने का समय, पूजन में रखने योग्य विवेक, पाँच अभिगम, पूजा के लिए वस्त्र परिधान कैसा हो?, तीन निसीहि शब्द का प्रयोग कब-कैसे?, तीन प्रदक्षिणा क्यों?, पाँच कल्याणक के साथ अंग पूजा, नवांगी पूजा करते समय क्या चिन्तन करना चाहिए? अष्टप्रकारी पूजा करते समय की उत्तम भावनाएँ, अग्रपूजा, भावपूजा, स्नात्र के लिए जलादि की शुद्धि-अशुद्धि, पूजा में आवश्यक सात प्रकार की शुद्धि, प्रदक्षिणा के समय बोलने योग्य दोहे, पूजा में ध्यान रखने योग्य आवश्यक सूचनाएँ, जिनप्रतिमा का महत्त्व, जिन प्रतिमा की सिद्धि इत्यादि। इसमें जिन- मन्दिर और जिनशासन के ज्वलन्त प्रश्न भी उठाये गये हैं जो सचमुच पढ़ने योग्य एवं चिन्तन करने योग्य हैं। धर्मसंग्रह 'धर्मसंग्रह' नामक यह ग्रन्थ' संस्कृत पद्यों में निबद्ध है। इस कृति में ' यह 'श्री शासन सेवा समिति,' शा. भरतकुमार माणेकलाल शाह पालड़ी सुखीपुरा नवा शा.मं. रोड़ अहमदाबाद से प्रकाशित है। २ इस ग्रन्थ का प्रथम प्रकाशन 'जैनधर्म विद्या प्रसारक वर्ग' (पालीताणा) नामक संस्था द्वारा वि. सं. १६६० में 'धर्मसंग्रह' भा. प्रथम के रुप में प्रसिद्ध हुआ था। इस संस्करण में प्रस्तुत ग्रन्थ की २६ गाथाएँ, टीका और उसका गुजराती भाषान्तर छपा है। • इसके बाद यह ग्रन्थ सटीक दो विभा. में 'श्री देवचंद लालभाई पुस्तकोद्धार फण्ड' द्वारा अनुक्रम से वि.सं. १६७१ तथा १६७४ में प्रसिद्ध हुआ। इसका संशोधन पू. सागरानंद सूरी जी द्वारा किया गया है। इसके पश्चात् इसका सम्पूर्ण गुजराती अनुवाद करके दो विभागों में मुनि श्री भद्रंकर विजयजी ने वि.सं. २०१२ तथा २०१४ में छपवाया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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